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Wednesday, September 11, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - विभाजन की त्रासदी

#पुस्तक - विभाजन की त्रासदी
#लेखक - मुनीश त्रिपाठी जी
#पेज - 199
#कीमत - ₹ 400/- लेकिन अमेज़ॉन/फ्लिपकार्ट पर रियायती कीमत पर डाकखर्च सहित उपलब्ध है।
#प्रकार - सजिल्द
#प्रकाशन - प्रभात प्रकाशन के सह प्रकाशक विद्या विकास एकेडमी, नई दिल्ली द्वारा।

विभाजन की त्रासदी
मेरे प्रिय अनुज, मित्र और पत्रकारिता को अपना पेशा बना चुके मुनीश त्रिपाठी जी द्वारा लिखित पुस्तक "विभाजन की त्रासदी" पढ़ने का सुअवसर मिला।
सबसे बड़ी प्रसन्नता तो इस बात की है कि उन्होंने इस जटिल विषय को लिया। यह विषय निश्चित रूप से न केवल लिखने की दृष्टि से व्यापक है अपितु इसमें दर्ज किस्से भी बड़े पेचीदे हैं। पेचीदे इसलिए कि इसमें जो भी तथ्य दर्ज हैं, पढ़ने के बाद उसकी सत्यता का प्रमाणन हर पाठक के मन मस्तिष्क में घूमता है। इसके लिए मुनीश जी की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। क्योंकि उन्होंने प्रमाणन के सबूत के तौर पर #202 पुस्तकों, आलेखों आदि का संदर्भ दिया है। संदर्भों के व्यापक संकलन को देखकर ही अंदाज लगाया जा सकता है कि इस विषय को पुस्तक के रूप में लाने के लिए उन्होंने कितना श्रम किया होगा।
मुनीश जी ने इस पुस्तक को 'भूमिका' के बाद अनुक्रमणिका के अंतर्गत चार भागों में लिखा है और अंत में विस्तार से "टिप्पणियाँ एवं संदर्भ" भाग में संदर्भ लिखे हैं।
सबसे खास बात यह भी है कि संदर्भों के लिए संबंधित पुस्तकें, आलेख, पत्र-पत्रिकाएं आदि इकट्ठी करने के बाद भी उनको पाठकों के लिए सिलसिलेवार प्रस्तुत करना भी श्रमसाध्य कार्य है। इसका नमूना पाठकों को इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही मिल पायेगा। वैसे तो इस विषय पर पूर्व में इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है, बहुत पुस्तकें भी आयी हैं लेकिन मेरे ख्याल से हमारी पीढ़ी के दौर के किसी लेखक द्वारा लिखी गई यह पुस्तक अपने आप में अनूठी है। इसमें जहाँ पुस्तकों में तथ्य तो पुराने हैं लेकिन लेखक की सोच नई और समसामयिक है जिससे पाठक इसे पढ़ते समय अवश्य महसूस करेंगे।
पुस्तक का आवरण आकर्षक है। मुद्रण भी अच्छा है लेकिन वर्तनी की अशुद्धियाँ जहाँ-तहाँ मिल जाती हैं। ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि यह आजकल के प्रकाशकों के साथ यह आम समस्या है। इसे प्रकाशकों को ध्यान में लेना चाहिए और लेखकों को भी प्रकाशकों के साथ इस मुद्दे पर बात करनी चाहिए।
स्वभाव से सरल, सच्चे और स्पष्टवादी मुनीश जी की यह शोधपरक पुस्तक पाठकों में पहले ही काफी प्रसिद्धि पा चुकी है। आशा है कि यह समय के साथ अपना विस्तार करती रहेगी। इस पुस्तक की सफलता के लिए मुनीश जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

Friday, August 2, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)

पुस्तक - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)
प्रकाशक - व्हाइट फाल्कोन पब्लिशिंग 
कीमत - ₹ 199/- (अमेजन पर 25% रियायत पर रु. 150/-में उपलब्ध)
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....आशीष दलाल, नाम तो सुना होगा। जी, यही है नाम 'उसके हिस्से का प्यार' के लेखक का। आशीष दलाल जी (संपर्क - +91 9712748824) का यह प्रथम कहानी संग्रह है। 129 पेज के इस कहानी- संग्रह में आशीष जी ने कहानियों के 17 मोतियों को पिरोया है जो एक से बढ़कर एक चमक रखते हैं। इसकी भूमिका कहानी लेखन महाविद्यालय, अम्बाला की निदेशक और मासिक पत्रिका शुभ तारिका की सम्पादक आदरणीया श्रीमती उर्मि कृष्ण जी ने लिखी है।
संग्रह में लिखी हर कहानी घर-घर की कहानी सी प्रतीत होती है। आजकल समाज में व्याप्त घटनाओं को आशीष जी ने अपनी कलम से रोचक बनाते हुए कहानियों का रूप दिया है। इन कहानियों में घर-परिवार, समाज, उससे जुड़े लोग, उनके आपसी सम्बन्ध और उन समबन्धों में व्याप्त प्रेम, द्वेष, आत्मीयता, घृणा, दया आदि भावनाओं के समीकरणों को बड़ी रोचकता से पाठकों तक पहुँचाया है।

जहाँ, पुस्तक का शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है, वहीं कहानियों के शीर्षक भी पाठकों को कहानियां पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 17 कहानियों में से एक कहानी का शीर्षक ही 'उसके हिस्से का प्यार' है। अन्य शीर्षकों में - एक रात की मुलाकात, लव मैरिज, अग्नि परीक्षा, देवकी, अपना, बेटा, दूसरा पुरुष, वापसी, दूसरा मौका, अंतिम संस्कार, फैसला, दर, जीवनदान, कर्ज, सम्बन्ध, तुम्हारा हिस्सा, और वजूद जैसे आकर्षक और प्रभावशाली शीर्षक पुस्तक को वजनी बनाते हैं। पुस्तक का आवरण पृष्ठ बहुत ही मनोहारी है जो कि इसके शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' से गलबहियां करता सा लगता है। शीर्षक और आवरण पृष्ठ एक-दूसरे के पूरक हैं। पुस्तक की छपाई और आकार भी बहुत सुन्दर हैं। जहाँ इतनी सारी खूबियाँ हैं वहीं पुस्तक में कहीं-कहीं वर्तनी की अशुद्धियाँ भी हैं जिसे प्रकाशक को ध्यान में रखना चाहिए था।
आशीष जी को उनकी इस पुस्तक के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। 
इच्छुक पाठक, लेखक, मित्र इस पुस्तक को निम्नलिखित लिंक से प्राप्त कर सकते हैं।


एक पाठक की प्रतिक्रिया

चार दिन पहले......यही कोई देर शाम, आठ बजे का समय। फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर नजर गई तो देखा... +9122xxxxxxxx मुम्बई का नम्बर।
हेलो...

केन आई टॉक टू मिस्टर दीक्षित?
यस, यू आर टॉकिंग टू रजनीश दीक्षित।

सर, आप दिसंबर के पहले हफ्ते मुम्बई आये थे और हमारे होटल में रुके थे।
जी, हाँ। बताइये, क्या हुआ?

सर, हुआ कुछ नहीं। वो आपकी एक किताब रह गयी है यहाँ, "उसके हिस्से का प्यार"।
क्या??, वो किताब आपके पास है? लेकिन अब तो एक महीने से ज्यादा हो रहा है और आप अब बता रहे हैं? मैं तो परेशान था कि कहाँ गुम हुई?

सॉरी सर, वो मैंने पढ़ने के लिये रख ली थी। आज ही पढ़कर खत्म की। बहुत अच्छी कहानियां हैं, सर। सोचा, अब आपको लौटा दूँ।
ठीक है। आप भेज दीजिये। मैं कोरियर खर्च दे दूँगा।

सर। मैं भेज देता हूँ, कोरियर से। आपका पता वही है न, जो रजिस्टर में लिखवाया था।
हाँ, वही है। ठीक है जल्दी भेजना। धन्यवाद।

...... और यह पुस्तक दो दिन पहले ही दुबारा प्राप्त हुई।
** ** ** ** तो, अब शायद आपको पता चल ही गया होगा कि "उसके हिस्से के प्यार" की समीक्षा में आखिर इतनी देर क्यों लगी? मैंने यह किताब डेढ़ बार पढ़ी है। मतलब आधी पहले और फिर पूरी अब।......आखिर कहांनियाँ अच्छी जो इतनी हैं और इसकी समीक्षा भी लिखनी बाकी थी।



Tuesday, July 30, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - जिंदगी 50 -50 (उपन्यास)

उपन्यास - जिंदगी 50 -50 
लेखक - भगवंत अनमोल  

अनमोल जी का "जिंदगी 50-50" उपन्यास पढ़ने का सुअवसर मिला। मेरा इस उपन्यास तक पहुंचना निश्चित रूप से एक संयोग ही है। चूंकि मैं फेसबुक पर चल रहे 'हिन्दी लेखक संघ' समूह का सदस्य हूँ और इस समूह के एक साहित्यकार सदस्य डॉ फैयाज अहमद की फेसबुक पोस्ट से पता चला कि भगवंत अनमोल जी ने "जिंदगी 50-50" नामक उपन्यास लिखा है। लेखक के बारे में जब पता चला कि आप कानपुर से हैं तो यहाँ क्षेत्रवाद ने थोड़ा काम किया और मैं इस कारण भी लेखक को पढ़ने के लिए उत्सुक हो गया। इसके बाद जब डॉ फैयाज जी का एक साक्षात्कार इस पुस्तक के बारे में पढ़ा तो विषय के बारे में थोड़ी जिज्ञासा और बढ़ी। प्रेम कथाएं तो बहुत उपलब्ध हैं पर किन्नरों का विषय हमारे समाज में विभिन्न कारणों से चर्चा का विषय तो है और लोग इनके बारे में शायद जानते भी हैं लेकिन यह विषय कभी खुले और स्वस्थ रूप में बहसों का हिस्सा नहीं बना। जब भी इसकी चर्चा हुई, छुप छुपाकर या हम उम्र के लोगों ने जो जहाँ जैसी जानकारी मिली, बात की। इसका परिणाम ये हुआ कि जिसे जो जानकारी थी, चाहे वह सही भी थी, उसे कभी प्रामाणिक जानकारी नहीं समझा गया। अच्छा, इस विषय को नजरअंदाज या नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि किन्नर हमें जाने अनजाने दिख ही जाते हैं। कभी किसी के घर बच्चा पैदा हुआ, किन्नर आ गए। शादी विवाह हुआ, किन्नर आ गए। और नहीं तो कहीं चौराहे की लाल बत्ती पर मिल गए, कभी आउटर पर ट्रेन रुकी, किन्नर आ गए।

अनमोल जी ने इस उपन्यास में दो कथाओं को समानांतर रूप से लिखा है, ऐसे दो भी क्यों, अगर तीन भी कहें तो गलत नहीं होगा। एक तो अनमोल (उपन्यास का नायक) के पिता जी और हर्षा/ हर्षिता (अनमोल का भाई - जिसको केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा गया) की कहानी, अनमोल की अनाया (अनमोल की प्रेमिका और नायिका) के साथ प्रेम कहानी और अनमोल की सूर्या (अनमोल का बेटा) के साथ की कहानी।

लगभग आधा उपन्यास पढ़ने तक ऐसा लगा कि पहली दो कहानियां ज्यादा समानांतर नहीं हैं और एक के बाद लिखी हैं अतः ऐसा लगा कि पहले अनमोल और उसके पिता जी की कहानी छाँट छाँट कर पढ़ ली जाए और बाद में इसी तरह अनमोल और अनाया की कहानी लेकिन जब तक यह पाठक निर्णय लेता है, कड़ियाँ जुड़ने लगती हैं और फिर अलग अलग वाला विचार छोड़ना पड़ता है।

उपन्यास को अनमोल जी ने जिस शैली और कुशलता से लिखा है वह पाठकों को कहानी के साथ ज्यादा जोड़े रखता है। पाठकों को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे लेखक उसके सामने बैठ कर कहानी सुना रहा है। कहानी जैसे जैसे बढ़ती है पाठक को किसी चलचित्र की भांति उसमें प्रवेश कर देती है लेकिन अधिकतर स्थानों पर लेखक ने नायक की तुलना शाहरुख खान की फिल्मों में नायक से की है। जैसे ही यह तुलना पाठक पढ़ता है, वह तुरंत चलचित्र वाले माहौल से बाहर आ जाता है और पाठक को इसके काल्पनिक होने का एहसास होने लगता है लेकिन अगले ही पल गाड़ी फिर प्रवाह पकड़ लेती है। इसी प्रकार कुछ स्थानों पर चेतु भैया (चेतन भगत) की पुस्तकों और उनमें मौजूद किरदारों के भी जिक्र है जो कुछ पाठकों के लिये या तो अनभिज्ञ होने के कारण या फिर वह उनके पसंदीदा लेखक न होने के कारण अरुचिजनक सबब बनता होगा। इस उपन्यास में शाहरुख खान की फिल्मों और चेतन भगत की किताबों का जिक्र जब देखा तो मेरा ध्यान विदेशी लेखकों की किताबों की तरफ चला गया। अक्सर विदेशी लेखक अपनी किताबों में या तो अपनी पुरानी किताबों या उनके मित्रों की किताबों का संदर्भ देते मिल जाएंगे। असल में यह एक तरीका परोक्ष रूप से संदर्भित किताबों की मार्केटिंग के रूप में भी किया जाता है, जो कि एक तरह से ठीक भी है।

इस उपन्यास में लेखक ने अंग्रेजी के शब्दों का और सोशल मीडिया का भरपूर प्रयोग किया है जो कि आजकल आम भाषा और जीवनचर्या का हिस्सा हैं। इससे जरूर ही आजकल के पाठक पसंद करेंगे। इसी तरह पुस्तक में गांव की बोली का बहुतायत में इस्तेमाल हुआ है जो कि हिन्दी भाषी क्षेत्र और उम्रदराज लोगों में तो रुचि बनाये रखती ही है साथ ही नौजवान पाठक जिनका गांव और वहां की बोली से सरोकार खत्म या न के बराबर है, उन्हें भी उस परिवेश से परिचय कराती है। कहीं-कहीं उपन्यास में बहुत जगह पाठकों को कई चीजें विस्तार से समझाई गई हैं, जो कि शुरुआत में (जैसे मूंछों वाले लोग, वगैरा... बताए गए हैं) तो पाठक को उत्सुकता पैदा करते हैं और पढ़ने को प्रेरित करते हैं लेकिन बाद में जब इसी तरह की पुनरावृत्ति थोड़ी अजीब भी लगती है।

उपन्यास में अनमोल जी ने एक आम उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की मनोदशा का बखूबी चित्रण किया है जिसमें यह बताया है कि ग्रमीण क्षेत्र में उसका हर कृत्य किस प्रकार से समाज से जुड़ा हुआ है। उसकी पसंद, नापसंद अपने से ज्यादा 'समाज क्या कहेगा?' इस बात पर निर्भर करती है फिर चाहे उसे अपनी या अपने परिवार की खुशियों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। अनमोल के पिता ने सिर्फ समाज की वजह से ही न सिर्फ अपने छोटे बेटे को मारने की कोशिश की बल्कि उसकी पूरी जिंदगी उसे यातनाएं देकर उसकी जिंदगी को भी नरक बनाने का काम किया। इस समाज की वजह से वह खुद भी हीन भावना की जिंदगी जीते रहे।

लेखक ने उपन्यास को कम पात्र देकर भी भरपूर व्यक्तित्व दिए हैं। इसे एक खूबी ही कहा जायेगा क्योंकि सीमित पात्रों की वजह से पाठक सभी किरदारों से परिचित और जुड़ा हुआ महसूस करता है। उपन्यास के अंत में लेखक ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए खूबसूरत मोड़ दिया है जिसे शायद ही कोई पाठक भांप पाए। यह पाठकों को तबतक पता नहीं चलता है जब तक अनमोल लगभग 28 सालों के बाद अनाया के घर पहुंच नहीं जाता है। अनाया के घर पहुँचने पर जो खुलासे हुए, उससे लेखक ने जहाँ अनाया के चरित्र को नये आयाम दिए वहीं प्यार की अभिव्यक्ति को भी बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंचा दिया। लेखक की इसके लिए जितनी प्रसंशा की जाए कम है। इस चित्रण में उपन्यास में जहाँ कुछ देर पहले तक पाठक अनभिज्ञ रहता है वहीं जब अनमोल उसके घर से बाहर आता है और उसे अपनी अनाया के साथ वाली फोटो की याद आती है, प्रबुद्ध पाठक सब कुछ जान जाता है और इसके बाद जो भी वर्णित हुआ है, पढ़कर अपनी विद्वता पर इतराता भी है। इसी वक्त जब अनमोल अनाया से फिर कभी न मिलने का वादा लेकर उसके घर से बाहर निकलता है और रास्ते में उसकी अनाया के बेटे से नजरें मिलती हैं उस  समय पाठक यह सोचता है की जब उसकी फोटो अनाया के साथ उसके घर मे लगी हुई है तो उसके बेटे ने नजरें मिलने के बाबजूद अनमोल को पहिचाना क्यों नहीं? फिर अगले ही पल पाठक अनमोल को इस बात का फायदा देता है कि वह फोटो तो लगभग 28 साल पुरानी है और इस कारण सम्भव है कि क्षणिक मुलाकात में किसी को न पहिचाना जा सके। इसके बाद का जो प्रसंग कि क्यों अनाया के बेटे ने संभावित लाइसेंस को ठुकराया दिया, उसके लिए भी लेखक को बधाई कि उसने अनाया के द्वारा उसके बेटे में अच्छे संस्कार डाले।

भगवंत अनमोल जी को उनके इस उपन्यास के लिए बहुत बधाई और शुभकामनायें। 

रजनीश दीक्षित


Friday, July 26, 2019

हिन्दी लघुकथा प्रासंगिकता एवं प्रयोजन

अपनी समझ अपनी समझ के तहत पुस्तक समीक्षा 
"हिन्दी लघुकथा प्रासंगिकता एवं प्रयोजन"

हिन्दी लघुकथा - प्रासंगिकता एवं प्रयोजन। जी हाँ, यही है इस पुस्तक का नाम जो अभी नई-नई पाठकों के हांथों में आई है। इस पुस्तक की संपादिका हैं डॉ मिथिलेश दीक्षित जी। 

आज सर्वविदित है कि लघुकथा विधा किसी परिचय की मोहताज नहीं है। इसके बाबजूद आज भी कुछ दूसरी विधाओं के लेखक और विद्वान इस विधा के औचित्य और भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते मिल जाएंगे। उनका सोचना है कि यह चंद पंक्तियों की रचना भी क्या साहित्य की एक प्रमुख विधा हो सकती है? किसी भी आलोचना के एक से अधिक पहलू होते हैं अतः लघुकथा की आलोचना को भी सामान्य तरह से ही लेना श्रेयस्कर होगा। संभवतः इस आलोचना के पीछे उनकी चिंता लघुकथा का उनकी विधाओं पर आधिपत्य के संकट के रूप में हो लेकिन हकीकत इससे काफी दूर है। लघुकथा की प्रासंगिकता यह भी है कि आज बहुत से उपन्यासकार, कहानीकार व अन्य विधाओं के लेखक भी लघुकथायें लिख रहे हैं। लघुकथा के प्रति दुराव या संकीर्ण सोच का कोई ठोस आधार किसी के पास नहीं है। दरअसल, लघुकथा किसी विधा को खत्म करने नहीं बल्कि दूसरी विधाओं को सम्बल देने आई है। आज एक अफवाह है जिसमें आंशिक सच्चाई भी है कि आज हिन्दी साहित्य पाठकों की कमी महसूस कर रहा है। यह आंशिक रूप से सही है। पाठकों का किसी भी साहित्य से अरुचि का कारण स्वयं लेखक और उनका लिखा हुआ साहित्य है। जब पाठक को साहित्य के नाम पर कचरा परोसा जाएगा तो इस कचरे को कोई भी पाठक अधिक समय तक पचा नहीं पाता है, खासकर तब जब यह साहित्य बड़ा और उबाऊ हो। यहाँ बड़ा से तात्पर्य कहानी और उपन्यासों से है (हालांकि अच्छी पुस्तकों की हर विधा और भाषा में मांग हमेशा रहती है)। इसी नीरसता के माहौल को हल्का करने, पाठकों को साहित्य से सरोकार और संबंध बनाने का काम करती है, लघुकथा। लघुकथा अपने सुडौल आकार, बनक-ठनक और 'सीधी बात - बिना बकवास' के कारण पाठकों तक सीधी अपनी पैठ बनाती है और उनकी प्रिय बन जाती है। यहीं से फिर शुरू होता है पाठकों का साहित्य से जुड़ाव। आज का माहौल आपाधापी वाला है, समय की किल्लत है तो ऐसे में भी जो पाठकों को अपने से जोड़े रहती है, वह है लघुकथा।

आकर्षक आवरण और साजसज्जा के साथ 100 पृष्ठीय यह पुस्तक अपने आप में एक ग्रंथ सरीखी है। इस पुस्तक को ग्रंथ कहने के पीछे कुछ कारण हैं : 
पहला तो यह कि इस पुस्तक को ग्रंथ बनाने में जिन 34 मनीषियों ने अपना योगदान दिया है उनमें संपादिका सहित लघुकथा जगत के अग्रणी पंक्ति के लोग हैं। संदर्भ के लिए कृपया संलग्न अनुक्रमणिका  देखें। इन विद्वानों/विदुषियों को पढ़ा जाना, सुना जाना किसी भी लघुकथा और साहित्य प्रेमी के लिए वरदान और सौभाग्य सदृश होता है। यहाँ यह लिखना आवश्यक भी है कि इन पारखियों के सानिध्य में मेरे जैसे विद्यार्थी को भी कुछ लिखने का अवसर मिला जिसके लिए मैं संपादिका जी का ह्रदय से आभारी हूँ।


दूसरा - संभवत: हिन्दी लघुकथा के बारे में इस तरह का काम पहली बार इतनी संजीदगी से हुआ है जहाँ पाठकों को एक ही स्थान पर लघुुकथा के बारेे में सिर्फ परिचय ही नहीं अपितु इसके भूूूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में, इसकी प्रासंगिकता और प्रयोजन केे  बारे में भी सही, सटीक और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध हो रही है। निश्चित रूप से यह पुस्तक लघुकथा के शोधकर्ताओं के लिए एक अच्छी सहायक पुस्तक का काम करेगी।

पुस्तक को संपादक महोदया ने डॉ कमलकिशोर गोयनका जी को समर्पित किया है। संपादिका जी के प्राक्कथन के बाद आरंभ होते हैं पुस्तक में निहित आलेखों के मूल बिन्दु। इन मूल बिन्दुओं में सभी लेखकों के आलेखों के निचोड़ लिखे हैं। इन बिंदुओं को अगर पुस्तक की कुंजी कहा जाय तो अतिश्योक्ति न होगी। जहाँ पाठक को इन बिंदुओं को पढ़कर तुरंत पुस्तक की गंभीरता के बारे में पता चल जाता है वहीं वह पुस्तक को प्राप्त करने और पढ़ने के लिए भी प्रेरित होता है। यह कुछ उसी तरह से है जैसे एक कुशल गृहिणी जब हांडी में चावलों के पकने का अंदाज लगाती है तो उसे सभी चावल देखने की आवश्यकता नहीं होती है अपितु एक-दो चावलों के नमूनों से ही वह सहजता से निर्णय ले लेती है।

इन बिंदुओं के बाद ही आरंभ होते हैं लेखकों के सारगर्भित आलेख।

मैं इस पुस्तक की संपादक आदरणीया मिथिलेश दीक्षित जी और सभी लेखकों को इस उपयोगी पुस्तक को पाठकों तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद, बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। उनके इस सफर में सहायक बने प्रकाशक निखिल प्रकाशन को सुंदर मुद्रण के लिए बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।


Tuesday, July 23, 2019

केवल तुम्हारे लिए

''अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा"
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काव्य संग्रह - "केवल तुम्हारे लिए"
रचनाकार - डॉ क्षमा सिसौदिया
प्रकाशक - श्रद्धा जेम्स रॉबिन्स 
मूल्य: ₹ २००/- 

....अक्सर हम किताबें मुख्य पृष्ठ से पढ़ना शुरू करते हैं लेकिन कुछ संयोग ऐसा बना कि मैंने "केवल तुम्हारे लिए" का आखिरी आवरण पृष्ठ सबसे पहले पढ़ा। अच्छा ही हुआ जो पहले यह पढ़ लिया नहीं तो पूरी किताब पढ़ने के बाद ही पता चलता कि क्षमा जी का इस खूबसूरत पुस्तक को लिखने और इसका यह नाम रखने के पीछे क्या कारण रहे होंगे। क्षमा जी के विस्तृत परिचय के साथ उसमें निहित कारण पता चले और रही सही कसर पूरी कर दी इसमें लगे हुए बुक मार्क ने। क्षमा जी ने बुक मार्क में अपने पति की तस्वीर लगाई है। दरअसल जब उन्होंने पहली बार पति से अपने लिखने की इच्छा जाहिर की थी तो उन्होंने कहा था कि 'लिखिये, मगर नाम मेरा लिखना'। हालांकि उस समय तो लेखिका ने जैसे लिखना बंद ही कर दिया था पर अंतराल के बाद जब लिखा तो इस पुस्तक का नाम ही 'केवल तुम्हारे लिए' रख दिया। लेखिका की इस स्वीकारोक्ति से ही पता चलता है कि वह कितनी संवेदनशील हैं।


इसी तरह पुस्तक के आवरण के रंग-रूप, साज-सज्जा को समझ पाना भी मेरे लिए थोड़ा सा पहेली जैसा था। आवरण पृष्ठ के स्याह, श्वेत-श्याम रंग में छुपे 'गुलाब के पुष्प, इबादत की मुद्रा में एक जोड़ी हाथ और साथ में कलम' से पहले तो कुछ आभास न कर पाया लेकिन जैसे-जैसे उनकी रचनाओं से रूबरू होता गया, परतें खुलने लगीं। आकर्षक जिल्द और उच्च गुणवत्ता के कागजों पर मुद्रित ८८ पेज के गुलदस्ते में क्षमा जी ने ६ क्षणिकाओं सहित ६० रंग-बिरंगी रचनाओं को गूंथा है। उनकी लगभग हर रचना में एक पीड़ा सी है, समाज के दिए गए दंशों के कारण क्षुब्धता है, आक्रोश है, एक दर्द सा है और दर्द के साथ उम्मीद, हिम्मत और साहस से आगे बढ़ने की सीख भी है। क्षमा जी ने जैसे स्त्री मन की सारी व्यथाओं, मनःस्थितियों और जीवन के विभिन्न पड़ावों पर मिलने वाले कुछ चरित्रों, अनुभवों, उनसे मिली सीखों, आदि को अपनी किताब में बड़ी कुशलता से उकेरा है। उनकी हर रचना पाठक को थोड़ा रुककर, ठहरकर सोचने और मंथन करने पर मजबूर कर देती है। उन्होंने नारी मन को बहुत करीब से पढ़ा है। उनकी हर रचना से उनके सरल और विचारशील व्यक्तित्व का भी परिचय मिलता है। उनकी अधिकतर रचनाएँ अतुकांत हैं जो कि आधुनिक काव्य की एक प्रचिलित और स्वीकार्य शैली है। रचनाकार ने इस पुस्तक में हिन्दी के बहुत ही सरल और आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है जो पाठकों को जल्दी ही रचनाओं की आत्मा तक पहुंचा देता है। इसी प्रकार रचनाओं के शीर्षक बहुत ही चिर परिचित हैं।   
  
'केवल तुम्हारे लिए' की सुन्दर भूमिका लेखिका के गुरुदेव प्रो. हरमोहन बुधौलिया जी ने लिखी है। आत्मकथ्य के आभारी उद्बोधन के बाद शुरू होती है उनकी लेखनी की बाजीगरी। उनकी प्रथम रचना "प्रार्थना" में 'तेरे साथ रोऊँ, तेरे साथ हँसू, तुम मेरे साथ रहना मेरे संग प्रभु।' जैसे ईश्वर के साथ साक्षात बात हो रही है। असल में यही है प्रार्थना, यही है इबादत।

जैसे जैसे आगे बढ़ता हूँ, 'श्रद्धांजलि' और 'हमराही' दो रचनायें, दोनों एक दूसरे की पूरक सी लगती हैं। जैसे कोई डर है प्रिय से दूर होने का -

"उठती है सिसकियाँ जब कलेजे को चीरती, कौन सुन पाता है उसके दर्द की आवाज।" 

दर्द का अहसास भी है और अगले पल सांत्वना भी है - 'तुम ही वीर और तुम ही हो वीरांगना नारी।' 

अब पाठक थोड़ा शांत हो जाता है। उसे लगा, नहीं, उसे दर्द तो है पर हिम्मत भी है। अगली रचनायें जहाँ "भ्रूण हत्या' और 'समझौता' बालिका और नारी मन की पीड़ा बताती हैं वहीं अगले ही पल 'जिंदगी' में भी दुःख के बाद "ओस की वो बून्द नहीं, जो धूप आने पर चली जाए" बड़ी गंभीर बात कहती प्रतीत होती है। दूसरों के फैसलों से 'फैसला' में एतराज भी है और 'आंसू' में इसे ताकत बनाने की सलाह भी है। 'नारी' में लिखा कि स्त्री क्या है? "उसने ठान लिया है, मान लिया है, चट्टानों से टकराना जान लिया है।" 

फिर नारी मन की 'परिभाषा' गढ़ती और निरंतर 'कोशिश' में नजरिये को सकारात्मक करने की बात कहती हैं। 'वक्त' के 'दर्द' को 'कलम' से 'बदलाव' का सन्देश देती चार सशक्त कविताओं की अच्छी कड़ी बन पड़ी है। अगली कविता में 'नदी' को आवाज बनाकर उसके साथ बहने की बात है तो 'झरोखा' में फिर सन्देश है कि 'दुःख की अंधेरी रात ढली, सुख का सुखद प्रभात फिर आया' - महिलाओं के लिए अच्छा और सुखद सन्देश है। थोड़ा और आगे बढ़े तो 'शुतुरमुर्ग' में स्त्रियों के सम्मान बचाने की बात है तो 'पलायन' में जिंदगी के झंझावातों से घबराकर न भागने की बात है। 'हारकर पलायन कर जाना जिंदगी नहीं, रौंदकर विपत्तियों को जीना है जिंदगी।' 

'संगीत' में उसके सकारात्मक गुणों की बात है तो 'खत','बिरहिन', 'गजल', 'वादा', 'सावन' और 'खारा प्यार'  में प्रेमी/साथी से क्रमशः ग़लतफ़हमी, जुदाई और शिकायतों की गठरियां हैं। 'शब्द' और 'कविता' में व्यक्ति की सोच और उसके दूसरों पर प्रभाव का आकलन है। 'सम्बल' में जिंदगी को कोशिशों का नाम दिया है तो 'उड़ान', 'दुनिया' और 'तृष्णा' में फिर से मुश्किलों से डटकर जूझने की बात कही है। 'संपत्ति' में असली धन का अर्थ समझाया है तो 'दूरदर्शिता' में सजग रहते हुए समस्याओं से निजात पाने की सीख है। 'प्रकृति' में उसके साथ हो रहे अतिक्रमण की समस्या की  चिंता है तो 'नैराश्य' और 'उम्मीद' में निराशा से आशा में जीने की बातें हैं। 'जिद्द' में बुराइयों से दूर रहने की जिद है तो 'मोल' में एकबार फिर से आत्मचिंतन कर अपना मूल्य पहचानने की बात है। 'आश्चर्य' में जीवन में आये अनेक बदलावों से अचंभित होने का जिक्र है तो 'ख्वाहिश' में आसमां छूने की आशावादी बातें हैं। 'माँ' में माँ की महिमा का वर्णन है तो 'शाम' में दिनभर की तपिश के बाद की सुखद तस्वीर है। 'कल्पना' और 'मुस्कान' में एक बार फिर से नई उम्मीद के साथ जिंदगी जीने के सुखद फलसफे हैं। 'मित्र' में अवसरवादी मित्रों की बातें हैं, 'स्वप्न' में नारी मन के विचारों को हकीकत से रूबरू कराती चर्चा है और 'ख़ामोशी' व 'मौन' जैसी कविताओं में अपनी पीड़ाओं को सहेजती पंक्तियाँ हैं। 

'अनोखी कार' में दूसरों की ईर्ष्या-द्वेष पर व्यंग तो 'रिश्ते' में महिला को पुरुष के अत्याचार से सचेत कराती सलाह भी है। 'कन्यादान' में बेटी की शादी में हमारी परम्पराओं की बात तो 'बेटियां' में बेटियों की खूबियां, 'मेरे पिता' में पिता-पुत्री के रिश्ते की वह तस्वीर जिसमे प्रेम भी है और पिता का अनुशासन भी है। 'कवि' में आदर्श कवि की परिभाषा तो 'अहसास' में एकबार फिर से नारी को स्वयं को पहचानने की बात कही है। यहाँ पता नहीं, कुछ त्रुटि है या और कुछ। कवितायें 'नारी' और 'अहसास' की कुछ पक्तियां दोनों रचनाओं में एक समान हैं। खैर.... 'चाहत' में प्रिय के साथ बीते सुखद समय को भुलाने की कोशिश है तो 'दृष्टिकोण' में सकारात्मक रहने की बात और जीवन के अंतिम सत्य 'मौत' में अपने-पराये और उनकी सोच से परिचय कराना है। 

अंत में ६ क्षणिकाएं हैं जिनमें मेहनतकश, गरीबी-अमीरी और उनमें निहित मनोभावों के सूक्ष्म चित्रण हैं।

अगर छोटी-मोटी वर्तनी की त्रुटियों, दो कविताओं में कुछ पंक्तियों की पुनरावृत्ति को नजरअंदाज किया जाए तो डॉ क्षमा जी का यह प्रथम काव्य संग्रह बहुत सुंदर बन पड़ा है। हालांकि कुछ रचनाओं में विषयों की समानता भी है लेकिन भिन्न शीर्षक और विन्यास से कहीं भी एकरसता नहीं आयी है जो कि रचनाकार की लेखन क्षमता की विविधता का परिचायक है। मुझे लगता है कि हर पाठक, खासकर महिलाएँ अपने आपको इन रचनाओं में किसी न किसी रूप में महसूस करेंगी। डॉ क्षमा जी को उनके इस काव्य संग्रह के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। मुझे विश्वास है कि आगामी समय में पाठकों को उनके और भी संग्रहों को पढ़ने का लाभ मिलेगा।

रजनीश दीक्षित


Wednesday, July 17, 2019

अपनी समझ - पुस्तक समीक्षा "अनुगुंजन" -जुलाई-सितंबर 2018

अपनी समझ/1/अनुगुंजन-जुलाई-सितंबर 2018
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                  डॉ लवलेश दत्त जी और रमेश गौतम जी के संपादकत्व (क्रमशः संपादक और अतिथि संपादक) में प्रकाशित साहित्य-कला-संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका अनुगुंजन का जुलाई-सितंबर 2018 अंक उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ। सर्व प्रथम डॉ दत्त को बहुत बहुत धन्यवाद।

              मो. राशिद द्वारा संकलित मनोहारी आवरण पृष्ठ को देखते ही यह "लघुकथा अंक" किसी को भी अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेगा। पत्रिका के अनुक्रम पर सरसरी नजर डालते ही पता चल जाता है कि 104 पृष्ठों के इस अंक को लघुकथा को केंद्र में रखकर मुख्यतः दो खण्डों में बांटा गया है, जिन्हें विमर्श और सृजन खण्ड नाम दिए गए हैं। विमर्श खण्ड को पुनः 'लेख गुंजन' और 'बातचीत' नामक दो भागों में विभाजित किया है जबकि सृजन खण्ड में छपी लघुकथाओं को 'लघुकथा गुंजन' नाम की टोकरी में रखा गया है।

                 अनुक्रम के बाद डॉ दत्त और गौतम जी के प्रभावी संपादकीय लेख हैं जिन्हें पढ़ने के बाद लगता है कि सहज और सुन्दर बातों से भरे इन लेखों को एक बार फिर से पढ़ें, इतने अच्छे जो हैं।

                  दोनों खण्डों के तीनों उप खण्डों (लेख गुंजन, बातचीत और लघुकथा गुंजन) के मुख़्य पृष्ठों पर पहुंचते ही कुछ कलाकृतियों ने स्वागत किया। कलाकृतियों की समझ न होने के बाबजूद भी इन्होंने अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया। इनको निहारने में यहाँ कुछ समय ठहरना अच्छा लगता है।
'लेख गुंजन' में नौ विद्वानों के सारगर्भित लेख हैं। इन लेखों में लघुकथा के विभिन्न विषयों पर जैसे छायावादी कवित्व से निकली लघुकथायें, लघुकथा का विकास, स्वरूप और संभावनाएं, सार्थक सृजन, शिल्प, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, कालखण्ड दोष, विधा का महत्व, नवीन सृजन आदि विषयों पर लघुकथा के क्षेत्र में अपनी गहरी समझ रखने वाले साहित्यकारों ने बड़ी बारीकी से अपनी कलम चलाई है।

             विमर्श खण्ड के दूसरे भाग 'बातचीत' में दो महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं। एक साक्षात्कार में श्री हरिशंकर शर्मा जी और माधव नागदा जी की बातचीत है और दूसरे में अशोक दर्द जी और डॉ  बलराम अग्रवाल जी की लघुकथा पर वार्ता है। दोनों वार्ताओं को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारे सामने सजीव प्रसारण हो रहा है।    

               अनुगुंजन के 'लघुकथा गुंजन' में 55 लेखकों की 77 सुन्दर लघुकथाएँ हैं जो विभिन्न सामाजिक परिवेशों को अपने में समाए हुए, अच्छी लगती हैं। इन लघुकथाओं में गायत्री जोशी जी की 'वसीयत' और सुनील गज्जाणी जी की 'परिवर्तन' चार-पांच लाइनों की छोटी छोटी लघुकथाएँ जो कथानक और कथ्य के अलावा अपनी शब्द संख्या के कारण भी इस अंक के आकर्षण का कारण हैं।

                इस अंक में स्थान का सदुपयोग बहुत अच्छी प्रकार से देखने को मिलता है। इस क्रम में कमल चोपड़ा जी के संपादन में लघुकथा को समर्पित वार्षिक पत्रिका 'संरचना' के दसवें अंक के प्रकाशन की सूचना, ज्योत्स्ना सिंह जी और उपमा शर्मा जी के सम्पादन में प्रकाशित लघुकथा संकलन 'आस-पास से गुजरते हुए' की सूचना, हरिशंकर शर्मा जी की लघुकथा पर केंद्रित पुस्तक 'एक कोलाज' के प्रकाशन की सूचना और बरेली में आयोजित होने वाली मासिक लघुकथा गोष्ठी के आयोजन की सूचना "जगह मिलने पर पास दिया जाएगा" की तर्ज पर उपलब्ध स्थान के अनुसार विभिन्न स्थानों पर दी गई हैं।

               कुल मिलाकर इतना ही कहूँगा कि अनुगुंजन का यह लघुकथा अंक संग्रहणीय है। अनुगुंजन के संपादक मंडल, लेखकों और पाठकों को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

पत्रिका के अंतिम पृष्ठ पर अंदर की ओर भविष्य में 'अनुगुंजन' के 'भावत्रयी' के बदले रूप में आने की सूचना दी गई थी। बाद में जिसमें बदलाव किया है। अब यह अनुगुंजन ही रहेगी। और इसकी सूचना डॉ लवलेश दत्त जी ने अपनी फेसबुक संदेश के माध्यम से सबको दे दी थी।