'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनीता झा जी। आज उनकी लघुकथा 'अब्बू' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखिका - अनीता झा
लघुकथा - अब्बू
आज चाहे जितनी भी आधुनिकता आ गयी हो, पश्चिमी सभ्यता के हावी होने का रोना रोया जा रहा हो, मानवीय संवेदनायें अभी भी बाकी हैं, मेरे दोस्त।.... ऐसा ही कुछ लिखा है अनीता जी ने अपनी लघुकथा 'अब्बू' में।
आशिमा ने भले ही माँ-बाप की सहमति के बगैर एक साधारण गाइड से शादी की हो लेकिन उसकी अपने माँ-बाप के प्रति प्रेम में कहीं कोई कमी नहीं आयी है। लेखिका ने बड़ी कुशलता से नई पीढ़ी की अपनी इच्छाओं पर अपने मन की करने के बाबजूद यह बताने की कोशिश की है कि अगर कोई लड़का/लड़की अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुनते भी हैं तो इसके अन्य मतलब न निकाले जाएं क्यों कि ऐसा करने से न तो उनका परिवार के प्रति प्रेम कम होता है और न ही कोई अन्य बुरी भावना पनपती है। तभी तो जैसे ही आशिमा को अपने पिता के व्यवसाय के ठप होने का संदेश मिलता है तो वह बिना देर किए अपने पीहर दौड़ी चली आती है और पिता से शिकायत करती है कि आपने मुझे खबर क्यों नहीं दी? पिता के जबाब से आशिमा का शक और वह अपराध बोध क्षीण हो जाता है जिससे वह इस संशय में थी कि शायद पिता जी ने उसे उसके मन मर्जी की शादी करने से बेगाना समझ लिया था।
इसके साथ ही बच्चों के लिए भी यही संदेश है कि अगर माँ-बाप आपकी किसी बात, किसी काम से खफा हैं तो उस नाराजगी की परिधि भी बड़ी ही सीमित होती है अर्थात उनकी नाराजगी उस मसले तक ही सीमित होती है। इससे उनके प्यार में कोई कमी नहीं आती है। क्यों कि आशिमा के सवाल के जबाब में जब पिता कहता है कि, 'एकबार मैंने कोशिश की तो थी उसे बताने की, लेकिन उसकी बेटी को वसीम की गोदी में खेलता देखकर उसे आशिमा का बचपन याद आ गया और वह बिना मिले ही लौट आया'।
माँ-बाप का दिल कितना बड़ा होता है, इस बात की अच्छी तस्दीक की अनीता जी ने। इतनी परेशानियों के बाबजूद पिता अपनी बेटी की खुशहाल जिंदगी में खलल डालने से हिचक गया था।
अनीता झा जी को इस सुंदर लघुकथा के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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