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Thursday, July 18, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अखिलेश पालरिया)


सादर नमस्कार,
आज फिर हाजिर हूँ, एक और लघुकथा लेखक आदरणीय श्री अखिलेश पालरिया जी की दो लघुकथाओं  'संवेदना' और 'निःशुल्क' पर अपनी यानी 'मेरी समझ' के साथ। अब मुझे जो समझ में आया, कुछ इस प्रकार है:

लेखक - अखिलेश पालरिया
लघुकथा - संवेदना

....ह्म्म्म कहीं पढ़ी थी मैंने वो शायरी। मुझे ठीक से शायर का नाम और उनका पूरा शेर याद तो नहीं है लेकिन शब्द कुछ इस तरह के थे -

नई दुनिया बसाने को आमादा हैं लोग,
कई तो एक ही घर में न्यारे हो रहे हैं।

पालरिया जी ने अपनी इस लघुकथा में आज के समय की लगभग हर घर की कहानी को पिरोया है। इसमें संवेदनाओं का तानाबाना बना है, लेखक ने, जहाँ आज यथासंभव शारीरिक और आर्थिक रूप से समर्थ और स्वाभिमानी बुजुर्ग, लड़के और खासकर बहू के नियंत्रण में रहना नहीं चाहते हैं। उन्हें लगता है कि सारी उम्र जहाँ परिवार के प्रबंधन में खपाई, अब किसी और की निगरानी और रहमोकरम पर क्यों रहें? वहीं नई पीढ़ी, बुजुर्ग माँ-बाप को अपने साथ नहीं रखना चाहती। उन्हें लगता है कि बूढ़े माँ-बाप या सास-ससुर उनके ऊपर आर्थिक और देखभाल की जिम्मेवारी के रूप में भार बन जाते हैं। आज के समय की यह कड़वी और दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है। 

पालरिया जी ने इस लघुकथा में इस घर-घर की कहानी को बहुत ही संतुलित ढंग से प्रस्तुत किया है। जहाँ केसरी देवी अपने पति के मकान को नहीं छोड़ना चाहतीं हैं और अकेले रह रहीं हैं वहीँ दूसरा कारण उनकी बहू का रुखा व्यवहार भी है। बहू का रूखा व्यवहार वैसे तो ज्यादा वर्णित या मुखर नहीं है लेकिन उस समय इस बात की तस्दीक हो ही गई जब उनके नाती ने दादी के लिए कचौड़ी लेने की बात कही और उस मासूम को डांट मिली कि 'तुम केवल अपना ध्यान रखो, समझे?'

इस कथा में लेखक ने हालाँकि  केसरी देवी के बेटे के व्यवहार को ज्यादा उभारा नहीं है और लगभग उदासीन ही रखा है लेकिन माँ और पत्नी के बीच सामंजस्य बनाते दिखता है। इसे उसका चातुर्य कहें तो भी ठीक रहेगा। वास्तविक जीवन में भी अक्सर आप बेटों को इस जद्दोजहद से जूझते देख सकते हैं। 

पहला बहुत ही सकारात्मक पक्ष इस कथा का 'बहू-बेटे का माँ के पास हर रविवार को जाना' है। समाज में अगर कुछ समस्याएं हैं तो उनकी तासीर कम करने के लिए उपाय भी हैं। इसके सम्भव होने के दो कारण हैं। पहला बहू-बेटे का सहयोगी व्यवहार और दूसरा कि वे उसी शहर में रहते हैं।

कथा का दूसरा सकारात्मक पहलू है केसरी देवी के पोते का व्यवहार जो चतुराई से अपनी कचौड़ी दादी के लिए बचा लेता है और जाते वक्त उन्हें थमा देता है। इस लघुकथा का शीर्षक 'संवेदना' सरसरी तौर पर देखा जाए तो अंत में पोते-दादी के कचौड़ी वाले प्रसंग में दिखता है लेकिन थोड़ा गौर से देखें तो वे सब संवेदनायें ही हैं जब केसरी देवी का पुत्र-पुत्रबधू-पोते का हर रविवार को इंतजार करना, उनके बेटे-बहू-पोते का हर रविवार जाना और पोते का कचौड़ी प्रसंग।

लघुकथा के कुल चार पात्रों में केसरी देवी के अलावा किसी का नामकरण नहीं हुआ है। पाठक को वैसे तो कोई खास दिक्कत नहीं लेकिन इस कारण 'बेटे' शब्द का 12 बार प्रयोग किया गया क्यों कि दो पात्रों (केसरी देवी के बेटे और पोते) को आवश्यकतानुसार बेटे से ही संबोधित किया गया। 

लेखक - अखिलेश पालरिया
लघुकथा - निःशुल्क

बचपन से एक कहावत सुनता आया हूँ 'घर की मुर्गी दाल बराबर' यानी अक्सर हम उन व्यक्तियों या वस्तुओं की कद्र नहीं करते जो हमारे अपने होते हैं और हमें किसी प्रकार की पीड़ा या हमसे बिना किसी अपेक्षा के हमारे काम आते हैं या जो वस्तुयें हमें बिना किसी कठिन परिश्रम या बिना पैसे खर्च किये प्राप्त होती हैं। 

....ऐसा ही कुछ लिखा है अपनी लघुकथा 'निःशुल्क' में पालरिया जी ने। मानव मन की सरल मन:स्थिति का चित्रण जिसमें अक्सर अस्पताल में जाते ही हमारे मन में आता है कि आज 'जेब कटनी' ही है। यह बात आज के परिवेश में विचारणीय है। आज शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत जरूरतें हमारे देश में व्यवसाय बन चुकीं हैं। अधिक लोगों की बिमारी भयंकर रूप तो इसीलिए ले लेती है कि किसी बिमारी की प्रारम्भिक स्थिति में वह दवाखाना जाना ही नहीं चाहता क्यों कि उसे 'जेब कटने' का भय रहता है। दो पात्रों की संक्षिप्त बातों में बड़ा सन्देश देती हुई सुंदर लघुकथा है 'निःशुल्क'।
   

श्री अखिलेश पालरिया जी को उपर्युक्त दोनों लघुकथाओं के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

फिर वही..... कि - अभी के लिए इतना ही। जैसे जैसे समय मिलेगा, कुछ और पढूंगा फिर कुछ और लिखूंगा।


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