लघुकथा - तंग करती पतंग
आस्तिक और नास्तिक। ये दो शब्द भर नहीं हैं। निश्चित रूप से इन शब्दों के अनुवाद अन्य भाषाओं में भी होंगे लेकिन इनके अर्थ अगर कहीं जिये जाते हैं तो वह हमारा देश भारत ही है। अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो न हमारे देश में सच्चे आस्तिक हैं और न ही नास्तिक। अगर इन शब्दों के अर्थों पर जायेंं तो जो इनके मतलब निकलते हैं उनमें शाब्दिक और वास्तविक अर्थों में बहुत अंतर है। शाब्दिक अर्थ तो सभी को पता है लेकिन सही अर्थ यह है कि दोनों में सैद्धांतिक रूप से कोई खास फर्क नहीं है। आस्तिक व्यक्ति को इससे कोई सरोकार ही नहीं होना चाहिए कि नास्तिक कौन है क्योंकि उसमें ईश्वर के लिए इतनी आस्था जो है और नास्तिक व्यक्ति के लिए उसे कोई सरोकार ही नहीं होना चाहिए कि क्या आस्तिक प्रकार की भी कोई प्रकृति होती है? इन दोनों में आपसी मतभेद या विरोध का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हमारे देश में ये शब्द बहुतों की राजनीति चमका रहे हैं, बहुतों की दुकान चलवा रहे हैं और आपसी मतभेदों को बढ़ा रहे हैं।
इस बात को दूसरी तरह से समझें। विश्व मे कई देश ऐसे हैं जहाँ पर तथाकथित धार्मिक लोग यानी आस्तिक अत्यंत कम हैं। इस हिसाब से वहाँ नास्तिक लोग ज्यादा हुए। तो फिर उन्माद भी ज्यादा होना चाहिए। लेकिन नहीं। उन देशों में आस्तिकों की स्थिति यह है कि उन्हें ये भी नहीं पता कि उन्हें आस्तिक कहा जाता है और उनके विपरीत लोगों को नास्तिक। उदाहरण के लिये वियतनाम में लगभग 25-30 प्रतिशत लोग ही हैं जो बौद्ध हैं लेकिन उनका न तो 70-75 आबादी से कोई बैर है और न ही मतभेद। वहाँ तो एक ही परिवार में आपको बौद्ध और गैर बौद्ध मिल जाएंगे। लेकिन हमारे देश में तो दिन भर 25 चैनलों पर 36 बाबा आपको प्रवचन देते मिल जाएंगे। यहाँ बाबा से मतलब किसी एक धर्म से नहीं है। कमोबेश यही हालत सभी भारतीय धर्मों की है।
भारत में धार्मिकता राजनीति में सफलता/ असफलता निर्धारित करती है। हमारे यहाँ तो नास्तिकता वाले दो प्रकार के होते हैं जिसमें एक खास प्रकार के लोग अपने आपको एक खास पंथ से जुड़ा मानते हैं। उनकी मानसिकता पर जाएं तो उनका नास्तिकतापन किसी धर्म की चाटुकारिता और किसी धर्म की बुराई में निहित है। और हो भी क्यों न? जब भीड़ हाजिर है, आपकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए तो दोहन तो आपका होगा ही। इनके अपने समूह हैं, जहाँ अकूत धन है, दुष्प्रचार के साधन हैं और अपने-अपने शीशे हैं और उनमें साधारण आदमी को उतारने का हुनर भी है।
उस्मानी जी लिखते हैं कि यहाँ प्रतियोगिता जैसा कुछ भी नहीं है। सही भी है। प्रतियोगिता वहाँ होती है जहाँ सीमित स्थान हो। जहाँ बाजार इतना बड़ा हो और ग्राहकों की कमी न हो, वहाँ प्रतियोगिता हो भी नहीं सकती। क्योंकि माल सबका बिकना है, फायदे में सब रहने वाले हैं लेकिन यह भी एकतरफा है। सब फायदे वाले केवल डमरू वाले हैं, उनसे थोड़े कम फायदे वाले उनके जमूड़े हैं। लेकिन इसी डमरू और बांसुरी की धुन में जमूड़े और उनके उस्ताद जिसे ठग रहे हैं, वह है सिर्फ और सिर्फ बेचारी जनता जिसे उनमें आस तो दिखाई देती है, पल भर का सुकून ही मिल जाये, इसी उम्मीद में हैं। जनता सकपका भी रही है, निजात भी पाना चाहती है। लेकिन उसे डर भी है कि कहीं मुट्ठी खोल दी तो कोई अहित न हो जाये। आप उसकी बनाई लकीर पर तटस्थ खड़े हैं और जब होश आता है तो वे रफूचक्कर हो चुके हैं और आम आदमी फिर से इंतजार में आ जाता है कि काश फिर से कोई दूत या फरिश्ता आये।
यह जानने के बाद भी कि जन्नत या दोज़ख़ सब यहीं है, आदमी है कि मानता ही नहीं। सबके अपने दांवपेंच हैं, सबकी फड़ बिछी हुई है, सबके पांसे तैयार हैं और समय-समय पर युक्तियों के अनुसार प्रसन्नता और अवसाद के भाव आ जा रहे हैं क्योंकि कि किसी भी पतंग की गति एक सी सदैव नहीं रह सकती। यही सार्वभौमिक सत्य है।
इस लघुकथा के माध्यम से उस्मानी जी ने दार्शनिक अन्दाज में वर्तमान स्थितियों को अच्छी तरह से पतंग के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
हालांकि, यह रचना एक सामान्य पाठक के लिये आसानी से ग्राह्य नहीं है लेकिन इसका प्रस्तुतिकरण इस तरह से ही बेहतर हो सकता था। मैं यह तो नहीं कहूँगा कि यह कथानक नया है लेकिन प्रस्तुति का अंदाज जरूर अलग तरह का और प्रभावी रहा।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए शेख शहजाद उस्मानी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।
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