'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अर्चना तिवारी जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'जरीब' और 'खूबसूरत' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखिका - अर्चना तिवारी
लघुकथा - जरीब
संयुक्त परिवार में 'अपने-पराए' की कोई बैलेंस सीट नहीं होती। आज की पीढ़ी को ये बात बड़ी मुश्किल से समझ में आ पाती है अगर उन्हें इसका खुद अनुभव नहीं हुआ है। आज के एकल परिवारों की तरह 'तुमने इतना किया तो मैं इतना करूंगा' की तर्ज पर संयुक्त परिवार की नींव नहीं होती है। उसमें तो प्यार और आपसी सामंजस्य एक आधार होता है, बस। कोई सीधा हिसाब-किताब नहीं।
पूर्व में परिवार के सदस्यों का एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना, खुद के नफे, नुकसान की परवाह किये बिना अपनों का भला चाहना, यही सब तो होता था लेकिन आजकल की 'मेरा-मेरा' की संस्कृति ने इन सब व्यवस्थाओं को जैसे खत्म कर दिया है, मिटा दिया है।
अर्चना जी ने अपनी लघुकथा 'जरीब' में यही तो बताने का प्रयास किया है। अक्सर हम संपत्ति आदि के चक्कर में आपसी संबंधों को भी पराया समझ लेते हैं। मीता और दीपा की शुरुआती बात में जहाँ उनके पिता और ताऊजी के आपसी त्याग और प्रेम का चित्रण है वहीं दूसरे दृश्य में उनके चचेरे भाई द्वारा अपनी बहनों के खेतों की मिट्टी को ईंटों के भट्ठे के लिए देना है। भाई के इस काम की वजह जाने बिना, बहनों का उनकी नियति में खोट का देखना, आपसी विश्वास में कमी का बखान करता है। उनके इसी अविश्वास का कारण और आधार बनता है उनके खेतों के बँटवारा।
इस लघुकथा में शहरी और ग्रामीण परिवेश के अंतर भी स्पष्ट हो जाते हैं। शहर के माहौल में पली-बढ़ी दीपा और मीता ने तो जमीन के बंटबारे के बाद जैसे अपने भाई के साथ सारे संबंध ही खत्म कर लिए थे और वे शाम होने के बावजूद शहर वापस आने के लिए तैयार हो जाती हैं। क्योंकि उनके अनुसार अब उनका कोई हक ही नहीं बनता कि वे यहाँ रुकें।....लेकिन तभी उनकी भतीजी और फिर बाद में उनके भैया का खाना खाने और रात में उनके लिए साफ कराये कमरे में रुकने का आग्रह, आज भी लोगों में बची संवेदनाओं का परिचायक बनता है। बड़े भैया और उनके परिवार का इतना सब होने के बाद भी अपनत्व भरा व्यवहार, मीता और दीपा का हृदय परिवर्तन कर देता है और अन्ततः वे अपनी खेती भैया को ही बटाई पर देने को तैयार हो जाती हैं।
प्रस्तुत रचना में कुछ बातों का ध्यान रखने से कथा और सशक्त बन सकती थी। एक तो रचना में काल खंड दोष है। दूसरा - बड़े भैया का समझाना स्पष्ट नहीं हुआ कि उन्होंने भट्ठे के लिए बहनों वाला हिस्सा क्यों चुना। तीसरा - अगर काल खंड दोष को ध्यान में रखा जाता तो शब्द संख्या भी कम हो सकती थी।
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लेखिका - अर्चना तिवारी
लघुकथा - खूबसूरत
इस लघुकथा में अर्चना जी ने उस व्यक्ति के मनोभावों के बारे में लिखा है जो मरीज तो है लेकिन उसे अपने रोग निदान की चिंता कम और संभवतः वहाँ कार्यरत नर्सों और उनकी सुंदरता निहारने में ज्यादा रुचि है। उसका तो मकसद ही यहाँ आना जैसे अपनी बीमारी के इलाज के साथ वहाँ की स्वास्थ्य सेविकाओं को देखना भी था। उसे तो यह भी लगता है कि अस्पतालों में अच्छी सुविधाओं की कमी भले ही हो लेकिन कम से कम सुंदर दिखने वाली नर्सें तो होनी ही चाहिए।
.....और इसी तरह के विचार उसके मन में इतने ज्यादा आते हैं कि वह उनसे पूरी तरह ग्रसित हो जाता है। इस बात की पुष्टि इस बात से हो जाती है कि जब अगली सुबह नर्स बगल वाली लड़की की जांच करते हुए इन महाशय से बात करती है और उसके 'कैसी तबियत है, सर...?' के जबाब में इनका कहना- 'खूबसूरत'।
पहली रचना की तरह इस रचना में भी काल खंड दोष है, दूसरा मरीज का 'नर्स' के बारे में ही सोचना आवश्यकता से ज्यादा प्रतीत होता है। हालांकि, रचना इसी बात को केंद्र में रखकर लिखी गई है, फिर भी इसे कम किया जा सकता था।
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