'मेरी समझ' की आज की कड़ी में लेखक हैं आदरणीय गणेश जी बागी जी । आज उनकी लघुकथा "आस्तीन का साँप" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - आस्तीन का साँप
लेखक - गणेश जी बागी जी
शब्द संख्या - 107
आज तकनीक और सूचना औद्योगिकी के बाद भी यह एक बड़ी समस्या है कि देश के दुश्मन अपने घृणित कारनामों में कामयाब हो जाते हैं और हम सिर्फ हाथ मलते रह जाते हैं। आज आतंकवाद केवल भारत की ही समस्या नहीं है अपितु यह एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बानी हुई है। लगभग सभी देश किसी न किसी रूप में इसकी गिरिफ्त में हैं। प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या पर आधारित उस विषय को लिया है जिसमें आतकवादियों को पड़कना एक बड़ी समस्या है। यह तो तब है जब इन गतिविधियों और उनके संचालकों के सुराग पता लगाने के लिए सम्बंधित विभाग बड़े-बड़े इंतजामों के साथ लगे हुए हैं जिसमे हर तरह की तकनीक और अकूत धन का उपयोग किया जाता है। इन सबके बाद भी उपलब्धता के नाम पर ज्यादा बार असफलता ही हाथ लगती है। इन असफलताओं के बहुत कारण हैं लेकिन जो एक बड़ा कारण है वह है ऐसे आतंकवादी तत्वों के समर्थकों का होना। इस लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या को रेखांकित किया है। इसका जीता जागता उदाहरण कश्मीर की समस्या है। वहाँ के कुछ तथाकथित भटके हुए लोग दाना-पानी तो हमारे देश का खाते हैं लेकिन आतंकियों के लिए ढाल का काम करते हैं। ऐसे लोगों को आस्तीन का साँप न कहा जाये तो क्या कहा जाये?
बिना लाग-लपेट के 107 शब्दों में समाहित प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने समस्या का कथानक तो अच्छा लिया लेकिन कथ्य तार्किक नहीं बन पाया है। जैसे, जब अधिकारी ने मिस्टर सिंह से पूछा कि आप पिछले छः माह से उस आतंकवादी को पकड़ने में लगे हैं जिसका सुराग भी यह मिला था कि वह पडोसी देश में है लेकिन आपकी प्रगति शून्य क्यों है।" .. तो यहाँ यह प्रतीत होता है कि या तो साहब नए-नए हैं या शायद साहब सीधे छः महीने बाद ही अपने मातहतों से मिल रहे हैं। बीच में कोई संवाद ही नहीं हुआ। और जैसे आतकवादी के बारे में अगर यह पता चल जाये कि वह किस देश में है तो उसे पकड़ना तो जैसे बायें हाथ का काम है। दूसरा, मिस्टर सिंह का भी जबाब भी उन्हीं की तर्ज पर है, "कि अगर वह आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो वे जिन्दा या मुर्दा उसे महज दो दिन में पकड़ सकते थे लेकिन...." जैसे मिस्टर सिंह भी पिछले छः महीने से इस सवाल का ही इन्तजार कर रहे थे और अभी तक यह सूचना ऊपर तक नहीं पहुंची थी कि वह खूंखार आतंकवादी पड़ोसी देश में न होकर अपने देश में ही है। .... वैसे मिस्टर सिंह के इस जबाब का भी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है कि अगर आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो उसे जिन्दा या मुर्दा दो दिन में पकड़ लेते। यह न केवल हास्यास्पद है अपितु सफ़ेद झूठ भी है। यह तो सभी को पता है कि कितने ही नामी गिरामी आतंकवादी हमारे पडोसी देशों में पनाह लिए हुए हैं और दो दिन तो छोड़िये, दशकों से उनको पकड़ने के नाम पर शिफर ही हासिल हुआ है।
लघुकथा में उपर्युक्त विरोधाभास होते हुए भी इस बात से कतई असहमत नहीं हुआ जा सकता कि हमारे देश में आस्तीन के साँंप बहुतायत में हैं। चाहे वह बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं के अवैध रूप से भारत में घुसपैठ और बसने का मामला हो, सजायाफ्ता आतंकियों के जनाजे में शामिल होने की बात हो, उनकी फांसी की सजा को माफ़ करने वाली अपीलें हों या फिर दिल्ली के एक विश्विद्यालय में देश विरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन हो। इन सभी मामलों में हमारे देश में बड़ी संख्या में उसके समर्थक मौजूद हैं। इसके साथ इस रचना की यह विशेषता भी रही कि इसमें जो दो अधिकारीयों के बीच संवाद हुआ है उसमें नाम (अधूरा ही सही) केवल मिस्टर सिंह का ही आया है। दूसरे बड़े अधिकारी के नाम का जिक्र भी नहीं है फिर भी उपस्थिति का एहसास नाम की अनुपस्थिति में भी उतना ही हुआ है। ...आखिर ख़ुफ़िया तंत्र के बड़े अधिकारी हैं, उनके नाम आधे अधूरे या पूरी तरह से गुप्त रखने ही चाहिए। यह और कुछ नहीं, लेखक की कलम की कुशलता ही है।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
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