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Sunday, August 20, 2023

किश्त -0४ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा जैन जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

किश्त -0४ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा जैन जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।

मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है। 


   
इस खण्ड की एक और लेखिका हैं सीमा जैन जी। आइए, डालते हैं उनकी लघुकथाओं पर नजर।

'औरत तेरी यही कहानी...
सीमा जैन जी की लघुकथा 'पानी' पढ़कर पाठक का कलेजा मुँह को आ जाता है। क्या स्थिति रही होगी महिलाओं की उस जमाने में। 'मेरी माँ ससुराल में पानी भरने के लिए ही लाई गई थी।' यह एक वाक्य उन पर हुए अत्याचार को बताने के लिए काफी है। हालाँकि इस लघुकथा में सिर्फ यही पक्ष नहीं है। इसके अतिरिक्त दूसरा पक्ष भी है और वह है पानी की बर्बादी का। आज कितने ही लोग पानी को स्विमिंग पूल के नाम पर, वाहनों को धोने के लिए और कितने ही अन्य कामों में अनावश्यक रूप से बहाते रहते हैं। पानी का दुरुपयोग या उसे यों ही बहा देना राष्ट्रीय गुनाह है। पानी की बर्बादी और महिलाओं की दयनीय स्थिति का बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुतिकरण इस कथा के प्रबल पक्ष हैं।
अगली कथा का शीर्षक 'पागलपन' बहुत ही सटीक है लेकिन कथा पढ़कर यह पता चलता है कि इस शीर्षक में व्यंग भी भरा पड़ा है जिससे कथाकार के लेखन कौशल की झलक मिलती है। इसी संग्रह की शोभना श्याम जी की एक लघुकथा है 'आखिरी पन्ना'। वह भी इसी कथानक पर आधारित है। इस कथा में भी यह महत्वपूर्ण बात है कि घर की मालकिन ने पति की पेंशन से एक भी रुपया लड़के को न देने और मकान अपने ही नाम पर रखने के निर्णय ने पुत्र और पुत्र बहू का नशा हिरन कर दिया। ऐसी कथाओं से एक युक्ति तो समझ में आती है कि हो न हो, यदि बुजुर्गों के पास कुछ संपत्ति है तो कम से कम बुढ़ापे में बच्चों की अनदेखी या बदसलूकी से तो बचा ही जा सकता है। ये एक तरह से उनके लिए हथियार की तरह हैं जो उपयुक्त समय पर जरुरत पड़ने पर प्रयोग किये जा सकते हैं। 
इस कथा के ठीक आगे की कथा है 'डर' लेकिन इसमें डरने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि हर सिक्का खोटा नहीं होता है। लेकिन कहते हैं ना कि दूध का जला हुआ छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है सो सलाह भी उसी प्रकार की मिलेगी जैसा लोगों का अनुभव होगा।  तभी तो जब सौरभ के पिता ने मकान बेचकर बेटे को दूसरा मकान खरीदने के लिए रुपये दिए तो उनके मित्र उन्हें डराने लगे कि अब शायद उनका लड़का उन्हें 'कहीं का भी न छोड़ेगा'। वे अपने मकान से भी गए और लड़के के दूसरे मकान में तो जाने से रहे। लेकिन अंत भला सो सब भला। क्योंकि जब लड़के से मकान खरीदने में देरी के कारण की बात पूछी तो उसके उत्तर से वे बहुत भावुक हो गए। कथा का सुखांत समाज के वर्तमान दूषित वातावरण में एक ताजी और ठंडी वयार की तरह है।

आधुनिक समय में जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं या बहुत व्यस्त हैं, खेल के मैदान सिमट रहे हैं और आधुनिकता की दौड़ में लोग भागे चले जा रहे हैं ऐसे में बच्चों का बचपन तो जैसे छीन ही लिया गया है। माँ-बाप के पास समय नहीं है। एकल परिवार संस्था में पति-पत्नी और बच्चों तक ही घर सीमित हो चुके हैं, दादा-दादी, ताई-ताऊ, चाचा-चाची के लाड़-दुलार अब मिलना असंभव सा है क्योंकि सामूहिक परिवार संस्था टूट चुकी है, ऐसे में बच्चे करें भी तो क्या करें? बच्चों के खेल सीमित हो चुके हैं और यदि उन्हें बड़े कहीं बाहर लेकर भी जाते हैं तो पहले उनके अपने खेल, बाद में बच्चों के। प्रस्तुत कथा जिसकी शुरुआत तो डायरी शैली में हुई है लेकिन अंत आते-आते यह पत्रात्मक शैली में तब्दील हो चुकी है जिसमें बालक यह प्रश्न पूछता है कि अब खेलने की उम्र किसकी है? मेरी या माँ की। निश्चित रूप से अपने मन का काम सबको करना चाहिए लेकिन यदि बच्चों को बचपन में खेलने न दिया जाए तो वे जिंदगी के एक असली मजे को अनुभव करने से चूक जाएँगे। इस रचना के माध्यम से लेखिका ने आज के व्यस्त जीवन को माता-पिता के लिए एकबार पुनरावलोकन करने के लिए प्रेरित और प्रस्तुत किया है।
आज जितनी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं उनमें ज्यादातर विवाहित बच्चे और माँ-बाप के बीच की कहानियाँ हैं। ऐसे में कुछ लघुकथाएँ उसी कथानक से विभिन्न शाखाओं के साथ भी लिखी जा सकती हैं। इससे न केवल नई रचना निकलती है अपितु उसमें विषयवस्तु को नए सिरे से देखने की दृष्टि भी होती है। ऐसी ही लघुकथा है 'खाली हाथ'। जिन माँ-बाप को बच्चे अपने साथ तो रखते हैं लेकिन वे उन्हें बोझ की तरह लगते हैं। वे शायद भूल जाते हैं कि जिन माँ-बाप ने उन्हें बचपन में अपनी सुख-सुविधाओं को छोड़कर उनकी परवरिश की, आज उन्हें सेवा-सुश्रूसा की जरूरत है। बुढ़ापे में माँ-बाप बच्चों की तरह हो जाते हैं। वे थोड़े से प्यार और साथ के भूखे होते हैं फिर चाहे वह उन्हें अपनों से मिले या किसी और से। कथा में एक अपने ही बेटे के सहकर्मी से मिली आत्मीयता से जैसे उनका बुढापा ही संवर जाता है और फिर जब इसका रहस्योद्घाटन होता है तो बेटे को 'खाली हाथ' सा ठगा हुआ ही रह जाना पड़ता है। शीर्षक को सार्थक करती बहुत सुंदर रचना।
आज नशा समाज, खासकर गरीब तबके के लोगों के लिए किसी भयंकर बीमारी की तरह है जो दिन प्रतिदिन खाये जा रहा है, खोखला कर रहा है। शराब पीकर आना, पत्नी और बच्चों को आकर पीटना, उनकी कमाई खा जाना, आदि सब बहुत मिली-जुली सी दास्तानें हैं, गरीबों की। लेकिन ऐसे में ही तपती धूप में शीतलता की फुहार का आभास कराती लघुकथा है - काशी की लकीरें। कभी-कभी अंगुलिमाल भी बुद्ध के सामने आत्मसमर्पण कर देता है। दुराचारी बाल्मीकि भी मरा-मरा कहते अच्छाई के रास्ते पर चलने लगता है। ऐसा ही ह्रदय परिवर्तन हुआ है काशी के पति का जिसे किसी की बात समझ में आई और उसने पत्नी द्वारा उसकी कमाई का बहीखाता जब दीवार पर कटी हुई लकीरों के रूप में देखा और खुद में बदलाव किया जिससे उसके घर में रोटी के साथ भाजी बनने के संयोग भी बनने लगे। समाज में व्याप्त गंदगी और उसमें कमल को खिलाती एक सुंदर रचना।

परिवार - सच में, इसकी परिभाषा ही अलग है। यह आलीशान मकानों, बड़ी कारों या फिर किसी खास साज-सजावट से नहीं बनता है। यह तो बनता है आपसी प्यार, एक-दूसरे की समझ का सम्मान और सच्ची संवेदनाओं से। शादी किसी व्यापार या लेनदेन का नाम नहीं है। शादी किसी जोर-जबरदस्ती का नाम भी नहीं है जहाँ बड़ों के दबाव से शादी हो तो जाए लेकिन मन कभी न मिलें या उनकी आपस की समझ कभी एक न हो पाए। यह तो वह पवित्र रिश्ता है जिसमें किसी को किसी का साथ मिले, प्यार मिले, बड़ों का सानिध्य और सहयोग मिले। ऐसी ही प्यारी सी लघुकथा है - परिवार। अनाथालय में पली-बढ़ी मीरा को साहिल द्वारा वरण करने का निश्चय और अपनी माँ को उसके सकारात्मक पक्ष को उभारकर समझाने का प्रयास और माँ का सहज स्वीकार्य करना इस कथा को नई ऊँचाइयों पर ले जाता है।
'गुदड़ी के लाल' की याद दिलाती हुई अगली रचना है 'भविष्य'। कहते भी हैं - जिसने अर्जुन की तरह लक्ष्य को देख लिया उसके लिए उसका संधान करना कोई बड़ी बात नहीं है। बाप की बीमारी और गरीबी का दंश झेल रहे रवि के सामने जब अंधकार ही था उसे अपने ताऊजी द्वारा अच्छे कॉलेज में दाखिला करा देने को अवसर में बदलने और उसी से अपना भविष्य देखने का जज्बा काबिलेतारीफ है। हालाँकि जेठजी के घर का माहौल देख रवि की माँ स्वाभाविक डर जाती है कि जहाँ उसके जेठ और उनका बेटा शराब की गलत लत में पड़ गए हैं और रवि को एक नौकर की तरह रख रहे हैं, संभव है कि रवि भी कालान्तर में इसी नरक में न चला जाए। लेकिन रवि के मजबूत इरादे, स्पष्ट लक्ष्य और उसका माँ से आँख मिलाकर इसका रहस्योद्घाटन करना बहुत सुखद और प्रेरणादायक दायक है।
संस्मरण शैली में लिखी अगली रचना है - ईमानदारी। ईमानदारी एक परवरिश का नाम है जो किसी एक स्थान से नहीं मिलती है। यह तो समाज, घर-परिवार, मित्र-पड़ोसी आदि से छन-छन कर आने वाली देखा-देखी मिलने वाली तासीर का नाम है। ईमानदारी गरीब या अमीर किसी के भी आचरण की शोभा बन सकती है। ...और इसी ईमानदारी की अमीरी का उदाहरण दिया उन समोसेवाले बाबा ने जिन्होंने अपने सभी समोसे बिकने का बाद जब वही समोसे उन्हें गरीबों में बांटने का जिम्मा दिया गया तो उन्होंने उसे सहर्ष निभाया। हम अक्सर गलतफहमी में रहते हैं कि गरीब आदमी शायद पैसों के लालच में धोखाधड़ी का काम करते हैं लेकिन अक्सर ऐसे मान्यताएं निराधार हो जाती हैं जब परिदृश्य इसके उलट होता है। ऐसा ही कुछ हुआ इस कथा में। एक और उत्कृष्ट रचना।

एक हम हैं कि पड़ोसी पाकिस्तान से परेशान हैं और एक 'रोशनी' लघुकथा की पात्रा है जिसे रजिया जैसी अच्छी पड़ोसन जो मिल गई है। आपसी सहयोग से जो घर-परिवार, समाज का माहौल बनता है, असली रोशनी तो उसी की होती है। तीज-त्योहार तो इसलिए बनाये गए थे ताकि लोग घर की सफाई, नए कपड़े, मिठाई आदि खा सकें और मिलने-मिलाने के दौर में अपने गिले-शिकवे दूर कर सकें। लेकिन जो सुकून एक पड़ोसी दे सकता है, उसकी बात ही अलग है। लघुकथा 'रोशनी' में रिश्तों की इसी चमकती किरण से दीपावली का मनाना सार्थक सा लगता है। कथा में न केवल आपसी संबंधों की सुंदर बानगी है अपितु दो धर्मों के लोगों की आपसी सामंजस्य का पाठ भी है जो किसी राजनीति के पचड़े से दूर सुकून की जिन्दगी का आधार बन गए हैं।
लघुकथा 'उड़ान' का कथानक मध्यमवर्गीय परिवार की आम कहानी की तरह ही है लेकिन इसमें माँ के व्यवहार में बिना किसी उथल-पुथल के बिना जो सकारात्मक परिवर्तन हुआ उसके लिए लेखिका बधाई की पात्र है। वह कहते हैं ना कि सुनो सबकी, करो मन की। हमारे यहाँ उपदेश मुफ्त में मिलते हैं इसलिए अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तदार आदि सभी समाज की ऊँच-नीच, तौर-तरीकों पर आपको नियम-कानून सिखाते मिल जाएँगे। लेकिन गुल की माँ की तारीफ करने पड़ेगी कि उन्होंने किसी की न सुनी और बेटी की इच्छा के अनुसार ही उसके हित में निर्णय लिया। कथा के अंत में पाठक यह अनुभव करता है कि यदि कथान्त ऐसा ही करना था तो शुरुआत में भाई की इच्छाओं की पूर्ति की दास्तान अनावश्यक सी लगने लगती है। कभी-कभी इस तकनीक से पाठक भ्रमित भी हो जाता है जिसे लेखक को संज्ञान में लेना चाहिए। कई बार लेखक पाठक को आश्चर्यचकित करने की जगह भ्रमित कर देता है जहाँ असमंजस की स्थिति बन जाती है। इस कथा में भी ऐसा ही हुआ है जिस पर ध्यान देना अत्यावश्यक तो नहीं लेकिन यदि दे दिया जाता तो कथा कुछ और भी कसी हुई बन सकती थी।

सीमा जैन जी की लघुकथाएँ घर-परिवार की विषयवस्तु से निकली बहुत सकारात्मक कथाएँ हैं। इनमें नयापन भी है, शिक्षा भी है और पाठकों/समाज के लिए प्रेरणा भी है। उनकी लघुकथाओं की शैली में विविधता भी है जिनमें संस्मरणात्मक, आत्मकथ्यात्मक आदि की अधिकायत है।

डॉ रजनीश दीक्षित

Sunday, August 13, 2023

किश्त -०३ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...नीरज शर्मा जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

किश्त -०३  : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...नीरज शर्मा जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :


अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।

मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है।    

इस खण्ड की एक और लेखिका हैं नीरज शर्मा जी। आइए, डालते हैं उनकी लघुकथाओं पर नजर। उनकी पहली लघुकथा है 'अनकही' जो भावनात्मक विचारों से जूझती अच्छी लघुकथा है। अपनों का विछोह? यह विचार मात्र ही बदन में सिहरन पैदा कर देता है। क्या कभी किसी के जाने से पनपा शून्य कभी भर पाता है? कभी नहीं। और फिर वह अलगाव बचपन मे अगर किसी बच्चे का उसके माँ-बाप से हो तो फिर कहने को भी कुछ नहीं रह जाता है। 'अनकही' में इसी अनाथ बच्चे राजू की व्यथा है जो आश्रम में पलकर जीवन जी रहा है। जादू -  कितना आकर्षण

होता है बच्चों में! और बच्चे क्या? बड़ों में भी कौतूहल कहाँ कम होता है? सभी को लगता है कि जादूगर कुछ भी कर सकता है। कितनी आशाएँ पनपी होंगी राजू के मन में जब उसने कहा होगा कि आप भी कुछ बताओ, मैं आपकी मांग भी पूरी कर दूँगा। राजू को एकबार तो लगा ही था कि आज वह भी अपने माँ-बाप से मिल लेगा लेकिन अबतक शायद उसे समझ में आ गया होगा कि ऊपर जाने वाला फिर कभी वापस नहीं आता है, उसे कोई भी नहीं ला सकता। कोई जादूगर भी नहीं। इसलिये वह उम्मीद के साथ जादूगर के पास आया जरूर था लेकिन बिना किसी फरमाइश के ही वापस चला गया। भावनाओं के ज्वर को असीम ऊँचाई तक ले जाकर हकीकत के धरातल तक की यात्रा कराती यह लघुकथा बहुत ही संवेदनशील बन पड़ी है।

कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देने लगते हैं। इसी कहावत को चरितार्थ करती अगली लघुकथा है 'सक्षम'। हम बचपन में एक कहावत सुना करते थे - हित, अनहित पशु-पक्षियु जानें। अर्थात बिना जबान के भी पशु-पक्षी भी जान लेते हैं कि उनका कौन हितकारी है और कौन अहित कर सकता है। दूध पीती सात माह की बच्ची, उसकी माँ की अनुपस्थिति में जब डे-केयर में उसके हाथ से उसका खिलौना दूसरा बच्चा छीन लेता है तो पहली-बार, दूसरी बार...आखिर कब तक वह अपना शोषण सहती? और अंततः चौथी बार उसने अपना विरोध जता ही दिया और अपना खिलौना गँवाने से बचा लिया। लेखिका ने इसे 'सक्षम' शीर्षक देकर इस लघुकथा की विषयवस्तु को मुखरता दी है। निश्चित रूप से उस बालिका ने अपने से बड़े बच्चे से अपना खिलौना बचाकर न केवल यह परिचय दिया कि उसे उसका यह काम अच्छा नहीं लगा अपितु जूझकर अपना खिलौना बचा भी लिया। लघुकथा में माँ की बच्चे के प्रति ममता और उसके भविष्य के प्रति चिंता का भी अच्छा समायोजन किया गया है।
मानव मन स्थितियों के साथ में तारतम्य बना लेता है और किसी यंत्र की भांति स्वचालित सा होने लगता है। इसी मनोवैज्ञानिक धरातल पर आधारित लघुकथा है 'निक्कू नाच उठी'। निक्कू एक छोटी सी बच्ची जिसे नृत्य में बहुत रुचि है और उसे एहसास है कि वह अच्छा नाचती है और अपने दादा-दादी और आने वाले मेहमानों को अपनी बाल सुलभ क्रिया कलापों से परिचय कराने और करतब दिखाने में उसे बहुत उत्साह रहता है। लघुकथा में नन्हीं बच्ची के स्वभाव, मन की स्थिति को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ऐसा भी नहीं है कि वह आज्ञाकारी नहीं है और बड़ों की बातों को नहीं मानती है लेकिन..ऊधौ, मन न भये दस-बीस। एक हतो सो गयो श्याम संग...। यही हुआ निक्कू के साथ। बड़ों की हिदायतें और उसने स्वयं अपने मन को समझा लिया है कि वह चाचू के घर आने पर नहीं नाचेगी क्योंकि वह पहले दिन ही बहुत थक गई थी और उसके पैर दुख रहे थे, लेकिन मन वाबरा... क्या करे? जैसे ही टेलीविजन पर किसी कार्यक्रम में कोई सरगम की आवाज आई, निक्कू नाच उठी। रूसना यानी नाराज हो जाना। यह मूलतः हरियाणा की बोली का शब्द है लेकिन निक्कू के प्रसंग में यह अटपटा नहीं लगता है बल्कि यह कथा के सम्प्रेषण को बढ़ा देता है। इसी तरह से निक्कू का रूसकर कहना 'मुझे नी देखना', भी कथ्य में परिवेश को साधने में मददगार बना है। हालाँकि कथा बहुत सुंदर है, कथानक बहुत सामान्य है, लेकिन इस पर लिखना उतना सामान्य नहीं है क्योंकि इस तरह की कथा लिखने के लिए बाल मन को समझनेवाली सूक्ष्म दृष्टि की जरूरत होती है। उसी तरह से हर पाठक को भी इस कथा में कथातत्व समझने के लिए भी उसी तरह की समझ चाहिए। पाठक इस कथा को आसानी से या एकबार में समझ पाने में जद्दोजहद से जूझता दिखाई पड़ सकता है।

मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसी कहावत को चरितार्थ करती अगली कथा है 'सकल तीरथ'। भारत में हमारी परंपराओं में निहित है कि यदि जवानी में तीर्थ स्थानों की यात्रा न भी पर पाये तो कम से कम बुढ़ापे में तो यह कर ही लिया जाए ताकि परलोक सुधार जाए और जिसे इसका मौका मिल जाता है वे अपने आपको सौभाग्यशाली समझते हैं और ऐसा न कर सकने वाले दुर्भाग्यपूर्ण। सलाह तो यही रहती है कि ये काम जवानी में ही किये जायें क्योंकि ढलती उम्र में शरीर का स्वस्थ रहना भी अति आवश्यक हो जाता है। मयंक की माँ भी पक्षाघात के कारण मोहल्ले के लोगों के साथ तीर्थ यात्रा पर नहीं जा सकती, इसके लिए न केवल उसकी माँ उदास है अपितु मयंक भी। लेकिन कहते हैं ना कि जहाँ चाह, वहाँ राह। आखिर उदासी के बादल छट गए जब समस्या का हल निकल आया। घर बैठे ही टीवी के माध्यम से माँ ने माँ वैष्णो देवी के दरबार के दर्शन कर लिए और मन उसी तरह प्रसन्न हो गया जैसे वह खुद तीर्थ यात्रा पर जाकर दर्शन कर रही हो। ...लेकिन यह क्या? अब माँ उदास है। वह इसलिए उदास है कि उसकी समस्या का हल तो निकल आया लेकिन अब बेटा तीर्थ यात्रा पर नहीं जा सकता है। हालाँकि मयंक की खुशी और उसका उद्देश्य तो माँ के तीर्थ दर्शन में ही निहित था लेकिन माँ का दिल...! यही तो है वह भाव जिसमें एक-दूसरे की भावनाओं में माँ-बेटे एक दूसरे की खुशी ढूँढ़ रहे थे। कभी-कभी कथा उलझ भी जाये या कमजोर सी बन पड़े तो शीर्षक बात बना देता है। ऐसा कुछ हुआ है इस लघुकथा के साथ। यदि लघुकथा को बिना शीर्षक के पढ़ा जाए तो कथातत्व ढूंढने में थोड़ी मशक्कत तो करनी पड़ती है लेकिन 'सकल तीरथ' शीर्षक पढ़ते ही मामला सुलझ जाता है और तार जुड़ जाते हैं।

'खरीदी हुई औरत' समाज के ऊपर बड़ा सा धब्बा है। जब एक इंसान और वह भी स्त्री, का महत्व रुपये-पैसे से जोड़कर देखा जाने लगे तो फिर इंसानियत के नाम पर बचता ही क्या है? इस कथा में न केवल एक महिला, एक असंवेदनशील परिवार की दास्तान है बल्कि भारत की वर्तमान स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी सवाल हैं। आजकल जब स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत तरक्की हो चुकी है, पैसे की कमी और अस्पतालों के बड़े-बड़े खर्चो की वजह से आज भी बहुत बड़ा वर्ग घर में ही असुरक्षित प्रसव कराने के लिए मजबूर हैं। मँहगे इलाज, समाज में विवाह की अनिवार्यता, शिक्षा की कमी और आत्मिक संबंधों पर तंज मारती यह लघुकथा अंत आते-आते यह सिद्ध करने लगती है कि वास्तव में पीड़िता जैसे किसी वस्तु की तरह खरीदी ही गई थी। इसे न केवल इस परिवार की कहानी मानकर नजरअंदाज करना ठीक है बल्कि यह समाज की खोखली तस्वीर है जहाँ एक इंसान की अहमियत पैसे से तौलकर देखी जाती है। ...और फिर माँ का किरदार, जरूर एक शीतलता भरी पहल करता है लेकिन आखिर है तो वह भी स्त्री ही। कथा में आंचलिक बोली के शब्दों का प्रयोग कथा के सम्प्रेषण को प्रभावी बना रहा है। हालाँकि कथा में यह स्पष्ट नहीं है कि रशीद की पत्नी का यह पहला बच्चा है या अन्य भी हैं लेकिन माँ के आखिरी संवाद की पंक्ति '.....के ला देवेगा इन बालकों कू।' यह भी बताता है कि भारत में उपर्युक्त समस्याओं के साथ जनसंख्या भी एक विचारणीय विषय है।
साहित्य में एक बड़े वर्ग ने किन्नरों पर बहुत लिखा है। इसमें उपन्यास, कहानी संग्रह, लघुकथा संग्रह आदि प्रमुखता से प्रकाशित हुए हैं जिनमें अमूमन उनके प्रति समाज में व्याप्त तथाकथित अज्ञानता, भ्रांतियाँ आदि दूर करने की कोशिश की जाती रही है साथ ही समाज को उनके प्रति सहानुभूति की नजर से देखने को भी प्रेरणा देने के उद्देश्य रहे हैं। सहानुभूति तो ठीक है लेकिन आम तौर पर ये उतनी सहानुभूति के हकदार हो नहीं पाते हैं क्योंकि रेलगाड़ियों, बसअड्डों, चौराहों आदि स्थानों पर और शादी विवाह आदि के बहुत मौकों पर बिना मतलब की धन उगाही के साथ, अभद्रता, अश्लीलता, मारपीट जैसे इनके असामाजिक काम भी देखे गए हैं। यह एक बड़ा कारण है कि समाज में इन्हें घृणा की दृष्टि से भी देखा जाता है। खैर...। नीरज जी की अगली लघुकथा 'अप्रत्याशित' में किन्नरों के सकारात्मक पक्ष को उभारा गया है कि वे संवेदनशील प्राणी हैं और वे न केवल बधाई के नाम पर विभिन्न मौकों पर आ धमकते हैं अपितु दुःख के समय भी भावनात्मक सहारा बनने के लिए तत्पर रहते हैं।
जहाँ भारत में पहले संयुक्त परिवार की परंपरा स्थापित थी वहीं आज के समय जब ये सब व्यवस्थाएँ ध्वस्त सी होती जा रही हैं, परिवार की अपनों से और अपनों के प्रति  क्रमशः अपेक्षाएं और जिम्मेवारियाँ आज भी जीवित हैं। पूरी तरह से कुछ भी कभी खत्म नहीं होता है। इन्हीं अपेक्षाओं की उन्नत बानगी है अगली लघुकथा 'अपेक्षा'। एक माँ, अपनी सहेली के बेटे की शादी में जाने को बहुत इच्छुक है और उसका वहाँ जा पाना इस बात पर निर्भर है कि उसे रेलगाड़ी में आरक्षण मिल जाये। इसके लिए वह अपने बेटे के फोन की प्रतीक्षा में है कि कब उसकी तरफ से यह खुशखबरी आये कि उसका रेलगाड़ी में टिकट आरक्षित हो गया है। ...लेकिन उसके हृदय पर आघात लगता है जब ये खबर 'ना' में आती है। इस बात पर उसके पति का यह कहना कि इसे बेटे से यह कह देना चाहिए था कि वह हवाई जहाज का टिकट करा देता तो एक महिला का आत्मसम्मान आड़े आ जाता है और वह किसी तरह अपने मन को मसोसकर रह जाती है। ...लेकिन अंततः जब थोड़ी देर बाद बेटे का फोन आता है कि उसने हवाई जहाज में टिकट करा दिया है तो सुखद आश्चर्य के साथ कथा अंत करती है। इस कथा में अपेक्षाओं की ऊहापोह में सकारात्मक परिणाम निकला है। इसमें लेखिका इस बात के लिए प्रसंशा की पात्र है कि उसने पाठक को रेलगाड़ी में टिकट न मिलने पर अवसाद और अगली हवाईजहाज के टिकट की खबर पर सुखद खबर देकर एक झंझावात से गुजारा है। हालाँकि कई पाठक इस तरह के अंत का अंदाज लगा भी सकते हैं लेकिन शीर्षक के कारण असमंजस को बनाये रखने में कथा अंत तक सफल रहती है।
अगली कथा 'दुआ', कथानक के हिसाब से सामान्य सी लघुकथा है लेकिन इसके शीर्षक, कथ्य और शैली ने इसे इस लायक बनाया कि यह इस खण्ड का हिस्सा बनी। इस कथा में कथाओं में आम हो चुकी उस बाप की गाथा है जिसमें वह अपने बेटों की परवरिश में सबकुछ लुटा देता है और अब बुढ़ापे के समय खुद पनाह पाने के लिए बेटों की दयादृष्टि पर निर्भर है। इस लघुकथा में फ्लैशबैक तकनीक का बेहतर प्रयोग किया गया है।
'दबे पाँव' जैसी कथाएँ लिखने के लिए लेखकीय कौशल की आवश्यकता के साथ-साथ घटनाओं को समानांतर देखने की कला भी आनी चाहिए। ऐसी शैली में आजकल लघुकथाएँ लिखी तो जा रही हैं लेकिन उनमें विषयों में विविधता की कमी है। इस विषय पर भी कई लघुकथाएँ पहले ही लिखी जा चुकी हैं। वैसे विषय तो गंभीर है ही क्योंकि आजकल अस्पतालों के खर्चे आदमी को कंगाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। 

किसी शायर ने लिखा है -
तुम्हारे शहर में अर्थी को चार काँधे नहीं मिलते, 
हमारे गाँव में मिलकर सभी छप्पर उठाते हैं।

जब से राजनीति गाँव में भी घुस आई है, वहाँ का माहौल भी आजकल शहर से कोई अलग नहीं है लेकिन फिर भी गाँव का परिवेश एक बड़े घर-परिवार जैसा होता है। लोगों में अपनापन, एक-दूसरे की मदद का जज्बा और जरूरत पर सहारे के लिए लोग हमेशा तत्पर रहते हैं। ऐसी ही कुछ कथा है 'भरम'। कथा की मुख्य किरदार असगरी नाइन जिसे सब दादी कहकर बुलाते थे। यही तो ख़ूबसूरती होती है गाँव की। सभी का सबसे रिश्ते होता है फिर चाहे उम्र के हिसाब से कोई छोटा/ बड़ा ही क्यों न हो? लोग इन रिश्तों में ही अपनों को खोज लेते हैं और कट जाता है जीवन। अकेली असगरी ने गाँव में अपने तो खोज लिए थे। लघुकथा 'भरम' की कहानी कम से कम इस भ्रम को तो पुख्ता करती ही है। उस नाइन को गाँव के घरों से बहुत प्यार भी मिल रहा था लेकिन अंत समय में उसे वह सहारा न मिल सका जिसकी उम्मीद लिए वह जी रही थी। कथांत में दुनिया को बेमुरब्बत सिद्ध किया गया है लेकिन फिर भी पाठक को कहीं यह बात आसानी से गले नहीं उतरती क्योंकि कथा की शुरुआत में बड़ा सकारात्मक माहौल है और किसी प्रकार की गाँव वालों से उसे तकलीफ भी नहीं दी गई है। पाठक की इस बात की तस्दीक के लिए असगरी की किसी बीमारी की खबर पर उसे मदद न मिल पाने या इंकार करने जैसी स्थिति आदि से रूबरू ना कराया जाना भी एक बहुत बड़ा कारण है।   

भारत में पुलिस महकमे की आज जो गन्दी छवि बनी हुई है, उसके लिए उन्होंने बहुत परिश्रम किया है। पुलिस की ही क्यों? आज अधिकतर सरकारी महकमों में लोग जाने से डरते हैं। भारत में सरकारी नौकरी यानी पक्की नौकरी। एकबार आदमी अगर सरकारी नौकरी पर काबिज हो जाये तो फिर उसे आसानी से निकालना सम्भव नहीं है।  यही कारण है कि वे अकर्मण्यता की राह पकड़  लेते हैं और फिर शुरू होता है भ्रष्टाचार, अनियमितताएँ, आदि। आज समाज के बहुत से अपराध सिर्फ इसलिए नहीं रोके जा सकते हैं क्योंकि आम आदमी सजग, सक्रिय होते हुए भी मदद के लिए आसानी से आगे नहीं आ पाते हैं क्योंकि उन्हें सरकारी पचड़ों में पड़ने से बहुत डर लगता है। पुलिस की अनावश्यक पूछताछ और थाने, अदालत आदि के चक्कर लगाने से बचने का अप्रतिम उदाहरण दिया गया है लघुकथा 'डर' में जिसमें भीड़भाड़ में भी एक आदमी सरेआम आत्महत्या कर लेता है और भीड़ पुलिस के डर से उसे नहीं बचाती है। 

कहते हैं कि लेखक के काम, परिवेश, माहौल आदि की झलक लेखन में प्रतिबिंबित होती है। नीरज जी की कथाओं में भी उनके चिकित्सक होने की तस्दीक मिल जाती है। उनकी कथाओं में मानसिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक परिवेश और भावनाओं की उपस्थिति की झांकियां दिखाई देती हैं। घर, आसपास से सामान्य कथानकों को चुनना और उन कथाओं को मजबूत शीर्षक देकर मजबूती देने में नीरज जी ने पारंगता हासिल की है। इनकी लघुकथाओं में विषय, कथानकों में विविधताओं के साथ-साथ शैली, कथ्य और निर्वाह के भी उच्च पैमाने छुए गए हैं। यही कारण है कि आज लेखिका स्थापित लेखकों में सुमार हो चुकी हैं।

डॉ रजनीश दीक्षित  

Saturday, August 5, 2023

किश्त -०२ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सविता इंद्र गुप्ता जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सविता इंद्र गुप्ता जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :


अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।

मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है। 


अब और ना ज्यादा भूमिका बांधते हुए, सबसे पहले नजर डालते हैं  इसी खण्ड में सकलित श्रीमती सविता इंद्र गुप्ता जी की लघुकथाओं पर : 

संचार के आधुनिक युग में अगर किन्हीं कामों का ज्यादा पतन हुआ है तो वह है राजनीति और पत्रकारिता। तथाकथित टीआरपी के चक्कर में असली मुद्दे कहीं भटक जाते हैं और प्रायोजित कार्यक्रम जनता को परोसे जाते हैं। विज्ञापनों द्वारा ऐसे छवि बनाने में टीवी चैनल लगे हुए हैं, राजनैतिक दलों द्वारा जनता के पैसे का दुरुपयोग धड़ल्ले से हो रहा है ऐसे में किसी गरीब की कोई क्यों सुनेगा? यह कितना हास्यास्पद है कि जहाँ एक ओर मीडिया मंत्री जी की किसान कल्याण योजनाओं के प्रचार-प्रसार में व्यस्त है वहीं दूसरी ओर एक किसान अपनी समस्याओं को लेकर अखबार के दफ्तर पर भूख-प्यास से बेहाल पड़ा है। लघुकथा 'ब्लैक होल' में एक किसान की दर्दभरी दास्तान और दुःखद आत्महत्या का चित्रण है जो सिद्ध करता है कि देश में विकास किस कदर हो रहा है और धरातल पर स्थिति क्या है?


कहते हैं भीड़ को कान तो होते हैं लेकिन सोचने समझने की शक्ति खतम हो जाती है। बिल्कुल भेड़ की तरह। एक भेड़ जिस तरफ चल देती है, पूरा हजूम उसी तरफ, फिर चाहे वह एक किसी कुएँ में ही ना गिर जाए। लघुकथा 'अफवाह' में भी इसी कथानक को आकार दिया गया है। किसी ऑटो वाले की छोटी सी गलती से किसी धर्मस्थल की दीवार की तीन ईंटों का गिरना, धीरे-धीरे इतनी बड़ी अफवाह बन जाती है कि फिर एक-दूसरे के धर्मस्थलों को तोड़ने और दंगे जैसी स्थिति बन जाती है। वैसे तो किसी भी धर्म में इन बातों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन आजकल ओछी मानसिकता वाले लोग धर्म की आड़ में ही असहिष्णुता को बढ़ाने में लगे हुए हैं।
सचमुच सुपरमार्केट या मॉल की संरचना, सजावट वहाँ के सजे-संवरे स्टाफ के सदस्य, उनकी माधुर्य भरी बातें एक सामान्य व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक सोच और पसंद/नापसंद के तहत ही संयोजित किये जाते हैं ताकि बिना किसी खास मान-मनुहार के ग्राहक वहाँ फंसता चला जाये और न चाहते हुए भी लुभावने ऑफर्स की आड़ में अपनी जेब ढीली कर दे। जहाँ लघुकथा 'तिलिस्म' में यह बात एकदम सही है वहीं सुपरमार्केट में सब्जी के भाव बाजार की अपेक्षा पचास प्रतिशत से भी कम होना काल्पनिक सा लगता है। इसमें सत्यता की कमी है। अमूमन सब्जी और फल भी इन स्थानों पर, स्थानीय बाजारों से मँहगे ही होते हैं। लेकिन इस कथा में इस बात की अच्छी पैरवी की गई है कि सुपरमार्केट में आप जाते हैं तो ज्यादा संभावना है कि आप कभी-कभी अनावश्यक सामान भी खरीद ही लाते हैं। कथा के शीर्षक के कारण कथा ज्यादा प्रभावी बन पड़ी है।

बेटी आज भी बहुत से परिवारों के लिए अवांछनीय ही है। उन्हें बहू से बेटे ही चाहिए। आखिर कब तक हमारा समाज बेटी और बेटों में अंतर करता रहेगा? क्यों लोग नहीं समझते हैं कि बेटे और बेटी किसी की इच्छा से नहीं बल्कि प्रकृति के बनाये कारणों से पैदा होते हैं और इसके लिए महिला तो बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं होती है क्योंकि एक स्त्री के अंदर केवल एक्स क्रोमोसोम ही होते हैं और पुरूष के अंदर एक्स तथा वाई दोनों क्रोमोसोम होते हैं। यह ज्ञातव्य है कि एक्स-एक्स मिलने से एक लड़की का जन्म होता है और एक्स-वाई के मिलने से लड़के का। इस लिंगभेद पर रजनीश दीक्षित की लघुकथा 'न रहेगा बाँस...' पढ़ी जा सकती है। 
सविता जी की इस लघुकथा में भ्रूण हत्या से बचने के लिये महिला को उपाय के तौर पर कानूनी मदद और संचार माध्यम की सहायता से जो उपाय बताया गया है वह एक ठीक कदम है लेकिन फिर भी समाज को अभी वैचारिक तौर पर बहुत आगे आने की आवश्यकता है। इसके लिए भुक्तभोगी महिला को हिम्मत से भी काम लेना पड़ेगा और अपने अधिकारों के प्रति सजग भी होना पड़ेगा। रचना का शीर्षक 'खड्ग खप्परधारी' बहुत ठीक रखा है।
लघुकथा 'डस्टबिन' इस संग्रह की प्रमुख लघुकथाओं में से एक है। इसका कथानक एक पति के दूसरी महिला के आगोश में चले जाने से खुद को ठगी हुई महसूस करती उस महिला का है जिसमें न केवल उसका आत्मसम्मान है अपितु अपने पैरों पर खड़े होने का आत्माभिमान भी है। यही कारण है कि पैंतीस वर्षों के अलगाव ने उसे इतना सुदृढ़ कर दिया कि वह किसी की वसीयत को भी कूड़ेदान के सुपुर्द कर सके। इस कथा में परिवेश, संवाद और माहौल का सुंदर चित्रण है। एक परिवेश देखें - ...निःशब्द, हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़। आमने-सामने होते हुए भी उनके बीच मीलों की दूरी थी।' एक संवाद देखें - कैसे भूल सकती हूँ तुम्हारी गन्दी चॉइस। तुम्हें कॉफी और औरत दोनों काली ही पसंद हैं।' इस संवाद में सुहासिनी की पीड़ा और घृणा दोनों ठसाठस भरी हैं। उस मुलाकात के माहौल को भी देखें - चुप्पी अखर रही थी लेकिन दोनों के पास ही बोलने को कुछ न था।' ऐसी लघुकथाएँ बड़े अनुभव के बाद लिखी जाती हैं। इसकी समझ के लिए बड़ी ही उच्चकोटि की अवलोकन दृष्टि की आवश्यकता होती है।
आज भारतीय समाज में स्त्री का स्तर बहुत हद तक पुरुषों के बराबर ही हो गया है लेकिन फिर भी पुरुषों की मानसिकता में अभी भी बहुत सुधार की आवश्यकता है। लघुकथा 'आखिर क्या चाहते हो' में एक महिला नौकरी भी करती है और घर के कामकाज भी। लेकिन पति की ख्वाहिश है कि वह नौकरी भी करे, घर पर समय से भी आये और उसका, बच्चों का और उसकी माँ का भी ख्याल रखे। एक हद तक तो यह सब संभालना सम्भव होता है लेकिन जब पानी सिर से ऊपर जाने लगे तब गंभीरता से सुरक्षात्मक उपाय करने ही पड़ते हैं। पुरूषों की इच्छाएँ अनन्त होती है और एक स्त्री के लिए यह सम्भव नहीं कि वह हर इच्छा को सहजता से पूरा कर सके। कभी न कभी विद्रोह सतह पर आ ही जाता है। इस लघुकथा में भी बहुत कलात्मक ढंग और संवाद के जरिये पुरुषों के लिए एक बड़ी सीख प्रस्तुत की गई है कि वे महिलाओं की अपनी इच्छाओं के बारे में सोचें और उन्हें भी अपने हिसाब से काम करने की स्वतंत्रता दें।
लघुकथा 'बेमेल' में असल में बेमेल कुछ भी नहीं है। कहते हैं ना कि आईना झूठ नहीं बोला करते हैं और इस कथा में भी वह चरितार्थ हो गया। जिस पुरुष को शादी के कई वर्षों बाद पत्नी कुरूप और थुलथुल दिखने लगती है वही खुद को शीशे में देखकर शायद कामदेव जैसे होने की कल्पना करते होंगे। अच्छा हुआ कि उन्हें इसका सबक जल्दी ही मिल गया और इस बात की अनुभूति जल्दी ही हो गई और पतिदेव को अपनी गलती का अहसास भी जल्दी हो गया। चूंकि कथान्त में बेमेल वाली बात खत्म हो जाती है अतः इस कथा के शीर्षक को और बेहतर लिखा जा सकता था। जैसे - आईना, आत्मबोध या ऐसा ही कुछ और।
समाज सुधारक राजा राम मोहन राय ने देश में व्याप्त कुरीतियाँ जैसे बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का भरपूर विरोध किया और इनके उन्मूलन के लिए बहुत प्रयास किया। लेकिन आज भी जैसे उनके प्रयास कम पड़ गए, ऐसा प्रतीत होता है। लघुकथा 'भूख' में विधवा चाची के माध्यम से बहुत ही मार्मिक चित्रण है कि किस तरह से एक विधवा औरत के लिए पति के जाने के बाद सबकुछ जैसे त्याज्य हो जाता है। समाज तो समाज, उसके अपने घर वाले भी उसके खाने, सजने-संवरने पर प्रतिबंध लगा देते हैं लेकिन मरता क्या न करे। पहाड़ सी जिंदगी जीने के लिए पेट भर भोजन तो चाहिए ही, फिर वह खुद के घर से मिले या मोहल्ले के समारोहों से। कथा में समाज के उस दोहरे पक्ष को बड़े ही व्यंगात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है जिसमें लोग चाची जी के तेरहवीं के दिन अपनी सुरसा जैसी भूख को शांत करने में लगे पड़े हैं।

स्त्री होती ही ऐसी है। हालाँकि समाज में उनका स्तर चाहे जैसा भी हो लेकिन उनका वास्तविक स्तर बहुत ऊँचा होता है। वे दया की प्रतिमूर्ति, प्रेम का सागर, करुणा और वात्सल्य में उनका कोई सानी नहीं है। लघुकथा 'पिघलती बर्फ' में बहुत ही करुण कहानी है एक ठंड से ठिठुरते गरीब भिखारी की जिससे ठंड सहन नहीं हो रही है और बचाव के लिए जब पास के घर के पुरुष मालिक से माँगने पर उसे रजाई या कम्बल की जगह तिरस्कार के शब्द मिले। कितना कठोर होगा वह पुरुष जो किसी को ठंड से ठिठुरते देखकर आराम से आकर रजाई और हीटर की गर्मी में आराम सो सकता है। इसी के विपरीत जैसे ही घर की महिला ने जब वस्तुस्थिति को जाना, वह तुरंत ही घर के बाहर गई और जब पता चला कि वह बेचारा अभी यहीं है, उसने उसके लिए कम्बल निकाला, लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी। हालाँकि यह जानने के बाद कि वह गरीब अब इस दुनिया में न रहा, कल कुछ कम्बल खरीदकर और लोगों में बाँटने की बात करके कुछ संवेदनाएँ जागीं उस पुरुष के मन में लेकिन फिर भी कितनी संवेदन हीनता कि वह फिर से रजाई में सोने के लिए उपक्रम करने लगा। इसके विपरीत उस महिला की आँखों से नींद कोसों दूर थी। इस कथा में बर्फ पिघली जरूर लेकिन अंततः सुखद परिणाम न ला सकी।

लघुकथा 'गिद्ध' में कथानक तो पुराना है लेकिन प्रस्तुति में नयापन है। इसे एक कुप्रथा या सामाजिक कोढ़ की संज्ञा दी जाए कि जो लोग अपने-अपनों के जीते जी काम नहीं आते हैं वे उनकी खेती, चल-अचल संपत्ति पर किस तरह से निगाह गढ़ाए रहते हैं। इसमें खून के रिश्ते तो पीछे रहते ही नहीं हैं, वे भी उम्मीद बनाये रहते हैं जो बेगाने होते हैं। समाज की गिद्ध दृष्टि को दर्शाती सुंदर कथा है - गिद्ध।

साहित्यकार ज्यादातर वही लिखता है जो उसने या तो खुद जिया होता है या उसके बहुत ही पास घटा हुआ होता है, जिसे उसने बहुत गहनता से महसूस किया हुआ होता है। ऐसे में पाठकों को यह संशय हो जाना कि कहीं यह लेखक का खुद का अनुभव तो नहीं है, कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यह तब और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है जब यह बात किसी प्रेम या श्रृंगार रस के कवि, शायर, गीतकार आदि के संदर्भ में हो। ऐसा ही कुछ हुआ है लघुकथा 'मरी हुई बर्र का डंक' की मुख्य पात्रा जो कि एक कवियत्री है जो प्रेम पर लिखती है। पुत्र ने पूछा सो पूछा, जब अंतरंग छड़ों में पति भी पूछने लगे कि क्या तुम्हारा शादी से पहले कोई प्रेम-संबंध था? क्योंकि ये रचनाएँ ज्यादातर उसी दौरान की हैं जब वह कॉलेज में थी तो पत्नी को गुस्सा आना स्वाभाविक सा है। कथा के अंत में जो परिदृश्य लिखा है वह काव्यात्मक बन पड़ा है। जैसे - 'रात काफी गहरा चुकी थी। पति के दिमाग से अंधेरे छँट चुके थे और उसके आलिंगन में कुछ अधिक ही गर्माहट आ गई थी।'
आगे फिर देखिए - 'शांत समुद्र में तूफान आया और चला गया। लहरों में थपेड़े खाती नाव हिचकोले खाने के बाद डूबने से बच गई थी।' उपर्युक्त शब्दों से युक्त परिदृश्य न केवल लेखिका के शाब्दिक कौशल का परिचय देते हैं अपितु उनके साहित्य में कवित्व की उपस्थिति को भी पाते हैं। इस कथा का शीर्षक कथावस्तु की थोड़ी सी चुगली करता मालूम पड़ता है। हालाँकि काव्या ने बड़े ही हाजिर जबाबी से पति को यह कहकर संतुष्ट कर दिया कि उसे यह सब करने का समय नहीं था लेकिन शीर्षक यह इशारे करता है कि कहीं-कुछ हुआ था जो परवान न हुआ। प्रेम अनुभूतियों को अनुभव करने के लिए उस रास्ते चलना ही पड़ता है चाहे फिर मंजिल मिले, ना मिले।

सविता जी की कथाओं में स्त्री विमर्श प्रमुख है जिनमें उसकी समस्याओं को उकेरा गया है। उनके प्रमुख पात्र महिलाएँ हैं जिनके चरित्र बहुत मजबूत हैं और स्त्री पक्ष के विराट रूप को प्रस्तुत करते हैं। जहाँ कई लघुकथाओं के शीर्षक बहुत अच्छे हैं वही एक-आध पर पुनर्विचार करके उन्हें बेहतर किया जा सकता था।

डॉ रजनीश दीक्षित