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Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अनवर सुहैल साहब)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं जनाब अनवर सुहैल साहब। आज उनकी तीन लघुकथाओं 'फ़र्क़', 'एक नसीहत और...' और 'छह दिसम्बर के बाद' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - अनवर सुहैल
लघुकथा - फ़र्क़
प्रस्तुत लघुकथा में देश और समाज में व्याप्त धर्म व जाति आधारित भेदवाव और छुआछूत जैसी कुरीतियों को अनवर जी ने बड़े ही मार्मिक ढंग से उकेरा है। हालांकि इन कुरीतियों का आज बहुत हद तक खात्मा हो गया है लेकिन हमारे समाज की समस्या है कि लोग नेताओं की कठपुतली बने हुए हैं। इन समस्याओं को दो तरह से देखना होगा। एक वास्तविक समाज की दृष्टि से और एक सोशल मीडिया पर छाए कृत्रिम वातावरण की दृष्टि से।
अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वास्तविक स्थिति इतनी खराब नहीं है जितनी लेखक ने बताने की कोशिश की है। आज समाज में जातिवाद और धर्म पर आधारित भेदभाव अपना अस्तित्व खो रहा है और बहुत हद तक खो चुका है। लोग जाति और धर्म की दीवारों को ढहाकर आपस में विभिन्न जातियों और धर्मों में विवाह कर रहे हैं, एक साथ बहुमंजिला इमारतों में रह रहे हैं, एक ही स्कूल/विश्विद्यालय में अध्ययन कर रहे हैं।
हाँ, इसका दूसरा, गलत और कृत्रिम पक्ष भी है जो कि सोशल मीडिया पर राजनैतिक सोच के लोगों ने जरूर बनाया हुआ है। इस तरह के माहौल का सीधा सा संबंध उनके अपने फायदे के लिए किया जाता है। इस बात को सामान्य लोगों को भी समझना होगा और जाति-धर्म पर आधारित संगठनों की गंदी और बांटने वाली सोच का हिस्सा बनने से बचना होगा।

दुर्भाग्य से हमारे देश की राजनीति उसके असल मुद्दों पर अधिकांश समय चली ही नहीं। हमारे अधिकतर राजनेताओं ने खुद को विभिन्न जातियों, धर्मों का खुद को ठेकेदार बताकर उनका दोहन किया। उनके वोट तो हड़पते रहे लेकिन लोगों को उनके मूलभूत अधिकारों से उन्हें वंचित रखकर उनकी भावनाओं से खेलकर सिर्फ अपने परिवारों की ही तिजोरियां भरी हैं।
आम जनमानस को राजनैतिक पार्टियों के इस प्रपंच को जितना जल्दी हो समझ लेना चाहिए और उनसे अपने मूलभूत अधिकारों की मांग करना चाहिए। जबतक हम राजनीति के सिर्फ मोहरे बने रहेंगे ये हमें बाँटते रहेंगे। इस पर रोक हमें ही लगानी होगी और हम जितनी जल्दी और रफ्तार से काम करें उतना बेहतर।
ऐसा प्रतीत होता है कि अनवर साहब ने उक्त लघुकथा को वास्तविक स्थिति से इतर प्राचीन काल में व्याप्त कुरीतियों और कृत्रिम रूप से सोशल मीडिया पर चलाये जा रहे छद्म माहौल से लिया है। सम्भव है कि लेखक के अपने अनुभव मेरी उक्त टिप्पणी से मेल न भी खाते हों।
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लेखक - अनवर सुहैल
लघुकथा - एक नसीहत और...

इस लघुकथा में भी अनवर साहब ने उनकी पहली लघुकथा वाले 'भेदभाव' वाले विषय को ही आगे बढ़ाया है। बुजर्गों के अपने अनुभव होते हैं और उनकी किसी भी नसीहत में अपनों की भलाई ही छुपी रहती है। लेकिन कोई भी नसीहत झूठ के आधार पर कितनी टिक पाती है, इस बात का ख्याल भी बुजुर्गों को ध्यान में रखना चाहिए।
प्रस्तुत लघुकथा में अहमद के अब्बा ने उसे नसीहत दे तो दी कि यदि उसका नाम पूछा जाए तो "अरविंद, रमेश, महेश आदि बता दे" लेकिन उन्होंने शायद यह ध्यान नहीं दिया कि यदि उसका यह झूठ पकड़ा जाता है तो उसे अनावश्यक रूप से लोगों के शक का सामना करना पड़ सकता है।
जैसा कि मैंने फ़र्क़ के कथानक पर भी लिखा था, यह कथा भी फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर बनाये गए कृत्रिम माहौल पर आधारित है। यह देश और समाज की वास्तविक तस्वीर नहीं हो सकती।
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लेखक - अनवर सुहैल
लघुकथा - छह दिसम्बर के बाद

इस लघुकथा में भी अनवर साहब ने कमोवेश उसी धर्माधारित विषय को चुना। जैसा कि मैंने उपर्युक्त दो लघुकथाओं के बारे में लिखा है 'छ्ह दिसम्बर के बाद' का कथानक भी आज के 26 साल पहले की घटना पर आधारित है जिसका आज के बदले माहौल से ज्यादा पास का नाता नहीं है।
इसके इतर वास्तविक स्थिति तो यह है कि देश बहुत आगे बढ़ चुका है। भेदभाव की दीवारें दरक रही हैं। लोगों ने बाँटने वाली ताकतों और बातों से मुंह मोड़ना शुरू कर दिया है। 
लोगों ने समझ लिया है कि -

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा। 
- इकबाल

लोग अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की तलाश में बेहतर विकल्प तलाश कर रहे हैं। हमारी कामना है कि हम सब देशवासी मिलजुल कर इन बची-खुची कुरीतियों, ऊंच-नीच आदि को जल्दी ही जड़ से खत्म कर देंगे....इंशाअल्लाह।
उपरोक्त तीनों लघुकथाओं के लिए जनाब अनवर हुसैल साहब को बहुत बहुत मुबारकबाद।

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