मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया प्रतिभा मिश्रा जी । आज उनकी लघुकथा "सीख" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखिका - प्रतिभा मिश्रा जी
लघुकथा - सीख
किसी के काम, पहनावे से भुलावे में मत आ जाना और यह गलती भी मत कर देना कि उसके चरित्र और चाल का आकलन करने लग जाओ। न, बिल्कुल नहीं। अब समय चला गया जब खतों की रंगत से पता चल जाता था कि पैगाम क्या होगा? किसी के पेशे से उसके हालात को पढ़ने की गलती भी अक्सर हो जाती है। पेशा, करना तो पड़ता ही है क्योंकि ऊपर वाले ने एक पेट जो दिया है। अपना पेट तो ठीक है लेकिन कभी-कभी ऐसे कई पेटों को भरने की जिम्मेवारी भी अगर किसी पर आ जाये तो फिर कभी-कभी दलदल में पांव रखना भी पड़ सकता है। लेकिन घ्यान रहे, जो दलदल में आपको खड़ा दिख रहा है जरूरी नहीं वह उसका हिस्सा भी हो। नहीं, कमल को ही देख लो, खिलता तो कीचड़ में है लेकिन धन की देवी लक्ष्मी जी पर चढ़ाया जाता है। कभी-कभी मजबूरियों के चलते उठाने पड़ते हैं वे कदम जिन्हें "सभ्यता" के समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। उस पर भी ताज्जुब यह है कि जो तथाकथित समाज उसे अच्छा नहीं कहता, अक्सर उन्हीं की हाजिरी लगती है वहाँ। बहुतायत में यही हमारे यहाँ के समाज की कड़वी हकीकत है।
.....तो फिर धर दिया न झन्नाटेदार झापड़। और क्या करे? जिन अय्याशों को रात के अंधेरे और गुमनाम गलियों में रंगरेलियां कराती महिलाएं खुद को परोसती हैं, क्या कभी उनके बारे में सोच पाते हैं लोग? सोच भी कैसे पाएं, जब खुद का ज़मीर गिरबी रखा पड़ा हो? जो अपनी पत्नी और परिवार वालों को धोखे में रख सकते हैं, उनसे उम्मीद ही क्या की जाए? जनाब, सुंदरता और उसके सुर पर मुग्ध हो गए थे। और इतना मोहित हो गए, इतना कि जनाब अपनी माँ का मंगलसूत्र ही ले गए उपहार में। ऐसों की कला पसंदगी क्या, उनका चरित्र क्या?
...लेकिन कहते हैं ना कि चाहे हजारों विषधर भी क्यों न लिपटे रहें चंदन के पेड़ों पर, चंदन कभी अपने मूलभूत गुणों, शीतलता आदि को नहीं छोड़ता है। और वही किया उस महिला ने। जैसे ही उसे पता चला कि सुधीर आज उसके तथाकथित "प्रेम" में पड़कर उसके लिए अपनी माँ का मंगलसूत्र चुराकर लाया है तो जाग गई उसके अंदर की महिला। सुना दिया अपना फैसला कि, "हम लोगों का दिल भले ही बहलाते हैं, किसी महिला को बदनाम नहीं करते।" और फिर हिदायत दी कि अगर दुबारा यहाँ आया तो टाँग तुड़वा ढ़ी जाएगी।
यहाँ सिर्फ लोभ लालच से तिलांजलि की ही बात नहीं है अपितु उसे अपने महिला और दूसरी महिला के सम्मान का भी ख्याल है। उसे खुद के कीचड़ में पड़े होने का एहसास भी है और एक दूसरी महिला का ख्याल भी है, और उस महिला का जिसका एक रूप माँ भी होता है ।...तीसरी सबसे खास बात कि उसे सुधीर की चिंता भी है कि वह वहाँ दुबारा न आये ताकि इस कीचड़ में फँसने से बच जाए। शायद यही सीख थी जो "बाई" ने सुधीर को देनी चाही थी।
किसी ने सच ही कहा है, "नारी तू नारायणी"।।
उपर्युक्त रचना के लिए प्रतिभा जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई।
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