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Tuesday, August 13, 2019

पुण्यतिथि पर स्मरण : अमृतराय जी

वही लिखो जो तुमने जिया है और जो नया लिखना है उसको पहले जियो।
 - अमृतराय
(स्रोत - लघुकथा कलश, द्वितीय महाविशेषांक)
  
1921 में बनारस में जन्मे और 14 अगस्त 1996 को इलाहबाद में स्वर्गवासी हुए अमृतराय जी को साहित्य जगत में शायद ही कोई होगा जो उनके लेखन कौशल्य से परिचित न होगा और उनके लेखन का मुरीद न होगा। उपन्यासकार, निबन्धकार, समीक्षक, अनुवादक और कहानीकार अमृतराय जी की कल पुण्यतिथि है। हरदिल अजीज मुंशी प्रेमचंद जी के सुपुत्र अमृतराय जी को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन और श्रद्धांजलियाँ।
     

अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन जैसा ही कुछ मैं 2014 के चुनाव के समय से ढूंढ़ रहा था। मुझे इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि इस तरह का किसी ने कहा या लिखा नहीं होगा। यह मेरी अपनी अनुभूति थी कि इस तरह ही लेखन होना चाहिए। .... दरअसल मुझे इस तरह के कथन और उसके अनुपालन की कमी उस समय महसूस हुई जब कुछ नामी-गिरामी अभिनेताओं, लेखकों आदि ने एक शब्द को इतना उछाला कि उससे उनके चेहरे पर चढ़ी नकली परत उतर गई। नीले सियार का रंग पहली ही बारिश में उतर गया। असल में जिन लेखकों और कलाकारों ने अपनी कृतियों और भावनात्मक अभिनय के कारण आम जनमानस में जो अपनी छवि बनायी थी वह चुनाव आते ही धुल गई। लोगों को लगता था कि जो साहित्य उन्होंने लिखा है या जो किरदार उन्होंने फिल्मों आदि में जिया है वह तो उनका क्षद्म लेखन और केवल अभिनय मात्र था। उस समय तक असहिष्णुता शब्द के बारे में केवल साहित्य क्षेत्र से जुड़े लोग ही ज्यादा परिचित थे। इस शब्द को आम किया नकली चोले वालों ने। समय गवाह है कि कितने लोगों ने गन्दी राजनीति से प्रेरित इन लेखकों, पत्रकारों और अभिनेताओं को अपनी नजर से उनके दोहरे चरित्र के कारण गिरा दिया। उनके सम्मान वापसी जैसे क्रिया-कलापों से स्पष्ट हो गया कि उनका यह कार्य किस उद्देश्य के तहत किया गया होगा। 

पिछले दिनों सिनेमा और पत्रकारिता जगत में  #मीटू अभियान के तहत जिनके चरित्र उजागर हुए, उनमें भी वस्तुतः वही दोहरे चेहरे वाले ही निकलकर बाहर आये। आध्यात्म जगत भी इससे बचा नहीं रहा। कितने तथाकथित समाज सुधारक, प्रचारक, प्रवचनकर्ता जिनके मुख से सतत ईश्वरीय वाणी ही निकलती थी, उनके चरित्र के काले चिट्ठे भी खूब खुले।   

मुझे लगता है कि इस तरह का आचरण रखने वाले लेखक, कवि, शायर, पत्रकार, अभिनेता या आध्यात्मिक लोग बहुत ही कम हैं जिन्होंने जो लिखा है, जो कहा है या जो अभिनय किया है, उसे जिया है या जो लिख दिया है उसे जीने वाले हैं। अधिकतर तो वह लिखते या करते हैं जो आदर्श रूप में होना चाहिए। उनका इसके अनुपालन से कोई लेना नहीं है। 

उपर्युक्त कथन से गंभीर और संवेदनशील लोगों को जरूर आत्ममंथन के लिए इशारा मिल गया होगा। जरूर अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन अनुपालन से समाज में सकारात्मक कदम की शुरुआत बड़े स्तर पर की जा सकती है। यहाँ पर मैं खलनायकों को उनके अभिनय और असल जिंदगी में चरित्र को इस लेख में अपवाद की तरह लेता हूँ। 

कृपया इस लेख के मंतव्य पर जायें। आपकी किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया का स्वागत है।         

Friday, August 9, 2019

ये जो मेरी हिन्दी है....


काफी दिनों से मेरे साहित्यिक क्रिया-कलापों को देखते रहने के बाद, कल किसी ने मुझसे पूछा, "I think, you like Hindi very much."

मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे पता नहीं कि बांछें कहाँ होती हैं, लेकिन खिल गईं। 

मेरा जबाब था, "मैं हिन्दी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खेला हूँ, मैं हिन्दी में रोया हूँ, मैं हिन्दी में हँसा हूँ, मैं हिन्दी में नाराज हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खुश हुआ हूँ। मैं हिन्दी में प्यार करता हूँ, मैं हिन्दी में शिकायत करता हूँ, मैं हिन्दी के अलावा यदि किसी और भाषा में भी जबाब देता हूँ तो उससे पहले मैं हिन्दी में सोचता हूँ। कुल मिलाकर, मैं हिन्दी में सना हुआ हूँ।

... और तो और, मैं दिन भर की मेहनत के बाद अपनी हिन्दी की गोद और उसके आलिंगन में सो जाता हूँ। (...और यह कहते-कहते मेरी आँखों की कोरों पर उभर आयी भावनाओं को शायद उन्होंने महसूस किया। मैंने उन्हें छलकने से रोका भी नहीं।) 

....कुछ क्षणों के विराम के बाद, मैंने फिर कहना शुरू किया, "हिन्दी मेरी माँ है और संस्कृत को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाएँ मेरी मौषियां हैं। दरअसल, संस्कृत मेरी दादी माँ है।"

पता नहीं, उन्हें मेरी बात कितनी समझ में आयी? 

फिर उन्होंने टकले पर खुजलाते हुए पूछा, "What about English?" 

Hey, She is my Aunty.  I replied.

Saturday, August 3, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -1)

लघुकथा - बछड़ू
लेखक - मृणाल आशुतोष जी 

विछोह किन्हीं के बीच का भी हो, बहुत दुखदायी होता है। इसमें भावनाओं को चोट पहुँचती है, संवेदनायें क्रंदन करती हैं और कभी-कभी स्थितियाँ इतनी विषम होती हैं कि सिर्फ अफ़सोस करने के सिवा कुछ नहीं रह जाता है। हमारे शास्त्रों में इसे लगाव, मोह या आसक्ति कहा गया है। वैसे यह मोह अगर मानवीय संबंधों से इतर हो तो लोग संयत और संयमित रह भी सकते हैं लेकिन अपनों का जुदा होना अक्सर बहुत कष्टकारी होता है। इससे पहले कि मैं प्रस्तुत कथा में गहरा उतरूं, मुझे एक वाक्या याद आ गया। मैं तब छोटा था, शायद कक्षा पाँच में पढ़ता था। एक दिन मेरी साईकिल मेरा एक दोस्त लेकर गया था और शाम को बारिश होने की वजह से वह वापस करने नहीं आ सका था। मुझे आज भी याद है कि मैं उस रात बहुत असहज रहा था। मुझे यही चिंता सता रही थी कि पता नहीं मेरे दोस्त ने साईकिल को संभाल कर रखा होगा कि नहीं, कहीं बारिश में भीग न रही हो, आदि, आदि। मुझे नहीं पता कि वह आसक्ति थी कि कुछ और लेकिन मन में कहीं उसके अलगाव का दंश तो था ही। मुझे यह भी याद है कि मेरा जो दर्द था वह कीमती साईकिल के लिए नहीं था। मैं कहीं उस साईकिल के अलग होने को एक मित्र के वियोग की तरह महसूस कर रहा था। खैर...कुछ बातें सिर्फ महसूस की जाती हैं, उनका वर्णन करना आसान नहीं होता।
इस कथा में दो सामान घटनाओं को तुलनात्मक तरीके से संबंधों की धुरी पर तौला गया है जिससे यह सहज रूप से प्रतीत होता है कि चाहे इंसान हो या कोई जानवर, प्रकृति ने संवेदनाएं सभी को सामान रूप से दी हैं। कहते भी हैं कि आप किसी की वेदना को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि वह आपके साथ घटित न हो। जाके पाँव न फटी बिंवाई, सो का जाने पीर पराई।
संबंधों को महसूस करने और उन्हें निभाने की बात जब भी आती है तो माँ के प्रेम को सर्वोपरि रखा जाता है। और यह सच भी है क्योंकि माँ का प्रेम निश्वार्थ होता है। और जब एक माँ के कष्ट की बात हो तो उसे कोई माँ ही असली रूप में समझ सकती है।
...."गनेशिया ने अपना बछड़ू बेच दिया।" मुझे लगता है इस वाक्य को कहते-कहते अनिता का गला भर आया होगा। बात ही ऐसी है। पति-पत्नी की हलकी-फुलकी चुहल से शुरू हुई बात ने इस वाक्य के आटे-आते गंभीर मोड़ ले लिया था। विमल के इस तार्किक उत्तर से "कि लो, इसमें परेशान होने की क्या बात है? उसे तो बेचना ही था" ने अनिता को और भी मौका दे दिया कि, " आखिर, तुम्हें गाय का दर्द दिखा ही नहीं, न? गाय अपने बछड़े के वियोग में परेशान है और ठीक से दो मिनट के लिए भी नहीं बैठी है।" मंतव्य तो अनिता का शायद यही रहा होगा कि.... आखिर तुम मर्द जो ठहरे। तुम्हें यह सब कहाँ पता चलेगा? लेकिन मर्दों का अपना अलग तरीका होता है सोचने का, जताने का। अक्सर भाइयों और बापों को बहन/बेटी की डोली उठने के बाद, माँ/पत्नी को हँस-हँस कर ढांढस बँधाते देखा गया है और अकेले में उन्हें दहाड़ें मारकर रोते। वे दुनिया को, अपने आप को तर्कों से समझा लेते हैं। लेकिन पत्थर दिल वह भी नहीं होते हैं। उन्हें तो जैसे यह सब नियति का तय किया हुआ लगता है। तो, यहाँ विमल और क्या तर्क देता? मिलान कर दिया उस घटना से कि "यह तो होता ही है। उसने अपने ही बेटे सौरभ का उदाहरण दे डाला जो जर्मनी में जाकर बस गया था और अब कौन माँ-बाप और कौन अपने? उसे लग रहा था कि यहाँ आज गनेशिया ने अपने बछड़ू का सौदा किया है और पाँच साल पहले उन्होंने अपने सौरभ का सौदा कुछ बीस लाख रूपये और एक गाडी में कर दिया था।
...वैसे तो किसान बहुत दयालु प्रवत्ति का होता है लेकिन कहावत है कि घोड़ा अगर घास से यारी करेगा तो खायेगा, क्या? आखिर बछड़े को खूंटे पर कब तक बांध कर खिलायेगा? अब तो वह ज़माना भी नहीं रहा जब हर घर के बाड़े में बैलों की जोड़ी शोभा बढाती थी। लड़की वाले जब लड़का देखने आते थे तो घर के बड़े लोग रौब से अपने बैलों की जोड़ी दिखाते हुए फख्र महसूस करते थे। बाड़े में जबतक 10-15 जानवरों की रेलम-पेल न हो तबतक रौनक ही नहीं बनती थी। इसके लिए लोग सुबह से ही चारा काटने वाली मशीन पर लग जाते थे और चारे के कटने की लयबद्ध "खच-पच, खच-पच" की आवाज किसी सरगम से कम नहीं लगती थी। जानवरों और उनके बच्चों के गले में बंधी घंटियों से 'टुन-टुन' की आवाज जैसे बता देती थी कि बाड़े में सब ठीक है और तभी बड़े मजीरे सी तेज आवाज यह भी बता देती थी कि युवा होते बछड़ुओं में किसी बात पर अनबन सी है शायद। थोड़ी देर में कभी गाय-भैंस के रंभाने से यह भी पता चल जाता था कि उसकी नाद में सानी (चारा) अब ख़त्म होने को है।
... लेकिन अब जमाना बदल चुका है। खेती करने के तरीके बदले, आवागमन के संसाधन बदले। अब ट्रैक्टर से जुताई और मोटर-कारों, स्कूटर-मोटरसाइकिल से आवागमन आम हो गया है। अब बैलगाड़ियों का ज़माना गया। और जब खेती में पैदावार भी घटने लगी है तो फिर इन जानवरों की रखवाली कैसे हो पाये? अत: पहले जो कहावत बकरी के बच्चे के लिए (कि बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी) प्रयोग की जा रही थी, अब आप किसी भी जानवर के लिए और जानवर के लिए ही क्यों, किसी के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं।
मृणाल जी की यह रचना काफी बार पढ़ने को मिली। इसे कई प्रकाशकों/ सम्पादकों ने अपनी पत्रिका/ पुस्तकों में स्थान दिया। अगर इस रचना को मैं मृणाल जी की हस्ताक्षर रचना कहूँ तो शायद गलत न होगा। प्रस्तुत कथा का कथानक तो अच्छा है ही शिल्प और कथ्य भी अच्छे बन पड़े हैं। कथा में संवाद शैली भी सुंदर है। पति-पत्नी के बीच सहज बिहार की बोली का क्षेत्रीय पुट लिए संवाद अच्छे लगते हैं। कुछ शब्द जैसे खुट्टा, गनेशिया, सौगंध ने गाँव के भीने परिवेश की याद दिला दी है। रचना के शीर्षक "बछड़ू" ने इसे कहने के तरीके से और भी लगाव वाला बना दिया। वैसे इसे बछड़ा कहा जाता है लेकिन "बछड़ू" यानी लाड़ वाला नाम।
रचना के अंत में एक अंदेशा रह जाता है कि विमल ने जब सौरभ के सौदे की बात कही तो पाठक को स्पष्ट नहीं होता है कि यह बीस लाख और एक गाड़ी की कीमत उसके ससुराल वालों को दी कीमत (दहेज़) है या फिर उसे जर्मनी में काम देने वाली कम्पनी के वेतन और भत्ते को कहा गया है। खैर...यह स्पष्ट न होने के बाद भी रचना की सुंदरता पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा है।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

Friday, August 2, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)

पुस्तक - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)
प्रकाशक - व्हाइट फाल्कोन पब्लिशिंग 
कीमत - ₹ 199/- (अमेजन पर 25% रियायत पर रु. 150/-में उपलब्ध)
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....आशीष दलाल, नाम तो सुना होगा। जी, यही है नाम 'उसके हिस्से का प्यार' के लेखक का। आशीष दलाल जी (संपर्क - +91 9712748824) का यह प्रथम कहानी संग्रह है। 129 पेज के इस कहानी- संग्रह में आशीष जी ने कहानियों के 17 मोतियों को पिरोया है जो एक से बढ़कर एक चमक रखते हैं। इसकी भूमिका कहानी लेखन महाविद्यालय, अम्बाला की निदेशक और मासिक पत्रिका शुभ तारिका की सम्पादक आदरणीया श्रीमती उर्मि कृष्ण जी ने लिखी है।
संग्रह में लिखी हर कहानी घर-घर की कहानी सी प्रतीत होती है। आजकल समाज में व्याप्त घटनाओं को आशीष जी ने अपनी कलम से रोचक बनाते हुए कहानियों का रूप दिया है। इन कहानियों में घर-परिवार, समाज, उससे जुड़े लोग, उनके आपसी सम्बन्ध और उन समबन्धों में व्याप्त प्रेम, द्वेष, आत्मीयता, घृणा, दया आदि भावनाओं के समीकरणों को बड़ी रोचकता से पाठकों तक पहुँचाया है।

जहाँ, पुस्तक का शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है, वहीं कहानियों के शीर्षक भी पाठकों को कहानियां पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 17 कहानियों में से एक कहानी का शीर्षक ही 'उसके हिस्से का प्यार' है। अन्य शीर्षकों में - एक रात की मुलाकात, लव मैरिज, अग्नि परीक्षा, देवकी, अपना, बेटा, दूसरा पुरुष, वापसी, दूसरा मौका, अंतिम संस्कार, फैसला, दर, जीवनदान, कर्ज, सम्बन्ध, तुम्हारा हिस्सा, और वजूद जैसे आकर्षक और प्रभावशाली शीर्षक पुस्तक को वजनी बनाते हैं। पुस्तक का आवरण पृष्ठ बहुत ही मनोहारी है जो कि इसके शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' से गलबहियां करता सा लगता है। शीर्षक और आवरण पृष्ठ एक-दूसरे के पूरक हैं। पुस्तक की छपाई और आकार भी बहुत सुन्दर हैं। जहाँ इतनी सारी खूबियाँ हैं वहीं पुस्तक में कहीं-कहीं वर्तनी की अशुद्धियाँ भी हैं जिसे प्रकाशक को ध्यान में रखना चाहिए था।
आशीष जी को उनकी इस पुस्तक के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। 
इच्छुक पाठक, लेखक, मित्र इस पुस्तक को निम्नलिखित लिंक से प्राप्त कर सकते हैं।


एक पाठक की प्रतिक्रिया

चार दिन पहले......यही कोई देर शाम, आठ बजे का समय। फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर नजर गई तो देखा... +9122xxxxxxxx मुम्बई का नम्बर।
हेलो...

केन आई टॉक टू मिस्टर दीक्षित?
यस, यू आर टॉकिंग टू रजनीश दीक्षित।

सर, आप दिसंबर के पहले हफ्ते मुम्बई आये थे और हमारे होटल में रुके थे।
जी, हाँ। बताइये, क्या हुआ?

सर, हुआ कुछ नहीं। वो आपकी एक किताब रह गयी है यहाँ, "उसके हिस्से का प्यार"।
क्या??, वो किताब आपके पास है? लेकिन अब तो एक महीने से ज्यादा हो रहा है और आप अब बता रहे हैं? मैं तो परेशान था कि कहाँ गुम हुई?

सॉरी सर, वो मैंने पढ़ने के लिये रख ली थी। आज ही पढ़कर खत्म की। बहुत अच्छी कहानियां हैं, सर। सोचा, अब आपको लौटा दूँ।
ठीक है। आप भेज दीजिये। मैं कोरियर खर्च दे दूँगा।

सर। मैं भेज देता हूँ, कोरियर से। आपका पता वही है न, जो रजिस्टर में लिखवाया था।
हाँ, वही है। ठीक है जल्दी भेजना। धन्यवाद।

...... और यह पुस्तक दो दिन पहले ही दुबारा प्राप्त हुई।
** ** ** ** तो, अब शायद आपको पता चल ही गया होगा कि "उसके हिस्से के प्यार" की समीक्षा में आखिर इतनी देर क्यों लगी? मैंने यह किताब डेढ़ बार पढ़ी है। मतलब आधी पहले और फिर पूरी अब।......आखिर कहांनियाँ अच्छी जो इतनी हैं और इसकी समीक्षा भी लिखनी बाकी थी।