Powered By Blogger
Showing posts with label मेरी समझ - लघुकथा समीक्षायें (लघुकथा कलश II ). Show all posts
Showing posts with label मेरी समझ - लघुकथा समीक्षायें (लघुकथा कलश II ). Show all posts

Wednesday, September 11, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -3)

लघुकथा - औरंगज़ेब
लेखक - मृणाल आशुतोष जी

हमारे देश में हर दूसरा व्यक्ति अपने आप में एक कुशल चिकित्सक, नेता और उपदेशक होता है जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित मानसिकताओं को ढो रहा होता है। आप रोग बताइए, नुस्खा हाजिर, देश की समस्याओं पर टिप्पणी करवा लो, किसी के चरित्र का निर्धारण तो जैसे चुटकी बजाने जैसा काम है। ऐसे लोग किसी के बारे में भी किसी ज्योतिषी से अधिक जानकारी देते आसानी से मिल जायेंगे। इनको दूसरों के काम की जानकारी, उनके आचरण के बारे में (मुख्यतः कमियाँ) सब पता रहता है। इस तरह के जातकों के पास यदि किसी 'वस्तु' की कमी होती है तो वह है, अपने बारे में जानकारी। यहाँ अपने बारे में जानकारी का अर्थ किसी धर्मयोगी के अनुसार 'खुद को जानने' से नहीं है। इसका अर्थ है कि अपने काम, व्यवहार के बारे में उन्हें कुछ पता नहीं है, यह भी नहीं कि क्या उनमें मानवीय संवेदनाएं निहित हैं भी या नहीं? उन्हें इससे कुछ लेना देना नहीं होता है।
मुझे याद आता है मेरे एक करीबी मित्र के परिवार के बारे में, जिनके साथ कुछ ऐसा ही घटित हो चका है। उसकी माँ के एक पैर में चोट लगने के कारण पहले सूजन हुई और बाद में संक्रमण की वजह से स्थिति भयावह हो गई। पैर में फफोले पड़ गए, फफोले फूटे तो पैर में सड़न पैदा हो गई। वह परिवार तो बहुत ही घबरा गया। उन्होंने अपने पारिवारिक चिकित्सक को दिखाया, उनसे सलाह ली। उन चिकित्सक ने अपने से ज्यादा अनुभवी चिकित्सक से मशवरा किया और उन्होंने संयुक्त रूप से निर्णय लिया तथा मेरे करीबी को बताया कि 'थोड़ा समय लगेगा लेकिन हम पैर बचा लेंगे।' साथ ही हिदायत भी दी कि जितना हो सके रिश्तेदारों, मिलने वालों की सलाह को मानना तो दूर सुनना भी नहीं। अगर आपने अपने तथाकथित हितैषियों की बात मानी तो सम्भव है कि आपको बड़े शहर के बड़े चिकित्सालय जाना पड़े। वहाँ आपका खर्चा भी ज्यादा होगा और अधिक संभावना है कि पैर भी कटवाना पड़े। अंत में उन्होंने यही किया और उनकी माता जी का पैर भी ठीक हो गया और वह पूरी तरह से स्वस्थ हैं। .... जैसा कि उनके पारिवारिक चिकित्सक ने कहा था, जो भी हितैषी मिलने आता था उनके मशवरे कुछ ऐसे होते थे - क्यों घर में रखे हुए हो? फलानी जगह ले जाओ, वहाँ अच्छा इलाज होता है। बहुत लोभी हो। वहाँ, मेरे बहिनोई की जान-पहचान है, भर्ती करवा दो। जान है तो जहान है, पैर कटता है तो कटवा दो, कम से कम जिन्दा रहेंगी तो लोगों को देखती तो रहेंगी, आदि, आदि।
आज की कथा 'औरंगज़ेब' में भी कथानक का एक हिस्सा इसी तरह का है। लोगों को सिर्फ अपने हिसाब से ही मतलब निकालना है। आपका दृष्टिकोंण, उनकी बला से। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों भला सुशील का दोस्त सुयश अपने मित्र के बारे में इस तरह की अनर्गल बातें कहता? सुयश ने तो बिना सही तथ्य जाने ही सुशील के बारे में न जाने क्या-क्या धारणाएं बना ली थीं। कहते हैं कि अगर शक्कर वाली बीमारी (मधुमेह) का इलाज करना है तो करेले का जूस भी पीना पड़ता है और उसका कड़ुआ स्वाद बर्दास्त करना पड़ता है। सुशील के पिता जी जो कि लकवाग्रस्त भी हैं और उन्हें मधुमेह भी है तो इस स्थिति में वह क्या करे? क्या शक्कर वाली चाय पिलाता रहे? और क्यों ऐसे लोगों से मिलने दे जो हौसला बढ़ाने की जगह यह कहें कि लकवा का मरीज ज्यादा दिन नहीं चलता है, अब तो हरि नाम ही जपो। यह भी सलाह देने वालों की बेशर्मी ही होती है कि वे किसी मरीज के मरने की इसलिए कामना करते हैं ताकि उसे तकलीफ कम हो। अब ऐसे में तो घर-परिवार वालों के लिए यही बनता है कि ऐसे लोगों से मरीज को दूर ही रखा जाए जिससे उसे भी तकलीफ कम हो और इलाज से स्वास्थ्य लाभ भी जल्दी मिले।
इस लघुकथा में एक आदर्श बेटे और बहू का चरित्र-चित्रण लेखक ने बखूबी किया है। जहाँ सुशील को अपने पिता की देखभाल के लिए लोगों के ताने सुनना भी मंजूर है वहीं उसकी पत्नी ने अपने ससुर की देखभाल करने, उनकी बिस्तर पर ही मल-मूत्र करने की शारीरिक अवस्था के कारण जब साफ-सफाई के लिए कोई परिचारिका नहीं मिली तो खुद की नौकरी छोड़ दी और उनकी सेवा में समर्पित हो गई।
इतना सब करने के बाद भी लोगों के विचार बदलना मुश्किल है। लोगों को कटाक्ष करने में समय नहीं लगता है। उन्हें इससे क्या मतलब कि रोगी और उसका परिवार किस मनोदशा से गुजर रहा है? इस प्रसंग का दिलचस्प पहलू यह है कि इतने ताने देने के बाद भी सुयश ने सुशील को सीधा-सीधा औरंगज़ेब नहीं कहा है। लेकिन समाज से मिले तानों से सुशील के मन की वेदना को इसी से समझा जा सकता है कि वह अपने आपकी छवि को, औरंगज़ेब की इतिहास में दर्ज छवि जैसा समझने लगा है और इसे स्वीकार करने को भी तैयार है। क्योंकि अगर इससे उसके पिता का कष्ट कम होता है तो सौदा बुरा नहीं है। सुशील के ये सब गुण उसे उसके पिता के प्रति प्रेम, आदर, सेवाभाव और समर्पण के कारण एक आदर्श पुत्र के रूप में स्थापित करवाने में सहायक हैं। निश्चित रूप से सुशील का चरित्र आज के समाज के लिये अनुकरणीय है जहाँ यह सेवा भाव लगातार अवनति की और अग्रसर है। बतौर लेखक, हर परिवार को एक चाहिए सुशील के जैसा औरंगज़ेब। सही भी है, नाम में क्या रखा है? एक बात और कि सुशील के साथ उसकी पत्नी भी यहाँ प्रसंशा की पूरी हकदार है जो कथा के मूल संदेश को और भी मजबूती से समाज के पटल पर रख रही है।

लघुकथा में तीन स्थानों पर "......." का प्रयोग हुआ है। यह उस समय प्रयोग हुआ है जब सुशील अपने मित्र को स्पष्टीकरण दे रहा है। सुशील के दो कथनों के बीच "......." का प्रयोग होना मुझे लगता है, उसके मनोभावों को दिखाने का प्रयास है, उसके मन के अंदर चल रहे द्वंदों का प्रतीक है कि वह किस-किस को जबाब दे, किस तरह से पिता के स्वास्थ्य पर ध्यान दे और कुछ इस तरह की बात भी न कह दे कि लोगों को बुरा लगे। अगर मैं सही हूँ तो इस संकेत (".......") का बेहतरी से प्रयोग करने के लिए लेखक अतिरिक्त बधाई का पात्र है।
सुन्दर शिक्षा/सन्देश से ओतप्रोत इस लघुकथा के लिए भी मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी-2)

लघुकथा - तंग करती पतंग
लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी

आस्तिक और नास्तिक। ये दो शब्द भर नहीं हैं। निश्चित रूप से इन शब्दों के अनुवाद अन्य भाषाओं में भी होंगे लेकिन इनके अर्थ अगर कहीं जिये जाते हैं तो वह हमारा देश भारत ही है। अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो न हमारे देश में सच्चे आस्तिक हैं और न ही नास्तिक। अगर इन शब्दों के अर्थों पर जायेंं तो जो इनके मतलब निकलते हैं उनमें शाब्दिक और वास्तविक अर्थों में बहुत अंतर है। शाब्दिक अर्थ तो सभी को पता है लेकिन सही अर्थ यह है कि दोनों में सैद्धांतिक रूप से कोई खास फर्क नहीं है। आस्तिक व्यक्ति को इससे कोई सरोकार ही नहीं होना चाहिए कि नास्तिक कौन है क्योंकि उसमें ईश्वर के लिए इतनी आस्था जो है और नास्तिक व्यक्ति के लिए उसे कोई सरोकार ही नहीं होना चाहिए कि क्या आस्तिक प्रकार की भी कोई प्रकृति होती है? इन दोनों में आपसी मतभेद या विरोध का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हमारे देश में ये शब्द बहुतों की राजनीति चमका रहे हैं, बहुतों की दुकान चलवा रहे हैं और आपसी मतभेदों को बढ़ा रहे हैं।
इस बात को दूसरी तरह से समझें। विश्व मे कई देश ऐसे हैं जहाँ पर तथाकथित धार्मिक लोग यानी आस्तिक अत्यंत कम हैं। इस हिसाब से वहाँ नास्तिक लोग ज्यादा हुए। तो फिर उन्माद भी ज्यादा होना चाहिए। लेकिन नहीं। उन देशों में आस्तिकों की स्थिति यह है कि उन्हें ये भी नहीं पता कि उन्हें आस्तिक कहा जाता है और उनके विपरीत लोगों को नास्तिक। उदाहरण के लिये वियतनाम में लगभग 25-30 प्रतिशत लोग ही हैं जो बौद्ध हैं लेकिन उनका न तो 70-75 आबादी से कोई बैर है और न ही मतभेद। वहाँ तो एक ही परिवार में आपको बौद्ध और गैर बौद्ध मिल जाएंगे। लेकिन हमारे देश में तो दिन भर 25 चैनलों पर 36 बाबा आपको प्रवचन देते मिल जाएंगे। यहाँ बाबा से मतलब किसी एक धर्म से नहीं है। कमोबेश यही हालत सभी भारतीय धर्मों की है।
भारत में धार्मिकता राजनीति में सफलता/ असफलता निर्धारित करती है। हमारे यहाँ तो नास्तिकता वाले दो प्रकार के होते हैं जिसमें एक खास प्रकार के लोग अपने आपको एक खास पंथ से जुड़ा मानते हैं। उनकी मानसिकता पर जाएं तो उनका नास्तिकतापन किसी धर्म की चाटुकारिता और किसी धर्म की बुराई में निहित है। और हो भी क्यों न? जब भीड़ हाजिर है, आपकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए तो दोहन तो आपका होगा ही। इनके अपने समूह हैं, जहाँ अकूत धन है, दुष्प्रचार के साधन हैं और अपने-अपने शीशे हैं और उनमें साधारण आदमी को उतारने का हुनर भी है।
उस्मानी जी लिखते हैं कि यहाँ प्रतियोगिता जैसा कुछ भी नहीं है। सही भी है। प्रतियोगिता वहाँ होती है जहाँ सीमित स्थान हो। जहाँ बाजार इतना बड़ा हो और ग्राहकों की कमी न हो, वहाँ प्रतियोगिता हो भी नहीं सकती। क्योंकि माल सबका बिकना है, फायदे में सब रहने वाले हैं लेकिन यह भी एकतरफा है। सब फायदे वाले केवल डमरू वाले हैं, उनसे थोड़े कम फायदे वाले उनके जमूड़े हैं। लेकिन इसी डमरू और बांसुरी की धुन में जमूड़े और उनके उस्ताद जिसे ठग रहे हैं, वह है सिर्फ और सिर्फ बेचारी जनता जिसे उनमें आस तो दिखाई देती है, पल भर का सुकून ही मिल जाये, इसी उम्मीद में हैं। जनता सकपका भी रही है, निजात भी पाना चाहती है। लेकिन उसे डर भी है कि कहीं मुट्ठी खोल दी तो कोई अहित न हो जाये। आप उसकी बनाई लकीर पर तटस्थ खड़े हैं और जब होश आता है तो वे रफूचक्कर हो चुके हैं और आम आदमी फिर से इंतजार में आ जाता है कि काश फिर से कोई दूत या फरिश्ता आये।
यह जानने के बाद भी कि जन्नत या दोज़ख़ सब यहीं है, आदमी है कि मानता ही नहीं। सबके अपने दांवपेंच हैं, सबकी फड़ बिछी हुई है, सबके पांसे तैयार हैं और समय-समय पर युक्तियों के अनुसार प्रसन्नता और अवसाद के भाव आ जा रहे हैं क्योंकि कि किसी भी पतंग की गति एक सी सदैव नहीं रह सकती। यही सार्वभौमिक सत्य है।
इस लघुकथा के माध्यम से उस्मानी जी ने दार्शनिक अन्दाज में वर्तमान स्थितियों को अच्छी तरह से पतंग के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
हालांकि, यह रचना एक सामान्य पाठक के लिये आसानी से ग्राह्य नहीं है लेकिन इसका प्रस्तुतिकरण इस तरह से ही बेहतर हो सकता था। मैं यह तो नहीं कहूँगा कि यह कथानक नया है लेकिन प्रस्तुति का अंदाज जरूर अलग तरह का और प्रभावी रहा।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए शेख शहजाद उस्मानी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी-1)

लघुकथा - भूख की सेल्फी
लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी

...शिकारी खुद यहाँ शिकार हो गया।
भूख बड़ा विचित्र शब्द है। अमूमन हम इसे रोटी और पेट की आग से जोड़ते हैं लेकिन अगर इस पर विचार करें तो पता चलता है कि यह अपने-अपने ग्रसित व्यक्ति के अनुसार बदलती जाती है। "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा"। किसी को रोटी, किसी को कपड़े, किसी को मकान तो किसी को प्रसिद्धि की, किसी को नाम चाहिए तो किसी को सम्मान चाहिए। जितने जातक, उतनी भूखें।
आज का युग मशीनी और तकनीक का युग है और हर व्यक्ति की मानसिकता उसी के अनुसार बाजार की मानसिकता के अनुरुप ही हो गई है। जब बाजार की बात आती है तो दो मुख्य किरदार सामने होते हैं, ग्राहक और उपभोक्ता। और यह दोनों किरदार कब किसके हिस्से होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। हर व्यक्ति एक दूसरे की ओर लालसा लगाए प्रतीक्षारत है कि कब और कैसे उसका दोहन किया जा सके। आप मंदिर, मस्जिद या किसी भी इबादतगाह पर जाइये, उसके बाहर बैठे तथाकथित भिखारी आपके कपड़े, आपका हुलिया और चाल-ढाल से आपकी औकात नापते हैं कि आप कितना और क्या दे सकते हैं? आप अपने पुण्य उनके द्वारा पाना चाहते हैं और वह आपसे धन प्राप्त करना। कभी-कभी तो भिखारी भी आपको बता देते हैं कि क्या चाहिए, क्या नहीं। और हो भी क्यों न? क्योंकि यह तो उनकी रोजी-रोटी का सवाल जो ठहरा। आपको मनवांक्षित फल भी तो तभी मिलेगा जब आप कारक की उम्मीदों पर खरे उतरें। कभी-कभी तो आपको ऐसा न करने पर सलाह भी मिल जाएगी कि "आ भाई, लेले कटोरा और बैठ जा मेरे साथ।"
...तो सीधा हिसाब है, आपको सेल्फी चाहिए और उसे उसकी दिहाड़ी। वह तो तैयार है कि शिकार आयें और यह सिलसिला जारी रहे। हालांकि मुफ्त में जो भी मिले ठीक ही है लेकिन अनुभव से सीखा जा सकता है। तभी तो सेल्फी के बाद जब उस भिखारी की पत्नी ने कहा कि अगर उसे और बच्चों को फोटो लेते वक्त अलग न किया होता तो आज पाँच की जगह पाँच सौ का नोट हाथ में होता और अब दूसरी सेल्फी की बारी थी। दूसरी "भूख की सेल्फी"। क्या मतलब? मतलब, पहली भूख रईस की थी और दूसरी भिखारी की। ये सेल्फियों का खेल है इसमें हर आदमी मशगूल है कोई अत्याधुनिक उपकरणों से तो कोई भाव भंगिमाओं से, ठीक वैसे ही जैसे भिखारी ने अपनी पथरीली आंखों से कथा की दूसरी सेल्फी को अंजाम दिया।
इस रचना में उस्मानी जी ने दो मनोभावों को बड़े सुन्दर तरीके से चित्रित किया है। हालांकि कथा का शुरुआती कथन (तू ज़रा सी हट और इन बच्चों को संभाल, मैं जरा इन महाराज की भूख मिटा दूँ) थोड़ा असमंजस पैदा करता है कि यह भिखारी ने कहा है कि रईस ने, लेकिन यही असंमजस बाद में लघुकथा का प्रबल पक्ष बनकर उभरता है। जैसा कि ऊपर इस बात का जिक्र हो चुका है कि इन तथाकथित भिखारियों की ऊपरी नजर और दिखावे में वे भले ही आपको दैवीय अवतार मान लें लेकिन उनके अंदर आप किसी मजाक की वस्तु से कम नहीं। इस बात की तस्दीक उस भिखारी के रईस को 'महाराज' वाले संबोधन से पता चल जाती है।
वैसे कोशिश यह होनी चाहिए कि हिन्दी की रचनाओं में अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग न हो या केवल अत्यावश्यक होने पर ही हो लेकिन इस रचना के शीर्षक में ही 'सेल्फी' शब्द है जो कथा की भी मुख्य सामग्री का काम करता है अतः इसे रखना ठीक भी है। उसी प्रकार स्मार्ट-फोन, स्टिक आदि का भी प्रयोग हुआ है। वैसे हिन्दी इतनी व्यापक है कि उसे किसी अन्य भाषा के शब्दों की बैसाखी नहीं चाहिए, अंग्रेजी की तो बिल्कुल भी नहीं। इसके इतर उर्दू के शब्द हिन्दी के लहजे में निखार जरूर लाते हैं।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए शेख शहजाद उस्मानी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - नीता कसार जी)

लघुकथा - अहसास

लेखिका - नीता कसार जी

"आप दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो आपको अपने और अपनों के लिए पसंद न हो"।
- शांतिकुंज हरिद्वार के प्रणेता आचार्य श्रीराम शर्मा

... कोई भी रिश्ता हो, उसकी सफलता-असफलता की कहानी उसमें शामिल हर पात्र के हिस्से की होती है। यह बात हर रिश्ते पर बराबर लागू होती है। मित्रता हो, भाई-बहन, भाई-भाई, अड़ोसी -पड़ोसी पति-पत्नी, आदि। जब दो पक्षों की आपसी समझ एकदूसरे की पूरक बनती है तो फिर सामान्य सम्बन्ध भी मधुर हो जाते हैं, मामूली झोपडी भी किसी महल से कम नहीं होती है। असफल दाम्पत्य के ठीकरे कहीं पुरूष तो कहीं महिलाओं पर फोड़े जाते हैं लेकिन सुखी जीवन का मंत्र यही है कि गाड़ी दोनों पहियों के परस्पर सहयोग से चलती है, असहयोग से नहीं।
अपने बेटे-बेटी के अच्छे जीवन साथी के बारे में न केवल माँ-बाप की, अपितु हर पति और पत्नी की भी इच्छा होती है कि उसका हमसफ़र ऐसा हो कि जीवन विषमताओं और विसंगतियों से भरा न हो। यह तो एक परिकल्पना ही होती है कि अमुक व्यक्ति का चुनाव इस तरह से करूँगा, उस तरह से करूँगा लेकिन क्या इसका चुनाव इतना सरल है? चुनाव करते समय भले एकबार यह लगे भी कि कोई गलती नहीं हुई है लेकिन ध्यान रहे, हमने चुनाव किसी मशीन का नहीं किया है जो हमारी जरूरतों के अनुसार परिणाम आएंगे ही। न, न। हर व्यक्ति अपने आप में अनोखा होता है, उसकी विशेषताएँ हैं, कमियां हैं। यह बहुत ही मुश्किल काम है और इन्हीं मुश्किल से दिखने वाले रिश्तों में हम ऐसे भी उदाहरण पाते हैं जहाँ लगता है कि वाकई ये जोड़ियां स्वर्ग में ही निर्धारित हुई होंगी। इसके इतर अगर अपने इधर-उधर नजर दौड़ायें तो पाएंगे कि जिन लोगों ने कई वर्षों आपस में प्रेम किया लेकिन विवाह के कुछ महीनों बाद ही उनके रास्ते अलग हो गए। तो क्या हुआ? क्या प्यार नहीं था या समझने, परखने में भूल हो गई। नहीं, कोई भूल नहीं हुई। दरअसल जब व्यक्ति प्रेम में होता है तो एकदूसरे से आशाएं कम और खुद का समर्पण भाव ज्यादा होता है और शादी के बाद जहाँ भी इनमें तब्दीली आती है, वहीं शुरू हो जाता है, अलगाव। खैर...
भारतीय पिता की अपनी अलग ही कहानी है। उसे दहेज़ के बारे में सोचना है, दामाद की जाति, गोत्र, खानदान, रोजगार, आदि के साथ यह भी चिंता बराबर सताती रहती है कि होने वाला दामाद उसकी बेटी को फूल की तरह रखे। लेकिन कई बार ये आशाएँ केवल परिकल्पना भर रह जाती हैं क्योंकि बेटी को फूल होने के वे संस्कार दिए ही नहीं जिनकी चाह उसके होने वाले पति, उसके माँ-बाप और परिवार वाले रखते हैं। यह तो सबको पता है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती लेकिन फिर भी उम्मीदें सिर्फ एक तरफ से ही हों, यह थोड़ा ज्यादा नहीं हो रहा?
समय बदला है तो एक अच्छा बदलाव यह भी हुआ कि आजकल के बच्चे अपने माँ-बाप से ज्यादा घुले-मिले रहते हैं, मित्रवत व्यवहार होता है, तो फिर खुलकर बातें भी हो जाती हैं। चाहे मसला पढाई, नौकरी, प्रेम या विवाह का हो, माँ-बाप और बच्चे खुलकर बात करते हैं जो अच्छी बहुत अच्छी बात है। आजकल बच्चे लिपटकर माँ-बाप को "आई लव यू" झट से बोल देते हैं। एक जामना था कि कभी लोग माँ-बाप, खासकर पिता से दूरी बनाये रखने में ही भलाई समझते थे। "आई लव यू" तो दूर कभी मुस्कुरा भी न सके। ऐसा नहीं है पहले प्रेम नहीं था लेकिन कुछ तानाबाना ऐसा था कि अदब और दूरी सी बनी ही रहती थी।
...और जब आज संबंधों में निकटता आई है तो इसी कारण इस लघुकथा में जब पिता ने बेटी के सिर पर हाथ रखते हुए उसके लिए इस बात का खुलासा किया कि उनके मन में बेटी के लिए किस तरह का पति खोजने की लालसा है तो बेटी ने लजाने, शरमाने की औपचारिकताओं की जगह तपाक से कारण जानने को पिता से प्रश्न किया। हालाँकि कारण स्पष्ट था लेकिन यहाँ जैसे लेखिका को पिता को ताना देना ही था कि 'उनकी यह इच्छा तो ठीक है लेकिन क्या वह स्वयं अच्छे राजकुमार वाले किरदार में असफल रहे?' क्योंकि बेटी की नजर में उसके पिता उसकी माँ को खुश नहीं रख पा रहे थे। यह एक पक्ष है और विचारणीय भी है क्योंकि दो तरह का व्यवहार क्यों? जरूरी था यह प्रश्न। हालाँकि यह इस कथा में स्पष्ट नहीं हुआ कि क्या माताश्री राजकुमारी होने का फर्ज अदा कर रही थी या क्या पिताश्री की अपनी भी कुछ टीस थी? पिता जी को अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं मिला। वैसे, ऐसे उदाहरण हमें अपने आसपास मिल ही जायेंगे जहाँ बिना बात जूतमपैजार होती रहती है लेकिन अपवाद भी बहुत हैं। आदर्श रूप में राजा को रानी और रानी को राजा पाने के लिए अपना-अपना किरदार उसी तारतम्य में अदा करना होता है। कथा के शीर्षक के अनुसार लेखिका ने पिता को अहसास कराने की कोशिश तो की लेकिन बाकी का निर्णय पाठकों के लिए छोड़ देने के कारण यह अधूरा ही रहा कि क्या उसे (बाप को) अहसास हो पाया?
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए नीता कसार जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी-2)

लघुकथा - रिश्ता
लेखक - अर्चना त्रिपाठी जी

अगर व्यक्ति पूर्वाग्रहों से बाहर आ जाये तो विश्वास मानिए कि उसके जीवन की आधे से ज्यादा समस्याओं को पैदा ही न होना पड़े। मसलन, हमारे यहाँ यह पहले से ही माना हुआ है कि बहू आयेगी तो उनके लड़के को वश में कर लेगी और हमारी सेवा नहीं करेगी। बहू भी पहले से ही सास के रौद्र रूप को मन में संजोकर आती है। ..और परिणाम स्वरूप वही होता है जिसकी परिकल्पना उसने की हुई होती है।
आजकल इसे मनोविज्ञान से जोड़कर भी देखा जा रहा है और नई-नई बातें और घटनायें सुनने में आ रही हैं...कि यदि व्यक्ति अपनी सोच और समझ सही रखे तो वह अपनी मन वांछित कामना पूरी कर सकता है। यहाँ मनोविज्ञान से आगे एक और चरण है और वहाँ चेतन और अचेतन मन की बातें होती हैं। खैर...ज्यादा अन्दर उतरूंगा तो विषयांतर जैसा लगेगा लेकिन यहाँ एक प्रसिद्ध कथावाचक स्व. श्री राजेश्वरानंद जी का बताया हुआ प्रसंग लिखना चाहूँगा।
....उनके अनुसार, एक आश्रम में, जहाँ भगवान श्री राम का मंदिर था, वहाँ बहुत से संतों का जमावड़ा रहता था। वहाँ केवल एक संत को छोड़कर सभी संत मंदिर की सुबह-शाम की संध्या-आरती में सम्मिलित होते। वह इकलौते संत कभी भी किसी भी आरती में नहीं जाते लेकिन हर भंडारे आदि में बढ़चढ़ कर भाग लेते, खीर-पूरी छकते। जब कोई आरती में शामिल न होने की वजह पूछता तो वे कहते कि "मैं राम का गुरु हूँ और यदि मैं उनकी आरती में आऊँगा तो उन्हें मेरा सम्मान करना पड़ेगा, अतः मैं अपनी कुटिया में ही ठीक हूँ।" आश्रम के कुछ लोगों का यह भी कहना था कि कभी-कभी उन्होंने उन संत के मुँह से उनके कमरे में रखी राम जी की प्रतिमा को छड़ी दिखाकर, डांटते हुए भी सुना था कि, "कुछ पढ़-लिख लो, तो काम आएगा...." और उनके छड़ी दिखाते ही भगवान की प्रतिमा डर से कांपने लगती थी।.....इस सबके बाबजूद भी अन्य संतों ने उनको कहा कि नौटंकी बंद करो और रोज पूजा में आया करो। एक दिन सबने जबरन उन्हें आरती के समय राम जी की मूर्ति के सामने खींचकर लाया तो सबने देखा कि जैसे ही उनका मूर्ति से आमना-सामना हुआ, भगवान का मुकुट उनके सम्मान में झुक गया।
इस प्रसंग की चीरफाड़ और सत्यता जानने के प्रयास करने के स्थान पर आवश्यक यह है कि इसके मंतव्य को समझा जाये। यानी, पूर्वाग्रह आपकी जिंदगी को संवारने या बिगाड़ने के लिए जिम्मेवार हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि आपके पूर्वाग्रह क्या हैं? और आपके मन में कितने अंदर बैठे हैं?
अर्चना जी की इस लघुकथा के अंदर अच्छे खासे चल रहे रिश्ते में भी कथा की नायिका पूर्वी के मन में समाज में व्याप्त सोच का प्रभाव है। और यह तब तो और भी गहरा और प्रभावी होने की संभावना रखता है जब इसे अपने खास लोग कहें। यह कितना सामान्य है कि बच्चे अपने छोटे-मोटे काम स्वयं कर लें। इससे न केवल वे अपना काम करना स्वयं सीखते हैं, अपितु उन्हें आत्मनिर्भर होना आता है। इसके इतर बड़ों को सहूलियत भी मिलती है। पता नहीं लोगों को उस नकारात्मक कोंण से सोचने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? अगर ऐसा न होता तो पूर्वी की माँ उसे क्यों टोकती कि उसका सौतेला लड़का स्नान करने के बाद अपने कपड़े खुद क्यों पहन रहा है? खैर... इसे अगर बेटी की माँ की ओर से अतिरिक्त चिंता मान भी लिया जाए तो भी पूर्वी के उस बयान का क्या कि "मैं चाहे कुछ भी कर डालूँ लेकिन हमारा रिश्ता बहुत ही नाजुक है क्योंकि मैं सौतेली जो हूँ।" दरअसल, ऐसी बातें जहाँ अच्छे रिश्ते पनपने की बहुत सुखद संभावनाएं हैं, कुछ पूर्वाग्रहों के कारण उनमें भी जल्दी 'ग्रहण' लगा ही देती हैं।
प्रस्तुत लघुकथा, समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों पर आधारित कथानक को लेकर है, जहाँ सबकुछ अच्छा होते हुए भी, खराब करने की पूरी खाद मौजूद है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इस पक्ष को लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी-1)

लघुकथा - दिवास्वप्न
लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी

"नारी तू नारायणी"
पता नहीं इस उक्ति को स्थापित करने में नारी के किन-किन गुणों का अध्ययन किया गया होगा। क्या उसका मातृत्व? क्या उसका अथक परिश्रम? क्या पति, बच्चों और परिवार के पीछे दिन को दिन और रात को रात न समझने के पीछे छुपे असीम प्यार और समर्पण की हदों को पार करने का जज्बा? क्या समय आने पर दुर्गा, काली बनने की कहानियाँ, या और कुछ भी? इस प्रश्न का उत्तर पा भी लिया जाये तो क्या होगा? आखिर में उसे मिलता ही क्या है? अपवादों को छोड़कर अगर देखा जाये तो जो नारी शक्ति ने दिया है उसका पासंग भी पुरुष समाज नहीं दे पाता है। यहाँ मैं पुरुषों के योगदान को नकार नहीं रहा हूँ लेकिन बराबरी कहना बेमानी है। महिलाओं की ओर से बराबरी के हक की मांग अक्सर उठती है। यह बहुत ही ज्यादा हास्यास्पद है। दरअसल बराबरी के हक की दुहाई तो पुरुष समाज को करनी चाहिए थी। लेकिन पुरुषों ने बड़ी चालाकी से ऐसे नियमों का जाल बनाया कि दुर्भाग्य से नारी को सदैव 'कृपा' के लिए पुरुषों की ओर ताकना पड़ा। पुरुषों ने हमेशा ही अपना वर्चश्व बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये और ऐसे नियम-कायदा कानून थोपे जिससे एक महिला को उनकी ओर दयनीय होकर गुहार लगानी पड़े।
.. हालाँकि मैं उस तरह की बराबरी के पक्ष में कतई नहीं हूँ जिसके लिए आजकल बड़े-बड़े आंदोलन चल रहे हैं। मुझे माफ़ किया जाये लेकिन बड़ी बिंदी वाले गैंगों से यह न हो पायेगा। यदि अपवाद छोड़ दें तो स्त्रियों के तथाकथित जीवन स्तर को उठाने के नाम पर बड़े-बड़े संगठन बने हैं जिनके धन की उगाही, विदेशी यात्रायें, सैर-सपाटा आदि से ऊपर कोई खास उद्देश्य हैं भी नहीं। वैसे इनके घोषित-अघोषित उद्देश्य भी हैं जो प्रथम दृष्टया लगते हैं कि यह महिलाओं के उत्थान हेतु हैं लेकिन अगर इन आन्दोलनों की हकीकत में परिणति हो भी जाये तो फिर उसी स्थिति में पुरुष आ जायेंगे जिसके लिए महिलाएं यह तथाकथित संघर्ष कर रही हैं। क्योंकि उनको पता ही नहीं है कि बराबरी किस तरह से हो? उन्हें याद ही नहीं है कि पुरुषों के बराबर आना है, उनसे बदला लेना नहीं है। पहले समझें कि आप का लक्ष्य क्या है? महिला या पुरुष कभी एक दूसरे के विरोधी नहीं हो सकते। वे एक दूसरे के पूरक हैं। .... बराबरी की बात आयी है तो यह बात भी कर लें। यही हाल जाति-वाद पर आधारित आन्दोलनों का है। पहले जो उनके साथ ज्यादती और अन्याय हुआ, आज अगर आप गौर से देखो तो जिनके साथ अन्याय हुआ वे मन में घृणा भरे घूम रहे हैं। दरअसल वे बदला लेना चाहते हैं। वे किसी बराबरी और सामंजस्य की चाह में नहीं हैं। वे दूसरे पक्ष को उसी स्थिति में देखने की चाहत में हैं जो भूतकाल में उनके साथ हो चुका है। हालाँकि इन्हीं ढकोसलों में अपवाद भी होते हैं जो इनमें भी संभव हैं।
थोड़ा कथा के मूल पर भी बात कर लें। ... जब पिता और घर का मुखिया या पालक किसी रोग के कारण असहाय हो गया हो, जीविकोपार्जन के साधन पर जैसे विराम लग जाये, सामने छोटे भाई-बहन हों तो एक अपरिपक्व मन में भी बड़प्पन और उससे जुड़ी जिम्मेवारियां सहज ही जन्म ले लेती हैं। उसे संभालना ही होता है बिलखते और बिखरते परिवार को। और जैसे समाज तो इसी के लिए घात ही लगाए बैठा रहता है।वह बेचारी करती भी तो क्या करती? 17 वर्ष की नाबालिग उम्र, उसे जो समाज ने दिया, उसे अपनाना पड़ा। ऐसा नहीं है कि केवल यही एक चारा है या रहा होगा धनोपार्जन का लेकिन कहते हैं कि व्यक्ति परिस्थितियों का गुलाम होता है। एक तो स्त्री जो पहले से ही डरी हुई है, दूसरी उसके पिता का रुग्ण शरीर जो लकवे के कारण कोई भी काम करने में असमर्थ है। उसके पास सम्भवत: यही विकल्प बचा होगा। हालाँकि यह रचना में यह स्पष्ट नहीं है लेकिन बहुत सम्भव है कि उसे इस रास्ते पर किसी अपने ने ही ला कर खड़ा किया होगा। इसे पूर्वाग्रह भी कहा जा सकता है लेकिन असंख्य कहानियां इस पक्ष की ओर ज्यादा इशारे करती हैं।
... कहा जाता है कि लोगों की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है और यदि वे लोग अपने हों तो कहना ही क्या? अपनों ने कठिन समय में उनके लिए क्या किया, क्या बलिदान दिया, यह बहुत कम लोगों को याद रह पाता है। जरा संयुक्त परिवारों की संस्कृति और उनसे सम्बंधित कहानियों पर गौर करें। अक्सर बड़े बेटों-बेटियों को शिक्षा आदि से वंचित होना पड़ा है और छोटों को उनसे बेहतर शिक्षा के साधन और अन्य सुविधाएँ मिली हैं। उसके नैपथ्य में आप जाकर आकलन करें तो आपको यही पता चलेगा कि पहले घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं रही कि बड़ों को समान अवसर मिल पाते। लेकिन कालांतर में जिन्हें अवसर का लाभ मिला, जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति ठीक हो गई, वे अपने बड़ों के बलिदानों को भूल जाते हैं। ....तो जब उससे दूसरा सवाल हुआ कि, "अब तो सब अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए हैं, तो तुम क्यों नहीं छोड़ देती यह सब?"
क्या जबाब देती वह वीरांगना? मुझे यहाँ उसे वीरांगना कहने में संकोच नहीं होता। वह विजेता है। समाज को उस पर ऊँगली उठाने का कोई हक नहीं है। फिर, इस प्रश्न पर जो जबाब आया है, उसमें तथाकथित अपनों और समाज के दोगलेपन की बड़ी गन्दी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उसके जबाब की पहली पंक्ति,"जिन लोगों के लिए हर हद पार कर ली, #वे_भी_मुझे_गन्दी_नाली_समझते_हैं" पर किसी तर्क की सम्भावना ही नहीं बचती है। ...लेकिन दूसरी पंक्ति कि "गन्दी नाली, नदियों में भी नहीं मिला करती है तो घर के नलों में....? यह तो दिवास्वप्न ही है।" यह उस बालिका/महिला के स्तर से अच्छा जबाब है और तार्किक भी लगता है लेकिन हकीकत यह है कि आज कलियुग में सभी गन्दी नालियां और नाले नदियों में ही तो मिल रहे हैं जिससे हमारे देश की सभी नदियाँ प्रदूषित हैं और जो भयंकर संक्रमित बीमारियां फ़ैलाने के प्रमुख स्रोत हैं। खैर...
प्रस्तुत रचना में दो पात्रों के बीच हुए संवाद में कथा का निर्वाहन किया गया है। दोनों पात्रों में से किसी का नाम भी नहीं है। हालाँकि इससे कथा के सम्प्रेषण में कोई जरुरत या इसकी कमी भी समझ में नहीं आई लेकिन हाल ही में वरिष्ठ लेखक और प्रकाशक आदरणीय #मधुदीप_गुप्ता जी ने इस बावत चर्चा को जन्म दिया था। मुझे लगता है कि उस कोंण से भी विचार करना चाहिए।
मात्र 79 शब्दों में सिमटी प्रस्तुत लघुकथा, समाज के खोखलेपन और दोगलेपन पर बड़ा प्रहार करती है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इसके लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -2)

लघुकथा - आरक्षण
लेखक - मृणाल आशुतोष जी


हालाँकि शहर की भाँति अब गाँवों में भी स्थितियाँ बदल रही हैं लेकिन गाँव में बड़ों का अभी भी रुतवा वही है, पुराना वाला। पहले तो हालात और भी अजीब थे, इसके एकदम उलट थे। बाप जबतक दिन में एक-दो बार उठा-पटक कर न दे तबतक उसे जैसे लगता ही नहीं था कि वह बाप भी है किसी का। बिना बात के ही हड़का देना जैसे उनकी आदत का अहम हिस्सा होता था।
...मेरा एक मित्र है, रांची से। उसके पिता जी बिहार सरकार में उच्च पदस्थ अधिकारी थे। वे शौकिया सफाचट (बिना दाढ़ी-मूँछ के) रहते थे और इसके विपरीत मेरे मित्र को मूँछ रखने का शौक था। इस बात से उसके पिता जी को तंज करने का मौका जब भी मिलता, वह ताने मार ही देते थे। एकदिन उन्होंने शनिवार को दोपहर के बाद उसे डाकखाने कुछ काम से भेजा। शनिवार होने के कारण दोपहर बाद जब मेरा मित्र पहुँचा तो डाकखाना बंद हो चुका था अतः काम नहीं हुआ। फिर क्या था? जब मेरा मित्र घर वापस आया तो उसे कुछ ऐसा सुनना पड़ा, "तुम, तुम्हारी मूँछ देखकर तो आजकल डाकखाने में भी ताले पड़ने लगे हैं। तुम से होगा ही क्या? मूँछें जो रखते हो।"....ऊपर से मार पड़ी सो अलग..। खैर...

प्रस्तुत लघुकथा में भी गाँव के इसी परिवेश की झलक है। आनन्द जब एस. एस. सी. की परीक्षा पास नहीं कर सका तो इस डर से कि पिता श्री के कोप का भाजन होना पड़ेगा, वह अपने ननिहाल चला गया। ऐसा नहीं है कि नानी के यहाँ सब इस बात से प्रसन्न हुए होंगे लेकिन नानी के घर अक्सर प्यार ज्यादा मिलता ही है और बड़ी से बड़ी गलती माफ कर दी जाती है। ...सो जनाब हो-हल्ला बरगलाने के लिए दो दिन बाद घर पहुँचे और जिम्मेदारी का अहसास देखिए कि इस बात की खबर माँ को दे भी दी थी कि आप नानी के घर जा रहे हैं ताकि बतंगड़ बनने की स्थिति में माँ संभाल ले। आखिर, माँ, माँ ही होती है। उसकी असफलता पर खुशी तो नहीं ही मिली होगी लेकिन माँ के लिए, "सबसे नटखट है मेरा राजदुलारा, सबसे प्यारा है मेरा राजदुलारा।" तो माँ को विश्वास में ले लिया, नानी के घर भी घूम आये लेकिन....पिता श्री के हाथ और जीभ की खुजली कहाँ मिटने वाली थी?
...घर वापस पहुंचने पर जो आवभगत हुई, और जैसा कि होता है, दूसरे सफल बच्चों के नाम ले-लेकर ताने दिए जाते हैं। जब मुहल्ले के दूसरे सफल बच्चों के नाम गिनाए तो आनन्द का जबाब था कि कुछ बच्चे तो आरक्षण की सीढ़ी से पार हुए हैं। आनन्द के इस जबाब के बाद के जो संवाद हैं, उसी में कथा का सार है। जो जाति व्यवस्था के आधार पर आरक्षण पाया है, उसके साथ उनकी जो आर्थिक स्थिति और उनकी दिनचर्या का वर्णन है, वह बहुत ही तार्किक और मनन योग्य है। ऐसा वक्तव्य कोई मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही दे सकता है।
आनन्द के आरक्षण वाले तर्क पर उसके पिता जी का संवाद देखें, "रमुआ के बेटे की बराबरी तू करेगा रे! ओकरा पैर के धुअन भी नहीं है। ऊ सबेरे खेत में काम करता है। स्कूल से आने के बाद गाय भी चराता है। रात में मकई और आम का रखबारी करते हुए पढ़ाई किया है। और एक तुम हो जिसको हम न आटा पिसाने भेजे और न ही कभी पेठिया से तरकारी लाने।" ...और आखिरी पंक्ति पर तो जैसे कथा ऊंचाई पर पहुंच गई - "#इस_हिसाब_से_तो_आरक्षण_तुमको_भी_मिला"। ...और फिर वही बापपना, "आगे से कभी आरक्षण का नाम लिया न तो जूता भिगाकर मारेंगे।"
...और जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ, गाँव में अभी भी सहनशक्ति, बड़ों के गुस्से में छिपा प्यार बच्चे पढ़ पाते हैं। उन्हें न तो अपने सम्मान हनन का डर है, न ही बड़ों की बात को दिल पर रखने की बुरी आदत है। इसी आत्मविश्वास के साथ परिवार के बड़े लोग भी यह कह पाने की हिम्मत रखते हैं कि उनके कड़े व्यवहार के बाद भी बच्चे बुरा नहीं मानेंगे और कोई अनुचित कदम नहीं उठायेंगे।
उत्तर भारत में दक्षिण भारत की तरह यह तय नहीं है कि उन्हें दसवीं-बारहवीं के बाद कमाने के लिए बाहर जाना ही पड़ेगा। तुलनात्मक रूप से देखें तो संयुक्त परिवार की परंपराएं, घर के लोगों से लगाव, अपनी भाषा, जमीन और आपस में प्रेम आदि में उत्तर भारत के लोग आगे हैं। जहाँ दक्षिण भारतीयों में कमाने के लिए प्रदेश-देश से बाहर जाना बहुत ही सामान्य है, वहीं उत्तर भारत में इस पर निर्णय बड़ी देर में और बड़ी सलाह, मशवरा के बाद ही लिया जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि उत्तर भारतीयों के पास विकल्प ज्यादा हैं लेकिन कुछ बातें उन्हें ऐसा करने से पहले बहुत सोचनी पड़ती हैं। ...और आनन्द के पिता जी का यह कहना कि, "देख लो! अब तुम अपना कि दिल्ली जाना है या मुम्बई।" उन्हें बहुत अफसोस है कि उनके आसपास के बच्चे सफल हो गए और आनन्द सफल न हो सका। आनन्द के पिता के इस आदेशात्मक वाक्य में कई अभिव्यक्तियाँ छुपी हैं। जहाँ उन्हें आनन्द के असफल होने का दुख है वहीं अपने ऊपर बढ़ रहे आर्थिक बोझ की भी चिंता है और उसके विछोह का संताप भी। आखिर... बाप जो है। उसकी यही छवि है और उसमें वह सहज है।
इसी अलगाव की चिंता में आनन्द का कथा के अंत में एक वादे के साथ समर्पण, रिश्तों की खूबसूरती का बेजोड़ नमूना है।..और मुँह न दिखाने वाली बात पर कौन न पसीजेगा? लेकिन अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए उसके पिता ने आरक्षण के दंश की हकीकत की स्वीकारोक्ति करते हुए सफलता का मंत्र भी दिया कि डटे रहना है और सर्वश्रेष्ठ बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
इस लघुकथा में मृणाल जी ने एक साथ कई पक्षों को रखा है। जहाँ एक ओर आरक्षण एक गंभीर सच्चाई है, वहीं कठिन परिश्रम, परिवार में बड़ों के सम्मान, उनकी नाराजगी का प्रतिकूल प्रभाव न पड़ना, माँ, नानी के घर और उसके पिता के प्रेम के विविध रूप और साथ में आनन्द के सामान्य सुलभ व्यवहार को बड़ी कुशलता से रचा है। यह रचना आज के शहरी माहौल को बहुत कुछ सीख दे सकती है। आज शहरी अभिभावकों को हर पल यह सताता रहता है कि अगर बच्चों से कुछ कह दिया तो वे कहीं कोई गलत कदम न उठा लें।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। इस लघुकथा में भी क्षेत्रीय बोली की सौंधी खुशबू का पाठक जरूर आनन्द लेंगे।

Saturday, August 3, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -1)

लघुकथा - बछड़ू
लेखक - मृणाल आशुतोष जी 

विछोह किन्हीं के बीच का भी हो, बहुत दुखदायी होता है। इसमें भावनाओं को चोट पहुँचती है, संवेदनायें क्रंदन करती हैं और कभी-कभी स्थितियाँ इतनी विषम होती हैं कि सिर्फ अफ़सोस करने के सिवा कुछ नहीं रह जाता है। हमारे शास्त्रों में इसे लगाव, मोह या आसक्ति कहा गया है। वैसे यह मोह अगर मानवीय संबंधों से इतर हो तो लोग संयत और संयमित रह भी सकते हैं लेकिन अपनों का जुदा होना अक्सर बहुत कष्टकारी होता है। इससे पहले कि मैं प्रस्तुत कथा में गहरा उतरूं, मुझे एक वाक्या याद आ गया। मैं तब छोटा था, शायद कक्षा पाँच में पढ़ता था। एक दिन मेरी साईकिल मेरा एक दोस्त लेकर गया था और शाम को बारिश होने की वजह से वह वापस करने नहीं आ सका था। मुझे आज भी याद है कि मैं उस रात बहुत असहज रहा था। मुझे यही चिंता सता रही थी कि पता नहीं मेरे दोस्त ने साईकिल को संभाल कर रखा होगा कि नहीं, कहीं बारिश में भीग न रही हो, आदि, आदि। मुझे नहीं पता कि वह आसक्ति थी कि कुछ और लेकिन मन में कहीं उसके अलगाव का दंश तो था ही। मुझे यह भी याद है कि मेरा जो दर्द था वह कीमती साईकिल के लिए नहीं था। मैं कहीं उस साईकिल के अलग होने को एक मित्र के वियोग की तरह महसूस कर रहा था। खैर...कुछ बातें सिर्फ महसूस की जाती हैं, उनका वर्णन करना आसान नहीं होता।
इस कथा में दो सामान घटनाओं को तुलनात्मक तरीके से संबंधों की धुरी पर तौला गया है जिससे यह सहज रूप से प्रतीत होता है कि चाहे इंसान हो या कोई जानवर, प्रकृति ने संवेदनाएं सभी को सामान रूप से दी हैं। कहते भी हैं कि आप किसी की वेदना को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि वह आपके साथ घटित न हो। जाके पाँव न फटी बिंवाई, सो का जाने पीर पराई।
संबंधों को महसूस करने और उन्हें निभाने की बात जब भी आती है तो माँ के प्रेम को सर्वोपरि रखा जाता है। और यह सच भी है क्योंकि माँ का प्रेम निश्वार्थ होता है। और जब एक माँ के कष्ट की बात हो तो उसे कोई माँ ही असली रूप में समझ सकती है।
...."गनेशिया ने अपना बछड़ू बेच दिया।" मुझे लगता है इस वाक्य को कहते-कहते अनिता का गला भर आया होगा। बात ही ऐसी है। पति-पत्नी की हलकी-फुलकी चुहल से शुरू हुई बात ने इस वाक्य के आटे-आते गंभीर मोड़ ले लिया था। विमल के इस तार्किक उत्तर से "कि लो, इसमें परेशान होने की क्या बात है? उसे तो बेचना ही था" ने अनिता को और भी मौका दे दिया कि, " आखिर, तुम्हें गाय का दर्द दिखा ही नहीं, न? गाय अपने बछड़े के वियोग में परेशान है और ठीक से दो मिनट के लिए भी नहीं बैठी है।" मंतव्य तो अनिता का शायद यही रहा होगा कि.... आखिर तुम मर्द जो ठहरे। तुम्हें यह सब कहाँ पता चलेगा? लेकिन मर्दों का अपना अलग तरीका होता है सोचने का, जताने का। अक्सर भाइयों और बापों को बहन/बेटी की डोली उठने के बाद, माँ/पत्नी को हँस-हँस कर ढांढस बँधाते देखा गया है और अकेले में उन्हें दहाड़ें मारकर रोते। वे दुनिया को, अपने आप को तर्कों से समझा लेते हैं। लेकिन पत्थर दिल वह भी नहीं होते हैं। उन्हें तो जैसे यह सब नियति का तय किया हुआ लगता है। तो, यहाँ विमल और क्या तर्क देता? मिलान कर दिया उस घटना से कि "यह तो होता ही है। उसने अपने ही बेटे सौरभ का उदाहरण दे डाला जो जर्मनी में जाकर बस गया था और अब कौन माँ-बाप और कौन अपने? उसे लग रहा था कि यहाँ आज गनेशिया ने अपने बछड़ू का सौदा किया है और पाँच साल पहले उन्होंने अपने सौरभ का सौदा कुछ बीस लाख रूपये और एक गाडी में कर दिया था।
...वैसे तो किसान बहुत दयालु प्रवत्ति का होता है लेकिन कहावत है कि घोड़ा अगर घास से यारी करेगा तो खायेगा, क्या? आखिर बछड़े को खूंटे पर कब तक बांध कर खिलायेगा? अब तो वह ज़माना भी नहीं रहा जब हर घर के बाड़े में बैलों की जोड़ी शोभा बढाती थी। लड़की वाले जब लड़का देखने आते थे तो घर के बड़े लोग रौब से अपने बैलों की जोड़ी दिखाते हुए फख्र महसूस करते थे। बाड़े में जबतक 10-15 जानवरों की रेलम-पेल न हो तबतक रौनक ही नहीं बनती थी। इसके लिए लोग सुबह से ही चारा काटने वाली मशीन पर लग जाते थे और चारे के कटने की लयबद्ध "खच-पच, खच-पच" की आवाज किसी सरगम से कम नहीं लगती थी। जानवरों और उनके बच्चों के गले में बंधी घंटियों से 'टुन-टुन' की आवाज जैसे बता देती थी कि बाड़े में सब ठीक है और तभी बड़े मजीरे सी तेज आवाज यह भी बता देती थी कि युवा होते बछड़ुओं में किसी बात पर अनबन सी है शायद। थोड़ी देर में कभी गाय-भैंस के रंभाने से यह भी पता चल जाता था कि उसकी नाद में सानी (चारा) अब ख़त्म होने को है।
... लेकिन अब जमाना बदल चुका है। खेती करने के तरीके बदले, आवागमन के संसाधन बदले। अब ट्रैक्टर से जुताई और मोटर-कारों, स्कूटर-मोटरसाइकिल से आवागमन आम हो गया है। अब बैलगाड़ियों का ज़माना गया। और जब खेती में पैदावार भी घटने लगी है तो फिर इन जानवरों की रखवाली कैसे हो पाये? अत: पहले जो कहावत बकरी के बच्चे के लिए (कि बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी) प्रयोग की जा रही थी, अब आप किसी भी जानवर के लिए और जानवर के लिए ही क्यों, किसी के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं।
मृणाल जी की यह रचना काफी बार पढ़ने को मिली। इसे कई प्रकाशकों/ सम्पादकों ने अपनी पत्रिका/ पुस्तकों में स्थान दिया। अगर इस रचना को मैं मृणाल जी की हस्ताक्षर रचना कहूँ तो शायद गलत न होगा। प्रस्तुत कथा का कथानक तो अच्छा है ही शिल्प और कथ्य भी अच्छे बन पड़े हैं। कथा में संवाद शैली भी सुंदर है। पति-पत्नी के बीच सहज बिहार की बोली का क्षेत्रीय पुट लिए संवाद अच्छे लगते हैं। कुछ शब्द जैसे खुट्टा, गनेशिया, सौगंध ने गाँव के भीने परिवेश की याद दिला दी है। रचना के शीर्षक "बछड़ू" ने इसे कहने के तरीके से और भी लगाव वाला बना दिया। वैसे इसे बछड़ा कहा जाता है लेकिन "बछड़ू" यानी लाड़ वाला नाम।
रचना के अंत में एक अंदेशा रह जाता है कि विमल ने जब सौरभ के सौदे की बात कही तो पाठक को स्पष्ट नहीं होता है कि यह बीस लाख और एक गाड़ी की कीमत उसके ससुराल वालों को दी कीमत (दहेज़) है या फिर उसे जर्मनी में काम देने वाली कम्पनी के वेतन और भत्ते को कहा गया है। खैर...यह स्पष्ट न होने के बाद भी रचना की सुंदरता पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा है।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से आदरणीय गणेश जी बागी जी  की लघुकथा को लिया है। आज उनकी लघुकथा "चित्त और पट" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - चित्त और पट 
लेखक - गणेश जी बागी जी 


नेताओं की बातें क्या, उनकी नियति क्या? अब तो थाली का बैगन भी शर्म से डूब मरे क्योंकि नेता जी में तो जैसे स्वचालित यंत्र लगे हों। इन्हें कब, कहाँ, क्या, किससे, कैसे बात करनी है? क्या आचरण करना है? कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता। इन्हें तो भीड़ में दिखता है एक बड़ा बाजार और अपना कारोबार। ..और दिखे भी क्यों न? आम आदमी यही तो चाहता है कि नेता जी इसी तरह बंदरों की तरह इस पेड़ से उस पेड़, इस शाखा से उस शाखा पर जाते रहिये, हम आपके करतबों से खुश होते रहेंगे। आप मौषम और स्वादानुसार बदल-बदल कर फलों का आनंद लीजिए और खुश हो रही जनता अगर कभी अपने लिए भी किसी फल की इच्छा करे तो उसे गुठलियों का प्रसाद दीजिये।
हमारे देश में आज यही हो रहा है। चनाव जीतने के सूत्र सबको पता हैं, उसके नियम कानून तय हैं। चुनावी कार्यक्रम आज एक बड़ा तिकड़मी व्यवसाय है जिसमें धनबल और बाहुबल का प्रयोग आम है। इसीलिए आज राजनीति में आने के लिए किसी के पास चारित्रिक योग्यता हो न हो, वह छल, प्रपंचों में अब्बल होना चाहिए। यदि ये गुण हैं तो रही कसर पूरी कर देते हैं हमारे तथाकथित चतुर्थ स्तंभ के जिम्मेदार लोग। राजनीति के बाद अगर किसी और पेशे के स्तर में गिरावट आई है तो वह है पत्रकारिता।

जब आप सत्ता में काबिज हैं तो वही वादे आपके लिए ब्रह्म वाक्य हैं और यदि आप विपक्ष में हैं तो आप उन्हीं को जनता के लिए अभिशाप बताते हैं। पता नहीं ये दोहरा चरित्र लाते कहाँ से हैं? जिन योजनाओं से किसी 'और' दल की सरकार के समय विपक्ष को कमियां ही कमियां और नुकसान नजर आते थे, खुद की सरकार आने पर उन्हीं योजनाओं ने जैसे सर्वमनोकामना पूरी करने वाली योजनाओं का रूप ले लिया हो। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन इन्हीं अपनी योजनाओं को विपक्ष जब खुद लागू कर रहा था तो उसे स्वर्ग की सीढ़ी जैसी दिख रही थी लेकिन आज जब सत्ता पक्ष उनसे समुद्र मंथन कर रत्न प्राप्त करना चाहता है तो उनमें उन्हें खोट ही खोट नजर आता है।
इसीतरह के नेताओं के दो-मुहें चरित्र का बखान करती हुई लघुकथा "चित्त और पट" अच्छी बन पड़ी है। आजकल पत्रकार भी अंतर्जालीय जमाने वाला है। उसके पास प्रश्नावली भी संयुक्त वाली ही है। उसने मौकापरस्त नेताओं और दलों की तरह, पूछे जाने वाले प्रश्नों का गठबंधन करा दिया है। आजकल हर गली-नुक्कड़ पर नेता मिल जाएंगे। बेरोजगार हैं तो क्या हुआ? नेता तो बन ही सकते हैं। कभी भी अपनी जाति और धर्म वाले की टोपी और झंडा लगा लेंगे और बन जाएंगे नेता जी। ....तो पत्रकार को आजकल अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है, कि पता नहीं किस दल के नेता कहाँ मिल जाएं? तो उसने भी एक ऐसी प्रश्नावली ईजाद की है कि हर नेता पर वह सटीक बैठ जाये जिससे नेता जी भी सहज महसूस करें और उसकी अपनी पत्रकारिता भी चमकती रहे, नौकरी भी बनी रहे।
...प्रस्तुत लघुकथा में भी जब पत्रकार ने पहला प्रश्न किया तो नेता जी ने आशानुरूप यही जबाब दिया कि, "विपक्ष की रैली असफल रही। इस रैली की वजह से सभी को परेशानी हुई। अब परेशानी का कारण तो भीड़ ही थी जो कि कहीं न कहीं इस बात का संकेत थी कि विपक्ष की लोकप्रियता बढ़ी है। और जब पत्रकार ने बढ़ी भीड़ की उनकी स्वीकरोक्ति के बारे में पूछा तो उनका एकदम उलट जबाब था। उन्होंने अपने 40 वर्षों के भीड़ जुटाने और रैलियां आयोजित कराने के लिए उपयोग में लाये जाने वाले हथकंडों को जग-जाहिर कर दिया। ..... आखिर, रंगा सियार कब तक अपनी "हुआं-हुआं" रोक पाता।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -1)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में लेखक हैं आदरणीय गणेश जी बागी जी । आज उनकी लघुकथा "आस्तीन का साँप" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - आस्तीन का साँप 
लेखक - गणेश जी बागी जी 

आज तकनीक और सूचना औद्योगिकी के बाद भी यह एक बड़ी समस्या है कि देश के दुश्मन अपने घृणित कारनामों में कामयाब हो जाते हैं और हम सिर्फ हाथ मलते रह जाते हैं। आज आतंकवाद केवल भारत की ही समस्या नहीं है अपितु यह एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बानी हुई है। लगभग सभी देश किसी न किसी रूप में इसकी गिरिफ्त में हैं। प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या पर आधारित उस विषय को लिया है जिसमें आतकवादियों को पड़कना एक बड़ी समस्या है। यह तो तब है जब इन गतिविधियों और उनके संचालकों के सुराग पता लगाने के लिए सम्बंधित विभाग बड़े-बड़े इंतजामों के साथ लगे हुए हैं जिसमे हर तरह की तकनीक और अकूत धन का उपयोग किया जाता है। इन सबके बाद भी उपलब्धता के नाम पर ज्यादा बार असफलता ही हाथ लगती है। इन असफलताओं के बहुत कारण हैं लेकिन जो एक बड़ा कारण है वह है ऐसे आतंकवादी तत्वों के समर्थकों का होना। इस लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या को रेखांकित किया है। इसका जीता जागता उदाहरण कश्मीर की समस्या है। वहाँ के कुछ तथाकथित भटके हुए लोग दाना-पानी तो हमारे देश का खाते हैं लेकिन आतंकियों के लिए ढाल का काम करते हैं। ऐसे लोगों को आस्तीन का साँप न कहा जाये तो क्या कहा जाये?
बिना लाग-लपेट के 107 शब्दों में समाहित प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने समस्या का कथानक तो अच्छा लिया लेकिन कथ्य तार्किक नहीं बन पाया है। जैसे, जब अधिकारी ने मिस्टर सिंह से पूछा कि आप पिछले छः माह से उस आतंकवादी को पकड़ने में लगे हैं जिसका सुराग भी यह मिला था कि वह पडोसी देश में है लेकिन आपकी प्रगति शून्य क्यों है।" .. तो यहाँ यह प्रतीत होता है कि या तो साहब नए-नए हैं या शायद साहब सीधे छः महीने बाद ही अपने मातहतों से मिल रहे हैं। बीच में कोई संवाद ही नहीं हुआ। और जैसे आतकवादी के बारे में अगर यह पता चल जाये कि वह किस देश में है तो उसे पकड़ना तो जैसे बायें हाथ का काम है। दूसरा, मिस्टर सिंह का भी जबाब भी उन्हीं की तर्ज पर है, "कि अगर वह आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो वे जिन्दा या मुर्दा उसे महज दो दिन में पकड़ सकते थे लेकिन...." जैसे मिस्टर सिंह भी पिछले छः महीने से इस सवाल का ही इन्तजार कर रहे थे और अभी तक यह सूचना ऊपर तक नहीं पहुंची थी कि वह खूंखार आतंकवादी पड़ोसी देश में न होकर अपने देश में ही है। .... वैसे मिस्टर सिंह के इस जबाब का भी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है कि अगर आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो उसे जिन्दा या मुर्दा दो दिन में पकड़ लेते। यह न केवल हास्यास्पद है अपितु सफ़ेद झूठ भी है। यह तो सभी को पता है कि कितने ही नामी गिरामी आतंकवादी हमारे पडोसी देशों में पनाह लिए हुए हैं और दो दिन तो छोड़िये, दशकों से उनको पकड़ने के नाम पर शिफर ही हासिल हुआ है।

लघुकथा में उपर्युक्त विरोधाभास होते हुए भी इस बात से कतई असहमत नहीं हुआ जा सकता कि हमारे देश में आस्तीन के साँंप बहुतायत में हैं। चाहे वह बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं के अवैध रूप से भारत में घुसपैठ और बसने का मामला हो, सजायाफ्ता आतंकियों के जनाजे में शामिल होने की बात हो, उनकी फांसी की सजा को माफ़ करने वाली अपीलें हों या फिर दिल्ली के एक विश्विद्यालय में देश विरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन हो। इन सभी मामलों में हमारे देश में बड़ी संख्या में उसके समर्थक मौजूद हैं। इसके साथ इस रचना की यह विशेषता भी रही कि इसमें जो दो अधिकारीयों के बीच संवाद हुआ है उसमें नाम (अधूरा ही सही) केवल मिस्टर सिंह का ही आया है। दूसरे बड़े अधिकारी के नाम का जिक्र भी नहीं है फिर भी उपस्थिति का एहसास नाम की अनुपस्थिति में भी उतना ही हुआ है। ...आखिर ख़ुफ़िया तंत्र के बड़े अधिकारी हैं, उनके नाम आधे अधूरे या पूरी तरह से गुप्त रखने ही चाहिए। यह और कुछ नहीं, लेखक की कलम की कुशलता ही है।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - हूंदराज बलवाणी जी-2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी दूसरी लघुकथा "जादुई चिराग" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - जादुई चिराग 

लेखक - हूंदराज बलवाणी जी 

... और फिर वह चल दिया उस पार्टी के दफ्तर की ओर जिसके सबसे ज्यादा नेता उस जादुई चिराग की वजह से धनाढ्य हो चुके थे, उनके पास जमीन, जायदाद, गाड़ी-घोड़े, विदेशी दौरे, बच्चों की विदेश में पढाई-लिखे, सैर-सपाटे, भोग-विलास के साघनों की कोई कमी नहीं है। जैसे कुबेर के खजाने उनके लिए ही खोल दिए गए हों। उसने इधर-उधर भी नजर डाली, दूसरी पार्टियों के नेता भी किसी से कम नहीं थे लेकिन उसे वहाँ अमीरों में वही ज्यादा दिखे जो किसी खास कुनबे से तालुक्कात रखते थे। हालाँकि उस परिवार से सम्बंधित जाति के लोगों का भी बहुत उद्धार हुआ था, कुछ खास महकमों में सिर्फ उन्हीं लोगों को भर्ती किया गया था लेकिन यह तो कुछ भी नहीं। उन्होंने रेवड़ियां जो बाँट दी थी, सत्ता में आते ही। उनके खुद के कुनबे के लोग तो जैसे विधानसभा या लोकसभा का टिकिट लेकर ही पैदा होते हैं। सामान्यतः आम जनता का पहला नाम सरकार के जन्म-मृत्यु तालिका में पंजीकृत होता है लेकिन ऐसे राजनैतिक परिवार के लोगों का पहला नाम विधायक या सांसद की आगामी सूची में तय हो जाता है। उसने और नजर डाली तो कमोबेस हर पार्टी के यहाँ यही हालत थी। अब उसके लिए अपार संभावनाएं जाग गई थी। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था सिवाय जमीर को बेचने के। उसने लम्बे-लम्बे डग भरने शुरू कर दिए ताकि जल्दी से उस दल के कार्यालय में पहुंचकर वैभव की मंजिल पर पहुँचने की पहली सीढ़ी को छू सके।
....शायद यही कुछ विचार रहे होंगे 'उसके' जब उसने अलादीन का "चिराग" के बारे में जवाब सुना होगा।

... एक ताजातरीन अध्ययन और रपट के अनुसार आज भारत भ्रष्टाचार में नीचे से 78वें स्थान पर है। यह कितने शर्म की बात है। हम इस बात से खुश नहीं हो सकते कि हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान और सबसे भ्रष्ट देश सोमालिया से क्रमशः 117 वें और 180 वें स्थान से तो बेहतर ही हैं। यहाँ यह बात स्पष्ट करना उचित रहेगा कि भ्रष्ट देशों की जब आंकड़ों के आधार पर सूची बनती है तो केवल नेताओं को ही आधार नहीं बनाया जाता है बल्कि इसमें अफसरसाही और हर स्तर के भ्रष्टाचार को ध्यान में रखा जाता है।
... आखिर यह सोच ही क्यों पनपती है कि काश हमारे पास भी कोई अलादीन के चिराग जैसा साधन हो जिससे हम पलक झपकते ही अपने मन की चाहत को पूरा कर सकें। इसके पीछे अकर्मण्यता तो हो है ही साथ में असंतुष्टि और वैमनस्यता भी एक प्रमुख कारण है। और ये सब भी यों ही नहीं पनपते हैं। जब योग्य व्यक्ति को उसकी योग्यता के आधार पर काम न मिले, अयोग्य व्यक्ति को कम या बिना परिश्रम के ऊँचे ओहदे मिल जाएँ तो आदमी के पास क्या यह सोचने की भी छूट नहीं कि वह किसी अलादीन के चिराग की तरह किसी जुगाड़ की तलाश में लग जाये। हालाँकि किसी भी देश की प्रगति में उसके हर देशवासी का छोटा-बड़ा योगदान होता है और भारत भी उससे अलहदा नहीं है। किसी भी देश में उसकी जनता से वसूले गए कर से उस देश की सेना, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था,आदि सुचारु ढंग से चलाई जाती हैं लेकिन क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं कि हमारे देश में यह कर चंद लोगों से वसूला जाता है या कहिये सरकार वसूल पाती है। सरकार के संसाधनों और उसकी व्यवस्थाओं पर सैद्धांतिक रूप से तो सबका अधिकार है लेकिन हकीकत और विडंबना तो यह है कि जिस-जिसने अपनी मेहनत की कमाई से ईमानदारी से सरकार को कर दिया है उनमें से अधिकतर इन अधिकारों से स्वयं को महरूम पाते हैं। यह बड़ा दुर्भाग्य था कि प्राचीन काल में समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए जिन व्यवस्थाओं को योग्यताओं के आधार पर बनाया गया था बाद में वे परिवार आधारित हो गईं और इसने एक गलत सामाजिक व्यवस्था का रूप ले लिया और लोगों के साथ अन्याय हुआ। इस अन्याय की जितनी भर्त्सना की जाये वह कम है। आजादी के बाद इसी बुराई और असमानता को खत्म करने के लिए तात्कालिक आधार पर कुछ व्यवस्थाएं की गईं थी। इन व्यवस्थाओं से बहुत लोगों को लाभ भी हुआ और अभी भी हो रहा है जिससे उनके जीवन स्तर में बेहतरी आयी। लेकिन कालांतर में इस व्यवस्था का भी कमोवेश वही हाल हुआ जो प्राचीन काल में बनायी गई व्यवस्था का हुआ था। इस बात से किसी को एतराज नहीं है कि अगर कोई वास्तव में वंचित है तो उसे उसकी जरूरतों के अनुसार उसकी पूरी मदद होनी चाहिए लेकिन यदि यही मदद पीढ़ी दर पीढ़ी किसी जाति या मजहब के नाम पर निश्चित कर दी जाये तो इससे बड़ा दुर्भाग्य उस देश का नहीं हो सकता। आज दशकों पुरानी चली आ रही इस व्यवस्था से समाज के एक बड़े वर्ग के साथ अन्याय हो रहा है। इस व्यवस्था को राजनैतिक दलों ने सत्ता में बैठे रहने का अपने-अपने तरीके से दुरूपयोग किया है। किसी ने इसका समर्थन करके तो किसी ने इसका विरोध करके। जहाँ जिसकी गोटी बैठी, उसने उसका भरपूर फायदा उठाया। इस व्यवस्था ने न सिर्फ योग्यता और दक्षता को पीछे छोड़ दिया अपितु समाज में आपस में दूरियाँ पैदा की हैं। योग्य लोग हताश और निराश हैं। .....तो फिर अलादीन का चिराग तो चाहिए ही। हर व्यक्ति को खोज तो जारी रखनी ही चाहिए। शायद, चिराग न भी मिले लेकिन अलादीन तो मिल ही जायेगा जहाँ से सम्भव है कि उम्मीद की कोई किरण दिख जाये। लेकिन ध्यान इतना ही रखा जाये कि अगर मंजिल चमकदार और रास्ते सुगम हों तो रास्तों की जाँच कर लेना और अगर रास्ते दुर्गम से दिखें परवाह मत करना, अख्तियार कर लेना। उस दुर्गम रास्ते पर मेहनत और सच्चाई से आगे बढ़ते रहना। मंजिल पाते ही आप खुद ही हो जाओगे अलादीन और मेहनत व आत्मविश्वास के हथियार के रूप में आपके पास भी होगा जादुई चिराग।
किसी ने सच ही कहा है - "हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-खुदा।"
प्रस्तुत रचना में लेखक ने आज समाज की बड़ी समस्या "हर योग्य हाथ को काम" पर बड़े ही सुन्दर ढंग से कलम चलाई है। इसमें जहाँ एक पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक के अलादीन के चिराग की तलाश के पीछे के मनोभावों को कुशलता से वयां किया है वहीं राजनीति के उस परदे को भी उजागर किया जहाँ अक्सर अयोग्य व्यक्ति किस तरह से कुछ ही दिनों में धन-धान्य से अपना घर भर लेता है। मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।