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Sunday, August 20, 2023

किश्त -0४ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा जैन जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

किश्त -0४ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा जैन जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।

मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है। 


   
इस खण्ड की एक और लेखिका हैं सीमा जैन जी। आइए, डालते हैं उनकी लघुकथाओं पर नजर।

'औरत तेरी यही कहानी...
सीमा जैन जी की लघुकथा 'पानी' पढ़कर पाठक का कलेजा मुँह को आ जाता है। क्या स्थिति रही होगी महिलाओं की उस जमाने में। 'मेरी माँ ससुराल में पानी भरने के लिए ही लाई गई थी।' यह एक वाक्य उन पर हुए अत्याचार को बताने के लिए काफी है। हालाँकि इस लघुकथा में सिर्फ यही पक्ष नहीं है। इसके अतिरिक्त दूसरा पक्ष भी है और वह है पानी की बर्बादी का। आज कितने ही लोग पानी को स्विमिंग पूल के नाम पर, वाहनों को धोने के लिए और कितने ही अन्य कामों में अनावश्यक रूप से बहाते रहते हैं। पानी का दुरुपयोग या उसे यों ही बहा देना राष्ट्रीय गुनाह है। पानी की बर्बादी और महिलाओं की दयनीय स्थिति का बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुतिकरण इस कथा के प्रबल पक्ष हैं।
अगली कथा का शीर्षक 'पागलपन' बहुत ही सटीक है लेकिन कथा पढ़कर यह पता चलता है कि इस शीर्षक में व्यंग भी भरा पड़ा है जिससे कथाकार के लेखन कौशल की झलक मिलती है। इसी संग्रह की शोभना श्याम जी की एक लघुकथा है 'आखिरी पन्ना'। वह भी इसी कथानक पर आधारित है। इस कथा में भी यह महत्वपूर्ण बात है कि घर की मालकिन ने पति की पेंशन से एक भी रुपया लड़के को न देने और मकान अपने ही नाम पर रखने के निर्णय ने पुत्र और पुत्र बहू का नशा हिरन कर दिया। ऐसी कथाओं से एक युक्ति तो समझ में आती है कि हो न हो, यदि बुजुर्गों के पास कुछ संपत्ति है तो कम से कम बुढ़ापे में बच्चों की अनदेखी या बदसलूकी से तो बचा ही जा सकता है। ये एक तरह से उनके लिए हथियार की तरह हैं जो उपयुक्त समय पर जरुरत पड़ने पर प्रयोग किये जा सकते हैं। 
इस कथा के ठीक आगे की कथा है 'डर' लेकिन इसमें डरने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि हर सिक्का खोटा नहीं होता है। लेकिन कहते हैं ना कि दूध का जला हुआ छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है सो सलाह भी उसी प्रकार की मिलेगी जैसा लोगों का अनुभव होगा।  तभी तो जब सौरभ के पिता ने मकान बेचकर बेटे को दूसरा मकान खरीदने के लिए रुपये दिए तो उनके मित्र उन्हें डराने लगे कि अब शायद उनका लड़का उन्हें 'कहीं का भी न छोड़ेगा'। वे अपने मकान से भी गए और लड़के के दूसरे मकान में तो जाने से रहे। लेकिन अंत भला सो सब भला। क्योंकि जब लड़के से मकान खरीदने में देरी के कारण की बात पूछी तो उसके उत्तर से वे बहुत भावुक हो गए। कथा का सुखांत समाज के वर्तमान दूषित वातावरण में एक ताजी और ठंडी वयार की तरह है।

आधुनिक समय में जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं या बहुत व्यस्त हैं, खेल के मैदान सिमट रहे हैं और आधुनिकता की दौड़ में लोग भागे चले जा रहे हैं ऐसे में बच्चों का बचपन तो जैसे छीन ही लिया गया है। माँ-बाप के पास समय नहीं है। एकल परिवार संस्था में पति-पत्नी और बच्चों तक ही घर सीमित हो चुके हैं, दादा-दादी, ताई-ताऊ, चाचा-चाची के लाड़-दुलार अब मिलना असंभव सा है क्योंकि सामूहिक परिवार संस्था टूट चुकी है, ऐसे में बच्चे करें भी तो क्या करें? बच्चों के खेल सीमित हो चुके हैं और यदि उन्हें बड़े कहीं बाहर लेकर भी जाते हैं तो पहले उनके अपने खेल, बाद में बच्चों के। प्रस्तुत कथा जिसकी शुरुआत तो डायरी शैली में हुई है लेकिन अंत आते-आते यह पत्रात्मक शैली में तब्दील हो चुकी है जिसमें बालक यह प्रश्न पूछता है कि अब खेलने की उम्र किसकी है? मेरी या माँ की। निश्चित रूप से अपने मन का काम सबको करना चाहिए लेकिन यदि बच्चों को बचपन में खेलने न दिया जाए तो वे जिंदगी के एक असली मजे को अनुभव करने से चूक जाएँगे। इस रचना के माध्यम से लेखिका ने आज के व्यस्त जीवन को माता-पिता के लिए एकबार पुनरावलोकन करने के लिए प्रेरित और प्रस्तुत किया है।
आज जितनी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं उनमें ज्यादातर विवाहित बच्चे और माँ-बाप के बीच की कहानियाँ हैं। ऐसे में कुछ लघुकथाएँ उसी कथानक से विभिन्न शाखाओं के साथ भी लिखी जा सकती हैं। इससे न केवल नई रचना निकलती है अपितु उसमें विषयवस्तु को नए सिरे से देखने की दृष्टि भी होती है। ऐसी ही लघुकथा है 'खाली हाथ'। जिन माँ-बाप को बच्चे अपने साथ तो रखते हैं लेकिन वे उन्हें बोझ की तरह लगते हैं। वे शायद भूल जाते हैं कि जिन माँ-बाप ने उन्हें बचपन में अपनी सुख-सुविधाओं को छोड़कर उनकी परवरिश की, आज उन्हें सेवा-सुश्रूसा की जरूरत है। बुढ़ापे में माँ-बाप बच्चों की तरह हो जाते हैं। वे थोड़े से प्यार और साथ के भूखे होते हैं फिर चाहे वह उन्हें अपनों से मिले या किसी और से। कथा में एक अपने ही बेटे के सहकर्मी से मिली आत्मीयता से जैसे उनका बुढापा ही संवर जाता है और फिर जब इसका रहस्योद्घाटन होता है तो बेटे को 'खाली हाथ' सा ठगा हुआ ही रह जाना पड़ता है। शीर्षक को सार्थक करती बहुत सुंदर रचना।
आज नशा समाज, खासकर गरीब तबके के लोगों के लिए किसी भयंकर बीमारी की तरह है जो दिन प्रतिदिन खाये जा रहा है, खोखला कर रहा है। शराब पीकर आना, पत्नी और बच्चों को आकर पीटना, उनकी कमाई खा जाना, आदि सब बहुत मिली-जुली सी दास्तानें हैं, गरीबों की। लेकिन ऐसे में ही तपती धूप में शीतलता की फुहार का आभास कराती लघुकथा है - काशी की लकीरें। कभी-कभी अंगुलिमाल भी बुद्ध के सामने आत्मसमर्पण कर देता है। दुराचारी बाल्मीकि भी मरा-मरा कहते अच्छाई के रास्ते पर चलने लगता है। ऐसा ही ह्रदय परिवर्तन हुआ है काशी के पति का जिसे किसी की बात समझ में आई और उसने पत्नी द्वारा उसकी कमाई का बहीखाता जब दीवार पर कटी हुई लकीरों के रूप में देखा और खुद में बदलाव किया जिससे उसके घर में रोटी के साथ भाजी बनने के संयोग भी बनने लगे। समाज में व्याप्त गंदगी और उसमें कमल को खिलाती एक सुंदर रचना।

परिवार - सच में, इसकी परिभाषा ही अलग है। यह आलीशान मकानों, बड़ी कारों या फिर किसी खास साज-सजावट से नहीं बनता है। यह तो बनता है आपसी प्यार, एक-दूसरे की समझ का सम्मान और सच्ची संवेदनाओं से। शादी किसी व्यापार या लेनदेन का नाम नहीं है। शादी किसी जोर-जबरदस्ती का नाम भी नहीं है जहाँ बड़ों के दबाव से शादी हो तो जाए लेकिन मन कभी न मिलें या उनकी आपस की समझ कभी एक न हो पाए। यह तो वह पवित्र रिश्ता है जिसमें किसी को किसी का साथ मिले, प्यार मिले, बड़ों का सानिध्य और सहयोग मिले। ऐसी ही प्यारी सी लघुकथा है - परिवार। अनाथालय में पली-बढ़ी मीरा को साहिल द्वारा वरण करने का निश्चय और अपनी माँ को उसके सकारात्मक पक्ष को उभारकर समझाने का प्रयास और माँ का सहज स्वीकार्य करना इस कथा को नई ऊँचाइयों पर ले जाता है।
'गुदड़ी के लाल' की याद दिलाती हुई अगली रचना है 'भविष्य'। कहते भी हैं - जिसने अर्जुन की तरह लक्ष्य को देख लिया उसके लिए उसका संधान करना कोई बड़ी बात नहीं है। बाप की बीमारी और गरीबी का दंश झेल रहे रवि के सामने जब अंधकार ही था उसे अपने ताऊजी द्वारा अच्छे कॉलेज में दाखिला करा देने को अवसर में बदलने और उसी से अपना भविष्य देखने का जज्बा काबिलेतारीफ है। हालाँकि जेठजी के घर का माहौल देख रवि की माँ स्वाभाविक डर जाती है कि जहाँ उसके जेठ और उनका बेटा शराब की गलत लत में पड़ गए हैं और रवि को एक नौकर की तरह रख रहे हैं, संभव है कि रवि भी कालान्तर में इसी नरक में न चला जाए। लेकिन रवि के मजबूत इरादे, स्पष्ट लक्ष्य और उसका माँ से आँख मिलाकर इसका रहस्योद्घाटन करना बहुत सुखद और प्रेरणादायक दायक है।
संस्मरण शैली में लिखी अगली रचना है - ईमानदारी। ईमानदारी एक परवरिश का नाम है जो किसी एक स्थान से नहीं मिलती है। यह तो समाज, घर-परिवार, मित्र-पड़ोसी आदि से छन-छन कर आने वाली देखा-देखी मिलने वाली तासीर का नाम है। ईमानदारी गरीब या अमीर किसी के भी आचरण की शोभा बन सकती है। ...और इसी ईमानदारी की अमीरी का उदाहरण दिया उन समोसेवाले बाबा ने जिन्होंने अपने सभी समोसे बिकने का बाद जब वही समोसे उन्हें गरीबों में बांटने का जिम्मा दिया गया तो उन्होंने उसे सहर्ष निभाया। हम अक्सर गलतफहमी में रहते हैं कि गरीब आदमी शायद पैसों के लालच में धोखाधड़ी का काम करते हैं लेकिन अक्सर ऐसे मान्यताएं निराधार हो जाती हैं जब परिदृश्य इसके उलट होता है। ऐसा ही कुछ हुआ इस कथा में। एक और उत्कृष्ट रचना।

एक हम हैं कि पड़ोसी पाकिस्तान से परेशान हैं और एक 'रोशनी' लघुकथा की पात्रा है जिसे रजिया जैसी अच्छी पड़ोसन जो मिल गई है। आपसी सहयोग से जो घर-परिवार, समाज का माहौल बनता है, असली रोशनी तो उसी की होती है। तीज-त्योहार तो इसलिए बनाये गए थे ताकि लोग घर की सफाई, नए कपड़े, मिठाई आदि खा सकें और मिलने-मिलाने के दौर में अपने गिले-शिकवे दूर कर सकें। लेकिन जो सुकून एक पड़ोसी दे सकता है, उसकी बात ही अलग है। लघुकथा 'रोशनी' में रिश्तों की इसी चमकती किरण से दीपावली का मनाना सार्थक सा लगता है। कथा में न केवल आपसी संबंधों की सुंदर बानगी है अपितु दो धर्मों के लोगों की आपसी सामंजस्य का पाठ भी है जो किसी राजनीति के पचड़े से दूर सुकून की जिन्दगी का आधार बन गए हैं।
लघुकथा 'उड़ान' का कथानक मध्यमवर्गीय परिवार की आम कहानी की तरह ही है लेकिन इसमें माँ के व्यवहार में बिना किसी उथल-पुथल के बिना जो सकारात्मक परिवर्तन हुआ उसके लिए लेखिका बधाई की पात्र है। वह कहते हैं ना कि सुनो सबकी, करो मन की। हमारे यहाँ उपदेश मुफ्त में मिलते हैं इसलिए अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तदार आदि सभी समाज की ऊँच-नीच, तौर-तरीकों पर आपको नियम-कानून सिखाते मिल जाएँगे। लेकिन गुल की माँ की तारीफ करने पड़ेगी कि उन्होंने किसी की न सुनी और बेटी की इच्छा के अनुसार ही उसके हित में निर्णय लिया। कथा के अंत में पाठक यह अनुभव करता है कि यदि कथान्त ऐसा ही करना था तो शुरुआत में भाई की इच्छाओं की पूर्ति की दास्तान अनावश्यक सी लगने लगती है। कभी-कभी इस तकनीक से पाठक भ्रमित भी हो जाता है जिसे लेखक को संज्ञान में लेना चाहिए। कई बार लेखक पाठक को आश्चर्यचकित करने की जगह भ्रमित कर देता है जहाँ असमंजस की स्थिति बन जाती है। इस कथा में भी ऐसा ही हुआ है जिस पर ध्यान देना अत्यावश्यक तो नहीं लेकिन यदि दे दिया जाता तो कथा कुछ और भी कसी हुई बन सकती थी।

सीमा जैन जी की लघुकथाएँ घर-परिवार की विषयवस्तु से निकली बहुत सकारात्मक कथाएँ हैं। इनमें नयापन भी है, शिक्षा भी है और पाठकों/समाज के लिए प्रेरणा भी है। उनकी लघुकथाओं की शैली में विविधता भी है जिनमें संस्मरणात्मक, आत्मकथ्यात्मक आदि की अधिकायत है।

डॉ रजनीश दीक्षित

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