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Tuesday, July 30, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - जिंदगी 50 -50 (उपन्यास)

उपन्यास - जिंदगी 50 -50 
लेखक - भगवंत अनमोल  

अनमोल जी का "जिंदगी 50-50" उपन्यास पढ़ने का सुअवसर मिला। मेरा इस उपन्यास तक पहुंचना निश्चित रूप से एक संयोग ही है। चूंकि मैं फेसबुक पर चल रहे 'हिन्दी लेखक संघ' समूह का सदस्य हूँ और इस समूह के एक साहित्यकार सदस्य डॉ फैयाज अहमद की फेसबुक पोस्ट से पता चला कि भगवंत अनमोल जी ने "जिंदगी 50-50" नामक उपन्यास लिखा है। लेखक के बारे में जब पता चला कि आप कानपुर से हैं तो यहाँ क्षेत्रवाद ने थोड़ा काम किया और मैं इस कारण भी लेखक को पढ़ने के लिए उत्सुक हो गया। इसके बाद जब डॉ फैयाज जी का एक साक्षात्कार इस पुस्तक के बारे में पढ़ा तो विषय के बारे में थोड़ी जिज्ञासा और बढ़ी। प्रेम कथाएं तो बहुत उपलब्ध हैं पर किन्नरों का विषय हमारे समाज में विभिन्न कारणों से चर्चा का विषय तो है और लोग इनके बारे में शायद जानते भी हैं लेकिन यह विषय कभी खुले और स्वस्थ रूप में बहसों का हिस्सा नहीं बना। जब भी इसकी चर्चा हुई, छुप छुपाकर या हम उम्र के लोगों ने जो जहाँ जैसी जानकारी मिली, बात की। इसका परिणाम ये हुआ कि जिसे जो जानकारी थी, चाहे वह सही भी थी, उसे कभी प्रामाणिक जानकारी नहीं समझा गया। अच्छा, इस विषय को नजरअंदाज या नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि किन्नर हमें जाने अनजाने दिख ही जाते हैं। कभी किसी के घर बच्चा पैदा हुआ, किन्नर आ गए। शादी विवाह हुआ, किन्नर आ गए। और नहीं तो कहीं चौराहे की लाल बत्ती पर मिल गए, कभी आउटर पर ट्रेन रुकी, किन्नर आ गए।

अनमोल जी ने इस उपन्यास में दो कथाओं को समानांतर रूप से लिखा है, ऐसे दो भी क्यों, अगर तीन भी कहें तो गलत नहीं होगा। एक तो अनमोल (उपन्यास का नायक) के पिता जी और हर्षा/ हर्षिता (अनमोल का भाई - जिसको केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा गया) की कहानी, अनमोल की अनाया (अनमोल की प्रेमिका और नायिका) के साथ प्रेम कहानी और अनमोल की सूर्या (अनमोल का बेटा) के साथ की कहानी।

लगभग आधा उपन्यास पढ़ने तक ऐसा लगा कि पहली दो कहानियां ज्यादा समानांतर नहीं हैं और एक के बाद लिखी हैं अतः ऐसा लगा कि पहले अनमोल और उसके पिता जी की कहानी छाँट छाँट कर पढ़ ली जाए और बाद में इसी तरह अनमोल और अनाया की कहानी लेकिन जब तक यह पाठक निर्णय लेता है, कड़ियाँ जुड़ने लगती हैं और फिर अलग अलग वाला विचार छोड़ना पड़ता है।

उपन्यास को अनमोल जी ने जिस शैली और कुशलता से लिखा है वह पाठकों को कहानी के साथ ज्यादा जोड़े रखता है। पाठकों को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे लेखक उसके सामने बैठ कर कहानी सुना रहा है। कहानी जैसे जैसे बढ़ती है पाठक को किसी चलचित्र की भांति उसमें प्रवेश कर देती है लेकिन अधिकतर स्थानों पर लेखक ने नायक की तुलना शाहरुख खान की फिल्मों में नायक से की है। जैसे ही यह तुलना पाठक पढ़ता है, वह तुरंत चलचित्र वाले माहौल से बाहर आ जाता है और पाठक को इसके काल्पनिक होने का एहसास होने लगता है लेकिन अगले ही पल गाड़ी फिर प्रवाह पकड़ लेती है। इसी प्रकार कुछ स्थानों पर चेतु भैया (चेतन भगत) की पुस्तकों और उनमें मौजूद किरदारों के भी जिक्र है जो कुछ पाठकों के लिये या तो अनभिज्ञ होने के कारण या फिर वह उनके पसंदीदा लेखक न होने के कारण अरुचिजनक सबब बनता होगा। इस उपन्यास में शाहरुख खान की फिल्मों और चेतन भगत की किताबों का जिक्र जब देखा तो मेरा ध्यान विदेशी लेखकों की किताबों की तरफ चला गया। अक्सर विदेशी लेखक अपनी किताबों में या तो अपनी पुरानी किताबों या उनके मित्रों की किताबों का संदर्भ देते मिल जाएंगे। असल में यह एक तरीका परोक्ष रूप से संदर्भित किताबों की मार्केटिंग के रूप में भी किया जाता है, जो कि एक तरह से ठीक भी है।

इस उपन्यास में लेखक ने अंग्रेजी के शब्दों का और सोशल मीडिया का भरपूर प्रयोग किया है जो कि आजकल आम भाषा और जीवनचर्या का हिस्सा हैं। इससे जरूर ही आजकल के पाठक पसंद करेंगे। इसी तरह पुस्तक में गांव की बोली का बहुतायत में इस्तेमाल हुआ है जो कि हिन्दी भाषी क्षेत्र और उम्रदराज लोगों में तो रुचि बनाये रखती ही है साथ ही नौजवान पाठक जिनका गांव और वहां की बोली से सरोकार खत्म या न के बराबर है, उन्हें भी उस परिवेश से परिचय कराती है। कहीं-कहीं उपन्यास में बहुत जगह पाठकों को कई चीजें विस्तार से समझाई गई हैं, जो कि शुरुआत में (जैसे मूंछों वाले लोग, वगैरा... बताए गए हैं) तो पाठक को उत्सुकता पैदा करते हैं और पढ़ने को प्रेरित करते हैं लेकिन बाद में जब इसी तरह की पुनरावृत्ति थोड़ी अजीब भी लगती है।

उपन्यास में अनमोल जी ने एक आम उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की मनोदशा का बखूबी चित्रण किया है जिसमें यह बताया है कि ग्रमीण क्षेत्र में उसका हर कृत्य किस प्रकार से समाज से जुड़ा हुआ है। उसकी पसंद, नापसंद अपने से ज्यादा 'समाज क्या कहेगा?' इस बात पर निर्भर करती है फिर चाहे उसे अपनी या अपने परिवार की खुशियों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। अनमोल के पिता ने सिर्फ समाज की वजह से ही न सिर्फ अपने छोटे बेटे को मारने की कोशिश की बल्कि उसकी पूरी जिंदगी उसे यातनाएं देकर उसकी जिंदगी को भी नरक बनाने का काम किया। इस समाज की वजह से वह खुद भी हीन भावना की जिंदगी जीते रहे।

लेखक ने उपन्यास को कम पात्र देकर भी भरपूर व्यक्तित्व दिए हैं। इसे एक खूबी ही कहा जायेगा क्योंकि सीमित पात्रों की वजह से पाठक सभी किरदारों से परिचित और जुड़ा हुआ महसूस करता है। उपन्यास के अंत में लेखक ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए खूबसूरत मोड़ दिया है जिसे शायद ही कोई पाठक भांप पाए। यह पाठकों को तबतक पता नहीं चलता है जब तक अनमोल लगभग 28 सालों के बाद अनाया के घर पहुंच नहीं जाता है। अनाया के घर पहुँचने पर जो खुलासे हुए, उससे लेखक ने जहाँ अनाया के चरित्र को नये आयाम दिए वहीं प्यार की अभिव्यक्ति को भी बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंचा दिया। लेखक की इसके लिए जितनी प्रसंशा की जाए कम है। इस चित्रण में उपन्यास में जहाँ कुछ देर पहले तक पाठक अनभिज्ञ रहता है वहीं जब अनमोल उसके घर से बाहर आता है और उसे अपनी अनाया के साथ वाली फोटो की याद आती है, प्रबुद्ध पाठक सब कुछ जान जाता है और इसके बाद जो भी वर्णित हुआ है, पढ़कर अपनी विद्वता पर इतराता भी है। इसी वक्त जब अनमोल अनाया से फिर कभी न मिलने का वादा लेकर उसके घर से बाहर निकलता है और रास्ते में उसकी अनाया के बेटे से नजरें मिलती हैं उस  समय पाठक यह सोचता है की जब उसकी फोटो अनाया के साथ उसके घर मे लगी हुई है तो उसके बेटे ने नजरें मिलने के बाबजूद अनमोल को पहिचाना क्यों नहीं? फिर अगले ही पल पाठक अनमोल को इस बात का फायदा देता है कि वह फोटो तो लगभग 28 साल पुरानी है और इस कारण सम्भव है कि क्षणिक मुलाकात में किसी को न पहिचाना जा सके। इसके बाद का जो प्रसंग कि क्यों अनाया के बेटे ने संभावित लाइसेंस को ठुकराया दिया, उसके लिए भी लेखक को बधाई कि उसने अनाया के द्वारा उसके बेटे में अच्छे संस्कार डाले।

भगवंत अनमोल जी को उनके इस उपन्यास के लिए बहुत बधाई और शुभकामनायें। 

रजनीश दीक्षित


Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से आदरणीय गणेश जी बागी जी  की लघुकथा को लिया है। आज उनकी लघुकथा "चित्त और पट" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - चित्त और पट 
लेखक - गणेश जी बागी जी 


नेताओं की बातें क्या, उनकी नियति क्या? अब तो थाली का बैगन भी शर्म से डूब मरे क्योंकि नेता जी में तो जैसे स्वचालित यंत्र लगे हों। इन्हें कब, कहाँ, क्या, किससे, कैसे बात करनी है? क्या आचरण करना है? कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता। इन्हें तो भीड़ में दिखता है एक बड़ा बाजार और अपना कारोबार। ..और दिखे भी क्यों न? आम आदमी यही तो चाहता है कि नेता जी इसी तरह बंदरों की तरह इस पेड़ से उस पेड़, इस शाखा से उस शाखा पर जाते रहिये, हम आपके करतबों से खुश होते रहेंगे। आप मौषम और स्वादानुसार बदल-बदल कर फलों का आनंद लीजिए और खुश हो रही जनता अगर कभी अपने लिए भी किसी फल की इच्छा करे तो उसे गुठलियों का प्रसाद दीजिये।
हमारे देश में आज यही हो रहा है। चनाव जीतने के सूत्र सबको पता हैं, उसके नियम कानून तय हैं। चुनावी कार्यक्रम आज एक बड़ा तिकड़मी व्यवसाय है जिसमें धनबल और बाहुबल का प्रयोग आम है। इसीलिए आज राजनीति में आने के लिए किसी के पास चारित्रिक योग्यता हो न हो, वह छल, प्रपंचों में अब्बल होना चाहिए। यदि ये गुण हैं तो रही कसर पूरी कर देते हैं हमारे तथाकथित चतुर्थ स्तंभ के जिम्मेदार लोग। राजनीति के बाद अगर किसी और पेशे के स्तर में गिरावट आई है तो वह है पत्रकारिता।

जब आप सत्ता में काबिज हैं तो वही वादे आपके लिए ब्रह्म वाक्य हैं और यदि आप विपक्ष में हैं तो आप उन्हीं को जनता के लिए अभिशाप बताते हैं। पता नहीं ये दोहरा चरित्र लाते कहाँ से हैं? जिन योजनाओं से किसी 'और' दल की सरकार के समय विपक्ष को कमियां ही कमियां और नुकसान नजर आते थे, खुद की सरकार आने पर उन्हीं योजनाओं ने जैसे सर्वमनोकामना पूरी करने वाली योजनाओं का रूप ले लिया हो। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन इन्हीं अपनी योजनाओं को विपक्ष जब खुद लागू कर रहा था तो उसे स्वर्ग की सीढ़ी जैसी दिख रही थी लेकिन आज जब सत्ता पक्ष उनसे समुद्र मंथन कर रत्न प्राप्त करना चाहता है तो उनमें उन्हें खोट ही खोट नजर आता है।
इसीतरह के नेताओं के दो-मुहें चरित्र का बखान करती हुई लघुकथा "चित्त और पट" अच्छी बन पड़ी है। आजकल पत्रकार भी अंतर्जालीय जमाने वाला है। उसके पास प्रश्नावली भी संयुक्त वाली ही है। उसने मौकापरस्त नेताओं और दलों की तरह, पूछे जाने वाले प्रश्नों का गठबंधन करा दिया है। आजकल हर गली-नुक्कड़ पर नेता मिल जाएंगे। बेरोजगार हैं तो क्या हुआ? नेता तो बन ही सकते हैं। कभी भी अपनी जाति और धर्म वाले की टोपी और झंडा लगा लेंगे और बन जाएंगे नेता जी। ....तो पत्रकार को आजकल अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है, कि पता नहीं किस दल के नेता कहाँ मिल जाएं? तो उसने भी एक ऐसी प्रश्नावली ईजाद की है कि हर नेता पर वह सटीक बैठ जाये जिससे नेता जी भी सहज महसूस करें और उसकी अपनी पत्रकारिता भी चमकती रहे, नौकरी भी बनी रहे।
...प्रस्तुत लघुकथा में भी जब पत्रकार ने पहला प्रश्न किया तो नेता जी ने आशानुरूप यही जबाब दिया कि, "विपक्ष की रैली असफल रही। इस रैली की वजह से सभी को परेशानी हुई। अब परेशानी का कारण तो भीड़ ही थी जो कि कहीं न कहीं इस बात का संकेत थी कि विपक्ष की लोकप्रियता बढ़ी है। और जब पत्रकार ने बढ़ी भीड़ की उनकी स्वीकरोक्ति के बारे में पूछा तो उनका एकदम उलट जबाब था। उन्होंने अपने 40 वर्षों के भीड़ जुटाने और रैलियां आयोजित कराने के लिए उपयोग में लाये जाने वाले हथकंडों को जग-जाहिर कर दिया। ..... आखिर, रंगा सियार कब तक अपनी "हुआं-हुआं" रोक पाता।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -1)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में लेखक हैं आदरणीय गणेश जी बागी जी । आज उनकी लघुकथा "आस्तीन का साँप" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - आस्तीन का साँप 
लेखक - गणेश जी बागी जी 

आज तकनीक और सूचना औद्योगिकी के बाद भी यह एक बड़ी समस्या है कि देश के दुश्मन अपने घृणित कारनामों में कामयाब हो जाते हैं और हम सिर्फ हाथ मलते रह जाते हैं। आज आतंकवाद केवल भारत की ही समस्या नहीं है अपितु यह एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बानी हुई है। लगभग सभी देश किसी न किसी रूप में इसकी गिरिफ्त में हैं। प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या पर आधारित उस विषय को लिया है जिसमें आतकवादियों को पड़कना एक बड़ी समस्या है। यह तो तब है जब इन गतिविधियों और उनके संचालकों के सुराग पता लगाने के लिए सम्बंधित विभाग बड़े-बड़े इंतजामों के साथ लगे हुए हैं जिसमे हर तरह की तकनीक और अकूत धन का उपयोग किया जाता है। इन सबके बाद भी उपलब्धता के नाम पर ज्यादा बार असफलता ही हाथ लगती है। इन असफलताओं के बहुत कारण हैं लेकिन जो एक बड़ा कारण है वह है ऐसे आतंकवादी तत्वों के समर्थकों का होना। इस लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या को रेखांकित किया है। इसका जीता जागता उदाहरण कश्मीर की समस्या है। वहाँ के कुछ तथाकथित भटके हुए लोग दाना-पानी तो हमारे देश का खाते हैं लेकिन आतंकियों के लिए ढाल का काम करते हैं। ऐसे लोगों को आस्तीन का साँप न कहा जाये तो क्या कहा जाये?
बिना लाग-लपेट के 107 शब्दों में समाहित प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने समस्या का कथानक तो अच्छा लिया लेकिन कथ्य तार्किक नहीं बन पाया है। जैसे, जब अधिकारी ने मिस्टर सिंह से पूछा कि आप पिछले छः माह से उस आतंकवादी को पकड़ने में लगे हैं जिसका सुराग भी यह मिला था कि वह पडोसी देश में है लेकिन आपकी प्रगति शून्य क्यों है।" .. तो यहाँ यह प्रतीत होता है कि या तो साहब नए-नए हैं या शायद साहब सीधे छः महीने बाद ही अपने मातहतों से मिल रहे हैं। बीच में कोई संवाद ही नहीं हुआ। और जैसे आतकवादी के बारे में अगर यह पता चल जाये कि वह किस देश में है तो उसे पकड़ना तो जैसे बायें हाथ का काम है। दूसरा, मिस्टर सिंह का भी जबाब भी उन्हीं की तर्ज पर है, "कि अगर वह आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो वे जिन्दा या मुर्दा उसे महज दो दिन में पकड़ सकते थे लेकिन...." जैसे मिस्टर सिंह भी पिछले छः महीने से इस सवाल का ही इन्तजार कर रहे थे और अभी तक यह सूचना ऊपर तक नहीं पहुंची थी कि वह खूंखार आतंकवादी पड़ोसी देश में न होकर अपने देश में ही है। .... वैसे मिस्टर सिंह के इस जबाब का भी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है कि अगर आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो उसे जिन्दा या मुर्दा दो दिन में पकड़ लेते। यह न केवल हास्यास्पद है अपितु सफ़ेद झूठ भी है। यह तो सभी को पता है कि कितने ही नामी गिरामी आतंकवादी हमारे पडोसी देशों में पनाह लिए हुए हैं और दो दिन तो छोड़िये, दशकों से उनको पकड़ने के नाम पर शिफर ही हासिल हुआ है।

लघुकथा में उपर्युक्त विरोधाभास होते हुए भी इस बात से कतई असहमत नहीं हुआ जा सकता कि हमारे देश में आस्तीन के साँंप बहुतायत में हैं। चाहे वह बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं के अवैध रूप से भारत में घुसपैठ और बसने का मामला हो, सजायाफ्ता आतंकियों के जनाजे में शामिल होने की बात हो, उनकी फांसी की सजा को माफ़ करने वाली अपीलें हों या फिर दिल्ली के एक विश्विद्यालय में देश विरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन हो। इन सभी मामलों में हमारे देश में बड़ी संख्या में उसके समर्थक मौजूद हैं। इसके साथ इस रचना की यह विशेषता भी रही कि इसमें जो दो अधिकारीयों के बीच संवाद हुआ है उसमें नाम (अधूरा ही सही) केवल मिस्टर सिंह का ही आया है। दूसरे बड़े अधिकारी के नाम का जिक्र भी नहीं है फिर भी उपस्थिति का एहसास नाम की अनुपस्थिति में भी उतना ही हुआ है। ...आखिर ख़ुफ़िया तंत्र के बड़े अधिकारी हैं, उनके नाम आधे अधूरे या पूरी तरह से गुप्त रखने ही चाहिए। यह और कुछ नहीं, लेखक की कलम की कुशलता ही है।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - हूंदराज बलवाणी जी-2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी दूसरी लघुकथा "जादुई चिराग" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - जादुई चिराग 

लेखक - हूंदराज बलवाणी जी 

... और फिर वह चल दिया उस पार्टी के दफ्तर की ओर जिसके सबसे ज्यादा नेता उस जादुई चिराग की वजह से धनाढ्य हो चुके थे, उनके पास जमीन, जायदाद, गाड़ी-घोड़े, विदेशी दौरे, बच्चों की विदेश में पढाई-लिखे, सैर-सपाटे, भोग-विलास के साघनों की कोई कमी नहीं है। जैसे कुबेर के खजाने उनके लिए ही खोल दिए गए हों। उसने इधर-उधर भी नजर डाली, दूसरी पार्टियों के नेता भी किसी से कम नहीं थे लेकिन उसे वहाँ अमीरों में वही ज्यादा दिखे जो किसी खास कुनबे से तालुक्कात रखते थे। हालाँकि उस परिवार से सम्बंधित जाति के लोगों का भी बहुत उद्धार हुआ था, कुछ खास महकमों में सिर्फ उन्हीं लोगों को भर्ती किया गया था लेकिन यह तो कुछ भी नहीं। उन्होंने रेवड़ियां जो बाँट दी थी, सत्ता में आते ही। उनके खुद के कुनबे के लोग तो जैसे विधानसभा या लोकसभा का टिकिट लेकर ही पैदा होते हैं। सामान्यतः आम जनता का पहला नाम सरकार के जन्म-मृत्यु तालिका में पंजीकृत होता है लेकिन ऐसे राजनैतिक परिवार के लोगों का पहला नाम विधायक या सांसद की आगामी सूची में तय हो जाता है। उसने और नजर डाली तो कमोबेस हर पार्टी के यहाँ यही हालत थी। अब उसके लिए अपार संभावनाएं जाग गई थी। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था सिवाय जमीर को बेचने के। उसने लम्बे-लम्बे डग भरने शुरू कर दिए ताकि जल्दी से उस दल के कार्यालय में पहुंचकर वैभव की मंजिल पर पहुँचने की पहली सीढ़ी को छू सके।
....शायद यही कुछ विचार रहे होंगे 'उसके' जब उसने अलादीन का "चिराग" के बारे में जवाब सुना होगा।

... एक ताजातरीन अध्ययन और रपट के अनुसार आज भारत भ्रष्टाचार में नीचे से 78वें स्थान पर है। यह कितने शर्म की बात है। हम इस बात से खुश नहीं हो सकते कि हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान और सबसे भ्रष्ट देश सोमालिया से क्रमशः 117 वें और 180 वें स्थान से तो बेहतर ही हैं। यहाँ यह बात स्पष्ट करना उचित रहेगा कि भ्रष्ट देशों की जब आंकड़ों के आधार पर सूची बनती है तो केवल नेताओं को ही आधार नहीं बनाया जाता है बल्कि इसमें अफसरसाही और हर स्तर के भ्रष्टाचार को ध्यान में रखा जाता है।
... आखिर यह सोच ही क्यों पनपती है कि काश हमारे पास भी कोई अलादीन के चिराग जैसा साधन हो जिससे हम पलक झपकते ही अपने मन की चाहत को पूरा कर सकें। इसके पीछे अकर्मण्यता तो हो है ही साथ में असंतुष्टि और वैमनस्यता भी एक प्रमुख कारण है। और ये सब भी यों ही नहीं पनपते हैं। जब योग्य व्यक्ति को उसकी योग्यता के आधार पर काम न मिले, अयोग्य व्यक्ति को कम या बिना परिश्रम के ऊँचे ओहदे मिल जाएँ तो आदमी के पास क्या यह सोचने की भी छूट नहीं कि वह किसी अलादीन के चिराग की तरह किसी जुगाड़ की तलाश में लग जाये। हालाँकि किसी भी देश की प्रगति में उसके हर देशवासी का छोटा-बड़ा योगदान होता है और भारत भी उससे अलहदा नहीं है। किसी भी देश में उसकी जनता से वसूले गए कर से उस देश की सेना, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था,आदि सुचारु ढंग से चलाई जाती हैं लेकिन क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं कि हमारे देश में यह कर चंद लोगों से वसूला जाता है या कहिये सरकार वसूल पाती है। सरकार के संसाधनों और उसकी व्यवस्थाओं पर सैद्धांतिक रूप से तो सबका अधिकार है लेकिन हकीकत और विडंबना तो यह है कि जिस-जिसने अपनी मेहनत की कमाई से ईमानदारी से सरकार को कर दिया है उनमें से अधिकतर इन अधिकारों से स्वयं को महरूम पाते हैं। यह बड़ा दुर्भाग्य था कि प्राचीन काल में समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए जिन व्यवस्थाओं को योग्यताओं के आधार पर बनाया गया था बाद में वे परिवार आधारित हो गईं और इसने एक गलत सामाजिक व्यवस्था का रूप ले लिया और लोगों के साथ अन्याय हुआ। इस अन्याय की जितनी भर्त्सना की जाये वह कम है। आजादी के बाद इसी बुराई और असमानता को खत्म करने के लिए तात्कालिक आधार पर कुछ व्यवस्थाएं की गईं थी। इन व्यवस्थाओं से बहुत लोगों को लाभ भी हुआ और अभी भी हो रहा है जिससे उनके जीवन स्तर में बेहतरी आयी। लेकिन कालांतर में इस व्यवस्था का भी कमोवेश वही हाल हुआ जो प्राचीन काल में बनायी गई व्यवस्था का हुआ था। इस बात से किसी को एतराज नहीं है कि अगर कोई वास्तव में वंचित है तो उसे उसकी जरूरतों के अनुसार उसकी पूरी मदद होनी चाहिए लेकिन यदि यही मदद पीढ़ी दर पीढ़ी किसी जाति या मजहब के नाम पर निश्चित कर दी जाये तो इससे बड़ा दुर्भाग्य उस देश का नहीं हो सकता। आज दशकों पुरानी चली आ रही इस व्यवस्था से समाज के एक बड़े वर्ग के साथ अन्याय हो रहा है। इस व्यवस्था को राजनैतिक दलों ने सत्ता में बैठे रहने का अपने-अपने तरीके से दुरूपयोग किया है। किसी ने इसका समर्थन करके तो किसी ने इसका विरोध करके। जहाँ जिसकी गोटी बैठी, उसने उसका भरपूर फायदा उठाया। इस व्यवस्था ने न सिर्फ योग्यता और दक्षता को पीछे छोड़ दिया अपितु समाज में आपस में दूरियाँ पैदा की हैं। योग्य लोग हताश और निराश हैं। .....तो फिर अलादीन का चिराग तो चाहिए ही। हर व्यक्ति को खोज तो जारी रखनी ही चाहिए। शायद, चिराग न भी मिले लेकिन अलादीन तो मिल ही जायेगा जहाँ से सम्भव है कि उम्मीद की कोई किरण दिख जाये। लेकिन ध्यान इतना ही रखा जाये कि अगर मंजिल चमकदार और रास्ते सुगम हों तो रास्तों की जाँच कर लेना और अगर रास्ते दुर्गम से दिखें परवाह मत करना, अख्तियार कर लेना। उस दुर्गम रास्ते पर मेहनत और सच्चाई से आगे बढ़ते रहना। मंजिल पाते ही आप खुद ही हो जाओगे अलादीन और मेहनत व आत्मविश्वास के हथियार के रूप में आपके पास भी होगा जादुई चिराग।
किसी ने सच ही कहा है - "हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-खुदा।"
प्रस्तुत रचना में लेखक ने आज समाज की बड़ी समस्या "हर योग्य हाथ को काम" पर बड़े ही सुन्दर ढंग से कलम चलाई है। इसमें जहाँ एक पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक के अलादीन के चिराग की तलाश के पीछे के मनोभावों को कुशलता से वयां किया है वहीं राजनीति के उस परदे को भी उजागर किया जहाँ अक्सर अयोग्य व्यक्ति किस तरह से कुछ ही दिनों में धन-धान्य से अपना घर भर लेता है। मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - हूंदराज बलवाणी जी-1)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी लघुकथा "अरमान" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - अरमान

लेखक - हूंदराज बलवाणी जी 

उत्तर भारत में श्रीमद्भागवत कथा के आयोजन में कथावाचक अक्सर एक प्रसंग सुनाते हैं। एक सम्राट गर्मी के दिनों में शाम के वक्त अक्सर अपने महल की छत पर विश्राम करने जाते थे। उनके लिए उनके महल में नियुक्त दास-दासियाँ आरामदायक बिस्तर का प्रबंध करते और जब सम्राट उस बिस्तर पर आराम फरमाने आते तो पास ही खड़ी दासी उन्हें ठंडी हवा के झौंके देने के लिए धीरे-धीरे पंखा झलती थी। सम्राट इन्हीं सुखद अहसासों के साथ धीरे-धीरे निंद्रा के आगोश में चले जाते। एक दिन सम्राट को आने में थोड़ी देर हो गई तो सेवा में नियुक्त दासी ने विचार किया कि जबतक सम्राट आते हैं, क्यों न वह थोड़ी देर के लिए इस सेज का सुख लेले। वह जैसे ही उस बिस्तर पर बैठी, उसे बहुत ही आनंद का अनुभव हुआ और न जाने कब उसकी आँख लग गई। कुछ समय बाद जब उसकी नींद टूटी तो उसने देखा कि सम्राट पास ही खड़े हैं और उस पर पंखा झल रहे हैं।....आगे की कहानी फिर कभी। पाठकों को सूचनार्थ बता दूँ कि उस सम्राट ने उस दासी को कोई सजा नहीं दी और यह कहते हुए बात को टाल दिया कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। मैं तो वही कर रहा था जो कि यहाँ पर खड़े व्यक्ति को करना होता है यानि पंखा झलने का काम।

इस कथा का यहाँ सदर्भित करने का उद्देश्य यही था कि प्रस्तुत रचना 'अरमान' के 'सुखराम' की तरह ही अक्सर हर व्यक्ति के मन में इच्छाएँ, लालसाएँ जगती हैं कि काश वह भी आज किसी व्यक्ति के स्थान पर होता तो शायद असीम आनंद का सुख भोग रहा होता। हालाँकि यह जगत ही मिथ्या है। हर किसी को अपना काम ख़राब और दूसरे का काम अच्छा और आकर्षक प्रतीत होता है। अधिकतर लोग तो अपने कष्टों के कारण कम दुखी हैं, वे दूसरे के सुखों के कारण ज्यादा दुखी रहते हैं। यह तो एक सामान्य बात है लेकिन कुछ बातें मानवता के आधार पर भी समझी जा सकती हैं। कुछ लोग चांदी की चम्मच लेकर पैदा होते हैं। उन्हें रहने, खाने, उचित स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि सारी सुविधाएँ उनके संपन्न माँ-बाप की बदौलत प्राप्त होती हैं तो सम्भावना रहती है कि वे कम संघर्ष के भी एक आरामदायक जिंदगी गुजर-बसर कर सकें। लेकिन उन लोगों का क्या कसूर जिनका शारीरिक ढांचा तो सबके सामान ही होता है लेकिन किन्हीं कारणों से वह समाज में सम्पन्नता और शिक्षा की दौड़ में पीछे रह जाते हैं जिसके कारण उन्हें आभाव की जिंदगी जीने और छोटी-मोटी नौकरियां कर जीवन यापन करना पड़ता है। ... और फिर यहीं से शुरू होती है उनके अरमानों की चाह कि 'काश! वह भी इस तरह की नौकरी कर रहे होते।' आगे चलकर यही इच्छाएँ, कुंठाओं में बदल जाती हैं और फिर ईर्ष्या आदि का कारण बनती हैं। यह बहुत प्राकृतिक है कि यदि मानव सुलभ संवेदनाओं को मिटने न दिया जाये तो और अपनी पद-प्रतिष्ठा से इतर अपने नीचे काम करने वालों से भी सहृदयता से व्यवहार किया जाये तो उन्हें आर्थिक रूप से न ही सही, भावनात्मक रूप से मजबूती तो मिलती ही है। यह बहुत तरह से सिद्ध हो चुका है कि साथ में काम करने वालों की भावनाएं और उनका स्पंदन माहौल को बनाने में बहुत काम करता है। इनका असर वातावरण में सुखद या दुखद किसी भी रूप में हो सकता है। कार्यालय में कर्मचारी सुखराम की भावनाएं ही देख लीजिये, "वह ऐसे उठा जैसे उसके पैरों बेड़ियाँ बंधी हों।" हालाँकि नियमानुसार यह सुखराम का दायित्व है लेकिन उसे बार-बार साहब के बुलाने पर खीझ हो रही है और वह अपने भाग्य को कोस रहा है कि वह ज्यादा क्यों न पढ़ पाया ? सुखराम के इस विचार का किसी भी तरह से समर्थन तो नहीं किया जा सकता लेकिन सत्यता से मुंह भी नहीं मोड़ा जा सकता।
दूसरा सत्य पक्ष 'साहब' का भी है। हो सकता है कि साहब की व्यस्तता इतनी ज्यादा हो कि वह छोटा काम भी स्वयं नहीं कर सकते लेकिन सुखराम की भावनाओं के वेग को रोकना व उसे समझाना यह उसकी अपनी बुद्धिमत्ता पर ही निर्भर है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह हरगिज साहब की अनुपस्थिति में घंटी बजाकर साहब को 'पानी लाने का आदेश' न देता। यह सब उसके अंदर उपज चुकी हीन भावना की पराकाष्ठा है जो अब सतह पर आ चुकी थी। हालाँकि इसका कारण एक यह भी होता है कि यदि आदमी को शारीरिक और मानसिक अभ्यास कम करने पड़ें तो फिर नकारात्मकता का हावी होना अवश्यसंभावी है। इसे आम बोलचाल की भाषा में हम "खाली दिमाग, शैतान का घर" भी बोलते हैं। इस लघुकथा में सुखराम का कार्य ऐसा है कि जिसमें वह शारिरिक रूप से भागदौड़ में भले ही लगा रहता हो लेकिन उसे ऐसा कोई कार्य नहीं करना पड़ता है जिसमें उसे दिमागी तौर पर श्रम करना पड़े।
प्रस्तुत रचना में लेखक ने सामान्य और रोजमर्रा के होने वाले हालात को बड़े ही प्रभावी ढंग से लघुकथा में ढाला है। कथा के मुख्य पात्र 'सुखराम' की भावनाओं को जिस तरह से जीवंत करके लिखा है, उसके लिए लेखक के लेखन कौशल्य की जितनी प्रसंशा की जाए कम है। लघुकथा का शीर्षक 'अरमान' भी कथानक के अनुसार बहुत सटीक बैठता है। इस सुन्दर लघुकथा के लिए मैं हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-3)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "दंगे की जड़" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - दंगे की जड़


मैंने बचपन में एक बड़ी ताई जी के बारे में सुना था कि उनको अक्सर लोगों से झगड़ने की आदत थी। लोगों से किस बात पर झगड़ा करना है, उनके लिए कारण ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक बार की बात है कि कुछ लड़के गली में गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अचानक एक लड़के ने गुल्ली को बहुत दूर तक पहुंचा दिया। बस ताई जी ने लड़कों को आड़े हांथों ले लिया। बोलीं, "खेलना बंद करो"। जब लड़कों ने कारण पूछा तो बोलीं, "अगर मेरी बेटी आज ससुराल से घर आ रही होती तो उसको चोट लग सकती थी।" बेचारे लड़के अपना सिर खुजलाते अपने घरों की ओर चले गए। लड़कों को पता था कि यदि बहस में पड़े तो दंगे जैसे हालात हो सकते हैं।
...आज हमारे देश में ऐसी ताइयों की कमी थोड़े ही है। इस स्वभाव के लोगों को राजनीति में स्वर्णिम अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। आखिर इसी की तो कमाई खा रहे हैं लोग। सुना है अंग्रेजों ने हमारा देश 1947 में छोड़ दिया था लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जाते-जाते वे हमें "फूट डालो और राज करो" का मंत्र सिखा कर गए। इसका अनुसरण करने में फ़ायदे ही फायदे जो हैं। इसके लिए नेताओं को कुछ खास करना भी नहीं है। पांच साल सत्ता का सुख भोगिये और चुनाव से पहले धर्म-जाति के नाम पर शिगूफे छोड़िए, बहुत संभावना है कि अगली सरकार आपकी ही बने। हाँ, यह उनकी दक्षता पर निर्भर करता है कि किसने कितनी बेशर्मी से इस मंत्र का प्रयोग किया। 'जीता वही सिकंदर' वाली बात तो सही है लेकिन जो हार गए वह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन्होंने भी आजकल बगुला भगत वाला चोला पहना हुआ है।

मैंने एक पंडित जी के बारे में सुना है कि वे बड़े ही धार्मिक और पाक साफ व्यक्ति हैं। वह केवल बुधवार को ही मांस-मछली खाते हैं, बाकी सब दिन प्याज भी नहीं। लेकिन बुधवार को भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जब मांस-मछली का सेवन करते हैं तो जनेऊ को उतार देते हैं और बाद में अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद ही जनेऊ पहनते हैं। इन्हें संभवतः अपने धर्म की अच्छाईयों के बारे में न भी पता हो लेकिन दूसरे धर्मों में क्या बुराइयां हैं, इन्हें सब पता है। यह हाल केवल या किसी एक धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के नहीं हैं। कमोवेश यही हाल सब जगह है। इस तरह के पाखंडियों का क्या कहिये? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे पाखंडी लोगों के बड़े-बड़े आश्रम हैं, मठ हैं, इज्जत है, पैसा है और भक्तों की बड़ी भीड़ भी है। अब ऐसे ही चरित्र वालों को जगह मिल गयी है राजनीति में। वर्तमान समय में राजनीति में धर्म है या धर्म में राजनीति, यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि इनका गठजोड़ रसगुल्ले और चाशनी जैसा हो गया है। खैर...
यह बात किसी के भी गले नहीं उतरेगी कि आखिर रावण के पुतले को आग लगाने वाला सिर्फ आतंकवादी इसलिए करार दिया गया क्योंकि वह किसी और धर्म का है। सुना है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता तो फिर बुराई खत्म करने वाले का धर्म कैसे निश्चित हो गया। और वैसे भी जब रावण बुराई का प्रतीक है तो फिर उसका धर्म कैसे निश्चित हो गया? और इस तर्ज पर यह जरूरी क्यों है कि आप उसे किसी धर्म का माने? और जो बुरा व्यक्ति जब आपके धर्म का है ही नहीं तो फिर उसे किस धर्म के व्यक्ति ने मारा? इस प्रश्न का औचित्य ही क्या रह जाता है? लेकिन नहीं, साहब। ये तो ठहरे राजनेता। इन्हें तो मसले बनाने ही बनाने हैं। कैसे भी हो, इनके मतलब सिद्ध होने चाहिए।
वैसे भी आजकल रावण दहन के प्रतीकात्मक प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं रह गया है उल्टे अनजाने ही सही वायु प्रदूषण का कारण बनता है सो अलग। क्योंकि जिनके करकमलों द्वारा इस कार्य को अंजाम दिया जाता है, उनके अंदर कई गुना बड़ा रावण (अपवादों को छोड़कर) दबा पड़ा है। रावण का चरित्र तो कम से कम ऐसा था कि उसने सीता को हरण करने के बाद भी कभी भी जबरन कोई गलत आचरण नहीं किया और वह इस आस में था कि एकदिन वह उसे स्वीकार करेंगी लेकिन क्या आजकल के धर्म या राजनीति के ठेकेदारों से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं।
....तो फिर क्या आपत्ति है? और यह जानने की भी आवश्यकता क्या है कि रावण को किसने जलाया? क्या यह काफी नहीं है कि रावण जला दिया गया? यह जरूर काफी होगा उस सामान्य जनमानस के लिए जिसे बुराईयों से असल में नफरत है। लेकिन ये ठहरे नेता। इन्हें तो मजा ही तबतक नहीं आता जबतक समाज में जाति-धर्म के नाम पर तड़का न लगे। आदमी की खुशबू आयी नहीं कि सियार रोने लगे जंगल में, टपकने लगी लार। माना कि पुलिस ने उस तथाकथित आतंकवादी को पकड़ भी लिया है तो यह तो पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी तरफ से तफ्तीश करें और जो कानूनन ठीक हो, उसके हिसाब से सजा मिले। लेकिन....फिर वही। यही तो राजनीति का चारा है। इतिहास गवाह है कि कितने ही अनावश्यक दंगे इन राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए कराए हैं। लेकिन...इनका अपना जमीर इनका खुद ही साथ नहीं देता है। ये तो अपने खुद के कर्मो से अंदर ही अंदर इतने भयभीत हैं कि इनकी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि ये किसी पाक-साफ आदमी से नजर मिलाकर बात भी कर सकें। आखिर साधारण और सरल आदमी को मंदबुद्धि भी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अंदर छल और प्रपंच नहीं होता। लेकिन बुराई को पहचानना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता। उसके लिए हमारा समाज ही बहुत है। तभी तो उस मंदबुद्धि के बालक ने बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जला डाला था। जब वह मंदबुद्धि ही था तो संभव है कि उसे अपने धर्म का भी न पता हो लेकिन अच्छाई और बुराई का ज्ञान किसी भी धर्म के व्यक्ति को हो ही जाता है। इसके लिए किसी खास बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। उसने रावण को जला डाला और छोड़ दिया अनुत्तरित प्रश्न, इस स्वीकरोक्ति के साथ कि "हाँ, मैंने ही जलाया है रावण को। क्या मैं, राम नहीं बन सकता?"
यह ऐसा यक्ष प्रश्न है कि अगर इसका उत्तर खोज लिया है तो "दंगे की जड़ों" का अपने आप ही सर्वनाश हो जाये।
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-2)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "अन्नदाता" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - चंद्रेश छतलानी जी

लघुकथा - अन्नदाता 

मैंने बहुत पहले एक कविता लिखी थी, उसकी दो पंक्तियाँ :
बरसात में कुकुरमुत्ते जैसे उग आते हैं,
नेता भी चुनावों में वैसे ही बढ़ जाते हैं।

अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इन्हें नेता कहना 'नेता' शब्द का अपमान हैं क्योंकि इनके क्रिया-कलाप इस शब्द के पासंग भी नहीं हैं।
कई साल पहले एक फ़िल्म आयी थी जिसमें कहा गया था कि "बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो अब संसद में बैठते हैं।" राजनेताओं ने अपनी इस छवि को बनाने में बड़ी मेहनत की है। जनता के पसीने की कमाई की जो बंदर-बाँट करते हैं, उसकी जितनी मजम्मत की जाए कम है।
..कहते हैं जंगल में आदमी कितना भी सावधानी से कदम रखे, शिकार की तलाश में बैठे जानवरों को खबर हो ही जाती है। दरअसल, प्रकृति ने उनके उदर पूर्ति के लिए ये हुनर दिया है कि वे अपने शिकार को उसकी गंध और तापमान से दूर से ही पहचान लें और घात लगाकर उन पर आक्रमण कर दें। बिल्कुल यही प्रक्रिया आजकल के राजनेता अपनाते हैं। हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों ने हमेशा जनता को अपने हित साधने के लिए प्रयोग किया है। चाहे वह 1947 में देश के विभाजन की दुःखद घटना हो या उसके बाद से समय-समय पर होने वाले धर्म/मजहब या जाति आधारित दंगे हों। सबके पीछे नेताओं की सत्ता लोलुपता और अपने फायदे ही छुपे रहते हैं। नेताओं ने बड़ी ही चतुरता से देश को जाति-मजहब में बाँटने का काम किया है। आज हालात यह हैं कि मतदाता अपने कीमती मत का प्रयोग इन चालबाजों की बातों में आकर कर रहे हैं और इनकी कुटिल राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं। इन नेताओं ने इसे अपना ऐसा ब्रम्हास्त्र बनाया हुआ है कि जब इसका असर होता है तो न तो जनता को अच्छी शिक्षा चाहिए, न स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए और न ही और कोई विकास।

सुप्रसिद्ध कवि और गीतकार नीरज जी की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं :
"भूखा सोने को तैयार है मेरा देश,
बस उसे परियों के सपने दिखाते रहिए।"

नीरज जी ने यह बात कई दशकों पहले लिखी थी लेकिन आजकल की हकीकत तो यह है कि आप सपने छोड़िए, बस एक मोबाइल, लैपटॉप या साइकिल दे दीजिए।। बस, मतदाता आपका गुलाम। नेताओं के इसी सफलता के अचूक सूत्र ने बहुत से नेताओं को उनकी पीढ़ियों से सत्तासीन किया हुआ है। इन नेताओं के हालात कुछ ही दशक में कहाँ से कहाँ पहुँच गए? इन्होंने बाँटने की राजनीति को इस तरह बोया और काटा कि उनके परिवार का हर सदस्य सत्ता सुख भोगता रहा और देश की जनता के पसीने की कमाई से खुद की झोपड़ी, महलों में बदल ली और आम आदमी का जीवन स्तर नीचे, और नीचे गिरता चला गया।
....प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने आज की राजनीति को देश के अन्नदाताओं से जोड़कर लिखा है। आजकल खेती करना बहुत ही घाटे के सौदा हो गया है। तकनीक की उपलब्धता के बाबजूद आज भी किसान प्रकृति के रहमो-करम पर निर्भर है। प्रकृति को हमने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए बदलने पर इतना मजबूर कर दिया कि अब उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। जंगल के जंगल साफ हो रहे हैं, सड़कों को चौड़ा करने के फलस्वरूप पेड़ों की कटाई लगातार जारी है, नदियों का पानी, कारखानों की गंदगी और रसायन के लगातार मिलने से प्रदूषित हो रहा है। तो ऐसे में किसान करे भी तो क्या करे? सब किसानों की यह क्षमता नहीं है कि वे अपने कुएं खोद लें और पम्प से पानी प्राप्त कर लें और जिनकी यह स्थिति है उन्हें भी पानी के लगातार कम हो रहे जलस्तर से इस सुविधा का लाभ आखिरकार कब तक मिल पायेगा? चलो मान भी लिया जाए कि समय से बारिश हो भी गई तो रही बची कसर पूरी कर देते हैं आवारा जानवर। किसानों की जिंदगी इन समस्याओं के कारण बहुत ही मुश्किल और दयनीय हो जाती है। आजकल खेती से जो पैदावार होती है उसमें किसान की लागत भी नहीं निकलती है। ऐसे में कई किसान समस्या के निदान हेतु या तो किसी बैंक के कर्जदार ही जाते हैं या किसी साहूकार के। दोनों ही हालात में वह कर्ज के चक्रव्यूह से निकलने में अपने आपको असहाय महसूस करता है और फिर उसे इस जहाँ से रुखसत होने का दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठाना पड़ता है।
किसी ने इस तरह के हालात पर कहा है -
चेहरा बता रहा था कि मरा है भूख से,
सब लोग कह रहे थे कुछ खा के मर गया।😢

चुनावों का मौसम आ चुका था और आज उस किसान की फसल कटी है। वह फसल से हुई उपज और जिंदगी को तौलने की असफल कोशिश में था कि 'गिद्धों' का आना शुरू हो गया। इन्हें आम आदमी की मुश्किलों से कोई मतलब नहीं। आम आदमी की मुश्किलें इनकी बला से। शिकार देखा और अपने धर्म के रंग का तीर चला दिया, "काका, आपका मत मेरा मत। क्योंकि आपका धर्म मेरा धर्म और धर्म की रक्षा हेतु आपका कर्तव्य है कि आप मुझे ही अपना मत प्रदान करें।" .... अब होली चाहे त्योहार के नियत समय पर अपने रूप में कम मनाई जाए लेकिन चुनावों में रंगों का महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें पास आती जा रही हैं, हर रंग वाला, धर्म की रक्षा हेतु खुद को सच्चा ठेकेदार बताते हुए आम आदमी से खुद को चुनने के लिए गुहार करता है। आम आदमी? उसके लिए तो इन रंगों के क्या मायने होंगे जब उसकी जिंदगी में सिर्फ रातें ही नहीं दिन भी स्याह हो चुके हैं।
...लेकिन हमारे देश का किसान या कोई भी मेहनतकश आदमी इन चमचमाती गाडियों में आने वालों की चाशनी से पगी बातों में अपनापन देखता है और उसे लगता है कि यह सब तो अपने ही हैं। सभी उसके साथ हैं, शायद जिन्दगी का सफर इतना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन हकीकत इन सबसे अलग होती है। उसे यह पता भी नहीं चल पाता कि इन रंगों ने अपना काम कब कर दिया? चारों तरफ अपने ही तरह और उन्हीं रंगों में रंगे लोगों का हित शायद सिद्ध हो चुका है। अब बस आखिरी निर्णय और वह अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर चुका है। एक ऐसे गन्तव्य की ओर जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता, अन्नदाता भी नहीं।😢
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मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-1)

मेरी समझ' की आज की कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश_छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "इलाज" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - चंद्रेश छतलानी जी

लघुकथा - इलाज 

अगर सही अर्थों में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति नास्तिक नहीं होता है। कम से कम यह बात हमारे भारत में तो लागू होती ही है। हमारे देश में ज्यादातर तथाकथित नास्तिक मानते हैं कि उसी धर्म के होकर, उसी धर्म और उनके ईश्वर की बुराई करना और दूसरे धर्म के बारे में अच्छा बोलना ही नास्तिकता है। दरअसल वे राजनीति से प्रेरित जो होते हैं। हमारे देश में धर्म, राजनीति में घुस गया है और विचारधाराएं इसे अपने नफा-नुकसान की तरह प्रयोग करती हैं। यह मुझे तबतक पता न चलता जबतक मैं एक ऐसे देश में नहीं गया जहाँ के अधिकतर लोग नास्तिक हैं और वह भी वास्तविक वाले नास्तिक। हालांकि, उस देश में आस्तिक भी हैं जो बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं लेकिन 20-25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। मैंने इसकी तह में जाना चाहा तो पता चला कि बाकी के 75-80 प्रतिशत वास्तव में असली वाले नास्तिक हैं। मैंने जब उन नास्तिकों से उनकी धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानना चाहा तो उनके हावभाव ऐसे थे जैसे कि मैंने कोई फालतू सा सवाल पूछा हो। वे बिल्कुल ही धार्मिक जैसे शब्द से अनभिज्ञ लगे। उन्हें कुछ भी नहीं पता। यहाँ तक कि यह भी नहीं कि उनके देश में पूजा पाठ की कोई परंपरा भी है। इनके व्यवहार में कोई कटुता, विद्वेष या विकार मुझे नजर ही नहीं आया। बड़े मिलनसार, सह्रदय और बिल्कुल उस परिभाषा से भिन्न जो हमें भारत के तथाकथित नास्तिकों में दिखाई देती है। निश्चित रूप से हमारे देश के अनेक नास्तिक मनोरोगी हैं जिन्हें बड़े 'इलाज' की जरूरत है। यहाँ यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हर देश के तथाकथित आस्तिकों को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं है। अर्थात, उन्हें भी है।
...यह तो सर्वविदित है कि किसी भी स्थान पर चल रहे कार्यकलापों का वहाँ के वातावरण में, वहाँ की फिजा में उसका अपना प्रभाव रहता है। यह प्रभाव वहां पर उपस्थित या उससे संबंधित सभी मनुष्यों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों पर समान रूप से अपना असर करता है लेकिन यह निर्भर करता है कि किसमें कितनी ग्राह्य क्षमता है। किसकी कैसी भावना है और किसका क्या उद्देश्य है? हमारे देवालयों में बहुत लोग जाते हैं जिसमें कोई भगवान को धन्यवाद कहने जाता है, कोई माफी मांगने जाता है, कोई आशीर्वाद, कृपा के लिए जाता है, कोई जेब काटने के लिए और कोई जूते-चप्पल की फिराक में।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुसलीदास जी कहते हैं: 
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

....तो वहाँ के वातावरण का असर लोगों की अपनी सोच और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि उन्हें वहाँ से क्या हांसिल हुआ, होता है या होगा?
प्रस्तुत लघुकथा में भी गिरजाघर में सफाई के काम में कार्यरत स्टीव का भी ऐसा ही कुछ हाल था। उसे ईश्वर पर कितना विश्वास था यह अलग बात है लेकिन उसे उस रूढ़ि से नफरत थी कि लोगों को घंटी बजाकर प्रार्थना की याद दिलानी पड़ती है। संभवतः यह उसकी अपनी सोच थी लेकिन मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर के संचालन के अपने नियम होते हैं और सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे कायदे होते हैं जिन्हें वहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए यह सब करना पड़ता है। खैर....अक्सर जिन्हें नियम, कायदे कानूनों से खासी परेशानी होती है उनके अपने कुछ अलग ही चरित्र होते हैं। स्टीव का भी यही हाल था। लेखक ने भले ही उसे दिलफेंक न कहा हो लेकिन जब-तब प्राकृतिक/अप्राकृतिक, अभिलाषायें/कुंठाएं सतह पर आ ही जाती हैं। इन्हीं कुंठाओं को शांत करने के लिए वह चला जाता था उस वैश्यालय में जहाँ नियत समय पर सारी लड़कियां बालकनी में खड़ी होती होंगी। शायद ग्राहकों को आमंत्रित करने का समय होता होगा। अब जब स्टीव एक नियत समय पर पहुंचता था तो घटना तो आगे के चरण पर जाना ही चाहेगी। उसे उस समूह की सबसे सुंदर लड़की बहुत पसंद थी और उसके साथ समय बिताने की कीमत थी 55 डॉलर। उसकी अंटी में 10-15 डॉलर से ज्यादा कभी हुए ही नहीं। इतनी रकम उस सफाई कर्मचारी के लिए दूर की कौड़ी थी। तो क्या करे? फिलहाल तो बस उसके दर्शन मात्र से ही सुख पा रहा था। कहते हैं कि आकर्षण के नियम (लॉ ऑफ अट्रैक्शन) का एक सिद्धान्त है कि जो आप चेतन मन से अधिक सोचते हैं वह धीरे-धीरे आपके अचेतन मन में प्रवेश कर जाता है और फिर अचेतन मन उसे आपके लिए उपलब्ध कराने में जुट जाता है। ध्यान रहे, अचेतन मन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी सोच अच्छी है या बुरी। उसे तो हुक्म की तामील करनी होती है।
जब व्यक्ति का अंतर्मन अनुचित विचारों में लगा रहता है तो फिर किसी बाह्य देवालय के वश की बात नहीं होती है कि आपका आचरण बदल पाए। क्योंकि कि हर व्यक्ति का पहला देवालय उसके अंदर होता है और दूसरा बाहर। जब अंतर्मन ही आपने शुद्ध नहीं किया तो फिर बाहर के मंदिर से जुड़ना असंभव होता है।
स्टीव के अचेतन मन के प्रयासों से उसके विकारों को साकार करने के लिए उसे एक दिन सफाई करते हुए उसी गिरजाघर में किसी का बटुआ मिल गया जिसमें 400 डॉलर की बड़ी रकम थी। स्टीव को तो जैसे इन्हीं की दरकार थी। उसने यह परवाह भी नहीं की कि इस तरह से किसी के बटुए को हड़प लेना कितना बड़ा पाप है। हालांकि उसने चोरी नहीं की थी मगर यह किसी चोरी से कम भी नहीं थी। और जैसे उसकी मुराद पूरी हो गई थी। और फिर वह रकम लेकर वैश्यालय की ओर दौड़ गया, उसी सुन्दर लड़की के पास जिसे उसने बहुत समय से केवल देखकर संतोष किया था। हालांकि उसे पता था कि वह क्या करने जा रहा था, लेकिन किसी का बटुआ हड़पने और वैश्यालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले वह प्रभु यीशु को मथ्था टेकना नहीं भूला। अब वह बिना देर किए, उस लड़की को पाना चाहता था और वासना से लथपथ सारी हदें पार करना चाहता था।
....एकतरफा ही सही, उसकी अपनी स्वप्न सुंदरी से मुलाकात और वार्तालाप शुरू हुआ। इससे पहले कि 'मिलन' की बहुप्रतीक्षित घड़ी आती, स्टीव को पता चला कि उसका नाम "मैरी" है। शायद बुराइयों से लदे उस व्यक्ति में गिरजाघर में सफाई के दौरान कहीं न कहीं दुआओं, प्रार्थनाओं, उद्घोषों से छन-छन कर आने वाला पवित्र नाम "मैरी" आज ऊपरी सतह पर आ गया था। आज गिरजाघर में सुने उस "मैरी" शब्द की आवृत्ति (frequency) संभवतः इस वैश्यालय में सुने शब्द से मेल खा गई थी। मन के किसी कौने से आवाज आई और हृदय परिवर्तन हो गया उसका। आखिर रोज-रोज की प्रार्थनाओं, घंटियाँ और वैश्यालय की ओर चलने से पहले प्रभु की चरण वंदना का कुछ तो असर होना ही था। इससे पहले कि वह उस खाई में गिरता, उसने अपने पास उपलब्ध सारे पैसे उस हसीन लड़की को दे दिए। स्टीव के मन में चल रहे झंझावतों से अनभिज्ञ वह सुंदरी तो जैसे घबरा ही गई थी कि इतने ज्यादा पैसे देकर अब उसे और न जाने क्या अनैतिक करना पड़ेगा? पूछने पर स्टीव इतना ही कह सका, "अपना नाम बदल लेना"...और फिर वह वैश्यालय, उस लड़की से दूर आ गया।
आज उसके अंतर्मन ने अनजाने ही सही, उसका 'इलाज' कर दिया था। अब उसके मन में मैरी और गिरजाघर से दूर भी वहाँ की पवित्र घंटियाँ सुनाई दे रही थीं। अब उसे उन आवाजों से कोई नफरत नहीं हो रही थी। मन से काले बादल छँट गए थे।
मैं छतलानी साहब को अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - आशीष दलाल - 2)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक एक बार पुनः आदरणीय आशीषदलाल जी हैं। आज उनकी दूसरी लघुकथा "परम्परा" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक -आशीष दलाल जी
लघुकथा - परम्परा 

अगर कहा जाए कि भारत श्रद्धालुओं का देश है तो अतिश्योक्ति न होगी लेकिन यह श्रद्धा जब अंधभक्ति का रूप ले लेती है तो वहाँ जीवन रूढ़ियों में जकड़ा हुआ सा प्रतीत होता है। इसी अंधभक्ति के कारण न जाने कितने ढोंगियों ने अपनी दुकानें चलाई और यह छोटे-मोटे विरोधों के साथ आज एक बड़ा व्यवसाय बना हुआ है। हमारे यहाँ एक कहावत हमारे खून में शामिल कर दी गई है और वह यह कि जब श्रद्धा आदि की बात की जाए तो उसमें तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। ताज्जुब की बात तो यह है कि जिस बात पर तर्क न करने की बात कही जाती है उसी बात को तर्कसंगत बताने के लिए कुछ और बातें कह दी जाती हैं। जैसे - संत रविदास जी के संदर्भ के साथ "मन चंगा तो कठौती में गंगा" और "मानिए तो ईश्वर नहीं हो पत्थर तो है ही"। हालांकि यहाँ भी तर्क तो सही दिए गए हैं लेकिन इनके द्वारा जो मंतव्य परोसा जाता है वह गलत है। इन दोनों बातों का संबंध सीधे तौर पर व्यक्ति की मनःस्थिति को सकारात्मक दृष्टि देने से है न कि किसी बात को बिना वैज्ञानिक आधार पर खरा मानने के लिए।
...प्रस्तुत लघुकथा गुजरात में प्रचलित एक परंपरा पर आधारित है जिसने आज व्यापक रूप लिया हुआ है। आज यह गुजरात के साथ कई अन्य राज्यों में भी अपना प्रसार कर रही है।

हमारे गुजरात में एक परंपरा है कि हर वह व्यक्ति जिसकी चाय-नाश्ते की दुकान है, वह अपने दुकान की पहली चाय का एक कप और एक गिलास पानी सड़क के बीचों बीच फैलाकर आता है और उस पर मान्यता यह है कि जो भी ऐसा करता है उसकी दुकान दिन भर अच्छी चलती है और उसका कारोबार बढ़ता है। सबको पता है कि अमूमन चाय वाले वैसे भी मासूम होते हैं। उन्हें क्या दिक्कत है यदि मात्र एक कप चाय और एक गिलास पानी से पूरे दिन गुल्लक में दनादन खनक लगी रहे। वैसे यह बात अलग है कि चाय वाले को कभी हल्के में न लें।
...तो यह परंपरा बहुत पुरानी और प्रचिलित है जिसे आप लगभग पूरे राज्य में देख सकते हैं। वैसे इस अंधविश्वास के इतर इस प्रथा के पीछे की कहानी और हकीकत कुछ और है। निश्चित रूप से यह प्रथा दुकान चलाने के लिए ही शुरू हुई थी लेकिन यह करना हर दुकानदार के लिए आवश्यक नहीं है। इसके मूल में जाएं तो पता चलता है कि पुराने जमाने में हाइवे और जो बड़े-बड़े शहरों या दो राज्यों को जोड़ने वाले राजमार्ग होते थे, उनके आसपास कोई बस्ती या गांव नहीं होते थे क्योंकि कि सड़कों की परियोजना अमूमन उस जगह को चयनित करके साकार होती थी जो निर्जन हो और जिससे खेती आदि के माफिक जमीनों और बने बनाये, बसे बसाए घरों को न उजाड़ना पड़े। फिर जब ये मार्ग शुरू हो जाते थे तो एकाध लोग झुग्गी-झोपड़ी बनाकर इनके किनारे चाय आदि की दुकान खोल लेते थे। ये दुकानें इन मार्गों के पास होते हुए भी काफी दूर होती थी और खासकर रात में अंधेरे के कारण इनके बारे में सड़क से गुजरने वालों को पता नहीं चल पाता था। तो इस समस्या से निजात पाने के लिए यह परम्परा शुरू हुई कि सुबह की पहली चाय और एक गिलास पानी यदि सड़क के बीचोंबीच फैला दिया जाए तो दूर से ही मोटर, बस, ट्रैक्टर आदि की रोशनी से उन्हें इस बात का पता चल जाएगा कि यहाँ चाय आदि की दुकान है। कालांतर में इसने अपना विस्तार किया और मूल कारण को छोड़ अन्य मान्यताओं को जोड़कर वर्तमान में ऐसा रूप लिया कि आजकल बीच शहर की दुकानों में भी यह चलन जारी है जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है। खैर...
....लेकिन कहते हैं न, कि विकास की अपनी एक यात्रा है। चाहे वह विचारों का विकास हो या किसी सभ्यता का विकास हो या कुछ और। उदाहरण के लिए यदि सोचें कि आज जिन फलों, सब्जियों को हम बड़े विश्वास के साथ उनके गुणों-अवगुणों को जानते हुए सेवन करते हैं, क्या वह बिना किसी विकास यात्रा के सुलभ हो गए? नहीं। हरगिज़ नहीं। पता नहीं इसके लिए हमारे कितने पूर्वजों ने अपने जीवन को खोया होगा। कितनों ने अपनी भूख मिटाने के लिए जहरीले फलों और सब्जियों को खाया होगा। ...और फिर सदियों की बलिदान गाथा के बाद वे इन नतीज़ों पर पहुंचे होंगे कि फलाना फल या सब्जी के क्या गुण और अवगुण हैं।
इस प्रकार की विकास यात्रा अनवरत चलती है और आज हम जिस स्थिति में हैं इसके मूल में "करो और सीखो" के सिद्धांत ही हैं।
....तो आज भी उसने धंधे के शुरुआत का पहला चाय का कप जैसे ही सड़क पर फैलाने की ओर कदम बढ़ाए, संभवतः अचेतन मन में बसी भावनाओं ने उन कदमों को थामने का फैसला कर लिया था। बुढ़ापे का शरीर हो, ठंडी का मौसम हो और गरीबी की मार हो तो एक सामान्य मन में संवेदनाओं का जग जाना स्वाभाविक है। और यह क्षण वह होता है जब परमात्मा आप से स्वयं अपना काम करवाता है। इससे पहले कि वह, चाय सड़क के हवाले करता, उसके कदम मुड़ गए उस ठिठुरती बुढ़िया की ओर जिसे शायद इस चाय के कप की सबसे ज्यादा जरूरत थी। कहते हैं कि जब नेकी करने का इरादा हो तो रास्ते भी उसी तरह बनते जाते हैं। आज से उस चाय वाले ने नई परम्परा को जन्म दे दिया था जिससे व्यवसाय बढ़ने की शायद कोई निश्चितता न भी हो लेकिन उस बुढ़िया की प्रसन्नता सुनिश्चित हो गयी थी। आज परम्परा बदल गई थी। खर्चा उतना ही था, बस एक कप चाय।
चूंकि आज चाय अपने सही गंतव्य तक पहुँच चुकी थी, मैं 146 शब्दों में मात्र एक शब्द की वर्तनी पर आज फिर चुप रहूँगा। संयोग यह है कि यह शब्द फिर से कल वाला ही है।
मैं आशीष दलाल जी को पुनः अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - आशीष दलाल-1)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय आशीष दलाल जी। आज उनकी लघुकथा "आग" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक -आशीष दलाल जी
लघुकथा - आग 

मानव मन अति संवेदनशील होता है। इसमें जितनी अधिक विस्तार की संभावना होती है उतनी ही ज्यादा संकुचित विचारों को पनपने की नकारात्मक क्षमता भी होती है। मनोविज्ञान कहता है कि यदि आपने अपने मन को जागरूकता से प्रशिक्षित नहीं किया है तो ज्यादा संभावना है कि मन बनी बनाई पगडंडियों पर चलकर भटक जाए और गलत निर्णय ले ले। मन पानी की तरह निर्मल हो न हो लेकिन पानी की तरह उपलब्ध बर्तन का आकार और उसके अनुरूप ढलने की क्षमता अवश्य रखता है फिर चाहे बर्तन के गुण-धर्म उसे विषाक्त ही क्यों न कर दें।
इसी मनोवैज्ञानिक आधार शिला पर टिकी लघुकथा है "आग"। जैसे ही कोई शीर्षक हमारे जेहन में आता है हम उसके नकारात्मक, सकारात्मक, नुकसान, फायदे आदि का खाका तैयार करने लग जाते हैं। 'आग' शब्द से ही विदित होता है कि यह भले ही कितनी भी सहायक या आवश्यक हो लेकिन इसके दुष्परिणामों से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। सुना है कि दक्षिण अफ्रीका में विषैले सर्पों का विष कई गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए संरक्षित किया जाता है और इससे अनेक दवाइयां बनाई जाती हैं। यह बात कितनी भी सत्य और हितकारी लगे लेकिन फिर भी विष के आचरण के बारे में कोई गलतफहमी नहीं पालना चाहेगा।
कई बार किवदंतियों ने बड़ा नुकसान किया है।..लेकिन किया भी क्या जाए जब बात को हकीकत से बड़ी नजदीक से देखने और तुलना करने का मौका मिले। ऐसी स्थिति में किसी के लिए भी उससे अपने हालातों से जोड़ना लाजिमी है।
हालांकि इस बात पर मत भिन्नता है और चर्चा की जा सकती है लेकिन यह भारत में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर देखा गया सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी महिला के लिए उसके शौहर से बड़ा और कोई नहीं होता, खासकर तब जब उसकी साझेदारी पर बात आ जाये। भले ही आपसी संबंध कितने भी उबाऊ हों, जनाब कितने भी खराब स्वभाव के हों, कोई भी महिला अपने पति को नहीं बांट सकती। कभी भी नहीं और किसी से भी नहीं, यहाँ तक कि अपनी बहिन से भी नहीं।
.....ऐसा ही कुछ ताना बाना है इस लघुकथा में निहित कथानक का। वैसे तो किसी भी महिला के लिए बात की तह में जाकर शोध करने का काम एक चुटकी बजाने से भी कम समय में करने जैसा होता है लेकिन जब मन में ऐसा कोई विचार ही न हो या बात को उस कोंण से देखा ही न हो तो शायद इधर-उधर की संभावनाओं पर ध्यान नहीं जाता है। यही किया इस कथा की महिला पात्र ने, जिसे पास ही रहने वाली श्रीमती वर्मा की आत्महत्या करने पर बहुत दुःख हो रहा था। यदि बात का कारण पता न हो तो व्यक्ति किसी की मौत पर ज्यादा दुखी होता है क्योंकि बिना संबंधित कारणों के उस आत्महत्या को बहानों की आड़ नहीं मिल पाती है। लेखक की यहाँ प्रसंशा करनी पड़ेगी कि उन्होंने किस तरह से एक घटना का जिक्र करके विचारों के प्रवाह को नई दिशा और गति दे दी। जैसे ही पतिदेव ने श्रीमती वर्मा की मौत का संभावित कारण श्री वर्मा और उनकी साली साहिबा के अंतरंग सबंधो की सुनी सुनाई संभावना की चर्चा की, मामला पलट गया। मनोविज्ञान के सिद्धांत ठांठें मारने लगे। श्रीमान जी तो अपनी बात कहकर गुशलखाने में चले गए लेकिन एक तूफान को जन्म देकर। इधर आनन फानन में उस भोली महिला ने निर्णय ले लिया और अपने पिता को पति के नाम बिल फाड़कर (झूठ बोलकर) अपनी छोटी बहिन को आगे की शिक्षा हेतु उसके यहाँ भेजने से इनकार कर दिया।
दरअसल, उनके यहाँ उनकी छोटी बहिन आगे की शिक्षा हेतु उनके पास आकर रहने वाली थी। बतौर इन महिला के इससे पहले कि इस घटना की पुनरावृत्ति इनके घर में हो, उन्होंने इस आग को सुलगने के पहले ही शांत कर देना उचित समझा।
बेचारे पति देव। इन्हें पता ही नहीं कि जिस विचार तक वह पहुंचे भी नहीं, उसका फरमान भी उनके हस्ताक्षर बना कर जारी कर दिया गया था। श्रीमती जी इस निर्णय के दुष्परिणामों से अंजान कि उनकी अपनी छोटी बहिन को अब एक अजनबी शहर में जाना पड़ेगा और किन मुश्किलों से दो-चार होना पड़ेगा। इससे इतर शायद अपने इस अग्निशमन कार्यक्रम की सफलता पर खुश भी बहुत होंगी।
यह लघुकथा आशीष जी ने अपने चिरपरिचित यानी कि 'पात्रों के नामों को नदारद या यथासंभव कम रखने' और हमारी आम बोली में सम्मिलित अंग्रेजी के शब्दों को मिश्रित करके लिखने वाले' अंदाज में ही लिखा है। जिस तरह से अगर दुकानदार बिल भले ही 100 रुपये 5 पैसे का दे लेकिन वह आपसे लेगा मात्र सौ रुपये ही, 5 पैसे का हिसाब कौन रखता है? इसी तर्ज पर 227 शब्दों में मात्र एक शब्द की वर्तनी पर मैं मौन हूँ।😊
मैं आशीष दलाल जी को एक आज के मध्यमवर्गीय सामाजिक परिवेश और आम गृहणी के मनोविज्ञान को आधार बनाकर लिखी गई लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।