लघुकथा - अहसास
"आप दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो आपको अपने और अपनों के लिए पसंद न हो"।
- शांतिकुंज हरिद्वार के प्रणेता आचार्य श्रीराम शर्मा
... कोई भी रिश्ता हो, उसकी सफलता-असफलता की कहानी उसमें शामिल हर पात्र के हिस्से की होती है। यह बात हर रिश्ते पर बराबर लागू होती है। मित्रता हो, भाई-बहन, भाई-भाई, अड़ोसी -पड़ोसी पति-पत्नी, आदि। जब दो पक्षों की आपसी समझ एकदूसरे की पूरक बनती है तो फिर सामान्य सम्बन्ध भी मधुर हो जाते हैं, मामूली झोपडी भी किसी महल से कम नहीं होती है। असफल दाम्पत्य के ठीकरे कहीं पुरूष तो कहीं महिलाओं पर फोड़े जाते हैं लेकिन सुखी जीवन का मंत्र यही है कि गाड़ी दोनों पहियों के परस्पर सहयोग से चलती है, असहयोग से नहीं।

भारतीय पिता की अपनी अलग ही कहानी है। उसे दहेज़ के बारे में सोचना है, दामाद की जाति, गोत्र, खानदान, रोजगार, आदि के साथ यह भी चिंता बराबर सताती रहती है कि होने वाला दामाद उसकी बेटी को फूल की तरह रखे। लेकिन कई बार ये आशाएँ केवल परिकल्पना भर रह जाती हैं क्योंकि बेटी को फूल होने के वे संस्कार दिए ही नहीं जिनकी चाह उसके होने वाले पति, उसके माँ-बाप और परिवार वाले रखते हैं। यह तो सबको पता है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती लेकिन फिर भी उम्मीदें सिर्फ एक तरफ से ही हों, यह थोड़ा ज्यादा नहीं हो रहा?
समय बदला है तो एक अच्छा बदलाव यह भी हुआ कि आजकल के बच्चे अपने माँ-बाप से ज्यादा घुले-मिले रहते हैं, मित्रवत व्यवहार होता है, तो फिर खुलकर बातें भी हो जाती हैं। चाहे मसला पढाई, नौकरी, प्रेम या विवाह का हो, माँ-बाप और बच्चे खुलकर बात करते हैं जो अच्छी बहुत अच्छी बात है। आजकल बच्चे लिपटकर माँ-बाप को "आई लव यू" झट से बोल देते हैं। एक जामना था कि कभी लोग माँ-बाप, खासकर पिता से दूरी बनाये रखने में ही भलाई समझते थे। "आई लव यू" तो दूर कभी मुस्कुरा भी न सके। ऐसा नहीं है पहले प्रेम नहीं था लेकिन कुछ तानाबाना ऐसा था कि अदब और दूरी सी बनी ही रहती थी।
...और जब आज संबंधों में निकटता आई है तो इसी कारण इस लघुकथा में जब पिता ने बेटी के सिर पर हाथ रखते हुए उसके लिए इस बात का खुलासा किया कि उनके मन में बेटी के लिए किस तरह का पति खोजने की लालसा है तो बेटी ने लजाने, शरमाने की औपचारिकताओं की जगह तपाक से कारण जानने को पिता से प्रश्न किया। हालाँकि कारण स्पष्ट था लेकिन यहाँ जैसे लेखिका को पिता को ताना देना ही था कि 'उनकी यह इच्छा तो ठीक है लेकिन क्या वह स्वयं अच्छे राजकुमार वाले किरदार में असफल रहे?' क्योंकि बेटी की नजर में उसके पिता उसकी माँ को खुश नहीं रख पा रहे थे। यह एक पक्ष है और विचारणीय भी है क्योंकि दो तरह का व्यवहार क्यों? जरूरी था यह प्रश्न। हालाँकि यह इस कथा में स्पष्ट नहीं हुआ कि क्या माताश्री राजकुमारी होने का फर्ज अदा कर रही थी या क्या पिताश्री की अपनी भी कुछ टीस थी? पिता जी को अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं मिला। वैसे, ऐसे उदाहरण हमें अपने आसपास मिल ही जायेंगे जहाँ बिना बात जूतमपैजार होती रहती है लेकिन अपवाद भी बहुत हैं। आदर्श रूप में राजा को रानी और रानी को राजा पाने के लिए अपना-अपना किरदार उसी तारतम्य में अदा करना होता है। कथा के शीर्षक के अनुसार लेखिका ने पिता को अहसास कराने की कोशिश तो की लेकिन बाकी का निर्णय पाठकों के लिए छोड़ देने के कारण यह अधूरा ही रहा कि क्या उसे (बाप को) अहसास हो पाया?
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए नीता कसार जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।
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