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Saturday, August 5, 2023

किश्त -०२ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सविता इंद्र गुप्ता जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सविता इंद्र गुप्ता जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :


अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।

मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है। 


अब और ना ज्यादा भूमिका बांधते हुए, सबसे पहले नजर डालते हैं  इसी खण्ड में सकलित श्रीमती सविता इंद्र गुप्ता जी की लघुकथाओं पर : 

संचार के आधुनिक युग में अगर किन्हीं कामों का ज्यादा पतन हुआ है तो वह है राजनीति और पत्रकारिता। तथाकथित टीआरपी के चक्कर में असली मुद्दे कहीं भटक जाते हैं और प्रायोजित कार्यक्रम जनता को परोसे जाते हैं। विज्ञापनों द्वारा ऐसे छवि बनाने में टीवी चैनल लगे हुए हैं, राजनैतिक दलों द्वारा जनता के पैसे का दुरुपयोग धड़ल्ले से हो रहा है ऐसे में किसी गरीब की कोई क्यों सुनेगा? यह कितना हास्यास्पद है कि जहाँ एक ओर मीडिया मंत्री जी की किसान कल्याण योजनाओं के प्रचार-प्रसार में व्यस्त है वहीं दूसरी ओर एक किसान अपनी समस्याओं को लेकर अखबार के दफ्तर पर भूख-प्यास से बेहाल पड़ा है। लघुकथा 'ब्लैक होल' में एक किसान की दर्दभरी दास्तान और दुःखद आत्महत्या का चित्रण है जो सिद्ध करता है कि देश में विकास किस कदर हो रहा है और धरातल पर स्थिति क्या है?


कहते हैं भीड़ को कान तो होते हैं लेकिन सोचने समझने की शक्ति खतम हो जाती है। बिल्कुल भेड़ की तरह। एक भेड़ जिस तरफ चल देती है, पूरा हजूम उसी तरफ, फिर चाहे वह एक किसी कुएँ में ही ना गिर जाए। लघुकथा 'अफवाह' में भी इसी कथानक को आकार दिया गया है। किसी ऑटो वाले की छोटी सी गलती से किसी धर्मस्थल की दीवार की तीन ईंटों का गिरना, धीरे-धीरे इतनी बड़ी अफवाह बन जाती है कि फिर एक-दूसरे के धर्मस्थलों को तोड़ने और दंगे जैसी स्थिति बन जाती है। वैसे तो किसी भी धर्म में इन बातों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन आजकल ओछी मानसिकता वाले लोग धर्म की आड़ में ही असहिष्णुता को बढ़ाने में लगे हुए हैं।
सचमुच सुपरमार्केट या मॉल की संरचना, सजावट वहाँ के सजे-संवरे स्टाफ के सदस्य, उनकी माधुर्य भरी बातें एक सामान्य व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक सोच और पसंद/नापसंद के तहत ही संयोजित किये जाते हैं ताकि बिना किसी खास मान-मनुहार के ग्राहक वहाँ फंसता चला जाये और न चाहते हुए भी लुभावने ऑफर्स की आड़ में अपनी जेब ढीली कर दे। जहाँ लघुकथा 'तिलिस्म' में यह बात एकदम सही है वहीं सुपरमार्केट में सब्जी के भाव बाजार की अपेक्षा पचास प्रतिशत से भी कम होना काल्पनिक सा लगता है। इसमें सत्यता की कमी है। अमूमन सब्जी और फल भी इन स्थानों पर, स्थानीय बाजारों से मँहगे ही होते हैं। लेकिन इस कथा में इस बात की अच्छी पैरवी की गई है कि सुपरमार्केट में आप जाते हैं तो ज्यादा संभावना है कि आप कभी-कभी अनावश्यक सामान भी खरीद ही लाते हैं। कथा के शीर्षक के कारण कथा ज्यादा प्रभावी बन पड़ी है।

बेटी आज भी बहुत से परिवारों के लिए अवांछनीय ही है। उन्हें बहू से बेटे ही चाहिए। आखिर कब तक हमारा समाज बेटी और बेटों में अंतर करता रहेगा? क्यों लोग नहीं समझते हैं कि बेटे और बेटी किसी की इच्छा से नहीं बल्कि प्रकृति के बनाये कारणों से पैदा होते हैं और इसके लिए महिला तो बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं होती है क्योंकि एक स्त्री के अंदर केवल एक्स क्रोमोसोम ही होते हैं और पुरूष के अंदर एक्स तथा वाई दोनों क्रोमोसोम होते हैं। यह ज्ञातव्य है कि एक्स-एक्स मिलने से एक लड़की का जन्म होता है और एक्स-वाई के मिलने से लड़के का। इस लिंगभेद पर रजनीश दीक्षित की लघुकथा 'न रहेगा बाँस...' पढ़ी जा सकती है। 
सविता जी की इस लघुकथा में भ्रूण हत्या से बचने के लिये महिला को उपाय के तौर पर कानूनी मदद और संचार माध्यम की सहायता से जो उपाय बताया गया है वह एक ठीक कदम है लेकिन फिर भी समाज को अभी वैचारिक तौर पर बहुत आगे आने की आवश्यकता है। इसके लिए भुक्तभोगी महिला को हिम्मत से भी काम लेना पड़ेगा और अपने अधिकारों के प्रति सजग भी होना पड़ेगा। रचना का शीर्षक 'खड्ग खप्परधारी' बहुत ठीक रखा है।
लघुकथा 'डस्टबिन' इस संग्रह की प्रमुख लघुकथाओं में से एक है। इसका कथानक एक पति के दूसरी महिला के आगोश में चले जाने से खुद को ठगी हुई महसूस करती उस महिला का है जिसमें न केवल उसका आत्मसम्मान है अपितु अपने पैरों पर खड़े होने का आत्माभिमान भी है। यही कारण है कि पैंतीस वर्षों के अलगाव ने उसे इतना सुदृढ़ कर दिया कि वह किसी की वसीयत को भी कूड़ेदान के सुपुर्द कर सके। इस कथा में परिवेश, संवाद और माहौल का सुंदर चित्रण है। एक परिवेश देखें - ...निःशब्द, हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़। आमने-सामने होते हुए भी उनके बीच मीलों की दूरी थी।' एक संवाद देखें - कैसे भूल सकती हूँ तुम्हारी गन्दी चॉइस। तुम्हें कॉफी और औरत दोनों काली ही पसंद हैं।' इस संवाद में सुहासिनी की पीड़ा और घृणा दोनों ठसाठस भरी हैं। उस मुलाकात के माहौल को भी देखें - चुप्पी अखर रही थी लेकिन दोनों के पास ही बोलने को कुछ न था।' ऐसी लघुकथाएँ बड़े अनुभव के बाद लिखी जाती हैं। इसकी समझ के लिए बड़ी ही उच्चकोटि की अवलोकन दृष्टि की आवश्यकता होती है।
आज भारतीय समाज में स्त्री का स्तर बहुत हद तक पुरुषों के बराबर ही हो गया है लेकिन फिर भी पुरुषों की मानसिकता में अभी भी बहुत सुधार की आवश्यकता है। लघुकथा 'आखिर क्या चाहते हो' में एक महिला नौकरी भी करती है और घर के कामकाज भी। लेकिन पति की ख्वाहिश है कि वह नौकरी भी करे, घर पर समय से भी आये और उसका, बच्चों का और उसकी माँ का भी ख्याल रखे। एक हद तक तो यह सब संभालना सम्भव होता है लेकिन जब पानी सिर से ऊपर जाने लगे तब गंभीरता से सुरक्षात्मक उपाय करने ही पड़ते हैं। पुरूषों की इच्छाएँ अनन्त होती है और एक स्त्री के लिए यह सम्भव नहीं कि वह हर इच्छा को सहजता से पूरा कर सके। कभी न कभी विद्रोह सतह पर आ ही जाता है। इस लघुकथा में भी बहुत कलात्मक ढंग और संवाद के जरिये पुरुषों के लिए एक बड़ी सीख प्रस्तुत की गई है कि वे महिलाओं की अपनी इच्छाओं के बारे में सोचें और उन्हें भी अपने हिसाब से काम करने की स्वतंत्रता दें।
लघुकथा 'बेमेल' में असल में बेमेल कुछ भी नहीं है। कहते हैं ना कि आईना झूठ नहीं बोला करते हैं और इस कथा में भी वह चरितार्थ हो गया। जिस पुरुष को शादी के कई वर्षों बाद पत्नी कुरूप और थुलथुल दिखने लगती है वही खुद को शीशे में देखकर शायद कामदेव जैसे होने की कल्पना करते होंगे। अच्छा हुआ कि उन्हें इसका सबक जल्दी ही मिल गया और इस बात की अनुभूति जल्दी ही हो गई और पतिदेव को अपनी गलती का अहसास भी जल्दी हो गया। चूंकि कथान्त में बेमेल वाली बात खत्म हो जाती है अतः इस कथा के शीर्षक को और बेहतर लिखा जा सकता था। जैसे - आईना, आत्मबोध या ऐसा ही कुछ और।
समाज सुधारक राजा राम मोहन राय ने देश में व्याप्त कुरीतियाँ जैसे बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का भरपूर विरोध किया और इनके उन्मूलन के लिए बहुत प्रयास किया। लेकिन आज भी जैसे उनके प्रयास कम पड़ गए, ऐसा प्रतीत होता है। लघुकथा 'भूख' में विधवा चाची के माध्यम से बहुत ही मार्मिक चित्रण है कि किस तरह से एक विधवा औरत के लिए पति के जाने के बाद सबकुछ जैसे त्याज्य हो जाता है। समाज तो समाज, उसके अपने घर वाले भी उसके खाने, सजने-संवरने पर प्रतिबंध लगा देते हैं लेकिन मरता क्या न करे। पहाड़ सी जिंदगी जीने के लिए पेट भर भोजन तो चाहिए ही, फिर वह खुद के घर से मिले या मोहल्ले के समारोहों से। कथा में समाज के उस दोहरे पक्ष को बड़े ही व्यंगात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है जिसमें लोग चाची जी के तेरहवीं के दिन अपनी सुरसा जैसी भूख को शांत करने में लगे पड़े हैं।

स्त्री होती ही ऐसी है। हालाँकि समाज में उनका स्तर चाहे जैसा भी हो लेकिन उनका वास्तविक स्तर बहुत ऊँचा होता है। वे दया की प्रतिमूर्ति, प्रेम का सागर, करुणा और वात्सल्य में उनका कोई सानी नहीं है। लघुकथा 'पिघलती बर्फ' में बहुत ही करुण कहानी है एक ठंड से ठिठुरते गरीब भिखारी की जिससे ठंड सहन नहीं हो रही है और बचाव के लिए जब पास के घर के पुरुष मालिक से माँगने पर उसे रजाई या कम्बल की जगह तिरस्कार के शब्द मिले। कितना कठोर होगा वह पुरुष जो किसी को ठंड से ठिठुरते देखकर आराम से आकर रजाई और हीटर की गर्मी में आराम सो सकता है। इसी के विपरीत जैसे ही घर की महिला ने जब वस्तुस्थिति को जाना, वह तुरंत ही घर के बाहर गई और जब पता चला कि वह बेचारा अभी यहीं है, उसने उसके लिए कम्बल निकाला, लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी। हालाँकि यह जानने के बाद कि वह गरीब अब इस दुनिया में न रहा, कल कुछ कम्बल खरीदकर और लोगों में बाँटने की बात करके कुछ संवेदनाएँ जागीं उस पुरुष के मन में लेकिन फिर भी कितनी संवेदन हीनता कि वह फिर से रजाई में सोने के लिए उपक्रम करने लगा। इसके विपरीत उस महिला की आँखों से नींद कोसों दूर थी। इस कथा में बर्फ पिघली जरूर लेकिन अंततः सुखद परिणाम न ला सकी।

लघुकथा 'गिद्ध' में कथानक तो पुराना है लेकिन प्रस्तुति में नयापन है। इसे एक कुप्रथा या सामाजिक कोढ़ की संज्ञा दी जाए कि जो लोग अपने-अपनों के जीते जी काम नहीं आते हैं वे उनकी खेती, चल-अचल संपत्ति पर किस तरह से निगाह गढ़ाए रहते हैं। इसमें खून के रिश्ते तो पीछे रहते ही नहीं हैं, वे भी उम्मीद बनाये रहते हैं जो बेगाने होते हैं। समाज की गिद्ध दृष्टि को दर्शाती सुंदर कथा है - गिद्ध।

साहित्यकार ज्यादातर वही लिखता है जो उसने या तो खुद जिया होता है या उसके बहुत ही पास घटा हुआ होता है, जिसे उसने बहुत गहनता से महसूस किया हुआ होता है। ऐसे में पाठकों को यह संशय हो जाना कि कहीं यह लेखक का खुद का अनुभव तो नहीं है, कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यह तब और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है जब यह बात किसी प्रेम या श्रृंगार रस के कवि, शायर, गीतकार आदि के संदर्भ में हो। ऐसा ही कुछ हुआ है लघुकथा 'मरी हुई बर्र का डंक' की मुख्य पात्रा जो कि एक कवियत्री है जो प्रेम पर लिखती है। पुत्र ने पूछा सो पूछा, जब अंतरंग छड़ों में पति भी पूछने लगे कि क्या तुम्हारा शादी से पहले कोई प्रेम-संबंध था? क्योंकि ये रचनाएँ ज्यादातर उसी दौरान की हैं जब वह कॉलेज में थी तो पत्नी को गुस्सा आना स्वाभाविक सा है। कथा के अंत में जो परिदृश्य लिखा है वह काव्यात्मक बन पड़ा है। जैसे - 'रात काफी गहरा चुकी थी। पति के दिमाग से अंधेरे छँट चुके थे और उसके आलिंगन में कुछ अधिक ही गर्माहट आ गई थी।'
आगे फिर देखिए - 'शांत समुद्र में तूफान आया और चला गया। लहरों में थपेड़े खाती नाव हिचकोले खाने के बाद डूबने से बच गई थी।' उपर्युक्त शब्दों से युक्त परिदृश्य न केवल लेखिका के शाब्दिक कौशल का परिचय देते हैं अपितु उनके साहित्य में कवित्व की उपस्थिति को भी पाते हैं। इस कथा का शीर्षक कथावस्तु की थोड़ी सी चुगली करता मालूम पड़ता है। हालाँकि काव्या ने बड़े ही हाजिर जबाबी से पति को यह कहकर संतुष्ट कर दिया कि उसे यह सब करने का समय नहीं था लेकिन शीर्षक यह इशारे करता है कि कहीं-कुछ हुआ था जो परवान न हुआ। प्रेम अनुभूतियों को अनुभव करने के लिए उस रास्ते चलना ही पड़ता है चाहे फिर मंजिल मिले, ना मिले।

सविता जी की कथाओं में स्त्री विमर्श प्रमुख है जिनमें उसकी समस्याओं को उकेरा गया है। उनके प्रमुख पात्र महिलाएँ हैं जिनके चरित्र बहुत मजबूत हैं और स्त्री पक्ष के विराट रूप को प्रस्तुत करते हैं। जहाँ कई लघुकथाओं के शीर्षक बहुत अच्छे हैं वही एक-आध पर पुनर्विचार करके उन्हें बेहतर किया जा सकता था।

डॉ रजनीश दीक्षित  

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