.....'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनन्या गौड़ जी। आपकी लघुकथा 'अपाहिज' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखिका - अनन्या गौड़
लघुकथा - अपाहिज
लघुकथा - अपाहिज
प्रस्तुत लघुकथा में आज के जीवन की भागदौड़ और परिवार के दायित्यों के प्रति सामंजस्य बनाने की जद्दोजहद की चिरपरिचित बानगी रखी है अनन्या जी ने।
....कहते हैं, बुढ़ापे में मन बच्चों जैसा हो जाता है। जहाँ अम्मा जी की रसगुल्ले खाने की इच्छा जितनी प्राकृतिक लगती है वहीं वहू देवकी का तर्क या कुतर्क भी उतना ही असहज कर देता है लेकिन किशोर का प्रेम भरा तार्किक आग्रह सुखद रहता है। हालांकि कथा में अम्मा जी की उम्र का सीधा हवाला नहीं है लेकिन 'असंख्य सिलवटों से घिरे चेहरे' ने सब वयां कर दिया।...और ऐसा नहीं है कि माँ को केवल रसगुल्ले खाने की ही इच्छा है, नहीं। उन्हें बेटे की परेशानी का ख्याल भी है सो जब बेटा ऑफिस से लौटते वक्त रसगुल्ले लाने की बात करता है तो 'देर होने की स्थिति में न लाने' की बात कहकर अपनी इच्छाओं की तिलांजलि भी देती हुई मातृप्रेम उड़ेलती दिखाई देती हैं। जब बेटा कहता है कि "आज देर नहीं होगी" तो पुत्र का प्रेम भी झलकता दिखाई देता है।
जब किशोर गाड़ी चला रहा होता है तो उसका आत्मन्थन और अफसोस भी जाहिर होता है कि किन कारणों से वह अम्मा जी से कितने दिनों से मिला भी नहीं। हालांकि कारण कितने भी दिए जाएं, असंभव तो नहीं है कि कोई एक ही घर में रहते हुए दूसरे सदस्य से मिल न सके। यह आज के आधुनिक परिवेश की दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है जिसमें बृद्ध माँ-बाप के प्रति बच्चों की असंवेदनशीलता स्पष्ट नजर आती है। इस पर मुझे मेरे स्कूल के दिन याद आ गए। जब कोई छात्र/छात्रा गृहकार्य न कर पाने के कई कारण गिनाता था तो हमारे गुरू जी कड़कती आवाज में पूछते थे, "अच्छा, इतने व्यस्त थे तो भोजन करना भूल गए थे क्या?'...और फिर बहानेवाज को निरुत्तर ही होना पड़ता था।
हालांकि लेखन की दृष्टि से कथा का अंत बहुत सुंदर तरीके से किया गया है लेकिन अंत में ऐसा भी लगता है कि शीर्षक 'अपाहिज' के साथ प्रस्तुति थोड़ी और बेहतर हो सकती थी। यह इसलिये भी लगा क्योंकि कि आखिरी दृश्य का सीधा संबंध 'शीर्षक - अपाहिज' से है। कथा में कहीं भी अम्मा जी के अपाहिज या विकलांग/दिव्यांग होने की बात नहीं कही गयी है। देवकी ने भी जब फोन करके अम्मा जी की अचानक बिगड़ी तबीयत के बारे में बताया तो ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे अम्मा जी के अपाहिज होने का संकेत मिलता हो। अमूमन सांस लेने की तकलीफ को 'अपाहिज' कहना थोड़ा सा अजीब लगता है, हालांकि इस परिभाषा को पूर्णत: नकारा भी नहीं जा सकता। शायद कथा के पूर्व, मध्य या देवकी के फोन की बातचीत में ऐसा कुछ बदलाव किया जा सकता था कि वह शीर्षक, अंतिम वाक्य और अन्ततः सार के साथ 'पूरी तरह' तारतम्य मिला पाता।
कुल मिलाकर उपर्युक्त लघुकथा अच्छी बन पड़ी है। अनन्या जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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