'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय अरुण गुप्ता जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'बुद्ध की वापसी' और 'मजबूर' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - अरुण गुप्ता
लघुकथा - बुद्ध की वापसी
सीखने और सिखाने की कई विधियां बताई गई हैं लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि खुद करके देखना और जीवंत घटनाएं, जो सामने घटित होती हैं, उनके सामने अन्य विधियां कमतर कारगर हैं। दूसरी एक बात और शिक्षा से जुड़ी है वह यह कि पुस्तकें व्यक्ति की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। वो बात अलग कि आपको पुस्तकों का चयन बड़ी सावधानी से करना होता है।
अरुण गुप्ता जी की लघुकथा 'बुद्ध की वापसी' में उन्होंने घर में आज के आधुनिक परिवेश में बहू-बेटे का बड़ों/बुजुर्गों के साथ होने वाले व्यवहार को दर्शाया है। उनका यह व्यवहार उस समय और महत्वपूर्ण हो जाता है जब बुजुर्ग शारीरिक/ मानसिक बीमारी से त्रस्त हों।
अगर कुछ अपवादों को अलग रख दें तो अक्सर यह भी देखा गया है कि समाज में व्याप्त माहौल से लोग बहुत पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि यह तो होना ही है। जैसे हर सास को अंदेशा रहता है कि उसके लड़के की बहू उससे झगड़ा करेगी ही। बहू भी यही सोच कर आती है कि डोकरी तो चैन से बैठने ही न देगी। और बहुत से परिवारों में ये पूर्वाग्रह ही आपसी मन-मुटाव व झगड़े के कारण बनते हैं।

खैर...कहते हैं ना, अंत भला तो सब भला। अरुण जी ने बड़ी ही कुशलता से बहू को उसके भविष्य की झांकी दिखा ही दी। जैसे ही उसके बेटे ने गौतम के बुद्ध होने के पहले की कहानी पढ़नी शुरू की, उसे एहसाह होने लगा कि एकदिन जीवन के इस पड़ाव से उसे भी गुजरना पड़ेगा जिससे आज उसकी सास गुजर रही है। गौतम और उनके सारथी के वार्तालाप ने जैसे उसके ज्ञान चक्षु खोल दिये हों।
....और जैसे ही उसे इन बातों का एहसास हुआ वह तुरंत सास को सहारा देने के लिए उठती है जो उसी समय लाठी के सहारे से घिसटती हुई शौचालय की तरफ जा रही थी। और ठीक उसी समय....एक और अच्छी बात हुई। जहाँ बहू का हृदय परिवर्तन हुआ, वहीं पोते में भी यह अच्छी भावना दिखी। ..क्योंकि वह अपनी दादी की मदद के लिए अपनी माँ से पहले ही पहुँच चुका था।
लघुकथा का कथानक बहुत सुंदर है। प्रस्तुति में बहू (सुलक्षणा) के पति और पुत्र दोनों को 'बेटे' नाम से संबोधन के कारण शुरू में थोड़ा भ्रम/असमंजस पैदा होता है जो कि क्षणिक है अन्यथा कथा का प्रवाह अच्छा है।
******
लेखक - अरुण गुप्ता
लघुकथा - मजबूर
लघुकथा - मजबूर
इसे मोह की अतिरेकता ही कहेंगे कि व्यक्ति को लगता है कि वह है तो दुनिया है। ये परिवार के जिम्मेदार लोगों की बड़ी निर्दोष सी भावना है। इस भावना में घमंड कहीं लेश मात्र भी नहीं है। वे तो बस चाहते हैं उनके अपने किसी भी परेशानी से बचे रहें।
ऐसा ही मानव सुलभ भावनाओं का अरुण जी ने अपनी दूसरी लघुकथा 'मजबूर' में चित्रण किया है। इसमें एक बाप मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार अपने बेटे को घर से निकाल देता है। इसके पीछे उसकी यह सोच है कि उसका बेटा फिर लौटकर न आये तो शायद वह अपने बेटे की परेशानियों को देख न पाएगा और सुकुन से मर तो सकेगा। पर हर बार फिर उसे ढूंढने भी जाता है कि बेचारा कहाँ भूखा, प्यासा भटक रहा होगा। इसमें एक बाप भावनात्मक तौर पर अंतर्द्वंद से गुजर रहा है। उसे अपनी पत्नी की मौत का दुख भी है, अपने सुकूं से मरने की चिंता भी है, इसलिए बेटे के मरने की सोच रहा है। दूसरी तरफ यह भी सोच रहा है कि उसके मरने के बाद बेटे का क्या होगा? और इन्ही सबके कारण वह स्वार्थी हो गया है।
अरुण जी ने इस कथा में बच्चे की शारीरिक और मानसिक बीमारी की स्थित में सामान्य व्यक्ति की मनोदशा का सुन्दर चित्रण किया है।
ज्ञात हो 'सेरिब्रल पैल्सी' नाम की बीमारी के सफल इलाज की दर कम है और इसका इलाज महंगा भी होगा। संभवतः इसी कारण अति चिन्ताशील होने के बाद भी पिता द्वारा बच्चे की बीमारी का इलाज कराने के प्रयत्न का भी जिक्र नहीं है।
******
उपर्युक्त दोनों सुन्दर लघुकथाओं के लिए अरुण गुप्ता जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
सादर,
No comments:
Post a Comment