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Wednesday, July 17, 2019

अपनी समझ - पुस्तक समीक्षा "अनुगुंजन" -जुलाई-सितंबर 2018

अपनी समझ/1/अनुगुंजन-जुलाई-सितंबर 2018
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                  डॉ लवलेश दत्त जी और रमेश गौतम जी के संपादकत्व (क्रमशः संपादक और अतिथि संपादक) में प्रकाशित साहित्य-कला-संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका अनुगुंजन का जुलाई-सितंबर 2018 अंक उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ। सर्व प्रथम डॉ दत्त को बहुत बहुत धन्यवाद।

              मो. राशिद द्वारा संकलित मनोहारी आवरण पृष्ठ को देखते ही यह "लघुकथा अंक" किसी को भी अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेगा। पत्रिका के अनुक्रम पर सरसरी नजर डालते ही पता चल जाता है कि 104 पृष्ठों के इस अंक को लघुकथा को केंद्र में रखकर मुख्यतः दो खण्डों में बांटा गया है, जिन्हें विमर्श और सृजन खण्ड नाम दिए गए हैं। विमर्श खण्ड को पुनः 'लेख गुंजन' और 'बातचीत' नामक दो भागों में विभाजित किया है जबकि सृजन खण्ड में छपी लघुकथाओं को 'लघुकथा गुंजन' नाम की टोकरी में रखा गया है।

                 अनुक्रम के बाद डॉ दत्त और गौतम जी के प्रभावी संपादकीय लेख हैं जिन्हें पढ़ने के बाद लगता है कि सहज और सुन्दर बातों से भरे इन लेखों को एक बार फिर से पढ़ें, इतने अच्छे जो हैं।

                  दोनों खण्डों के तीनों उप खण्डों (लेख गुंजन, बातचीत और लघुकथा गुंजन) के मुख़्य पृष्ठों पर पहुंचते ही कुछ कलाकृतियों ने स्वागत किया। कलाकृतियों की समझ न होने के बाबजूद भी इन्होंने अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया। इनको निहारने में यहाँ कुछ समय ठहरना अच्छा लगता है।
'लेख गुंजन' में नौ विद्वानों के सारगर्भित लेख हैं। इन लेखों में लघुकथा के विभिन्न विषयों पर जैसे छायावादी कवित्व से निकली लघुकथायें, लघुकथा का विकास, स्वरूप और संभावनाएं, सार्थक सृजन, शिल्प, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, कालखण्ड दोष, विधा का महत्व, नवीन सृजन आदि विषयों पर लघुकथा के क्षेत्र में अपनी गहरी समझ रखने वाले साहित्यकारों ने बड़ी बारीकी से अपनी कलम चलाई है।

             विमर्श खण्ड के दूसरे भाग 'बातचीत' में दो महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं। एक साक्षात्कार में श्री हरिशंकर शर्मा जी और माधव नागदा जी की बातचीत है और दूसरे में अशोक दर्द जी और डॉ  बलराम अग्रवाल जी की लघुकथा पर वार्ता है। दोनों वार्ताओं को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारे सामने सजीव प्रसारण हो रहा है।    

               अनुगुंजन के 'लघुकथा गुंजन' में 55 लेखकों की 77 सुन्दर लघुकथाएँ हैं जो विभिन्न सामाजिक परिवेशों को अपने में समाए हुए, अच्छी लगती हैं। इन लघुकथाओं में गायत्री जोशी जी की 'वसीयत' और सुनील गज्जाणी जी की 'परिवर्तन' चार-पांच लाइनों की छोटी छोटी लघुकथाएँ जो कथानक और कथ्य के अलावा अपनी शब्द संख्या के कारण भी इस अंक के आकर्षण का कारण हैं।

                इस अंक में स्थान का सदुपयोग बहुत अच्छी प्रकार से देखने को मिलता है। इस क्रम में कमल चोपड़ा जी के संपादन में लघुकथा को समर्पित वार्षिक पत्रिका 'संरचना' के दसवें अंक के प्रकाशन की सूचना, ज्योत्स्ना सिंह जी और उपमा शर्मा जी के सम्पादन में प्रकाशित लघुकथा संकलन 'आस-पास से गुजरते हुए' की सूचना, हरिशंकर शर्मा जी की लघुकथा पर केंद्रित पुस्तक 'एक कोलाज' के प्रकाशन की सूचना और बरेली में आयोजित होने वाली मासिक लघुकथा गोष्ठी के आयोजन की सूचना "जगह मिलने पर पास दिया जाएगा" की तर्ज पर उपलब्ध स्थान के अनुसार विभिन्न स्थानों पर दी गई हैं।

               कुल मिलाकर इतना ही कहूँगा कि अनुगुंजन का यह लघुकथा अंक संग्रहणीय है। अनुगुंजन के संपादक मंडल, लेखकों और पाठकों को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

पत्रिका के अंतिम पृष्ठ पर अंदर की ओर भविष्य में 'अनुगुंजन' के 'भावत्रयी' के बदले रूप में आने की सूचना दी गई थी। बाद में जिसमें बदलाव किया है। अब यह अनुगुंजन ही रहेगी। और इसकी सूचना डॉ लवलेश दत्त जी ने अपनी फेसबुक संदेश के माध्यम से सबको दे दी थी।

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