नमस्कार,
रविवार की सुबह अब तो कुनकुनी धूप अच्छी लगने लगी है। गुलाबी सर्दी में गरम-गरम चाय का अपना आनंद ही अलग है। ऐसे में कोई साहित्य सामने हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है।
.....'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं अनघा जोगलेकर जी। इससे पहले कि मैं अनघा जोगलेकर जी की लघुकथाओं' पर अपनी समझ रखूँ, सर्वप्रथम मैं उन्हें उनके उपन्यास "अश्वत्थामा - यातना का अमरत्व" के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। उसके बाद अब रख रहा हूँ, उनकी लघुकथाओं 'दुर्भाग्य' और 'आजादी' पर 'मेरी समझ' कुछ इस प्रकार:
लेखिका - अनघा जोगलेकर
लघुकथा - दुर्भाग्य
इस लघुकथा में अनघा जी ने राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में देश की आम जनता, किसान और सैनिकों की समस्याओं को उपमाओं और सांकेतिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें चाहे सीमा पर तैनात सैनिकों का विषम परिस्थितियों में देश के लिए डटे रहने, मौका आने पर खुद को न्यौछावर कर देने की बात हो या आम आदमी के लिए दो वक्त की रोटी पर भुखमरी के आतंक, रहने को छत की समस्या हो या फिर किसानों की भौतिक और आर्थिक समस्यायें हों, सभी पर लेखिका ने उनकी दीन स्थिति को उजागर किया है। इसमें लेखिका ने आमजन की पीड़ा को सुंदर लेखन शैली से अपने शब्दों में ढाला है।
आज भले ही तकनीक और सोशल मीडिया के सहयोग से जहाँ विभिन्न समाचार वाहकों, इंटरनेट की सहायता से विभिन्न वेबसाइटों, फेसबुक, ट्विटर आदि पर अनावश्यक प्रायोजित बहसें छिड़ी रहती हैं वहीं वास्तविक स्थिति बहुत भिन्न है। सत्ता में बैठे लोग धन के प्रभाव से भले ही लच्छेदार बातों, विभिन्न योजनाओं और उस पर खर्च होने वाली घोषणाओं पर ज्ञान बाँटते रहें मगर धरातल पर स्थिति शिफर ही रहती है। वे समय-समय पर मनगढ़ंत आंकड़ों और हुई प्रगति की तस्वीर कुछ भी प्रस्तुत करते रहें लेकिन वास्तविक स्थिति बड़ी भयाभय है जिसे व्यक्त करते समय लेखिका के मन का दर्द खूब छलका है। सच में आज अगर शास्त्री जी जैसे ईमानदार और जिम्मेदार नेता होते तो उन्हें आज के नेताओं और वर्तमान राजनीतिक माहौल पर दुःख हो रहा होता।
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लेखिका - अनघा जोगलेकर
लघुकथा - आज़ादी
जिस प्रकार से स्वचालित मशीन अपना काम करती है, उसी तरह हम आजादी यानी स्वतंत्रता दिवस या इसी तरह के अन्य पर्व भी मनाते हैं। वही रटे रटाये देश भक्ति के गाने, गांधी जी के भजन, तिरंगे का फहराना, ऊंची ऊंची हांकने वालों का लिखे लिखाये भाषणों को पढ़ना, राज्यों की झांकियां, सैनिकों के कुछ करतब, रंग-बिरंगे गुब्बारों का आकाश में छोड़ना, आजादी के प्रतीक के रूप में कुछ पक्षियों को आजाद करना या इसी तर्ज पर मिलते जुलते कार्यक्रमों का आयोजित होना।....यही सब तो होता है हमारे यहाँ।
इन आयोजनों की औपचारिकता के बाद फिर से शुरू हो जाते हैं, वही पुराने काम। अंग्रेजों से आजादी तो मिली लेकिन अफसरशाही, भ्रष्टाचार, दबंगई आज भी कायम है। आम आदमी अभी भी थोपी गईं व्यवस्थाओं से परेशान है। वह हर समय अपने आप को असहज महसूस करता रहता है। इसमें लेखिका ने मानव मन की मिश्रित सहज प्रवत्ति को बड़े सहज ढंग से लिखा है। जब अधिकतर पक्षी मिली हुई आजादी से खुश हैं वहीं एक पक्षी वर्तमान में मिली आजादी से इसलिए खुश नहीं है क्यों कि उसे आगे आने वाली कैद का अंदेशा हैं। शायद पुराने कटु अनुभव हैं।
...यहाँ मुझे ओशो याद आ गए। ओशो कहते हैं, 'तुम्हारा कल आज जन्म ले रहा है। इसलिए आज ही खुशी से जियो। अगर तुम्हारा आज सुखमय नहीं है तो कल तो अवश्य ही दुःख लाएगा। कल आसमान से नहीं उतरेगा। इसे तुम आज ही गढ़ सकते हो। इसलिये, हमें अभी और आज में जीना चाहिये। आज और अभी का आनंद लेना चाहिए। यदि हम आज में मिली खुशी को जी पा रहे हैं तो निश्चित रूप से संभावना है कि कल को भी खुशियों भरा बना सकें।'
...लेकिन, ये जीवन सबका अलग-अलग है। कोई दो व्यक्तियों के जीवन और उनके अनुभव एक जैसे नहीं। कोई इसकी परिभाषा नए प्रयोग करके लिखता है तो कोई पुराने अच्छे या बुरे अनुभवों से।
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उपरोक्त दोनों लघुकथाओं में अनघा जी ने कथानक राजनीति और उसकी तय व्यवस्थाओं से लिये हैं। इन व्यवस्थाओं में आम आदमी की परेशानियों और पीड़ाओं को अभिव्यक्ति दी है। दोनों ही कथाओं में पढ़ते समय पाठक अपने आप को पीड़ित/ भुक्तभोगी के स्थान पर स्वयं को खड़ा पाता है, अपने आप को उससे जुड़ा पाता है। इन कथाओं की विशेषता यह है कि कोई भी पाठक लगातार (एक के बाद एक) दोनों कथाएं नहीं पढ़ सकता। मेरा मतलब है कि एक कथा पढ़ने के बाद पाठक कथानक पर मनन करता है, सोचता है, वह अपने आपको पात्रों से जोड़ता है, उसका ह्रदय द्रवित होता है...फिर दूसरी लघुकथा पढ़ना शुरू करता है।...जी, यह मेरा अनुभव है।
दोनों अच्छी लघुकथाओं के लिए अनघा जोगलेकर जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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