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Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अनिता ललित)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनिता ललित जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'जाले' और 'सच्ची जीत' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अनिता ललित
लघुकथा - जाले

इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हमारे यहाँ प्राचीन काल में समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए काम और योग्यता के आधार पर बनाई गई जातिगत व्यवस्था आगे चलकर जन्म आधारित होने के कारण समाज को बाँटती चली गई।
हालांकि, आज इस बाँटने वाली जातिगत व्यवस्था में बहुत सुखद बदलाव देखे जा सकते हैं। इन सुखद बदलाव के कारण हैं, लोगों का शिक्षित होना, समझदार होना, आदमी को आदमी समझने की समझ होना, आदि। जैसे-जैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं, समाज से जाति पर आधारित छुआछूत की समस्या बहुत हद तक खत्म हो चुकी है, हो रही है। लेकिन जहाँ शिक्षा की कमी है, समझदारी की कमी है, यह बीमारी आज भी जड़ से खत्म नहीं हुई है। अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे लोगों के मन में ये जातिवाद के 'जाले' अभी भी लगे हुए हैं, चाहे वर्तमान में वह किसी भी जाति से ताल्लुक रखते हों। व्यक्ति का अशिक्षित होना इस समस्या के मूल में है।
समाज में अभी भी व्याप्त इस समस्या की अनिता जी ने सुंदर झलक दिखाई है अपनी लघुकथा 'जाले' में। जिसमें वर्तन धोने वाली महिला अपने आप को झाड़ू लगाने वाली से ऊंचा मान रही है और उसे अपनी तस्तरी छूने पर एतराज जता रही है। इसी तरह दूसरे दृश्य में वही झाड़ू-पौंछा करने वाली महिला अपने आप को स्नान-गृह साफ करने वाली से ऊंचा मान रही है और उसके बारे में जातिगत टिप्पणी कर रही है। यहाँ झाड़ू लगाने वाली महिला यह भूल जाती है कि जो व्यवहार उसे अपने लिए पसंद नहीं, जिस बात पर उसे बहुत दुख हुआ, वही वह दूसरों के लिए कर रही है। अक्सर लोग दूसरों पर आपत्ति तो दर्ज करते हैं लेकिन वे भूल भी जाते हैं कि तीन उंगलियां उनकी अपनी तरफ हैं। इस बाबत कहीं पढ़ा हुआ एक शेर याद आ गया :
उम्र भर गालिब, यही भूल करता रहा,
धूल चेहरे पर थी और आईना साफ करता रहा।

*'जाले' में काल खंड का जाला है, जिस पर लेखिका महोदया द्वारा ध्यान दिया जा सकता था।
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लेखिका - अनिता ललित
लघुकथा - सच्ची जीत

"तोल-मोल के बोल और समझदारी" आज के तनाव भरे माहौल में जीवन जीने के मूलमंत्र हैं। अनिता जी ने इन्हीं मंत्रों को अपनी लघुकथा 'सच्ची जीत' में एक परिवार के ताने-बाने में बुना है। अक्सर व्यक्ति अपने साथ हुए, दूसरे के बुरे व्यवहार की सजा किसी तीसरे के साथ वही व्यवहार करके देता है। और जब यह तीसरा कोई अपना हो तो फिर तो ज्यादा समय भी नहीं लगता। लेकिन जिसे बोलने से पहले थोड़ा 'आकलन' करने की कला आ जाये वह अपनी और दूसरों की जिंदगी आसान बना सकता है।
.....वही तो रवि ने किया। जब वह दिन भर का थका-हारा घर आता है, पत्नी पानी का गिलास लिए खड़ी है और वह पिताजी का चश्मा ठीक कराने उल्टे पांव ही लौट जाता है और जब लौटता है तो पुराने चश्मे को न केवल ठीक करा लाता है, साथ में एक नया चश्मा भी लाता है ताकि उन्हें अगली बार जब एक चश्मा टूट जाये तो परेशानी न हो।
....और जैसा कि कहा गया है, समझदार लोग सामंजस्य बना ही लेते हैं। इस सुंदर सी लघुकथा में जहाँ एक तरफ रवि ने पिताजी के चेहरे पर खुशियां ला दी वहीं दूसरी तरफ अपनी तर्कसंगत और व्यवहारिक बातों से न केवल पत्नी की तल्खी को खत्म किया बल्कि उसके हृदय को पिघला भी दिया। साथ ही, जैसे कि लोग मौके की तलाश में रहते हैं, रवि ने भी चुहल में ही सही, सुन्दर मौका देखते ही पत्नी को भी कह दिया कि 'और देखो न! मैं तो तुम्हारे ताने भी खामोशी से सुन लेता हूँ...'। यही तो दाम्पत्य जीवन की ऊर्जा है।
हालांकि पिता जी का हड़की वाला उलाहना और रवि की पत्नी से स्वाभाविक बातचीत थोड़ी बड़ी हो गयी लेकिन लगभग 500 शब्दों के दायरे में सुंदर बन पड़ी 'सच्ची जीत'।
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उपरोक्त 'मेरी समझ' में वर्णित दोनों लघुकथाओं के लिए अनिता ललित जी को बहुत शुभकामनाएँ।

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