.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक एक बार पुनः आदरणीय आशीषदलाल जी हैं। आज उनकी दूसरी लघुकथा "परम्परा" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक -आशीष दलाल जी
लघुकथा - परम्परा
अगर कहा जाए कि भारत श्रद्धालुओं का देश है तो अतिश्योक्ति न होगी लेकिन यह श्रद्धा जब अंधभक्ति का रूप ले लेती है तो वहाँ जीवन रूढ़ियों में जकड़ा हुआ सा प्रतीत होता है। इसी अंधभक्ति के कारण न जाने कितने ढोंगियों ने अपनी दुकानें चलाई और यह छोटे-मोटे विरोधों के साथ आज एक बड़ा व्यवसाय बना हुआ है। हमारे यहाँ एक कहावत हमारे खून में शामिल कर दी गई है और वह यह कि जब श्रद्धा आदि की बात की जाए तो उसमें तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। ताज्जुब की बात तो यह है कि जिस बात पर तर्क न करने की बात कही जाती है उसी बात को तर्कसंगत बताने के लिए कुछ और बातें कह दी जाती हैं। जैसे - संत रविदास जी के संदर्भ के साथ "मन चंगा तो कठौती में गंगा" और "मानिए तो ईश्वर नहीं हो पत्थर तो है ही"। हालांकि यहाँ भी तर्क तो सही दिए गए हैं लेकिन इनके द्वारा जो मंतव्य परोसा जाता है वह गलत है। इन दोनों बातों का संबंध सीधे तौर पर व्यक्ति की मनःस्थिति को सकारात्मक दृष्टि देने से है न कि किसी बात को बिना वैज्ञानिक आधार पर खरा मानने के लिए।
...प्रस्तुत लघुकथा गुजरात में प्रचलित एक परंपरा पर आधारित है जिसने आज व्यापक रूप लिया हुआ है। आज यह गुजरात के साथ कई अन्य राज्यों में भी अपना प्रसार कर रही है।
हमारे गुजरात में एक परंपरा है कि हर वह व्यक्ति जिसकी चाय-नाश्ते की दुकान है, वह अपने दुकान की पहली चाय का एक कप और एक गिलास पानी सड़क के बीचों बीच फैलाकर आता है और उस पर मान्यता यह है कि जो भी ऐसा करता है उसकी दुकान दिन भर अच्छी चलती है और उसका कारोबार बढ़ता है। सबको पता है कि अमूमन चाय वाले वैसे भी मासूम होते हैं। उन्हें क्या दिक्कत है यदि मात्र एक कप चाय और एक गिलास पानी से पूरे दिन गुल्लक में दनादन खनक लगी रहे। वैसे यह बात अलग है कि चाय वाले को कभी हल्के में न लें।
...तो यह परंपरा बहुत पुरानी और प्रचिलित है जिसे आप लगभग पूरे राज्य में देख सकते हैं। वैसे इस अंधविश्वास के इतर इस प्रथा के पीछे की कहानी और हकीकत कुछ और है। निश्चित रूप से यह प्रथा दुकान चलाने के लिए ही शुरू हुई थी लेकिन यह करना हर दुकानदार के लिए आवश्यक नहीं है। इसके मूल में जाएं तो पता चलता है कि पुराने जमाने में हाइवे और जो बड़े-बड़े शहरों या दो राज्यों को जोड़ने वाले राजमार्ग होते थे, उनके आसपास कोई बस्ती या गांव नहीं होते थे क्योंकि कि सड़कों की परियोजना अमूमन उस जगह को चयनित करके साकार होती थी जो निर्जन हो और जिससे खेती आदि के माफिक जमीनों और बने बनाये, बसे बसाए घरों को न उजाड़ना पड़े। फिर जब ये मार्ग शुरू हो जाते थे तो एकाध लोग झुग्गी-झोपड़ी बनाकर इनके किनारे चाय आदि की दुकान खोल लेते थे। ये दुकानें इन मार्गों के पास होते हुए भी काफी दूर होती थी और खासकर रात में अंधेरे के कारण इनके बारे में सड़क से गुजरने वालों को पता नहीं चल पाता था। तो इस समस्या से निजात पाने के लिए यह परम्परा शुरू हुई कि सुबह की पहली चाय और एक गिलास पानी यदि सड़क के बीचोंबीच फैला दिया जाए तो दूर से ही मोटर, बस, ट्रैक्टर आदि की रोशनी से उन्हें इस बात का पता चल जाएगा कि यहाँ चाय आदि की दुकान है। कालांतर में इसने अपना विस्तार किया और मूल कारण को छोड़ अन्य मान्यताओं को जोड़कर वर्तमान में ऐसा रूप लिया कि आजकल बीच शहर की दुकानों में भी यह चलन जारी है जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है। खैर...
....लेकिन कहते हैं न, कि विकास की अपनी एक यात्रा है। चाहे वह विचारों का विकास हो या किसी सभ्यता का विकास हो या कुछ और। उदाहरण के लिए यदि सोचें कि आज जिन फलों, सब्जियों को हम बड़े विश्वास के साथ उनके गुणों-अवगुणों को जानते हुए सेवन करते हैं, क्या वह बिना किसी विकास यात्रा के सुलभ हो गए? नहीं। हरगिज़ नहीं। पता नहीं इसके लिए हमारे कितने पूर्वजों ने अपने जीवन को खोया होगा। कितनों ने अपनी भूख मिटाने के लिए जहरीले फलों और सब्जियों को खाया होगा। ...और फिर सदियों की बलिदान गाथा के बाद वे इन नतीज़ों पर पहुंचे होंगे कि फलाना फल या सब्जी के क्या गुण और अवगुण हैं।
इस प्रकार की विकास यात्रा अनवरत चलती है और आज हम जिस स्थिति में हैं इसके मूल में "करो और सीखो" के सिद्धांत ही हैं।
....तो आज भी उसने धंधे के शुरुआत का पहला चाय का कप जैसे ही सड़क पर फैलाने की ओर कदम बढ़ाए, संभवतः अचेतन मन में बसी भावनाओं ने उन कदमों को थामने का फैसला कर लिया था। बुढ़ापे का शरीर हो, ठंडी का मौसम हो और गरीबी की मार हो तो एक सामान्य मन में संवेदनाओं का जग जाना स्वाभाविक है। और यह क्षण वह होता है जब परमात्मा आप से स्वयं अपना काम करवाता है। इससे पहले कि वह, चाय सड़क के हवाले करता, उसके कदम मुड़ गए उस ठिठुरती बुढ़िया की ओर जिसे शायद इस चाय के कप की सबसे ज्यादा जरूरत थी। कहते हैं कि जब नेकी करने का इरादा हो तो रास्ते भी उसी तरह बनते जाते हैं। आज से उस चाय वाले ने नई परम्परा को जन्म दे दिया था जिससे व्यवसाय बढ़ने की शायद कोई निश्चितता न भी हो लेकिन उस बुढ़िया की प्रसन्नता सुनिश्चित हो गयी थी। आज परम्परा बदल गई थी। खर्चा उतना ही था, बस एक कप चाय।
चूंकि आज चाय अपने सही गंतव्य तक पहुँच चुकी थी, मैं 146 शब्दों में मात्र एक शब्द की वर्तनी पर आज फिर चुप रहूँगा। संयोग यह है कि यह शब्द फिर से कल वाला ही है।
मैं आशीष दलाल जी को पुनः अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
No comments:
Post a Comment