.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चितरंजन गोप जी। आज उनकी लघुकथा "ऐतिहासिक भ्रातृ-मिलन" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - चितरंजन गोप जी
लघुकथा - ऐतिहासिक भ्रातृ-मिलन
अभी अभी पर्यावरण दिवस गुजरा। हम सभी ने अपने अपने हिसाब से इसे मनाया। किसी ने पेड़ लगाए, किसी ने लेख लिखे, कहीं व्याख्यान दिए गए...। इसी दौरान मेरे सामने आई गोप जी की लघुकथा "भ्रातृ-मिलन"। हालांकि इस कथा में लिखी तारीखों पर चर्चा हो सकती है लेकिन उनका कोई महत्व नहीं है। अगर इतिहास में जाएं तो बर्लिन की दीवार कोई एक दिन में नहीं टूटी थी। इसे तोड़ने का निश्चय नवंबर 1989 को हुआ था लेकिन दीवार को तोड़ने का काम जून 1990 में आधिकारिक रूप से शुरू हुआ और 1992 तक चला। खैर... जैसा कि मैंने कहा तारीखें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण है गोप जी की प्रस्तुति और उसमें निहित मंतव्य। इस मंतव्य को समझने के लिए प्रकृति को समझना पड़ेगा।
बचपन में हमने स्वर्गीय श्री रामधारी सिंह #दिनकर जी की एक कविता पढ़ी थी:
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो मां, मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
इस सुन्दर बाल कविता में भी प्रकृति के जीवंत होने की बात कही गयी है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति भी वह सब महसूस करती है जो हम मनुष्य या अन्य जीव।
गोप जी की कथा में निहित संवाद को देखें तो चाँद ने अपनी माँ, पृथ्वी को प्रसन्न देखकर सवाल किया कि "आज आप काफी प्रसन्न लग रही हैं। होठों की मुस्कान छुपाए नहीं छुप रही। बात क्या है?"
मेरे लिए कथा यहीं खत्म हो गई। मैंने इतनी कथा पढ़कर पेज 98-99 उलटकर रख दिया और आँख बंद करके प्रकृति (चाँद-पृथ्वी) के इस संवाद को देखने की कोशिश करने लगा कि कैसा रहा होगा "वह दृश्य"?
इस बात को समझना, अनुभव करना और इसकी तह में जाकर अगर मतलब समझ में आ जाये तो फिर पर्यावरण दिवस सालाना नहीं, रोज-रोज का काम हो जाये। और काम भी नहीं, धर्म हो जाये, उत्सव हो जाये। क्योंकि जो काम हम अपनी खुशी से करते हैं, वह उत्सव ही होता है, उसमें न थकान होती है न अवसाद।
....खैर, मैं पाठकों को अधर में नहीं छोडूंगा। कथा आगे बढ़ी। धरती ने अपनी खुशी का कारण बताया कि कल बर्लिन की दीवार ढहेगी और उसके बच्चे (वहां के निवासी) आपस में मिलेंगे फिर प्रेम से रहेंगे।...और फिर उस घटना का घटित होना। कथा समाप्त हुई।
ये निरी काल्पनिक बातें नहीं हैं। इनमें शब्दशः सच्चाई है। तो इसे समझने के लिए जरा प्रकृति की ओर मुड़ना पड़ेगा। वैसे, यह दिव्य ज्ञान हमारे पूर्वजों ने हमें युगों पहले दिया था। लेकिन हम उस मृग की तरह रहे जो कस्तूरी को उसके पास होते हुए भी जंगल भर में भटक-भटक कर खोजता है और असफल ही रहता है।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :
“क्षिति जल पावक गगन समीरा,
पंच रचित अति अधम शरीरा।।”
अर्थात हमारा शरीर इन पाँच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से मिलकर बना है। और हमारा शरीर ही क्यों? सम्पूर्ण प्रकृति की संरचना में भी इन्हीं तत्वों का सौजन्य है। यह बात हम सभी जानते हैं लेकिन जानने और समझने में बहुत फर्क है। आश्चर्य की बात है कि यह सब जानते हुए भी प्रायः हमारा व्यवहार प्रकृति के साथ उस तरह का नहीं होता, जैसा अपेक्षित होता है। उसका कारण है कि इसे शायद हम अपने से अलग मानते हैं। यह अलग बात है कि यह सब जानते हुए होता है।
पर्यावरण दिवस जैसे अवसरों पर अक्सर प्रकृति के संरक्षण की बात, जंगलों को बचाने, पानी के संग्रहण की बात, वायु को प्रदूषित होने से बचाना, आदि कितने ही ऐसे अवसर होते हैं जब हम इनकी पैरोकारी करते हैं और हलफ लेते हैं कि इन्हें हम संरक्षित करेंगे। लेकिन ऐसा बहुत ही कम देखा गया है कि इन्हें लोग गंभीरता से लेते हैं। जब व्यक्ति अकेले में होता है तो वह इन बातों को भूल जाता है क्योंकि शायद उसे लगता कि उसके एक के करने न करने से कुछ नहीं होगा या फिर वह उसके गंभीर परिणामों को कल्पनीय मान कर नजरअंदाज कर देता है।
हमारे प्राचीन काल से ही ग्रंथों आदि से पता चलता है कि इन पाँच तत्वों का क्या महत्व होता है। इसीलिए हमने इन तत्वों के देवता भी निर्धारित किये हैं। हमने समय-समय पर इन देवताओं की आराधना के लिए समय भी निर्धारित किये। शायद इसी कारण से हमने नदियों को माँ का दर्जा दिया। आज भी दक्षिण भारत में पानी के बर्तन की रोज फूल आदि से पूजा होती है।
हमारे ग्रंथों की बातों को हमारे ही देश में कुछ तथाकथितों ने इन पर मजाक बनाया और इनके महत्व को नकारा भी। लेकिन गत वर्षों में प्रकृति के आचरण पर विलायत में वैज्ञानिकों ने इन पर शोध किया तो पाया कि इन तत्वों की स्मरण शक्ति बहुत अधिक होती है और इनका व्यवहार हमारे साथ वही होता है जो हम इनके साथ करते हैं। यह बात बड़ी गंभीर और डराने वाली है। कहते हैं कि जिस पानी के पास झगड़ा हुआ हो, वह पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि कि पानी में वह शक्ति होती है कि वह अपने आसपास उपस्थित नकारात्मक या सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करता है और उसके गुण धर्म उसी तरह के हो जाते हैं। अगर इस बात को हम अपने धार्मिक स्थानों के पानी को प्रसाद के रूप में देने की बात को जोड़ें तो कड़ी जुड़ती सी है। हमारे मंदिरों, गिरजाघर, मस्जिदों, गुरुद्वारों से पवित्र पानी के स्पर्श मात्र से चमत्कारी लाभ के बारे में सबको पता है। अमृतसर में स्वर्णमंदिर में स्थित सरोवर के पवित्र पानी की महिमा किसी से छुपी नहीं है।
मैं चितरंजन गोप जी को इस लघुकथा के लिखने के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। साथ ही समस्त पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि आप सब इस कथा को पढ़ें ही नहीं अपितु इस पर मनन करते हुए प्रकृति के प्रति अपने आचरण को भी बदलें।
No comments:
Post a Comment