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Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अमरेन्द्र सुमन)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय अमरेन्द्र सुमन जी। आज उनकी लघुकथा 'मुड़कटवा' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - अमरेन्द्र सुमन
लघुकथा - मुड़कटवा
..... बिल्ली आ जाएगी, जूजू आ जाएगा, बन्दर, डॉगी और यहाँ तक कि भूत-चुड़ैल आदि का डर दिखाकर अक्सर दादी, माँ या परिवार के अन्य लोग नौनिहालों से वह काम करा लेते हैं जिसे वे आनाकानी करते हुए आसानी से नहीं करते और एक बार के कहने पर तो बिल्कुल नहीं।
बच्चों को किसी अनजान जीव या वस्तु का भय दिखाकर बड़ों की इच्छा का काम त्वरित हो तो जाता है लेकिन शायद वे बच्चों के कोमल मन पर होने वाले उसके दूरगामी नकारात्मक परिणामों से जाने-अनजाने अनभिज्ञ रहते हैं। अधिकतर लोगों को तो पता ही नहीं होता कि इन बनावटी चीजों का डर दिखाकर कहीं न कहीं आप उनपर अत्याचार कर रहे होते हैं। उनको स्वच्छंदता से जीने के अधिकार पर अपना अनाधिकार जमा रहे होते हैं। कहते हैं बालक मन कुम्हार की कच्ची गीली मिट्टी की तरह होता है। वह इस मिट्टी को जो आकर देना चाहे दे सकता है। यह मनोवैज्ञानिक बात है। बचपन में जो बात मन में बैठ जाती है वह बालक/बालिका का व्यक्तित्व बनाने में बहुत बड़ा किरदार अदा करती है। यह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर समान रूप से लागू होती है।
अमरेन्द्र जी ने अपनी लघुकथा 'मुड़कटवा' में इसी बात को दर्शाया है। माँ और दादी की मुड़कटवा वाली कृत्रिम बात और उस पर आधारित कहानी ने अंकित के मन में भय बैठा दिया था। उसे डर था कि वह भी कहीं पड़ोस के बच्चे की तरह एकदिन अपने परिवार से अलग न हो जाए। कालांतर में वह बड़ा भी हुआ, बड़ी नौकरी भी मिली, परिवारीजन खुश भी हैं लेकिन अंकित के मन में मुड़कटवा आज भी घर बनाये बैठा है। वह आज भी उसी भय को ढो रहा है। माँ, दादी ने बचपन में उसे गलत जबाब से संतुष्ट किया और माँ के पास अंकित के प्रश्न कि "माँ, मुड़कटवा अब क्यों नहीं आता?" का आज कोई जबाब नहीं है। माँ तो माँ होती है, बड़ी भोली होती है। अंकित के मन के उठते झंझावात से दूर आज भी बचपन में किये गए अपने काम के लिए माँ, बस मुस्कुरा रही है।
....माँ और परिवार के लोगों को आज बहुत ख़ुशी है उसकी बड़ी नौकरी और उपलब्धियों पर लेकिन उन्हें इस बात की संभावना का अंदाजा भी नहीं कि अगर उन्होंने अंकित के मन में बचपन में वह कृत्रिम भय न बैठाया होता तो संभव था कि अंकित और भी ऊंचाइयों को छू रहा होता होता। कौन जानता है?? भय के ढोते हुए जीना कदम-कदम पर कदम पीछे खींचने के विचार देता है।
अमरेन्द्र सुमन जी को उनकी लघुकथा 'मुड़कटवा' के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई।

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