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Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से आदरणीय गणेश जी बागी जी  की लघुकथा को लिया है। आज उनकी लघुकथा "चित्त और पट" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - चित्त और पट 
लेखक - गणेश जी बागी जी 


नेताओं की बातें क्या, उनकी नियति क्या? अब तो थाली का बैगन भी शर्म से डूब मरे क्योंकि नेता जी में तो जैसे स्वचालित यंत्र लगे हों। इन्हें कब, कहाँ, क्या, किससे, कैसे बात करनी है? क्या आचरण करना है? कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता। इन्हें तो भीड़ में दिखता है एक बड़ा बाजार और अपना कारोबार। ..और दिखे भी क्यों न? आम आदमी यही तो चाहता है कि नेता जी इसी तरह बंदरों की तरह इस पेड़ से उस पेड़, इस शाखा से उस शाखा पर जाते रहिये, हम आपके करतबों से खुश होते रहेंगे। आप मौषम और स्वादानुसार बदल-बदल कर फलों का आनंद लीजिए और खुश हो रही जनता अगर कभी अपने लिए भी किसी फल की इच्छा करे तो उसे गुठलियों का प्रसाद दीजिये।
हमारे देश में आज यही हो रहा है। चनाव जीतने के सूत्र सबको पता हैं, उसके नियम कानून तय हैं। चुनावी कार्यक्रम आज एक बड़ा तिकड़मी व्यवसाय है जिसमें धनबल और बाहुबल का प्रयोग आम है। इसीलिए आज राजनीति में आने के लिए किसी के पास चारित्रिक योग्यता हो न हो, वह छल, प्रपंचों में अब्बल होना चाहिए। यदि ये गुण हैं तो रही कसर पूरी कर देते हैं हमारे तथाकथित चतुर्थ स्तंभ के जिम्मेदार लोग। राजनीति के बाद अगर किसी और पेशे के स्तर में गिरावट आई है तो वह है पत्रकारिता।

जब आप सत्ता में काबिज हैं तो वही वादे आपके लिए ब्रह्म वाक्य हैं और यदि आप विपक्ष में हैं तो आप उन्हीं को जनता के लिए अभिशाप बताते हैं। पता नहीं ये दोहरा चरित्र लाते कहाँ से हैं? जिन योजनाओं से किसी 'और' दल की सरकार के समय विपक्ष को कमियां ही कमियां और नुकसान नजर आते थे, खुद की सरकार आने पर उन्हीं योजनाओं ने जैसे सर्वमनोकामना पूरी करने वाली योजनाओं का रूप ले लिया हो। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन इन्हीं अपनी योजनाओं को विपक्ष जब खुद लागू कर रहा था तो उसे स्वर्ग की सीढ़ी जैसी दिख रही थी लेकिन आज जब सत्ता पक्ष उनसे समुद्र मंथन कर रत्न प्राप्त करना चाहता है तो उनमें उन्हें खोट ही खोट नजर आता है।
इसीतरह के नेताओं के दो-मुहें चरित्र का बखान करती हुई लघुकथा "चित्त और पट" अच्छी बन पड़ी है। आजकल पत्रकार भी अंतर्जालीय जमाने वाला है। उसके पास प्रश्नावली भी संयुक्त वाली ही है। उसने मौकापरस्त नेताओं और दलों की तरह, पूछे जाने वाले प्रश्नों का गठबंधन करा दिया है। आजकल हर गली-नुक्कड़ पर नेता मिल जाएंगे। बेरोजगार हैं तो क्या हुआ? नेता तो बन ही सकते हैं। कभी भी अपनी जाति और धर्म वाले की टोपी और झंडा लगा लेंगे और बन जाएंगे नेता जी। ....तो पत्रकार को आजकल अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है, कि पता नहीं किस दल के नेता कहाँ मिल जाएं? तो उसने भी एक ऐसी प्रश्नावली ईजाद की है कि हर नेता पर वह सटीक बैठ जाये जिससे नेता जी भी सहज महसूस करें और उसकी अपनी पत्रकारिता भी चमकती रहे, नौकरी भी बनी रहे।
...प्रस्तुत लघुकथा में भी जब पत्रकार ने पहला प्रश्न किया तो नेता जी ने आशानुरूप यही जबाब दिया कि, "विपक्ष की रैली असफल रही। इस रैली की वजह से सभी को परेशानी हुई। अब परेशानी का कारण तो भीड़ ही थी जो कि कहीं न कहीं इस बात का संकेत थी कि विपक्ष की लोकप्रियता बढ़ी है। और जब पत्रकार ने बढ़ी भीड़ की उनकी स्वीकरोक्ति के बारे में पूछा तो उनका एकदम उलट जबाब था। उन्होंने अपने 40 वर्षों के भीड़ जुटाने और रैलियां आयोजित कराने के लिए उपयोग में लाये जाने वाले हथकंडों को जग-जाहिर कर दिया। ..... आखिर, रंगा सियार कब तक अपनी "हुआं-हुआं" रोक पाता।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

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