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Wednesday, September 11, 2019

लघुकथा_कलश_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक - संपादकीय

"जोगी जी धीरे-धीरे"
"चुनौती, मेरे जुनून की भट्ठी का ईंधन है"
..और कुछ? क्या अब भी है कोई उत्साह बढ़ाने वाली पुस्तक की जरूरत? इस ध्येय वाक्य में ही समस्त ऊर्जाओं को क्रियान्वित करने की क्षमता है। और यह नवोदितों के लिए नई ऊर्जा का संचार करने में बहुत सहायक है। यह वाक्य मेरा नहीं है। यह मुझे #लघुकथा_कलश के ताजातरीन #रचना_प्रक्रिया महाविशेषांक के संपादकीय से मिला जिसे लिखा है श्री योगराज प्रभाकर जी ने।
जैसा कि संपादकीय में लिखा है कि इसका उद्देश्य वरिष्ठों से ज्यादा नवोदितों की रचना-प्रक्रिया जानने और हौसला बढ़ाने का था, निश्चित रूप से यह एक प्रकार का शोध है जिससे यह पता चल सके कि आजकल की लघुकथायें किन-किन परिदृश्यों की परिणति हैं। इससे न केवल रचनाओं के नैपथ्य में चल रहे विचारों का पता चलता है बल्कि यह भी जाना जा सकता है कि आज का लेखक किन बातों से ज्यादा प्रभावित होता है ओर उन्हें अपनी रचनाओं में किस तरह पिरोता है। संपादक जी की नवोदितों के प्रति सोच, संकल्प और लघुकथा के प्रति समर्पण न केवल सराहनीय है अपितु अनुकरणीय भी है। आशा है, मठाधीशों के कान पर जूं रेंग सके।
दिल दिआँ गल्लाँ - जी हाँ, यही है इस संपादकीय का शीर्षक। उनके एक आवाहन और उस पर लेखकों की रचनाओं का प्रचुर मात्रा में प्राप्त होने के बीच जो अपनत्व की कड़ी बनी उसके मुताबिक यह शीर्षक एकदम सटीक बैठता है। जब लेखक-संपादक राजी तो क्या करेगा काजी? लेकिन हनुमान जी ने क्या सोचा था? सीधे समंदर के इस पार से उड़ेंगे और पहुँच गये लंका? हालांकि उनके श्री राम और स्वयं में दृढ़विश्वास से उनके कार्य मे सफलता सुनिश्चित थी और उन्हें मिली भी लेकिन रास्ते में कदम-कदम पर मिलने वाली 'सुरसा' जैसी आपदाओं से निपटना भी जरूरी था। कहते हैं कि डर क्या चीज है, बस मन का वहम। और डर के आगे जीत है। इसी तरह के अन्य प्रपंचों के बारे में पढ़कर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि इसकी झलक आजकल सोशल मीडिया पर जबतब मिलती रहती है।
'अहं ब्रह्मास्मि' का झंडा उठाने वालों की समस्या ये है कि उन्हें अपना अस्तित्व बनाये रखना है, मठ की चिंता है और जय-जय करने वालों की भीड़ चाहिए। इसके लिए वे जबतब नवोदितों के अल्पज्ञान की माला जपते रहते हैं। इस पुनीत कार्य में कईबार तो गुत्थमगुत्था भी हुए और जो छवि बनाई थी वह भी धुल गई। कभी-कभी तो बस चर्चा में आने भर की चाहत ने उनकी अपनी भद्द करवाई। खैर...जो हुआ, अच्छा हुआ। अक्सर कै करने के बाद, आराम महसूस होता ही है।
यह सही है कि अधिकतर नवोदितों के मन मे लघुकथा छोटी-बड़ी-मझोल होती हुई अपने दोषों से मुक्त है लेकिन फिर भी मीनमेख वाले साधुसंतों का प्रादुर्भाव जबतब होता रहता है जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है।
नवोदितों के लिए कुछ नेक सलाहें, रोजमर्रा के कथानकों से निकलने की सलाह, खुद का लिखा नकारने की हिम्मत और रचनात्मक विषयों के चुनाव आदि बहुत महत्वपूर्ण हैं। जहाँ तक सीखने और सिखाने वालों की बात है तो यह बहुत हद तक भ्रामक बात है क्योंकि सच्चे संत अब हिमालय में ही मिलेंगे और जो मैदानी इलाकों में विचरण कर रहे हैं उनमें 99 प्रतिशत सिर्फ अपने हित साधने की फिराक में हैं। उनसे बचा जाए नहीं तो फिर अध्यात्म का ही सहारा बचेगा। अपवादों की गुंजाइश 1 प्रतिशत में निहित है।
हर नए अंक की तरह इस बार की सम्पादकीय की मारक क्षमता में न केवल इजाफा हुआ है अपितु इसका 360 अंश दायरा भी बढ़ा है। ठीक #अभिनंदन की तरह।
इस संपादकीय में बातें भले ही सांकेतिक हों लेकिन एकदम स्पष्ट हैं। ठीक उसी तरह कि आप काने* (जिसकी एक आंख खराब है) से सीधा नहीं पूछ सकते -
काने से काना कहो, तो वो जाये रूठ,
धीरे-धीरे पूछ लो, कैसे गई थी फूट?
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*माफ करें, यहाँ किसी की शारीरिक स्थिति का मजाक नहीं है। यह एक प्रचिलित बात पर आधारित है।

सावधान - अशुद्ध हिन्दी का प्रयोग/अनुवाद वर्जित है।


कल एक अंतर्राष्ट्रीय उड़ान के दौरान हिन्दी में उद्घोष करते समय कहा गया कि अब हम "मदिरा सेवा" शुरू करने वाले हैं। इसी "मदिरा सेवा" को अंग्रेजी में अनुवाद करते समय कहा गया "going to serve Beverages".

विदित हो कि अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों में भोजन के पहले कुछ पेय (फलों के रस, हल्के पेय जैसे कोका कोला, पेप्सी, बीयर और मदिरा आदि) परोसे जाते हैं।
मुझे बड़ी हैरानी हुई कि इस हवाई सेवा प्रदान करने वाली संस्था ने उपर्युक्त समस्त पेयों को "मदिरा" में शामिल कर दिया था। मैंने इस पर आपत्ति दर्ज कराई कि "हिन्दी में उद्घोषणा अच्छी बात है लेकिन आप इस तरह से गलत अनुवाद करके न ही हिन्दी का अपमान करें और न ही उन यात्रियों का जो इस बला (मदिरा, बीयर) से दूर रहते हैं।
परिचारिका को यह बात ज्यादा समझ में नहीं आयी। धीरे-धीरे यह बात कप्तान और सह-कप्तान तक पहुँची। बाद में उड़ान पूरी होने पर कप्तानों ने मुझसे बात की। मैंने उन्हें अपनी आपत्ति दर्ज कराई। उनका आश्वासन था कि बात उपर पहुँचा दी जाएगी। उन्होंने मुझे यह भी सुझाव दिया कि मैं अपनी शिकायत ईमेल द्वारा भी दर्ज करा सकता हूँ।
कार्यवाही जारी है।
जय हिन्दी
जय भारत
वंदे मातरम।

ये जो मेरी हिन्दी है

काफी दिनों से मेरे साहित्यिक क्रिया-कलापों को देखते रहने के बाद, कल किसी ने मुझसे पूछा, "I think, you like Hindi very much."
मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे पता नहीं कि बांछें कहाँ होती हैं, लेकिन खिल गईं।
मेरा जबाब था, "मैं हिन्दी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खेला हूँ, मैं हिन्दी में रोया हूँ, मैं हिन्दी में हँसा हूँ, मैं हिन्दी में नाराज हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खुश हुआ हूँ। मैं हिन्दी में प्यार करता हूँ, मैं हिन्दी में शिकायत करता हूँ, मैं हिन्दी के अलावा यदि किसी और भाषा में भी जबाब देता हूँ तो उससे पहले मैं हिन्दी में सोचता हूँ। कुल मिलाकर, मैं हिन्दी में सना हुआ हूँ।
... और तो और, मैं दिन भर की मेहनत के बाद अपनी हिन्दी की गोद और उसके आलिंगन में सो जाता हूँ। (...और यह कहते-कहते मेरी आँखों की कोरों पर उभर आयी भावनाओं को शायद उन्होंने महसूस किया। मैंने उन्हें छलकने से रोका भी नहीं।)
....कुछ क्षणों के विराम के बाद, मैंने फिर कहना शुरू किया, "हिन्दी मेरी माँ है और संस्कृत को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाएँ मेरी मौसी हैं। दरअसल, संस्कृत मेरी नानी/दादी माँ है।"
पता नहीं, उन्हें मेरी बात कितनी समझ में आयी?
फिर उन्होंने टकले पर खुजलाते हुए पूछा, "What about English?"
Hey, She is my Aunty. I replied.

Tuesday, August 13, 2019

पुण्यतिथि पर स्मरण : अमृतराय जी

वही लिखो जो तुमने जिया है और जो नया लिखना है उसको पहले जियो।
 - अमृतराय
(स्रोत - लघुकथा कलश, द्वितीय महाविशेषांक)
  
1921 में बनारस में जन्मे और 14 अगस्त 1996 को इलाहबाद में स्वर्गवासी हुए अमृतराय जी को साहित्य जगत में शायद ही कोई होगा जो उनके लेखन कौशल्य से परिचित न होगा और उनके लेखन का मुरीद न होगा। उपन्यासकार, निबन्धकार, समीक्षक, अनुवादक और कहानीकार अमृतराय जी की कल पुण्यतिथि है। हरदिल अजीज मुंशी प्रेमचंद जी के सुपुत्र अमृतराय जी को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन और श्रद्धांजलियाँ।
     

अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन जैसा ही कुछ मैं 2014 के चुनाव के समय से ढूंढ़ रहा था। मुझे इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि इस तरह का किसी ने कहा या लिखा नहीं होगा। यह मेरी अपनी अनुभूति थी कि इस तरह ही लेखन होना चाहिए। .... दरअसल मुझे इस तरह के कथन और उसके अनुपालन की कमी उस समय महसूस हुई जब कुछ नामी-गिरामी अभिनेताओं, लेखकों आदि ने एक शब्द को इतना उछाला कि उससे उनके चेहरे पर चढ़ी नकली परत उतर गई। नीले सियार का रंग पहली ही बारिश में उतर गया। असल में जिन लेखकों और कलाकारों ने अपनी कृतियों और भावनात्मक अभिनय के कारण आम जनमानस में जो अपनी छवि बनायी थी वह चुनाव आते ही धुल गई। लोगों को लगता था कि जो साहित्य उन्होंने लिखा है या जो किरदार उन्होंने फिल्मों आदि में जिया है वह तो उनका क्षद्म लेखन और केवल अभिनय मात्र था। उस समय तक असहिष्णुता शब्द के बारे में केवल साहित्य क्षेत्र से जुड़े लोग ही ज्यादा परिचित थे। इस शब्द को आम किया नकली चोले वालों ने। समय गवाह है कि कितने लोगों ने गन्दी राजनीति से प्रेरित इन लेखकों, पत्रकारों और अभिनेताओं को अपनी नजर से उनके दोहरे चरित्र के कारण गिरा दिया। उनके सम्मान वापसी जैसे क्रिया-कलापों से स्पष्ट हो गया कि उनका यह कार्य किस उद्देश्य के तहत किया गया होगा। 

पिछले दिनों सिनेमा और पत्रकारिता जगत में  #मीटू अभियान के तहत जिनके चरित्र उजागर हुए, उनमें भी वस्तुतः वही दोहरे चेहरे वाले ही निकलकर बाहर आये। आध्यात्म जगत भी इससे बचा नहीं रहा। कितने तथाकथित समाज सुधारक, प्रचारक, प्रवचनकर्ता जिनके मुख से सतत ईश्वरीय वाणी ही निकलती थी, उनके चरित्र के काले चिट्ठे भी खूब खुले।   

मुझे लगता है कि इस तरह का आचरण रखने वाले लेखक, कवि, शायर, पत्रकार, अभिनेता या आध्यात्मिक लोग बहुत ही कम हैं जिन्होंने जो लिखा है, जो कहा है या जो अभिनय किया है, उसे जिया है या जो लिख दिया है उसे जीने वाले हैं। अधिकतर तो वह लिखते या करते हैं जो आदर्श रूप में होना चाहिए। उनका इसके अनुपालन से कोई लेना नहीं है। 

उपर्युक्त कथन से गंभीर और संवेदनशील लोगों को जरूर आत्ममंथन के लिए इशारा मिल गया होगा। जरूर अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन अनुपालन से समाज में सकारात्मक कदम की शुरुआत बड़े स्तर पर की जा सकती है। यहाँ पर मैं खलनायकों को उनके अभिनय और असल जिंदगी में चरित्र को इस लेख में अपवाद की तरह लेता हूँ। 

कृपया इस लेख के मंतव्य पर जायें। आपकी किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया का स्वागत है।         

Friday, August 9, 2019

ये जो मेरी हिन्दी है....


काफी दिनों से मेरे साहित्यिक क्रिया-कलापों को देखते रहने के बाद, कल किसी ने मुझसे पूछा, "I think, you like Hindi very much."

मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे पता नहीं कि बांछें कहाँ होती हैं, लेकिन खिल गईं। 

मेरा जबाब था, "मैं हिन्दी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खेला हूँ, मैं हिन्दी में रोया हूँ, मैं हिन्दी में हँसा हूँ, मैं हिन्दी में नाराज हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खुश हुआ हूँ। मैं हिन्दी में प्यार करता हूँ, मैं हिन्दी में शिकायत करता हूँ, मैं हिन्दी के अलावा यदि किसी और भाषा में भी जबाब देता हूँ तो उससे पहले मैं हिन्दी में सोचता हूँ। कुल मिलाकर, मैं हिन्दी में सना हुआ हूँ।

... और तो और, मैं दिन भर की मेहनत के बाद अपनी हिन्दी की गोद और उसके आलिंगन में सो जाता हूँ। (...और यह कहते-कहते मेरी आँखों की कोरों पर उभर आयी भावनाओं को शायद उन्होंने महसूस किया। मैंने उन्हें छलकने से रोका भी नहीं।) 

....कुछ क्षणों के विराम के बाद, मैंने फिर कहना शुरू किया, "हिन्दी मेरी माँ है और संस्कृत को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाएँ मेरी मौषियां हैं। दरअसल, संस्कृत मेरी दादी माँ है।"

पता नहीं, उन्हें मेरी बात कितनी समझ में आयी? 

फिर उन्होंने टकले पर खुजलाते हुए पूछा, "What about English?" 

Hey, She is my Aunty.  I replied.

Monday, July 15, 2019

आलेख - हमहुँ कहिन

हमहुँ_कहिन 

प्रेम जोड़ता है, तोड़ता नहीं

उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
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मीडिया के ये दिन भी आएंगे, कभी सोचा न था। दरअसल चुनाव खत्म हो गए तो अब आपको टेलीविजन पर बैठाएं कैसे? इनकी इस चाल को सामान्य जनमानस को समझकर अपने काम धंधे में लगना चाहिए।

एक सामान्य प्रेम विवाह (जिसमें आवश्यकता पड़ने पर घर वालों को बिना बताये घर से जाना भी शामिल है जिसे लोग भागना भी कहते हैं) की घटना थी। इस सामान्य से एक घर के प्रकरण को इलास्टिसिटी से प्लास्टिसिटी की सीमा तक जिस तरह से खींचा जा रहा है, वह हास्यास्पद ही नहीं, दुर्भाग्यपूर्ण भी है।

आजादी को ये टीवी वाले बिना मतलब की बकबक करके तय नहीं कर सकते। यह आजादी की वकालत सिर्फ शादी के मसले पर ही क्यों? या फिर अपने पसंद के रोजगार या नौकरी पर ही क्यों? मुझे समझ में नहीं आता कि यह तथाकथित आजादी की पैरवी सिर्फ उस उम्र के बाद ही क्यों की जाती है जब खुद की समझदारी के साथ बच्चों को बड़ों के मार्गदर्शन की सबसे अधिक जरूरत होती है। उम्र का यह पड़ाव ऐसा नाजुक पड़ाव होता है जब कभी-कभी आवेश में वे दूरगामी परिणामों का आकलन नहीं कर पाते हैं। 

यह आजादी की बहस तो तबसे शुरू करनी चाहिए जब बच्चा स्कूल जाना ही नहीं चाहता है। उसे तो अपनी माँ के आंचल और मित्रों के साथ ही खेलना है, उसी में आनंद है, उसी में आजादी है। वह तो सुबह उठकर जल्दी पढ़ना ही नहीं चाहता। तो फिर माँ-बाप क्या करें? उसे आजादी देकर उसे सोते ही रहने दें? उसे खाने में तो सिर्फ मिठाईयां ही पसंद हैं। तो फिर तीनों वक्त मिठाईयां ही खिलाते रहें? क्योंकि कि आजादी की अवहेलना और उनके अधिकारों का हनन जो हो जाएगा यदि हरी सब्जियों, सलाद और फलों को खाने की जिद भी की तो फिर यह तो उनके साथ अन्याय हो जाएगा। उसे तो सुख-सुविधा की हर वो सहूलियतें चाहिए जिससे वह अपने संग-साथियों पर धौंस जमा सके। अच्छे कपड़े, अच्छी मोटरसाइकिल, बढ़िया ब्रांडेड घड़ी, मंहगे जूते, महंगा मोबाइल, और न जाने क्या, क्या? क्योंकि उनकी आजादी के सवाल जो ठहरे। चाहे खुद पिता जी ने साइकिल पर जिंदगी गुजार दी हो लेकिन आपके लिए लेटेस्ट मॉडल की बाइक जरूरी है।

जो लोग बहस में घी का काम कर रहे हैं वे समझें कि ये टीवी वालों के मसले नहीं हैं। ये बड़े ही निजी मसले हैं। इन्हें बड़े ही व्यक्तिगत सूझबूझ से समझना होता है और निर्णय लेना होता है। हर घर की कहानी अलग है और उनके कारण और निवारण भी अलहदा। लोगों को बहती गंगा में हाथ नहीं धोना चाहिए।

स्पष्ट कर दूँ कि न तो मैं किसी प्रेम विवाह के खिलाफ हूँ, न ही इसके समर्थन के और न ही किसी और की आजादी मैं परिभाषित करना चाहता हूँ। मेरा तो मानना है कि यह बेहद निजी मामला है। मुझे दूसरे के मसलों में बकबक करने का अधिकार ही नहीं है। जिसे जो अच्छा लग रहा है, वह करे। उसे किसी और के प्रमाणन की जरूरत क्यों हो?