.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "अन्नदाता" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - चंद्रेश छतलानी जी
लघुकथा - अन्नदाता
मैंने बहुत पहले एक कविता लिखी थी, उसकी दो पंक्तियाँ :
बरसात में कुकुरमुत्ते जैसे उग आते हैं,
नेता भी चुनावों में वैसे ही बढ़ जाते हैं।
अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इन्हें नेता कहना 'नेता' शब्द का अपमान हैं क्योंकि इनके क्रिया-कलाप इस शब्द के पासंग भी नहीं हैं।
कई साल पहले एक फ़िल्म आयी थी जिसमें कहा गया था कि "बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो अब संसद में बैठते हैं।" राजनेताओं ने अपनी इस छवि को बनाने में बड़ी मेहनत की है। जनता के पसीने की कमाई की जो बंदर-बाँट करते हैं, उसकी जितनी मजम्मत की जाए कम है।
..कहते हैं जंगल में आदमी कितना भी सावधानी से कदम रखे, शिकार की तलाश में बैठे जानवरों को खबर हो ही जाती है। दरअसल, प्रकृति ने उनके उदर पूर्ति के लिए ये हुनर दिया है कि वे अपने शिकार को उसकी गंध और तापमान से दूर से ही पहचान लें और घात लगाकर उन पर आक्रमण कर दें। बिल्कुल यही प्रक्रिया आजकल के राजनेता अपनाते हैं। हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों ने हमेशा जनता को अपने हित साधने के लिए प्रयोग किया है। चाहे वह 1947 में देश के विभाजन की दुःखद घटना हो या उसके बाद से समय-समय पर होने वाले धर्म/मजहब या जाति आधारित दंगे हों। सबके पीछे नेताओं की सत्ता लोलुपता और अपने फायदे ही छुपे रहते हैं। नेताओं ने बड़ी ही चतुरता से देश को जाति-मजहब में बाँटने का काम किया है। आज हालात यह हैं कि मतदाता अपने कीमती मत का प्रयोग इन चालबाजों की बातों में आकर कर रहे हैं और इनकी कुटिल राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं। इन नेताओं ने इसे अपना ऐसा ब्रम्हास्त्र बनाया हुआ है कि जब इसका असर होता है तो न तो जनता को अच्छी शिक्षा चाहिए, न स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए और न ही और कोई विकास।
सुप्रसिद्ध कवि और गीतकार नीरज जी की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं :
"भूखा सोने को तैयार है मेरा देश,
बस उसे परियों के सपने दिखाते रहिए।"
नीरज जी ने यह बात कई दशकों पहले लिखी थी लेकिन आजकल की हकीकत तो यह है कि आप सपने छोड़िए, बस एक मोबाइल, लैपटॉप या साइकिल दे दीजिए।। बस, मतदाता आपका गुलाम। नेताओं के इसी सफलता के अचूक सूत्र ने बहुत से नेताओं को उनकी पीढ़ियों से सत्तासीन किया हुआ है। इन नेताओं के हालात कुछ ही दशक में कहाँ से कहाँ पहुँच गए? इन्होंने बाँटने की राजनीति को इस तरह बोया और काटा कि उनके परिवार का हर सदस्य सत्ता सुख भोगता रहा और देश की जनता के पसीने की कमाई से खुद की झोपड़ी, महलों में बदल ली और आम आदमी का जीवन स्तर नीचे, और नीचे गिरता चला गया।
....प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने आज की राजनीति को देश के अन्नदाताओं से जोड़कर लिखा है। आजकल खेती करना बहुत ही घाटे के सौदा हो गया है। तकनीक की उपलब्धता के बाबजूद आज भी किसान प्रकृति के रहमो-करम पर निर्भर है। प्रकृति को हमने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए बदलने पर इतना मजबूर कर दिया कि अब उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। जंगल के जंगल साफ हो रहे हैं, सड़कों को चौड़ा करने के फलस्वरूप पेड़ों की कटाई लगातार जारी है, नदियों का पानी, कारखानों की गंदगी और रसायन के लगातार मिलने से प्रदूषित हो रहा है। तो ऐसे में किसान करे भी तो क्या करे? सब किसानों की यह क्षमता नहीं है कि वे अपने कुएं खोद लें और पम्प से पानी प्राप्त कर लें और जिनकी यह स्थिति है उन्हें भी पानी के लगातार कम हो रहे जलस्तर से इस सुविधा का लाभ आखिरकार कब तक मिल पायेगा? चलो मान भी लिया जाए कि समय से बारिश हो भी गई तो रही बची कसर पूरी कर देते हैं आवारा जानवर। किसानों की जिंदगी इन समस्याओं के कारण बहुत ही मुश्किल और दयनीय हो जाती है। आजकल खेती से जो पैदावार होती है उसमें किसान की लागत भी नहीं निकलती है। ऐसे में कई किसान समस्या के निदान हेतु या तो किसी बैंक के कर्जदार ही जाते हैं या किसी साहूकार के। दोनों ही हालात में वह कर्ज के चक्रव्यूह से निकलने में अपने आपको असहाय महसूस करता है और फिर उसे इस जहाँ से रुखसत होने का दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठाना पड़ता है।
किसी ने इस तरह के हालात पर कहा है -
चेहरा बता रहा था कि मरा है भूख से,
सब लोग कह रहे थे कुछ खा के मर गया।
चुनावों का मौसम आ चुका था और आज उस किसान की फसल कटी है। वह फसल से हुई उपज और जिंदगी को तौलने की असफल कोशिश में था कि 'गिद्धों' का आना शुरू हो गया। इन्हें आम आदमी की मुश्किलों से कोई मतलब नहीं। आम आदमी की मुश्किलें इनकी बला से। शिकार देखा और अपने धर्म के रंग का तीर चला दिया, "काका, आपका मत मेरा मत। क्योंकि आपका धर्म मेरा धर्म और धर्म की रक्षा हेतु आपका कर्तव्य है कि आप मुझे ही अपना मत प्रदान करें।" .... अब होली चाहे त्योहार के नियत समय पर अपने रूप में कम मनाई जाए लेकिन चुनावों में रंगों का महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें पास आती जा रही हैं, हर रंग वाला, धर्म की रक्षा हेतु खुद को सच्चा ठेकेदार बताते हुए आम आदमी से खुद को चुनने के लिए गुहार करता है। आम आदमी? उसके लिए तो इन रंगों के क्या मायने होंगे जब उसकी जिंदगी में सिर्फ रातें ही नहीं दिन भी स्याह हो चुके हैं।
...लेकिन हमारे देश का किसान या कोई भी मेहनतकश आदमी इन चमचमाती गाडियों में आने वालों की चाशनी से पगी बातों में अपनापन देखता है और उसे लगता है कि यह सब तो अपने ही हैं। सभी उसके साथ हैं, शायद जिन्दगी का सफर इतना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन हकीकत इन सबसे अलग होती है। उसे यह पता भी नहीं चल पाता कि इन रंगों ने अपना काम कब कर दिया? चारों तरफ अपने ही तरह और उन्हीं रंगों में रंगे लोगों का हित शायद सिद्ध हो चुका है। अब बस आखिरी निर्णय और वह अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर चुका है। एक ऐसे गन्तव्य की ओर जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता, अन्नदाता भी नहीं।
**
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
No comments:
Post a Comment