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Friday, July 26, 2019

हिन्दी लघुकथा प्रासंगिकता एवं प्रयोजन

अपनी समझ अपनी समझ के तहत पुस्तक समीक्षा 
"हिन्दी लघुकथा प्रासंगिकता एवं प्रयोजन"

हिन्दी लघुकथा - प्रासंगिकता एवं प्रयोजन। जी हाँ, यही है इस पुस्तक का नाम जो अभी नई-नई पाठकों के हांथों में आई है। इस पुस्तक की संपादिका हैं डॉ मिथिलेश दीक्षित जी। 

आज सर्वविदित है कि लघुकथा विधा किसी परिचय की मोहताज नहीं है। इसके बाबजूद आज भी कुछ दूसरी विधाओं के लेखक और विद्वान इस विधा के औचित्य और भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते मिल जाएंगे। उनका सोचना है कि यह चंद पंक्तियों की रचना भी क्या साहित्य की एक प्रमुख विधा हो सकती है? किसी भी आलोचना के एक से अधिक पहलू होते हैं अतः लघुकथा की आलोचना को भी सामान्य तरह से ही लेना श्रेयस्कर होगा। संभवतः इस आलोचना के पीछे उनकी चिंता लघुकथा का उनकी विधाओं पर आधिपत्य के संकट के रूप में हो लेकिन हकीकत इससे काफी दूर है। लघुकथा की प्रासंगिकता यह भी है कि आज बहुत से उपन्यासकार, कहानीकार व अन्य विधाओं के लेखक भी लघुकथायें लिख रहे हैं। लघुकथा के प्रति दुराव या संकीर्ण सोच का कोई ठोस आधार किसी के पास नहीं है। दरअसल, लघुकथा किसी विधा को खत्म करने नहीं बल्कि दूसरी विधाओं को सम्बल देने आई है। आज एक अफवाह है जिसमें आंशिक सच्चाई भी है कि आज हिन्दी साहित्य पाठकों की कमी महसूस कर रहा है। यह आंशिक रूप से सही है। पाठकों का किसी भी साहित्य से अरुचि का कारण स्वयं लेखक और उनका लिखा हुआ साहित्य है। जब पाठक को साहित्य के नाम पर कचरा परोसा जाएगा तो इस कचरे को कोई भी पाठक अधिक समय तक पचा नहीं पाता है, खासकर तब जब यह साहित्य बड़ा और उबाऊ हो। यहाँ बड़ा से तात्पर्य कहानी और उपन्यासों से है (हालांकि अच्छी पुस्तकों की हर विधा और भाषा में मांग हमेशा रहती है)। इसी नीरसता के माहौल को हल्का करने, पाठकों को साहित्य से सरोकार और संबंध बनाने का काम करती है, लघुकथा। लघुकथा अपने सुडौल आकार, बनक-ठनक और 'सीधी बात - बिना बकवास' के कारण पाठकों तक सीधी अपनी पैठ बनाती है और उनकी प्रिय बन जाती है। यहीं से फिर शुरू होता है पाठकों का साहित्य से जुड़ाव। आज का माहौल आपाधापी वाला है, समय की किल्लत है तो ऐसे में भी जो पाठकों को अपने से जोड़े रहती है, वह है लघुकथा।

आकर्षक आवरण और साजसज्जा के साथ 100 पृष्ठीय यह पुस्तक अपने आप में एक ग्रंथ सरीखी है। इस पुस्तक को ग्रंथ कहने के पीछे कुछ कारण हैं : 
पहला तो यह कि इस पुस्तक को ग्रंथ बनाने में जिन 34 मनीषियों ने अपना योगदान दिया है उनमें संपादिका सहित लघुकथा जगत के अग्रणी पंक्ति के लोग हैं। संदर्भ के लिए कृपया संलग्न अनुक्रमणिका  देखें। इन विद्वानों/विदुषियों को पढ़ा जाना, सुना जाना किसी भी लघुकथा और साहित्य प्रेमी के लिए वरदान और सौभाग्य सदृश होता है। यहाँ यह लिखना आवश्यक भी है कि इन पारखियों के सानिध्य में मेरे जैसे विद्यार्थी को भी कुछ लिखने का अवसर मिला जिसके लिए मैं संपादिका जी का ह्रदय से आभारी हूँ।


दूसरा - संभवत: हिन्दी लघुकथा के बारे में इस तरह का काम पहली बार इतनी संजीदगी से हुआ है जहाँ पाठकों को एक ही स्थान पर लघुुकथा के बारेे में सिर्फ परिचय ही नहीं अपितु इसके भूूूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में, इसकी प्रासंगिकता और प्रयोजन केे  बारे में भी सही, सटीक और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध हो रही है। निश्चित रूप से यह पुस्तक लघुकथा के शोधकर्ताओं के लिए एक अच्छी सहायक पुस्तक का काम करेगी।

पुस्तक को संपादक महोदया ने डॉ कमलकिशोर गोयनका जी को समर्पित किया है। संपादिका जी के प्राक्कथन के बाद आरंभ होते हैं पुस्तक में निहित आलेखों के मूल बिन्दु। इन मूल बिन्दुओं में सभी लेखकों के आलेखों के निचोड़ लिखे हैं। इन बिंदुओं को अगर पुस्तक की कुंजी कहा जाय तो अतिश्योक्ति न होगी। जहाँ पाठक को इन बिंदुओं को पढ़कर तुरंत पुस्तक की गंभीरता के बारे में पता चल जाता है वहीं वह पुस्तक को प्राप्त करने और पढ़ने के लिए भी प्रेरित होता है। यह कुछ उसी तरह से है जैसे एक कुशल गृहिणी जब हांडी में चावलों के पकने का अंदाज लगाती है तो उसे सभी चावल देखने की आवश्यकता नहीं होती है अपितु एक-दो चावलों के नमूनों से ही वह सहजता से निर्णय ले लेती है।

इन बिंदुओं के बाद ही आरंभ होते हैं लेखकों के सारगर्भित आलेख।

मैं इस पुस्तक की संपादक आदरणीया मिथिलेश दीक्षित जी और सभी लेखकों को इस उपयोगी पुस्तक को पाठकों तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद, बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। उनके इस सफर में सहायक बने प्रकाशक निखिल प्रकाशन को सुंदर मुद्रण के लिए बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।


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