लघुकथा - रिश्ता
अगर व्यक्ति पूर्वाग्रहों से बाहर आ जाये तो विश्वास मानिए कि उसके जीवन की आधे से ज्यादा समस्याओं को पैदा ही न होना पड़े। मसलन, हमारे यहाँ यह पहले से ही माना हुआ है कि बहू आयेगी तो उनके लड़के को वश में कर लेगी और हमारी सेवा नहीं करेगी। बहू भी पहले से ही सास के रौद्र रूप को मन में संजोकर आती है। ..और परिणाम स्वरूप वही होता है जिसकी परिकल्पना उसने की हुई होती है।
आजकल इसे मनोविज्ञान से जोड़कर भी देखा जा रहा है और नई-नई बातें और घटनायें सुनने में आ रही हैं...कि यदि व्यक्ति अपनी सोच और समझ सही रखे तो वह अपनी मन वांछित कामना पूरी कर सकता है। यहाँ मनोविज्ञान से आगे एक और चरण है और वहाँ चेतन और अचेतन मन की बातें होती हैं। खैर...ज्यादा अन्दर उतरूंगा तो विषयांतर जैसा लगेगा लेकिन यहाँ एक प्रसिद्ध कथावाचक स्व. श्री राजेश्वरानंद जी का बताया हुआ प्रसंग लिखना चाहूँगा।
....उनके अनुसार, एक आश्रम में, जहाँ भगवान श्री राम का मंदिर था, वहाँ बहुत से संतों का जमावड़ा रहता था। वहाँ केवल एक संत को छोड़कर सभी संत मंदिर की सुबह-शाम की संध्या-आरती में सम्मिलित होते। वह इकलौते संत कभी भी किसी भी आरती में नहीं जाते लेकिन हर भंडारे आदि में बढ़चढ़ कर भाग लेते, खीर-पूरी छकते। जब कोई आरती में शामिल न होने की वजह पूछता तो वे कहते कि "मैं राम का गुरु हूँ और यदि मैं उनकी आरती में आऊँगा तो उन्हें मेरा सम्मान करना पड़ेगा, अतः मैं अपनी कुटिया में ही ठीक हूँ।" आश्रम के कुछ लोगों का यह भी कहना था कि कभी-कभी उन्होंने उन संत के मुँह से उनके कमरे में रखी राम जी की प्रतिमा को छड़ी दिखाकर, डांटते हुए भी सुना था कि, "कुछ पढ़-लिख लो, तो काम आएगा...." और उनके छड़ी दिखाते ही भगवान की प्रतिमा डर से कांपने लगती थी।.....इस सबके बाबजूद भी अन्य संतों ने उनको कहा कि नौटंकी बंद करो और रोज पूजा में आया करो। एक दिन सबने जबरन उन्हें आरती के समय राम जी की मूर्ति के सामने खींचकर लाया तो सबने देखा कि जैसे ही उनका मूर्ति से आमना-सामना हुआ, भगवान का मुकुट उनके सम्मान में झुक गया।
इस प्रसंग की चीरफाड़ और सत्यता जानने के प्रयास करने के स्थान पर आवश्यक यह है कि इसके मंतव्य को समझा जाये। यानी, पूर्वाग्रह आपकी जिंदगी को संवारने या बिगाड़ने के लिए जिम्मेवार हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि आपके पूर्वाग्रह क्या हैं? और आपके मन में कितने अंदर बैठे हैं?
अर्चना जी की इस लघुकथा के अंदर अच्छे खासे चल रहे रिश्ते में भी कथा की नायिका पूर्वी के मन में समाज में व्याप्त सोच का प्रभाव है। और यह तब तो और भी गहरा और प्रभावी होने की संभावना रखता है जब इसे अपने खास लोग कहें। यह कितना सामान्य है कि बच्चे अपने छोटे-मोटे काम स्वयं कर लें। इससे न केवल वे अपना काम करना स्वयं सीखते हैं, अपितु उन्हें आत्मनिर्भर होना आता है। इसके इतर बड़ों को सहूलियत भी मिलती है। पता नहीं लोगों को उस नकारात्मक कोंण से सोचने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? अगर ऐसा न होता तो पूर्वी की माँ उसे क्यों टोकती कि उसका सौतेला लड़का स्नान करने के बाद अपने कपड़े खुद क्यों पहन रहा है? खैर... इसे अगर बेटी की माँ की ओर से अतिरिक्त चिंता मान भी लिया जाए तो भी पूर्वी के उस बयान का क्या कि "मैं चाहे कुछ भी कर डालूँ लेकिन हमारा रिश्ता बहुत ही नाजुक है क्योंकि मैं सौतेली जो हूँ।" दरअसल, ऐसी बातें जहाँ अच्छे रिश्ते पनपने की बहुत सुखद संभावनाएं हैं, कुछ पूर्वाग्रहों के कारण उनमें भी जल्दी 'ग्रहण' लगा ही देती हैं।
प्रस्तुत लघुकथा, समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों पर आधारित कथानक को लेकर है, जहाँ सबकुछ अच्छा होते हुए भी, खराब करने की पूरी खाद मौजूद है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इस पक्ष को लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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