लघुकथा - दिवास्वप्न
"नारी तू नारायणी"
पता नहीं इस उक्ति को स्थापित करने में नारी के किन-किन गुणों का अध्ययन किया गया होगा। क्या उसका मातृत्व? क्या उसका अथक परिश्रम? क्या पति, बच्चों और परिवार के पीछे दिन को दिन और रात को रात न समझने के पीछे छुपे असीम प्यार और समर्पण की हदों को पार करने का जज्बा? क्या समय आने पर दुर्गा, काली बनने की कहानियाँ, या और कुछ भी? इस प्रश्न का उत्तर पा भी लिया जाये तो क्या होगा? आखिर में उसे मिलता ही क्या है? अपवादों को छोड़कर अगर देखा जाये तो जो नारी शक्ति ने दिया है उसका पासंग भी पुरुष समाज नहीं दे पाता है। यहाँ मैं पुरुषों के योगदान को नकार नहीं रहा हूँ लेकिन बराबरी कहना बेमानी है। महिलाओं की ओर से बराबरी के हक की मांग अक्सर उठती है। यह बहुत ही ज्यादा हास्यास्पद है। दरअसल बराबरी के हक की दुहाई तो पुरुष समाज को करनी चाहिए थी। लेकिन पुरुषों ने बड़ी चालाकी से ऐसे नियमों का जाल बनाया कि दुर्भाग्य से नारी को सदैव 'कृपा' के लिए पुरुषों की ओर ताकना पड़ा। पुरुषों ने हमेशा ही अपना वर्चश्व बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये और ऐसे नियम-कायदा कानून थोपे जिससे एक महिला को उनकी ओर दयनीय होकर गुहार लगानी पड़े।
.. हालाँकि मैं उस तरह की बराबरी के पक्ष में कतई नहीं हूँ जिसके लिए आजकल बड़े-बड़े आंदोलन चल रहे हैं। मुझे माफ़ किया जाये लेकिन बड़ी बिंदी वाले गैंगों से यह न हो पायेगा। यदि अपवाद छोड़ दें तो स्त्रियों के तथाकथित जीवन स्तर को उठाने के नाम पर बड़े-बड़े संगठन बने हैं जिनके धन की उगाही, विदेशी यात्रायें, सैर-सपाटा आदि से ऊपर कोई खास उद्देश्य हैं भी नहीं। वैसे इनके घोषित-अघोषित उद्देश्य भी हैं जो प्रथम दृष्टया लगते हैं कि यह महिलाओं के उत्थान हेतु हैं लेकिन अगर इन आन्दोलनों की हकीकत में परिणति हो भी जाये तो फिर उसी स्थिति में पुरुष आ जायेंगे जिसके लिए महिलाएं यह तथाकथित संघर्ष कर रही हैं। क्योंकि उनको पता ही नहीं है कि बराबरी किस तरह से हो? उन्हें याद ही नहीं है कि पुरुषों के बराबर आना है, उनसे बदला लेना नहीं है। पहले समझें कि आप का लक्ष्य क्या है? महिला या पुरुष कभी एक दूसरे के विरोधी नहीं हो सकते। वे एक दूसरे के पूरक हैं। .... बराबरी की बात आयी है तो यह बात भी कर लें। यही हाल जाति-वाद पर आधारित आन्दोलनों का है। पहले जो उनके साथ ज्यादती और अन्याय हुआ, आज अगर आप गौर से देखो तो जिनके साथ अन्याय हुआ वे मन में घृणा भरे घूम रहे हैं। दरअसल वे बदला लेना चाहते हैं। वे किसी बराबरी और सामंजस्य की चाह में नहीं हैं। वे दूसरे पक्ष को उसी स्थिति में देखने की चाहत में हैं जो भूतकाल में उनके साथ हो चुका है। हालाँकि इन्हीं ढकोसलों में अपवाद भी होते हैं जो इनमें भी संभव हैं।
थोड़ा कथा के मूल पर भी बात कर लें। ... जब पिता और घर का मुखिया या पालक किसी रोग के कारण असहाय हो गया हो, जीविकोपार्जन के साधन पर जैसे विराम लग जाये, सामने छोटे भाई-बहन हों तो एक अपरिपक्व मन में भी बड़प्पन और उससे जुड़ी जिम्मेवारियां सहज ही जन्म ले लेती हैं। उसे संभालना ही होता है बिलखते और बिखरते परिवार को। और जैसे समाज तो इसी के लिए घात ही लगाए बैठा रहता है।वह बेचारी करती भी तो क्या करती? 17 वर्ष की नाबालिग उम्र, उसे जो समाज ने दिया, उसे अपनाना पड़ा। ऐसा नहीं है कि केवल यही एक चारा है या रहा होगा धनोपार्जन का लेकिन कहते हैं कि व्यक्ति परिस्थितियों का गुलाम होता है। एक तो स्त्री जो पहले से ही डरी हुई है, दूसरी उसके पिता का रुग्ण शरीर जो लकवे के कारण कोई भी काम करने में असमर्थ है। उसके पास सम्भवत: यही विकल्प बचा होगा। हालाँकि यह रचना में यह स्पष्ट नहीं है लेकिन बहुत सम्भव है कि उसे इस रास्ते पर किसी अपने ने ही ला कर खड़ा किया होगा। इसे पूर्वाग्रह भी कहा जा सकता है लेकिन असंख्य कहानियां इस पक्ष की ओर ज्यादा इशारे करती हैं।
... कहा जाता है कि लोगों की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है और यदि वे लोग अपने हों तो कहना ही क्या? अपनों ने कठिन समय में उनके लिए क्या किया, क्या बलिदान दिया, यह बहुत कम लोगों को याद रह पाता है। जरा संयुक्त परिवारों की संस्कृति और उनसे सम्बंधित कहानियों पर गौर करें। अक्सर बड़े बेटों-बेटियों को शिक्षा आदि से वंचित होना पड़ा है और छोटों को उनसे बेहतर शिक्षा के साधन और अन्य सुविधाएँ मिली हैं। उसके नैपथ्य में आप जाकर आकलन करें तो आपको यही पता चलेगा कि पहले घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं रही कि बड़ों को समान अवसर मिल पाते। लेकिन कालांतर में जिन्हें अवसर का लाभ मिला, जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति ठीक हो गई, वे अपने बड़ों के बलिदानों को भूल जाते हैं। ....तो जब उससे दूसरा सवाल हुआ कि, "अब तो सब अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए हैं, तो तुम क्यों नहीं छोड़ देती यह सब?"
क्या जबाब देती वह वीरांगना? मुझे यहाँ उसे वीरांगना कहने में संकोच नहीं होता। वह विजेता है। समाज को उस पर ऊँगली उठाने का कोई हक नहीं है। फिर, इस प्रश्न पर जो जबाब आया है, उसमें तथाकथित अपनों और समाज के दोगलेपन की बड़ी गन्दी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उसके जबाब की पहली पंक्ति,"जिन लोगों के लिए हर हद पार कर ली, #वे_भी_मुझे_गन्दी_नाली_समझते_हैं" पर किसी तर्क की सम्भावना ही नहीं बचती है। ...लेकिन दूसरी पंक्ति कि "गन्दी नाली, नदियों में भी नहीं मिला करती है तो घर के नलों में....? यह तो दिवास्वप्न ही है।" यह उस बालिका/महिला के स्तर से अच्छा जबाब है और तार्किक भी लगता है लेकिन हकीकत यह है कि आज कलियुग में सभी गन्दी नालियां और नाले नदियों में ही तो मिल रहे हैं जिससे हमारे देश की सभी नदियाँ प्रदूषित हैं और जो भयंकर संक्रमित बीमारियां फ़ैलाने के प्रमुख स्रोत हैं। खैर...
प्रस्तुत रचना में दो पात्रों के बीच हुए संवाद में कथा का निर्वाहन किया गया है। दोनों पात्रों में से किसी का नाम भी नहीं है। हालाँकि इससे कथा के सम्प्रेषण में कोई जरुरत या इसकी कमी भी समझ में नहीं आई लेकिन हाल ही में वरिष्ठ लेखक और प्रकाशक आदरणीय #मधुदीप_गुप्ता जी ने इस बावत चर्चा को जन्म दिया था। मुझे लगता है कि उस कोंण से भी विचार करना चाहिए।
मात्र 79 शब्दों में सिमटी प्रस्तुत लघुकथा, समाज के खोखलेपन और दोगलेपन पर बड़ा प्रहार करती है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इसके लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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