हमहुँ_कहिन
प्रेम जोड़ता है, तोड़ता नहीं
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
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मीडिया के ये दिन भी आएंगे, कभी सोचा न था। दरअसल चुनाव खत्म हो गए तो अब आपको टेलीविजन पर बैठाएं कैसे? इनकी इस चाल को सामान्य जनमानस को समझकर अपने काम धंधे में लगना चाहिए।
एक सामान्य प्रेम विवाह (जिसमें आवश्यकता पड़ने पर घर वालों को बिना बताये घर से जाना भी शामिल है जिसे लोग भागना भी कहते हैं) की घटना थी। इस सामान्य से एक घर के प्रकरण को इलास्टिसिटी से प्लास्टिसिटी की सीमा तक जिस तरह से खींचा जा रहा है, वह हास्यास्पद ही नहीं, दुर्भाग्यपूर्ण भी है।
आजादी को ये टीवी वाले बिना मतलब की बकबक करके तय नहीं कर सकते। यह आजादी की वकालत सिर्फ शादी के मसले पर ही क्यों? या फिर अपने पसंद के रोजगार या नौकरी पर ही क्यों? मुझे समझ में नहीं आता कि यह तथाकथित आजादी की पैरवी सिर्फ उस उम्र के बाद ही क्यों की जाती है जब खुद की समझदारी के साथ बच्चों को बड़ों के मार्गदर्शन की सबसे अधिक जरूरत होती है। उम्र का यह पड़ाव ऐसा नाजुक पड़ाव होता है जब कभी-कभी आवेश में वे दूरगामी परिणामों का आकलन नहीं कर पाते हैं।
यह आजादी की बहस तो तबसे शुरू करनी चाहिए जब बच्चा स्कूल जाना ही नहीं चाहता है। उसे तो अपनी माँ के आंचल और मित्रों के साथ ही खेलना है, उसी में आनंद है, उसी में आजादी है। वह तो सुबह उठकर जल्दी पढ़ना ही नहीं चाहता। तो फिर माँ-बाप क्या करें? उसे आजादी देकर उसे सोते ही रहने दें? उसे खाने में तो सिर्फ मिठाईयां ही पसंद हैं। तो फिर तीनों वक्त मिठाईयां ही खिलाते रहें? क्योंकि कि आजादी की अवहेलना और उनके अधिकारों का हनन जो हो जाएगा यदि हरी सब्जियों, सलाद और फलों को खाने की जिद भी की तो फिर यह तो उनके साथ अन्याय हो जाएगा। उसे तो सुख-सुविधा की हर वो सहूलियतें चाहिए जिससे वह अपने संग-साथियों पर धौंस जमा सके। अच्छे कपड़े, अच्छी मोटरसाइकिल, बढ़िया ब्रांडेड घड़ी, मंहगे जूते, महंगा मोबाइल, और न जाने क्या, क्या? क्योंकि उनकी आजादी के सवाल जो ठहरे। चाहे खुद पिता जी ने साइकिल पर जिंदगी गुजार दी हो लेकिन आपके लिए लेटेस्ट मॉडल की बाइक जरूरी है।
जो लोग बहस में घी का काम कर रहे हैं वे समझें कि ये टीवी वालों के मसले नहीं हैं। ये बड़े ही निजी मसले हैं। इन्हें बड़े ही व्यक्तिगत सूझबूझ से समझना होता है और निर्णय लेना होता है। हर घर की कहानी अलग है और उनके कारण और निवारण भी अलहदा। लोगों को बहती गंगा में हाथ नहीं धोना चाहिए।
स्पष्ट कर दूँ कि न तो मैं किसी प्रेम विवाह के खिलाफ हूँ, न ही इसके समर्थन के और न ही किसी और की आजादी मैं परिभाषित करना चाहता हूँ। मेरा तो मानना है कि यह बेहद निजी मामला है। मुझे दूसरे के मसलों में बकबक करने का अधिकार ही नहीं है। जिसे जो अच्छा लग रहा है, वह करे। उसे किसी और के प्रमाणन की जरूरत क्यों हो?
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