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Saturday, July 29, 2023

किश्त -०१ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा सिंह जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा सिंह जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।

मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है। 

 अब और ना ज्यादा भूमिका बांधते हुए, सबसे पहले नजर डालते हैं  इसी खण्ड में सकलित श्रीमती सीमा सिंह जी की लघुकथाओं पर : 

                                                                         सीमा सिंह जी

...इन्हें तुम यों ही उड़ने दो, इन्हीं का आसमां भी है। ...काश! लोग समझ पाते कि अनावश्यक बंदिशों से न केवल नकारात्मक सोच का जन्म होता है अपितु कुंठा जैसी मानसिक बीमारी भी जन्म ले लेती है। लघुकथा 'तितलियों के रंग' में लेखिका ने बड़े ही करीने से समाज की पर्दा प्रथा पर करारा व्यंग किया है। सुंदरता प्राकृतिक उपहार है और इसे बिना फूहड़ किये युवा मन की आकांक्षाओं की तृप्ति सम्भव है। आखिर इसकी शुरुआत कौन करेगा? अच्छा हुआ कि इसे हरी झंडी देकर हिना और गुलाबो की माँ और दादी ने सुखद शुरुआत कर दी। समाज में सकारात्मक बदलाव की सुंदर शुरुआत पर सुंदर कथानक की अच्छी लघुकथा। सच में, तितलियाँ रंग-बिरंगी ही अच्छी लगती हैं।


'हे ईश्वर! या तो ये तेरा ही काम है या फिर यह तेरा बिल्कुल भी नहीं।' मुझे लगता है कि गृहणी को अगर माँ दुर्गा के सच्ची-मुच्ची भी आठों हाथ लगा दो तो भी कम पड़ जाएँ। वह 'औरत तेरी यही कहानी....'तो सबने पढ़ा या सुना तो होगा ही। बस, इसी सब का निरूपण है अगली लघुकथा 'भुलक्कड़' में। एक महिला क्या करे, क्या न करे? सारे घर की जिम्मेदारी और फिर भी कोई संतुष्ट नहीं। सास, ससुर, पति, बच्चे....सबकी देखभाल, फिर भी हाल उसी का बेहाल। 'भुलक्कड़' - सच में भुलक्कड़ ही तो है जिसे खुद की परवाह ही नहीं है और दूसरों को उसकी कोई कद्र ही नहीं है। लघुकथा को बहुत ही करीने से लिखा गया है। इसका कथानक पुराना होते हुए भी विषयवस्तु की प्रस्तुति बहुत सुंदर है।

अगली लघुकथा 'कर्मभूमि', 'भुलक्कड़' का ही जैसे अगला भाग है। एक पराये घर से आई लड़की का पति के घर में मुख्य किरदार में आना न केवल जिम्मेदारियों के कारण होता है अपितु उसके अपने परिवार के संस्कार भी होते हैं। कितना सुंदर वाक्य है, "आप लोग हो आइए, दीदी! प्लीज, मेरी वजह से प्रोग्राम खराब मत कीजिए। मेरे पति, सासू माँ और घर को मेरी जरूरत है।"

लघुकथा 'रंग' भी किसी नगीने से कम नहीं है। समाज सुधार घर से ही शुरू होता है और इसकी शुरुआत किसी न किसी को मजबूत निर्णय लेकर करने से ही होती है। भारतीय समाज में महिला का स्थान दुर्भाग्यवश पुरुष प्रधान देश में दूसरे दर्जे का ही रहा है। यह तब तो कोढ़ में खाज का काम करता है जब महिला विधवा हो। तब तो घर में उसकी स्थिति किसी गुलाम से भी बुरी हो जाती है जैसे उसकी अपनी कोई इच्छायें ही नहीं हैं। वह तो बस एक स्वचालित यंत्र की तरह हो जाती है। इस कथा में 'विधवा विवाह और उसे भी अपने जीवन को जीने का हक है' की सुंदर बानगी है। कथा में न केवल सुंदर संदेश है बल्कि लेखन की भी कमाल की जादूगरी है।


'बेटियाँ तो होती ही हैं पापा की परियाँ।' सच में इसी कहावत का चित्रांकन है अगली लघुकथा - 'ख्वाहिशों के छोर' में। इस कथा की खास बात है कि इसमें जहाँ एक पिता अपनी इकलौती बेटी की आशाओं, इच्छाओं को पूरा करके, कराने, करने पर खुश है,साथ ही समाज को यह संदेश भी है कि बेटी की इच्छाएँ भी होती हैं। कथा में पति-पत्नी के बेटी के कपड़ों को लेकर उसकी पसंद पर संवादों द्वारा अच्छी चुहल है जो कथा को आभासी से वास्तविक होने का भान कराती है। कथा के अंत में पिता के संवाद, 'ये बेकार पड़े कपड़े अगर मिष्ठी नहीं पहनना चाहती, तो महरी को दे दो।' ने शीर्षक को संबल दे दिया है जिसमें जहाँ मिष्ठी तो खुश है ही, महरी की आंखों में भी खुशी चमक उठी है।


लघुकथा ' ठहरा हुआ दुःख' का कथानक सीमा जैन जी की लघुकथा 'उड़ान' से ही मेल खाता हुआ है लेकिन प्रस्तुति भिन्न है। इसमें न केवल बेटी के बाप, माँ, उसकी दादी, स्वयं बेटी अपितु बेटी की बुआ के अंदर कहीं न कहीं दशकों पहले के दबे हुए दुःख का सुखद अंत हुआ है। यह 'बेटी पढ़ाओ' के नारे को बलवती करती सुंदर रचना बन पड़ी है।

वैसे तो माँ-बाप होते ही बच्चों की 'तरक्की की सीढ़ी' हैं लेकिन जिस तरह से इस कथा में बेटे ने माँ का उपयोग अपनी तरक्की के लिए किया है, वह आज की पीढी की सोच को अवलोकन करने की जरूरत पर ध्यान आकर्षित करती है। कथानक अपनी जगह है लेकिन कथा को लेखिका ने जिस तरह से घर में पड़ी सीढ़ी को माँ के चरित्र के समानांतर प्रयोग कर अपने लेखन कौशल का परिचय दिया है, वह काबिले तारीफ है। वैसे तो लोग गधे को भी बाप बनाते हैं लेकिन इस कथा में माँ को अपने फायदे के लिए उपयोग करना चिंतन का विषय है।

एक और कुरीति पर तमाचा मारा है लघुकथा 'मायका' ने और यह कुरीति है - दहेज प्रथा। दहेज का दंश कितने ही माँ-बाप के सपनों को खाक कर देते हैं। हालाँकि यह समीक्षक की सोच नहीं है लेकिन भारत में बेटों की चाह के लिए एक प्रमुख कारण दहेज प्रथा भी है जिससे बचने के लिए लोग चाहते हैं कि वे बिना बेटियों के ही ठीक हैं। दहेज एक मध्यमवर्गीय परिवार की आर्थिक स्थिति को तोड़ देता है जिससे उसके आगे के भविष्य पर ही कुठाराघात हो जाता है। इस कथा में बड़े ही कुशलता से एक बेटी द्वारा उसके पिता द्वारा उनकी बेटियों की शादी के लिए प्लॉट बेचने की मार्मिक दास्तान है। सम्भव है कि समाज में ऐसी सोच को इस संदेश के माध्यम से वैचारिक मंथन के लिए फलक मिले। इस लघुकथा ने 'मायका' के अर्थ को बहुत गहरे अर्थों में परिभाषित किया है।

कुछ सुने-सुने से पढ़े-पढ़े एहसास मिले हैं,
सुनो, सूखे पत्ते फिर से पास-पास मिले हैं।  

...ऐसी ही कथा है 'पुनर्नवा' की। पुनर्नवा, एक औषधीय वनस्पति। दबे हुए एहसास कब मुखर हो जाएँ और अपना ऐसा असर कर जाएँ कि फिर किसी और नशे की जरूरत ही न रहे। अपनों को खो कर शराब की लत में उन्हें भूलने की जुगत कर रहे मदन के लिए जैसे एकाकीपन दूर हो गया हो। उस अजनबी लड़के ने मदन के हृदय में  संरक्षित परिवार वाले सारे प्यार को अपनी ओर समेट लिया है। ...और मदन को भी जैसे कोई औषधि मिल गई हो। जज्बातों के मनोविज्ञान की अच्छी प्रस्तुति है इस कथा में।

कहते हैं जोड़ियाँ ऊपर बनती हैं। अगर इस बात में जरा सी भी सच्चाई है तो फिर आये दिन बहुएँ जलाई नहीं जाती या फिर उन्हें ससुराल पक्ष के उत्पीड़न से आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। 'मायका' के बाद यह सीमा सिंह जी की दूसरी लघुकथा है 'दूध का जला' जिसमें दहेज प्रथा नाम की बुराई को समाज की एक समस्या की तरह उठाया गया है। यह सच भी है कि जब एकबार कोई बाप अपनी बेटी दहेज लोभियों की भेंट चढ़ा चुका है तो ऐसे में फिर उसे दोहराने की क्या जरूरत है? इस कथा में एक और खास संदेश है कि लोभी लोगों से बचने की बहुत जरूरत है क्योंकि उनकी लालची भूख चाँद की चाह में ज्वारभाटे की तरह बढ़ती और उछलती ही रहती है। यहाँ गरीब या अमीर का सवाल नहीं है। सवाल यह है कि यदि आप सक्षम हैं तो भी उनको दहेज कभी न दें जो लोभी, लम्पट हों क्योंकि उनकी क्षुदा शांत होगी नहीं और आप देते-देते तक कर हार जाएँगे।

विलियम शेक्सपियर ने कहा था, 'नाम में क्या रखा है?' वैसे भी हम नाम तो सुंदर रखते हैं लेकिन ज्यादातर मसलों में नाम के अनुसार व्यक्ति का आचरण नहीं होता है। ऐसे विरले लोग ही पाए जाते हैं जिनका आचरण उनके नाम के अनुरूप हो। हालाँकि इस कथा के शीर्षक के अनुसार तो नाम और उसकी सीधी शाब्दिक परिभाषा ही केंद्र में है लेकिन कई बार शब्दों के छिछले अर्थ, अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। जैसे इसी कथा में दादी ने जब भावी बहू के बारे में यह जाना कि उसका नाम तो अन्नपूर्णा है लेकिन पाक कला में हाथ साफ नहीं है तो उलाहना ही दे दिया कि यह तो नाम की परिभाषा बदलने जैसा ही हुआ। ...लेकिन यहाँ पर दादी ने केवल अन्नपूर्णा का अर्थ पाक कला तक ही सीमित रखा। जबकि हकीकत यह है कि जो पढ़-लिखकर अच्छे अंकों के साथ इंजीनियर बन गई है क्या वह उदरपूर्ति के लिए किसी अन्नपूर्णा से कम है? भोजन तो सेवादार भी समय से उपलब्ध करा सकते हैं यदि आप सक्षम हैं उनकी सेवाओं को लेने के लिए। लघुकथा 'अन्नपूर्णा' में भी 'बेटी पढ़ाओ' के संदेश को मुखरता दी गई है जिसके लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं। 

सीमा सिंह जी की लघुकथाओं में बहुत ताजगी है, नयापन है। विषय भले ही रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हों लेकिन उन्हें चित्रित करने की कला में अनोखी धार है। उनकी कथाओं में नारी-पीड़ा बहुत मुखर होकर झलकती है। संभवतः यह पहली बार हुआ जब मैं  (समीक्षक)  'भुलक्कड़' और 'मायका' जैसी लघुकथाओं को पढ़कर रो दिया।

डॉ रजनीश दीक्षित