'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनीता मिश्रा 'सिद्धि' जी। आज उनकी लघुकथा 'टूटा चश्मा' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखिका- अनीता मिश्रा 'सिद्धि'
लघुकथा - टूटा चश्मा
...अब पश्चाताप करने से क्या होगा? वो कहावत है ना, अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत।
पता नहीं, कहाँ से प्रथा चली कि श्राद्ध के समय हमारे पुरखे कौए के रूप में आकर खीर-पूड़ी, मेवा आदि खाने आते हैं और खुश होकर हमें आशीर्वाद देते हुए स्वयं मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं और हमारे स्वर्ग जाने का रास्ता पक्का कर जाते हैं।
अगर इन बातों में जरा भी कोई वैज्ञानिक तथ्य होता और सच्चाई से जर्रा भर भी नजदीकी होती तो आज कौओं की नश्ल खत्म होने के कगार पर न होती। पुरखे, कौओं के रूप में जन्म लेकर उनकी संतति का संतुलन बनाये होते।
...और न ही किसी समृद्ध पंडित-पुजारी को खिलाने-पिलाने और दान देने से हमारे पुरखों को तृप्ति और सद्गति मिलने वाली है। लोग दुनिया के आडंबरों की भेड़चाल में भले ही ये सब करते रहें लेकिन यदि उन्होंने पुरखों को जीते जी खुशियां न दी हों तो फिर उन्हें वास्तविक आत्म संतोष नहीं मिल सकता।.... और यही हुआ इस लघुकथा के नायक करन के साथ।
उसने पितृ-पक्ष सप्ताह में मातृ-तिथि को ब्राम्हणों को खाना खिलाया, दान-दक्षिणा दी लेकिन असली संतुष्टि नहीं मिली। मिलती भी तो कैसे? जो बेटा जीते जी अपनी माँ का चश्मा ठीक नहीं करा सका, उनसे प्यार के दो बोल नहीं बोल सका। जिसकी पत्नी ने माँ को चश्मे के अभाव में देख न पाने के कारण काम करते वक्त हुई छोटी-मोटी गलतियों पर खरी-खोटी सुनाई हों, उन्हें जलील किया हो, उनके मरने की कामना की हो, ऐसे में उनके इंतकाल के बाद इन ब्राम्हणों को पूजने से क्या मिलने वाला है? कुछ भी तो नहीं।
....इस कथा में भी विवशता से जिंदगी को कढ़ोरती हुई बुढ़िया माँ के साथ वही हुआ जो अक्सर बुजुर्गों की अपनों द्वारा अनदेखी करने पर होता है। बेटे-बहू के चश्मा ठीक न कराने से बेचारी माँ बिना चश्मा के एक दिन दुर्घटना का शिकार हो काल का ग्रास बन गई। दवाख़ाने जाते समय जब उनको थोड़ा सा होश आया तो उस हालात में भी उनके मन में बहू-बेटे की झिड़कियों का भय और मन में पनपा अपराध बोध उनके शब्दों में साफ झलकता है। वे बेचारी गंभीर घायल अवस्था में थीं, फिर भी यह कहते हुए कहीं क्षमा प्रार्थी सी लग रही थीं कि, 'टूटे चश्मे की वजह से आज मैं जल गई, देख ना सकी आग को'....
इस लघुकथा में बड़ी ही स्पष्ट सीख है कि माँ-बाप, बुजुर्गों की जो भी सेवा करनी है, जो प्यार देना है, जो खिलाना-पिलाना है, उन्हें उनके जीते जी देदो। उनके इस दुनिया से जाने के बाद कौओं और पंडो-पुजारियों की तोंद बढ़ाने से कुछ न मिलने वाला है। न आशीर्वाद, न संतुष्टि सिवाय पश्चाताप के।
अनीता मिश्रा सिद्धि जी को इस सीख भरी सुन्दर लघुकथा के लिये बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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(टिप्पणी - उक्त 'मेरी समझ' में श्राद्ध आदि के समय पर किये गये सामाजिक भलाई के कार्यों जैसे गरीबों को भोजन कराना, उनके इलाज, पढ़ाई-लिखाई, कपड़ों-लत्तों का प्रबंध करना, आदि का कतई विरोध नहीं है।)
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