'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी लघुकथा "अरमान" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - अरमान
लेखक - हूंदराज बलवाणी जी
उत्तर भारत में श्रीमद्भागवत कथा के आयोजन में कथावाचक अक्सर एक प्रसंग सुनाते हैं। एक सम्राट गर्मी के दिनों में शाम के वक्त अक्सर अपने महल की छत पर विश्राम करने जाते थे। उनके लिए उनके महल में नियुक्त दास-दासियाँ आरामदायक बिस्तर का प्रबंध करते और जब सम्राट उस बिस्तर पर आराम फरमाने आते तो पास ही खड़ी दासी उन्हें ठंडी हवा के झौंके देने के लिए धीरे-धीरे पंखा झलती थी। सम्राट इन्हीं सुखद अहसासों के साथ धीरे-धीरे निंद्रा के आगोश में चले जाते। एक दिन सम्राट को आने में थोड़ी देर हो गई तो सेवा में नियुक्त दासी ने विचार किया कि जबतक सम्राट आते हैं, क्यों न वह थोड़ी देर के लिए इस सेज का सुख लेले। वह जैसे ही उस बिस्तर पर बैठी, उसे बहुत ही आनंद का अनुभव हुआ और न जाने कब उसकी आँख लग गई। कुछ समय बाद जब उसकी नींद टूटी तो उसने देखा कि सम्राट पास ही खड़े हैं और उस पर पंखा झल रहे हैं।....आगे की कहानी फिर कभी। पाठकों को सूचनार्थ बता दूँ कि उस सम्राट ने उस दासी को कोई सजा नहीं दी और यह कहते हुए बात को टाल दिया कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। मैं तो वही कर रहा था जो कि यहाँ पर खड़े व्यक्ति को करना होता है यानि पंखा झलने का काम।
इस कथा का यहाँ सदर्भित करने का उद्देश्य यही था कि प्रस्तुत रचना 'अरमान' के 'सुखराम' की तरह ही अक्सर हर व्यक्ति के मन में इच्छाएँ, लालसाएँ जगती हैं कि काश वह भी आज किसी व्यक्ति के स्थान पर होता तो शायद असीम आनंद का सुख भोग रहा होता। हालाँकि यह जगत ही मिथ्या है। हर किसी को अपना काम ख़राब और दूसरे का काम अच्छा और आकर्षक प्रतीत होता है। अधिकतर लोग तो अपने कष्टों के कारण कम दुखी हैं, वे दूसरे के सुखों के कारण ज्यादा दुखी रहते हैं। यह तो एक सामान्य बात है लेकिन कुछ बातें मानवता के आधार पर भी समझी जा सकती हैं। कुछ लोग चांदी की चम्मच लेकर पैदा होते हैं। उन्हें रहने, खाने, उचित स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि सारी सुविधाएँ उनके संपन्न माँ-बाप की बदौलत प्राप्त होती हैं तो सम्भावना रहती है कि वे कम संघर्ष के भी एक आरामदायक जिंदगी गुजर-बसर कर सकें। लेकिन उन लोगों का क्या कसूर जिनका शारीरिक ढांचा तो सबके सामान ही होता है लेकिन किन्हीं कारणों से वह समाज में सम्पन्नता और शिक्षा की दौड़ में पीछे रह जाते हैं जिसके कारण उन्हें आभाव की जिंदगी जीने और छोटी-मोटी नौकरियां कर जीवन यापन करना पड़ता है। ... और फिर यहीं से शुरू होती है उनके अरमानों की चाह कि 'काश! वह भी इस तरह की नौकरी कर रहे होते।' आगे चलकर यही इच्छाएँ, कुंठाओं में बदल जाती हैं और फिर ईर्ष्या आदि का कारण बनती हैं। यह बहुत प्राकृतिक है कि यदि मानव सुलभ संवेदनाओं को मिटने न दिया जाये तो और अपनी पद-प्रतिष्ठा से इतर अपने नीचे काम करने वालों से भी सहृदयता से व्यवहार किया जाये तो उन्हें आर्थिक रूप से न ही सही, भावनात्मक रूप से मजबूती तो मिलती ही है। यह बहुत तरह से सिद्ध हो चुका है कि साथ में काम करने वालों की भावनाएं और उनका स्पंदन माहौल को बनाने में बहुत काम करता है। इनका असर वातावरण में सुखद या दुखद किसी भी रूप में हो सकता है। कार्यालय में कर्मचारी सुखराम की भावनाएं ही देख लीजिये, "वह ऐसे उठा जैसे उसके पैरों बेड़ियाँ बंधी हों।" हालाँकि नियमानुसार यह सुखराम का दायित्व है लेकिन उसे बार-बार साहब के बुलाने पर खीझ हो रही है और वह अपने भाग्य को कोस रहा है कि वह ज्यादा क्यों न पढ़ पाया ? सुखराम के इस विचार का किसी भी तरह से समर्थन तो नहीं किया जा सकता लेकिन सत्यता से मुंह भी नहीं मोड़ा जा सकता।
दूसरा सत्य पक्ष 'साहब' का भी है। हो सकता है कि साहब की व्यस्तता इतनी ज्यादा हो कि वह छोटा काम भी स्वयं नहीं कर सकते लेकिन सुखराम की भावनाओं के वेग को रोकना व उसे समझाना यह उसकी अपनी बुद्धिमत्ता पर ही निर्भर है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह हरगिज साहब की अनुपस्थिति में घंटी बजाकर साहब को 'पानी लाने का आदेश' न देता। यह सब उसके अंदर उपज चुकी हीन भावना की पराकाष्ठा है जो अब सतह पर आ चुकी थी। हालाँकि इसका कारण एक यह भी होता है कि यदि आदमी को शारीरिक और मानसिक अभ्यास कम करने पड़ें तो फिर नकारात्मकता का हावी होना अवश्यसंभावी है। इसे आम बोलचाल की भाषा में हम "खाली दिमाग, शैतान का घर" भी बोलते हैं। इस लघुकथा में सुखराम का कार्य ऐसा है कि जिसमें वह शारिरिक रूप से भागदौड़ में भले ही लगा रहता हो लेकिन उसे ऐसा कोई कार्य नहीं करना पड़ता है जिसमें उसे दिमागी तौर पर श्रम करना पड़े।
प्रस्तुत रचना में लेखक ने सामान्य और रोजमर्रा के होने वाले हालात को बड़े ही प्रभावी ढंग से लघुकथा में ढाला है। कथा के मुख्य पात्र 'सुखराम' की भावनाओं को जिस तरह से जीवंत करके लिखा है, उसके लिए लेखक के लेखन कौशल्य की जितनी प्रसंशा की जाए कम है। लघुकथा का शीर्षक 'अरमान' भी कथानक के अनुसार बहुत सटीक बैठता है। इस सुन्दर लघुकथा के लिए मैं हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
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