'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं श्री अनिल शूर आज़ाद जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'माँ', और 'अनाम पल' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - अनिल शूर आज़ाद
लघुकथा - माँ
'माँ' क्या कहने, यह शब्द ही ग्रंथों का ग्रंथ है। और ऐसा ग्रंथ जिसमें जितना भी लिखो, कलम बौनी ही रहती है।
माँ,
निराशा पे आशा,
प्यार की परिभाषा..
....ऐसा ही कुछ लिखा है अनिल जी ने इस लघुकथा में। इस कथा के शीर्षक ने शुरू से ही भावनाओं में बाँध लिया पाठक को। अमूमन, हम जब भी माँ से दूर होते हैं तो उनकी यादों की चादर घेर ही लेती है। ..और यहाँ तो आज मौका ही माँ की अस्थियों को ले जाने का है। कोई चाहे भी तो कैसे और कुछ सोचे? मन के भावों को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि किस तरह वह माँ के अंतिम संस्कार के समय भाव विव्हल हुआ था। मित्र, रिश्तेदार तो कोशिश करते ही हैं लेकिन मन को 'माँ' के नहीं रहने की बात कहाँ समझ में आती है?
कथा के अंतिम भाग में तो जैसे प्यार का समंदर ही उड़ेल दिया गया, जब 'उसने माँ की अस्थियों का 'लाल थैला' उतारा और अपने साथ भींच कर सो गया। जैसे उसे मरुस्थल में कोई छाया मिल गई हो, जैसे प्यासे पर पानी की कुछ बूंदे छिड़क दी गई हों, जैसे थककर आये बालक को माँ का आँचल मिल गया हो, जैसे....
या खुदा, तू सबकी माँओं को सलामत रख।
आमीन।
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लेखक - अनिल शूर आज़ाद
लघुकथा - अनाम पल
'अनाम पल' में अनिल जी ने एक और दृश्य ले लिया रेलगाड़ी में यात्रा के मनोरम पलों का। यह लघुकथा आज के लेखकों या किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्ध पा रहे या पा चुके लोगों को परोक्ष रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण संदेश देती है। आज जहाँ प्रसिद्धि पाने की ललक जोरों पर है, रातों रात मित्रों की संख्या, अनुसरण करने (Followers ) की संख्या बढ़ाने की जद्दोजहद और महिलाओं से मित्रता करने की हूक जो रह-रहकर उठती है, उस पर एक सीख भी है यह लघुकथा। लेखकों को दूसरों की जिंदगी में झाँकने और दखलंदाजी से अपने आपको नियंत्रित करना चाहिए।
"..या फिर....ज़रा आगे बढ़कर उसका चेहरा ही देख ले। पर नहीं ......बलात उसने अपने आप को रोक लिया। उस भली औरत के निजी पलों में झाँकने की गुस्ताखी तो वह कर ही चुका था।" .. ... इन पक्तियों में शूर साहब ने बड़े ही सुन्दर ढंग से ऐसी परिस्थितियों में मन के अंदर उठने वाले भावों को, दूसरे की भावनाओं को समझते हुए कैसे नियंत्रण में लाना है, बड़े ही सुन्दर ढंग से रचा है।
...वैसे अगर लेखक महोदय सकारात्मक हैं तो फिर खोने को कुछ है भी नहीं। खुद को सफल होने की ख़ुशी और वो पल जब आपका चित्र किसी की मोबाईल स्क्रीन पर चमक रहा हो ..... "सहसा वह रोमांच से भर उठा।"..ये रोमांच कोई कम हैं के??
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आदरणीय अनिल जी को उपरोक्त दोनों कथाओं के बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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