(मूलतः यह पोस्ट मैंने अक्टूबर २०१८ में लिखी थी।)
...जैसा कि मैंने इशारा किया था, आज मौका मिल ही गया। हालांकि मैंने लघुकथा कलश के द्वितीय महाविशेषांक की लगभग सभी लघुकथाएं पढ़ ली हैं लेकिन उन पर कुछ प्रतिक्रिया दूं, उस तरह से आज आदरणीया अंजना बाजपेई जी की लघुकथा 'सुनहरी शाम' और आदरणीया अंतरा करवड़े जी की तीन लघुकथाएं 'शाश्वत', 'तराजू' और 'आवरण के भीतर' पढ़ ही डाली। सोचा कुछ लिखूं इन पर। अपनी समझानुसार कुछ इस तरह से लिखा.....
(नोट: यह जानने के लिए कि आपकी कथा/कथायें मुझे कितनी समझ आईं, मेरी दीवार पर गाहे-बगाहे झांकते रहिये। 'मेरी समझ' में जो भी लिख रहा हूँ, यह वास्तव में मेरी समझ ही है, इसके इतर कुछ भी नहीं।)
लेखिका - अंजना बाजपेई
लघुकथा - सुनहरी शाम
सुनहरी शाम - आज के नवयुवकों को यह संदेश देती हुई कि नौकरी ही एक मात्र विकल्प नहीं है, परिवार का व्यापार भी आगे बढ़ाया जा सकता है। पुस्तैनी काम करने में झिझक कैसी?
कथा में बीच में तारतम्य टूट सा गया था। दोस्त चाट का ठेला देखकर खुशी से उछल पड़े, दुकानदार चाट भी बनाने लगा लेकिन वह बिना चाट खिलाये ही आगे बढ़ गया। हालांकि इसका कथानक पर कोई असर नहीं पड़ा लेकिन पाठक तो सोचता ही है कि चाट का क्या हुआ? खासकर तब जब पाठक भी चाट खाने का शौक रखता हो।
अंजना जी को अच्छी लघुकथा के लिए बधाई और शुभकामनाएँ।
लेखिका - अंतरा करवड़े
अंतरा जी ने इस लघुकथा में अच्छी तरह से संदेश दिया कि जीवन की सच्चाई का आत्मज्ञान फ़क़त तपस्या, साधना आदि से संभव नहीं है। यह तो व्यक्ति के अनुभवों का निचोड़ होता है। लघुकथा पढ़ते पढ़ते अचानक भगवान बुद्ध की याद आ गई कि कैसे वह जीवन के विभिन्न पड़ावों को देखते हैं, उनके मन मे प्रश्न उठते हैं और फिर अंततः उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। लेकिन यह 'दिव्य ज्ञान' क्या था? यह शायद ही किसी ने शब्दों में पूर्णरूप से पिरोया हो। यह तो आत्मज्ञान ही होता है जो परम निजी भी होता है और शाश्वत भी।
लेखिका - अंतरा करवड़े
लघुकथा - तराजू
आपकी दूसरी रचना 'तराजू' आज के कामकाजी दौर की असलियत है। अगर पुरुष कामकाजी है तो उस पर घर के काम की कोई जिम्मेवारी अमूमन नहीं होती है मगर महिलाओं के लिए जैसे काम करना उनका अतिरिक्त काम है और घर का काम तो प्रथम और सबसे ज्यादा जरूरी है। इस आपाधापी के दौर में संतुलन जरूरी हो जाता है। इसी संतुलन को बताती सुंदर लघुकथा बन पड़ी यह।
लेखिका - अंतरा करवड़े
लघुकथा - आवरण के भीतर
मनुष्य मन है ही क्या? भावनाओं का गठ्ठर। जो कई आवरणों के भीतर बना रहता है। जब कुछ दिनों पहले मैंने लघुकथा कलश के सुंदर संपादकीय पर अपना पक्ष रखा था तो संपादक आदरणीय श्री Yograj Prabhakar जी और सह संपादक आदरणीय श्री Ravi Prabhakar जी ने उस पर एक वक्तव्य में लिखा था कि "दिल से की गई बात या अभिव्यक्ति, दिल तक जरूर पहुँचती है"। यही हुआ इस तीसरी लघुकथा 'आवरण के भीतर' के प्रमुख पात्र मुन्ना के साथ। कथा में व्यक्त घटना के अवसर पर समाज में अक्सर लोग लच्छेदार बातें कहकर अपनी औपचारिकता भरी संवेदनशील बातें कर तो देते हैं लेकिन जिसपर ये आघात हुआ होता है उसके लिए इन सबको सुनकर अपने को धीरज दिलाना मुश्किल रहता है। यही जब इसके इतर वास्तविक भावनाओं का संबल मिलता है तो अंदर बसा हुआ सारा दुःख फफककर बह जाने को तत्पर हो जाता है। हालांकि यह किसी भी तरह से दुःखों के पहाड़ को छोटा तो नहीं करते लेकिन जरूर सांत्वना के असली मलहम से दर्द को कम जरूर करते हैं।
अंतरा करवड़े जी को उपर्युक्त तीनों सुंदर लघुकथाओं के लिए बहुत बधाई।
अभी के लिए इतना ही। जैसे जैसे समय मिलेगा, कुछ और पढूंगा फिर कुछ और लिखूंगा।
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