'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी दूसरी लघुकथा "जादुई चिराग" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - जादुई चिराग
लेखक - हूंदराज बलवाणी जी
शब्द संख्या - 339
... और फिर वह चल दिया उस पार्टी के दफ्तर की ओर जिसके सबसे ज्यादा नेता उस जादुई चिराग की वजह से धनाढ्य हो चुके थे, उनके पास जमीन, जायदाद, गाड़ी-घोड़े, विदेशी दौरे, बच्चों की विदेश में पढाई-लिखे, सैर-सपाटे, भोग-विलास के साघनों की कोई कमी नहीं है। जैसे कुबेर के खजाने उनके लिए ही खोल दिए गए हों। उसने इधर-उधर भी नजर डाली, दूसरी पार्टियों के नेता भी किसी से कम नहीं थे लेकिन उसे वहाँ अमीरों में वही ज्यादा दिखे जो किसी खास कुनबे से तालुक्कात रखते थे। हालाँकि उस परिवार से सम्बंधित जाति के लोगों का भी बहुत उद्धार हुआ था, कुछ खास महकमों में सिर्फ उन्हीं लोगों को भर्ती किया गया था लेकिन यह तो कुछ भी नहीं। उन्होंने रेवड़ियां जो बाँट दी थी, सत्ता में आते ही। उनके खुद के कुनबे के लोग तो जैसे विधानसभा या लोकसभा का टिकिट लेकर ही पैदा होते हैं। सामान्यतः आम जनता का पहला नाम सरकार के जन्म-मृत्यु तालिका में पंजीकृत होता है लेकिन ऐसे राजनैतिक परिवार के लोगों का पहला नाम विधायक या सांसद की आगामी सूची में तय हो जाता है। उसने और नजर डाली तो कमोबेस हर पार्टी के यहाँ यही हालत थी। अब उसके लिए अपार संभावनाएं जाग गई थी। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था सिवाय जमीर को बेचने के। उसने लम्बे-लम्बे डग भरने शुरू कर दिए ताकि जल्दी से उस दल के कार्यालय में पहुंचकर वैभव की मंजिल पर पहुँचने की पहली सीढ़ी को छू सके।
....शायद यही कुछ विचार रहे होंगे 'उसके' जब उसने अलादीन का "चिराग" के बारे में जवाब सुना होगा।
... एक ताजातरीन अध्ययन और रपट के अनुसार आज भारत भ्रष्टाचार में नीचे से 78वें स्थान पर है। यह कितने शर्म की बात है। हम इस बात से खुश नहीं हो सकते कि हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान और सबसे भ्रष्ट देश सोमालिया से क्रमशः 117 वें और 180 वें स्थान से तो बेहतर ही हैं। यहाँ यह बात स्पष्ट करना उचित रहेगा कि भ्रष्ट देशों की जब आंकड़ों के आधार पर सूची बनती है तो केवल नेताओं को ही आधार नहीं बनाया जाता है बल्कि इसमें अफसरसाही और हर स्तर के भ्रष्टाचार को ध्यान में रखा जाता है।
... आखिर यह सोच ही क्यों पनपती है कि काश हमारे पास भी कोई अलादीन के चिराग जैसा साधन हो जिससे हम पलक झपकते ही अपने मन की चाहत को पूरा कर सकें। इसके पीछे अकर्मण्यता तो हो है ही साथ में असंतुष्टि और वैमनस्यता भी एक प्रमुख कारण है। और ये सब भी यों ही नहीं पनपते हैं। जब योग्य व्यक्ति को उसकी योग्यता के आधार पर काम न मिले, अयोग्य व्यक्ति को कम या बिना परिश्रम के ऊँचे ओहदे मिल जाएँ तो आदमी के पास क्या यह सोचने की भी छूट नहीं कि वह किसी अलादीन के चिराग की तरह किसी जुगाड़ की तलाश में लग जाये। हालाँकि किसी भी देश की प्रगति में उसके हर देशवासी का छोटा-बड़ा योगदान होता है और भारत भी उससे अलहदा नहीं है। किसी भी देश में उसकी जनता से वसूले गए कर से उस देश की सेना, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था,आदि सुचारु ढंग से चलाई जाती हैं लेकिन क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं कि हमारे देश में यह कर चंद लोगों से वसूला जाता है या कहिये सरकार वसूल पाती है। सरकार के संसाधनों और उसकी व्यवस्थाओं पर सैद्धांतिक रूप से तो सबका अधिकार है लेकिन हकीकत और विडंबना तो यह है कि जिस-जिसने अपनी मेहनत की कमाई से ईमानदारी से सरकार को कर दिया है उनमें से अधिकतर इन अधिकारों से स्वयं को महरूम पाते हैं। यह बड़ा दुर्भाग्य था कि प्राचीन काल में समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए जिन व्यवस्थाओं को योग्यताओं के आधार पर बनाया गया था बाद में वे परिवार आधारित हो गईं और इसने एक गलत सामाजिक व्यवस्था का रूप ले लिया और लोगों के साथ अन्याय हुआ। इस अन्याय की जितनी भर्त्सना की जाये वह कम है। आजादी के बाद इसी बुराई और असमानता को खत्म करने के लिए तात्कालिक आधार पर कुछ व्यवस्थाएं की गईं थी। इन व्यवस्थाओं से बहुत लोगों को लाभ भी हुआ और अभी भी हो रहा है जिससे उनके जीवन स्तर में बेहतरी आयी। लेकिन कालांतर में इस व्यवस्था का भी कमोवेश वही हाल हुआ जो प्राचीन काल में बनायी गई व्यवस्था का हुआ था। इस बात से किसी को एतराज नहीं है कि अगर कोई वास्तव में वंचित है तो उसे उसकी जरूरतों के अनुसार उसकी पूरी मदद होनी चाहिए लेकिन यदि यही मदद पीढ़ी दर पीढ़ी किसी जाति या मजहब के नाम पर निश्चित कर दी जाये तो इससे बड़ा दुर्भाग्य उस देश का नहीं हो सकता। आज दशकों पुरानी चली आ रही इस व्यवस्था से समाज के एक बड़े वर्ग के साथ अन्याय हो रहा है। इस व्यवस्था को राजनैतिक दलों ने सत्ता में बैठे रहने का अपने-अपने तरीके से दुरूपयोग किया है। किसी ने इसका समर्थन करके तो किसी ने इसका विरोध करके। जहाँ जिसकी गोटी बैठी, उसने उसका भरपूर फायदा उठाया। इस व्यवस्था ने न सिर्फ योग्यता और दक्षता को पीछे छोड़ दिया अपितु समाज में आपस में दूरियाँ पैदा की हैं। योग्य लोग हताश और निराश हैं। .....तो फिर अलादीन का चिराग तो चाहिए ही। हर व्यक्ति को खोज तो जारी रखनी ही चाहिए। शायद, चिराग न भी मिले लेकिन अलादीन तो मिल ही जायेगा जहाँ से सम्भव है कि उम्मीद की कोई किरण दिख जाये। लेकिन ध्यान इतना ही रखा जाये कि अगर मंजिल चमकदार और रास्ते सुगम हों तो रास्तों की जाँच कर लेना और अगर रास्ते दुर्गम से दिखें परवाह मत करना, अख्तियार कर लेना। उस दुर्गम रास्ते पर मेहनत और सच्चाई से आगे बढ़ते रहना। मंजिल पाते ही आप खुद ही हो जाओगे अलादीन और मेहनत व आत्मविश्वास के हथियार के रूप में आपके पास भी होगा जादुई चिराग।
किसी ने सच ही कहा है - "हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-खुदा।"
प्रस्तुत रचना में लेखक ने आज समाज की बड़ी समस्या "हर योग्य हाथ को काम" पर बड़े ही सुन्दर ढंग से कलम चलाई है। इसमें जहाँ एक पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक के अलादीन के चिराग की तलाश के पीछे के मनोभावों को कुशलता से वयां किया है वहीं राजनीति के उस परदे को भी उजागर किया जहाँ अक्सर अयोग्य व्यक्ति किस तरह से कुछ ही दिनों में धन-धान्य से अपना घर भर लेता है। मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
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