.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय आशीष दलाल जी। आज उनकी लघुकथा "आग" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक -आशीष दलाल जी
लघुकथा - आग
मानव मन अति संवेदनशील होता है। इसमें जितनी अधिक विस्तार की संभावना होती है उतनी ही ज्यादा संकुचित विचारों को पनपने की नकारात्मक क्षमता भी होती है। मनोविज्ञान कहता है कि यदि आपने अपने मन को जागरूकता से प्रशिक्षित नहीं किया है तो ज्यादा संभावना है कि मन बनी बनाई पगडंडियों पर चलकर भटक जाए और गलत निर्णय ले ले। मन पानी की तरह निर्मल हो न हो लेकिन पानी की तरह उपलब्ध बर्तन का आकार और उसके अनुरूप ढलने की क्षमता अवश्य रखता है फिर चाहे बर्तन के गुण-धर्म उसे विषाक्त ही क्यों न कर दें।
इसी मनोवैज्ञानिक आधार शिला पर टिकी लघुकथा है "आग"। जैसे ही कोई शीर्षक हमारे जेहन में आता है हम उसके नकारात्मक, सकारात्मक, नुकसान, फायदे आदि का खाका तैयार करने लग जाते हैं। 'आग' शब्द से ही विदित होता है कि यह भले ही कितनी भी सहायक या आवश्यक हो लेकिन इसके दुष्परिणामों से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। सुना है कि दक्षिण अफ्रीका में विषैले सर्पों का विष कई गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए संरक्षित किया जाता है और इससे अनेक दवाइयां बनाई जाती हैं। यह बात कितनी भी सत्य और हितकारी लगे लेकिन फिर भी विष के आचरण के बारे में कोई गलतफहमी नहीं पालना चाहेगा।
कई बार किवदंतियों ने बड़ा नुकसान किया है।..लेकिन किया भी क्या जाए जब बात को हकीकत से बड़ी नजदीक से देखने और तुलना करने का मौका मिले। ऐसी स्थिति में किसी के लिए भी उससे अपने हालातों से जोड़ना लाजिमी है।
हालांकि इस बात पर मत भिन्नता है और चर्चा की जा सकती है लेकिन यह भारत में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर देखा गया सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी महिला के लिए उसके शौहर से बड़ा और कोई नहीं होता, खासकर तब जब उसकी साझेदारी पर बात आ जाये। भले ही आपसी संबंध कितने भी उबाऊ हों, जनाब कितने भी खराब स्वभाव के हों, कोई भी महिला अपने पति को नहीं बांट सकती। कभी भी नहीं और किसी से भी नहीं, यहाँ तक कि अपनी बहिन से भी नहीं।
.....ऐसा ही कुछ ताना बाना है इस लघुकथा में निहित कथानक का। वैसे तो किसी भी महिला के लिए बात की तह में जाकर शोध करने का काम एक चुटकी बजाने से भी कम समय में करने जैसा होता है लेकिन जब मन में ऐसा कोई विचार ही न हो या बात को उस कोंण से देखा ही न हो तो शायद इधर-उधर की संभावनाओं पर ध्यान नहीं जाता है। यही किया इस कथा की महिला पात्र ने, जिसे पास ही रहने वाली श्रीमती वर्मा की आत्महत्या करने पर बहुत दुःख हो रहा था। यदि बात का कारण पता न हो तो व्यक्ति किसी की मौत पर ज्यादा दुखी होता है क्योंकि बिना संबंधित कारणों के उस आत्महत्या को बहानों की आड़ नहीं मिल पाती है। लेखक की यहाँ प्रसंशा करनी पड़ेगी कि उन्होंने किस तरह से एक घटना का जिक्र करके विचारों के प्रवाह को नई दिशा और गति दे दी। जैसे ही पतिदेव ने श्रीमती वर्मा की मौत का संभावित कारण श्री वर्मा और उनकी साली साहिबा के अंतरंग सबंधो की सुनी सुनाई संभावना की चर्चा की, मामला पलट गया। मनोविज्ञान के सिद्धांत ठांठें मारने लगे। श्रीमान जी तो अपनी बात कहकर गुशलखाने में चले गए लेकिन एक तूफान को जन्म देकर। इधर आनन फानन में उस भोली महिला ने निर्णय ले लिया और अपने पिता को पति के नाम बिल फाड़कर (झूठ बोलकर) अपनी छोटी बहिन को आगे की शिक्षा हेतु उसके यहाँ भेजने से इनकार कर दिया।
दरअसल, उनके यहाँ उनकी छोटी बहिन आगे की शिक्षा हेतु उनके पास आकर रहने वाली थी। बतौर इन महिला के इससे पहले कि इस घटना की पुनरावृत्ति इनके घर में हो, उन्होंने इस आग को सुलगने के पहले ही शांत कर देना उचित समझा।
बेचारे पति देव। इन्हें पता ही नहीं कि जिस विचार तक वह पहुंचे भी नहीं, उसका फरमान भी उनके हस्ताक्षर बना कर जारी कर दिया गया था। श्रीमती जी इस निर्णय के दुष्परिणामों से अंजान कि उनकी अपनी छोटी बहिन को अब एक अजनबी शहर में जाना पड़ेगा और किन मुश्किलों से दो-चार होना पड़ेगा। इससे इतर शायद अपने इस अग्निशमन कार्यक्रम की सफलता पर खुश भी बहुत होंगी।
यह लघुकथा आशीष जी ने अपने चिरपरिचित यानी कि 'पात्रों के नामों को नदारद या यथासंभव कम रखने' और हमारी आम बोली में सम्मिलित अंग्रेजी के शब्दों को मिश्रित करके लिखने वाले' अंदाज में ही लिखा है। जिस तरह से अगर दुकानदार बिल भले ही 100 रुपये 5 पैसे का दे लेकिन वह आपसे लेगा मात्र सौ रुपये ही, 5 पैसे का हिसाब कौन रखता है? इसी तर्ज पर 227 शब्दों में मात्र एक शब्द की वर्तनी पर मैं मौन हूँ।
मैं आशीष दलाल जी को एक आज के मध्यमवर्गीय सामाजिक परिवेश और आम गृहणी के मनोविज्ञान को आधार बनाकर लिखी गई लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
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