शुभ संध्या,
आज मेरे पास गंतव्य तक पहुंचने के लिए लगभग चार घंटे का समय था। जानबूझकर ''लघुकथा कलश' रखी ही थी थैले के ऊपरी खाने में। बैटरी भी लगभग 95% थी तो फिर कर लिया समय का सदुपयोग। 'मेरी समझ' की अगली कड़ी में एक और लघुकथा लेखक श्री अखिलेश शर्मा जी की दो लघुकथायें 'चीरहरण इस बार' और 'संबल' को इस यात्रा में पढ़ने और समझने का प्रयास किया, कुछ इस प्रकार:
लेखक - अखिलेश शर्मा
लघुकथा - चीरहरण इस बार
जैसे ही पढ़ना शुरू किया, पहले तो लगा कि शायद लेखक को महाभारत काल के उस दुःखद दृश्य के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, या लिखने में कोई भूल हुई है पर अगले ही पल मन को समझा लिया कि 'नाम' में क्या रखा है? दरअसल इस लघुकथा में द्वापर युग के 'चीरहरण' से भिन्न, चीरहरण, दुःशासन नहीं, दुर्योधन करने वाला है।
इस बार सब तैयार हैं। आततायी भी, द्रोपदी भी और भगवान भी और तमाशबीन भी। जगदीश्वर तो उस समय भी तैयार थे लेकिन बकौल अखिलेश जी, इस बार उतने तामझाम की गुंजाइश नहीं छोड़ी उन्होंने। कोई मंच पर मंचन तो हो नहीं रहा कि हर बार की तरह फिर सारे वही काम दोहरा दिए जायें। दर्शक अगर सो भी जाये तो क्या फर्क पड़ता है? उसे तो सारी कहानी याद है, सारे किरदार, उनके काम और वक्तव्य।
....पर इस बार कुछ नया है, त्वरित है। पहले भी भगवान का पूरा सहारा था, इस बार भी है। पहले तो चीर को बढ़ाते गए थे लेकिन इस बार इतना श्रम क्यों? इस बार द्रोपदी तुम स्वयं ही सक्षम हो अपनी सहायता के लिए, अपनी रक्षा के लिए। संदेश बड़ा साफ है। गलतियों से सीखो 'निर्भया'। तुम्हारी गलती इतनी ही रहती है कि तुम चुप रहती हो, खामोश रहती हो। लेकिन अब और नहीं। तुम्हें तुम्हारा सम्बल स्वयं बनना है, निर्भया। तो फिर तरकीब अच्छी है। खुद ही सुसज्जित हो जाये नारी। अब वह अबला न रही। सबला बन चुकी है। खुद खड़ी है डटकर, आत्मरक्षा के लिए। आओ, भेडियो, तुम्हें आज ही रौंद देना है। वर्षों बाद #मीटू के खुलासे नहीं होंगे अब। #मीटू के खुलासों की जरूरत भी न होगी। अब तो सीधे परिणाम आएंगे। अभी, आज ही खत्म करने हैं तुम्हारे गलत मंसूबे, अभी आज ही पढ़ाना है पाठ तुम्हें, अभी आज ही लगानी है आग तुम्हारे वहशी इरादों में, ताकि फिर किसी और 'चीरहरण' की नौबत ही न आये।
अखिलेश शर्मा जी ने अपने लेखन कौशल्य से बताया कि समय कोई भी हो, युग कोई भी हो, समाज का विन्यास और महिला की स्थिति बदलने वाली नहीं है।
मशहूर हास्य कवि श्री सुरेंद्र शर्मा जी की कुछ लाइनें याद आ गईं। जिसमें उन्होंने जनता की तुलना त्रेता और द्वापर युग की प्रताड़ित महिलाओं से की है। यहाँ हम थोड़ी देर के लिए जनता को अलग रखते हैं और रचना में दर्ज महिला की विभिन्न युगों में स्थिति को देखते हैं।
कोई फर्क नहीं पड़ता
इस देश में राजा रावण हो या राम,
जनता तो बेचारी सीता है
रावण राजा हुआ तो वनवास से चोरी चली जाएगी
और राम राजा हुआ तो अग्नि परीक्षा के बाद फिर वनवास में भेज दी जाएगी।
कोई फर्क नहीं पड़ता इस देश में राजा
कौरव हो या पांडव
जनता तो बेचारी द्रौपदी है
कौरव राजा हुए तो चीर हरण के काम आयेगी
और पांडव राजा हुए तो जुए में हार दी जाएगी।
~~सही भी है, महिलाओं के लिए समय कभी नहीं बदलता।
प्रस्तुत लघुकथा में आज के समय में फिर से वही दरबार सजा है, उसी कुत्सित मानसिकता से लवरेज मानवों के वेश और भेष में लालची, लंपट, धूर्त, राक्षस मौजूद हैं। और जो इनके इतर हैं उनसे भी एक ही उम्मीद है कि उन्हें तमाशा देखना है, चुप रहना है और मौका लगते ही अट्टहास करना है। तब भी पितामह, मंत्री विदुर, आचार्य द्रोण जैसे विद्वान चुप थे और आज भी स्थिति उससे ज्यादा बदली नहीं है। तब भी ईश्वर का सहारा था और आज भी है। फिर ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है, उसे ही कुछ करना पड़ेगा और उन्होंने फिर शर्मा जी की लेखनी से सशक्त कर दिया द्रोपदी को, निर्भया को....।
इस लघुकथा में अंग्रेजी का एकमात्र शब्द 'प्लान' नहीं भी होता तो चलता था लेकिन अब है तो है।
तीन पात्रों, बढ़िया कथानक और सुंदर संदेश के साथ, अनावश्यक विस्तार से दूर अच्छी रचना।
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लेखक - अखिलेश शर्मा
लघुकथा - संबल
अक्सर हम उम्रदराज लोगों से सुनते हैं कि 'मेरे बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं' यानी उनकी उम्र यों ही बड़ी नहीं हो गई। उन्होंने जिंदगी के बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं और इन्हीं अनुभवों से सीखकर वह जिंदगी में आने वाली समस्याओं से जूझते हैं और मुश्किलों से पार पा लेते हैं। ऐसा ही अखिलेश जी ने लिखा है अपनी दूसरी सुंदर लघुकथा 'संबल' में। मौषम और बूढ़े बृक्ष के संक्षिप्त वार्तालाप में बहुत सुंदर तरीके से बताने का सुंदर प्रयास किया है कि मुश्किलों से घबरायें नहीं। इनसे सीखें और भविष्य में यदि कोई समस्या आती है तो इन्ही से सीखकर समस्याओं का तोड़ निकालें और डटे रहें।
हिन्दी के महान कवि श्री सोहनलाल द्विवेदी जी ने अपनी एक बहुचर्चित कविता में भी बहुत सुंदर संदेश दिया है। उनकी उस सुप्रसिद्ध कविता की कुछ लाइनें आप सब की नज़र :
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
अखिलेश शर्मा जी की उपर्युक्त दोनों लघुकथाओं में 'में' के साथ ज्यादती हो गई। इसे हर जगह 'मे' ही मुद्रित किया गया है। दोनों लघुकथाओं में 'तुममें' का 'में' भी अगर जोड़ लें तो ऐसा कुल 6 बार हुआ है। दूसरी लघुकथा 'संबल' में एक जगह 'हूँ' का 'हुँ' भी हुआ है लेकिन 'की फर्क पेंदा'?
उपर्युक्त दोनों सुंदर लघुकथाओं के लिए आदरणीय अखिलेश शर्मा जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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