'मेरी समझ' की अगली कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "दंगे की जड़" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - दंगे की जड़
मैंने बचपन में एक बड़ी ताई जी के बारे में सुना था कि उनको अक्सर लोगों से झगड़ने की आदत थी। लोगों से किस बात पर झगड़ा करना है, उनके लिए कारण ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक बार की बात है कि कुछ लड़के गली में गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अचानक एक लड़के ने गुल्ली को बहुत दूर तक पहुंचा दिया। बस ताई जी ने लड़कों को आड़े हांथों ले लिया। बोलीं, "खेलना बंद करो"। जब लड़कों ने कारण पूछा तो बोलीं, "अगर मेरी बेटी आज ससुराल से घर आ रही होती तो उसको चोट लग सकती थी।" बेचारे लड़के अपना सिर खुजलाते अपने घरों की ओर चले गए। लड़कों को पता था कि यदि बहस में पड़े तो दंगे जैसे हालात हो सकते हैं।
...आज हमारे देश में ऐसी ताइयों की कमी थोड़े ही है। इस स्वभाव के लोगों को राजनीति में स्वर्णिम अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। आखिर इसी की तो कमाई खा रहे हैं लोग। सुना है अंग्रेजों ने हमारा देश 1947 में छोड़ दिया था लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जाते-जाते वे हमें "फूट डालो और राज करो" का मंत्र सिखा कर गए। इसका अनुसरण करने में फ़ायदे ही फायदे जो हैं। इसके लिए नेताओं को कुछ खास करना भी नहीं है। पांच साल सत्ता का सुख भोगिये और चुनाव से पहले धर्म-जाति के नाम पर शिगूफे छोड़िए, बहुत संभावना है कि अगली सरकार आपकी ही बने। हाँ, यह उनकी दक्षता पर निर्भर करता है कि किसने कितनी बेशर्मी से इस मंत्र का प्रयोग किया। 'जीता वही सिकंदर' वाली बात तो सही है लेकिन जो हार गए वह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन्होंने भी आजकल बगुला भगत वाला चोला पहना हुआ है।
मैंने एक पंडित जी के बारे में सुना है कि वे बड़े ही धार्मिक और पाक साफ व्यक्ति हैं। वह केवल बुधवार को ही मांस-मछली खाते हैं, बाकी सब दिन प्याज भी नहीं। लेकिन बुधवार को भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जब मांस-मछली का सेवन करते हैं तो जनेऊ को उतार देते हैं और बाद में अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद ही जनेऊ पहनते हैं। इन्हें संभवतः अपने धर्म की अच्छाईयों के बारे में न भी पता हो लेकिन दूसरे धर्मों में क्या बुराइयां हैं, इन्हें सब पता है। यह हाल केवल या किसी एक धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के नहीं हैं। कमोवेश यही हाल सब जगह है। इस तरह के पाखंडियों का क्या कहिये? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे पाखंडी लोगों के बड़े-बड़े आश्रम हैं, मठ हैं, इज्जत है, पैसा है और भक्तों की बड़ी भीड़ भी है। अब ऐसे ही चरित्र वालों को जगह मिल गयी है राजनीति में। वर्तमान समय में राजनीति में धर्म है या धर्म में राजनीति, यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि इनका गठजोड़ रसगुल्ले और चाशनी जैसा हो गया है। खैर...
यह बात किसी के भी गले नहीं उतरेगी कि आखिर रावण के पुतले को आग लगाने वाला सिर्फ आतंकवादी इसलिए करार दिया गया क्योंकि वह किसी और धर्म का है। सुना है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता तो फिर बुराई खत्म करने वाले का धर्म कैसे निश्चित हो गया। और वैसे भी जब रावण बुराई का प्रतीक है तो फिर उसका धर्म कैसे निश्चित हो गया? और इस तर्ज पर यह जरूरी क्यों है कि आप उसे किसी धर्म का माने? और जो बुरा व्यक्ति जब आपके धर्म का है ही नहीं तो फिर उसे किस धर्म के व्यक्ति ने मारा? इस प्रश्न का औचित्य ही क्या रह जाता है? लेकिन नहीं, साहब। ये तो ठहरे राजनेता। इन्हें तो मसले बनाने ही बनाने हैं। कैसे भी हो, इनके मतलब सिद्ध होने चाहिए।
वैसे भी आजकल रावण दहन के प्रतीकात्मक प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं रह गया है उल्टे अनजाने ही सही वायु प्रदूषण का कारण बनता है सो अलग। क्योंकि जिनके करकमलों द्वारा इस कार्य को अंजाम दिया जाता है, उनके अंदर कई गुना बड़ा रावण (अपवादों को छोड़कर) दबा पड़ा है। रावण का चरित्र तो कम से कम ऐसा था कि उसने सीता को हरण करने के बाद भी कभी भी जबरन कोई गलत आचरण नहीं किया और वह इस आस में था कि एकदिन वह उसे स्वीकार करेंगी लेकिन क्या आजकल के धर्म या राजनीति के ठेकेदारों से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं।
....तो फिर क्या आपत्ति है? और यह जानने की भी आवश्यकता क्या है कि रावण को किसने जलाया? क्या यह काफी नहीं है कि रावण जला दिया गया? यह जरूर काफी होगा उस सामान्य जनमानस के लिए जिसे बुराईयों से असल में नफरत है। लेकिन ये ठहरे नेता। इन्हें तो मजा ही तबतक नहीं आता जबतक समाज में जाति-धर्म के नाम पर तड़का न लगे। आदमी की खुशबू आयी नहीं कि सियार रोने लगे जंगल में, टपकने लगी लार। माना कि पुलिस ने उस तथाकथित आतंकवादी को पकड़ भी लिया है तो यह तो पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी तरफ से तफ्तीश करें और जो कानूनन ठीक हो, उसके हिसाब से सजा मिले। लेकिन....फिर वही। यही तो राजनीति का चारा है। इतिहास गवाह है कि कितने ही अनावश्यक दंगे इन राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए कराए हैं। लेकिन...इनका अपना जमीर इनका खुद ही साथ नहीं देता है। ये तो अपने खुद के कर्मो से अंदर ही अंदर इतने भयभीत हैं कि इनकी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि ये किसी पाक-साफ आदमी से नजर मिलाकर बात भी कर सकें। आखिर साधारण और सरल आदमी को मंदबुद्धि भी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अंदर छल और प्रपंच नहीं होता। लेकिन बुराई को पहचानना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता। उसके लिए हमारा समाज ही बहुत है। तभी तो उस मंदबुद्धि के बालक ने बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जला डाला था। जब वह मंदबुद्धि ही था तो संभव है कि उसे अपने धर्म का भी न पता हो लेकिन अच्छाई और बुराई का ज्ञान किसी भी धर्म के व्यक्ति को हो ही जाता है। इसके लिए किसी खास बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। उसने रावण को जला डाला और छोड़ दिया अनुत्तरित प्रश्न, इस स्वीकरोक्ति के साथ कि "हाँ, मैंने ही जलाया है रावण को। क्या मैं, राम नहीं बन सकता?"
यह ऐसा यक्ष प्रश्न है कि अगर इसका उत्तर खोज लिया है तो "दंगे की जड़ों" का अपने आप ही सर्वनाश हो जाये।
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
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