इतना सन्नाटा क्यों है, भाई?
जी, तो जब इससे थोड़ा समय मिलेगा तो आगे की रचनाओं पर भी अपनी खोपड़ी खपाउंगा और जैसा समझ आएगा, फिर लिखूंगा।
कहाँ है सन्नाटा? अरे, लघुकथा कलश का द्वितीय महाविशेषांक जो आ गया था हाथ में। उस दिन डाकिए ✉ के हाथ से जो झपटा था, आजतक न छूटा है हाथ से। मैं तो मोबाइल से फटाफट फोटो-सोटो लेने में खप गया था। तंद्रा तो तब टूटी जब डाकिया मिन्नतें करते हुए बोला, भाई जी, रिसीविंग पर दस्तखत तो कर दो, और भी चिट्ठियां बांटनी हैं।"
उस दिन पहला जरूरी काम हुआ, कि कलश के मनमोहक आवरण के साथ अपनी, अपनी रचना की फोटो फेसबुक को सुपुर्द कर दी। उसके बाद, जब भी समय मिला केवल दो ही काम हुए इस बाबत। पहला... संपादकीय पढ़ा, दूसरा यह देखा कि इसमें हमारे क्षेत्र के कौन कौन से लेखक हैं जिनसे संपर्क किया जा सके और इस क्षेत्र में हिन्दी साहित्य की पताका और ऊंची की जाए। मेरे अलावा कुल तीन सज्जन और मिले। हालांकि मेरा चलभाष इस विशेषांक का हिस्सा नहीं बन सका (अब ये जरूरी तो नहीं कि बिल्ली के भाग्य से पूरा ही छींका टूट जाये) लेकिन बाकी तीन लेखकों का चलभाष नम्बर तो लिखा ही मिल गया। पहले साहब Ashish Dalal जी, जो कि हमारे ही शहर से हैं, से बात हुई, परिचय हुआ, साहित्य पर संक्षिप्त चर्चा हुई और फेसबुक पर "चट परिचय-फट मैत्री" भी हो गई। इस आशातीत सफल बातचीत/मित्रता के बाद फिर दो जगह और फोन किया। एक साहब से बात करना मुमकिन ही न हुआ क्यों कि उन्होंने किसी कारणवश फोन नहीं उठाया और तीसरी जगह भी थोड़ी बात हो ही गयी, खैर...
अब आते हैं, मुख्य मुद्दे पर। जी हाँ, मेरे दूसरे काम पर। मतलब....संपादकीय पर। एक बार, दो बार, तीन बार....अब तो गिनती भी याद नहीं कि कितनी बार। बस पढ़ता ही रहा। हर बार सोचता कि अब लघुकथाएं भी पढ़ी जाएं लेकिन मीटर हर बार अटक जाता था, संपादकीय पर।
जी, यह संपादकीय केवल संपादकीय की औपचारिकता भर नहीं लगी मुझे....यह तो ककहरा है, नियमावली भी है, सलाह भी है, शिक्षा भी है, निर्देश भी हैं, आईना भी है, मतलब पूरी गाइड है, ...जी वही, पूरी की पूरी कुंजी है। खैर...ये सब तो ठीक है कि यह बहुत कुछ है। पर क्या नहीं है? सोचो, सोचो। नहीं मिला न? जी, मिलेगा भी नहीं। इसी वजह से मैं अटका रहा, इस संपादकीय पर। क्योंकि, यह सबकुछ है।
अब...आप हो क्या? कुछ भी हो। नहीं, नहीं उस तरह से नहीं। बड़ी विनम्रता से। मेरा मतलब आप लघुकथा के जिस भी छोर पर हैं, बने रहिये। न लघु होने का मलाल रखिये, न दीर्घ होने का भ्रम पालिये। ध्यान रखिये कि व्यक्ति सदैव विद्यार्थी होता है। सहमत हैं तो ठीक है। नहीं भी सहमत हैं, तो मेरा क्या? मेरा कहने का मतलब है.. कि इसमें सबके लिए कुछ न कुछ है। वह भी 'सबका साथ, सबका विकास' के फलसफे के साथ। विश्वास न हो तो फिर से एक बार गौर फरमा लीजिये, पढ़ लीजिये संपादकीय। अगर लगे, तो मेरी बात की तसदीक़ भी कीजिये। इसे तो फोटोकॉपी कराकर अपनी मेज के पास चस्पा कर लीजिए। सीख लीजिये, बहुत कुछ है इसमें। जी? न, न, कुछ फ़र्क नहीं पड़ता कि आप क्या हो? मतलब उस तरह से नहीं। बड़ी विनम्रता से। आप जो भी हो, आपके लिए भी है, इसमें। बहुत कुछ सीखने, समझने के लिए।
जी, तो जब इससे थोड़ा समय मिलेगा तो आगे की रचनाओं पर भी अपनी खोपड़ी खपाउंगा और जैसा समझ आएगा, फिर लिखूंगा।
तब तक के लिये विदा दीजिये।
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