'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अम्बुजा मलखेड़कर जी। आज उनकी लघुकथा 'समाज के योग्य' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखिका - अम्बुजा मलखेड़कर
लघुकथा - समाज के योग्य
जितनी बड़ी अट्टालिका हो, जितनी बड़ी प्रिसिद्धि हो, जितना बड़ा नाम हो, उस पर उतनी ही ज्यादा गंदगी की संभावना होती है। स्वाभाविक सी बात है। न उसकी ऊंचाई तक सबकी नजर पहुंचती है और न ही वहां तक नजर उठाने की सबकी हिम्मत। चकाचौंध से फिजाओं में पनपने वाली गंदगी को उसमें छिपने को बड़ी-बड़ी घुमावदार, रंग-बिरंगी और आकर्षक आकृतियों का सहारा जो मिल जाता है। इनकी अंदरूनी सफाई न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है? इनका बाहरी सौंदर्य ही इतना कि भीतर पूछता कौन है? जो बाहर से उसके दीदार से अपने आप को धन्य समझते हैं, उन्हें शायद अंदाजा भी नहीं होता कि उसी आलीशान महल में बड़े भयानक सच अपनी पैठ बनाये बैठे हैं। कभी स्याह रातों में भूले भटके आ तो जाइये उधर। उस भव्य इमारत में रात के अंधेरे में नृत्य करते हैं विषैले सर्प, मौकापरस्त लोमड़ रोते हैं किसी मासूम जानवर की तलाश में, उल्लू और चमगादड़ रात में देखपाने की दिव्य दृष्टि से अपने शिकार की तलाश में जैसे लार टपका रहे होते हैं।
....और इन्ही में से नीले लंपट लोमड़ की शिकार होते होते बची अम्बुजा जी की लघुकथा की मुख्य पात्र सुनंदा। क्यों 'सर' के भेष में उगे हर 'शिकारी' को ताजा-ताजा और स्वादिष्ट मांस ही दिखाई देता है चारों तरफ? क्या इसलिए कि उन्हें अपनी उपलब्धियों के सिवा और कुछ दिखाई ही नहीं देता? क्या वह सोचते हैं कि युगों से पुरुष की वहशी मानसिकता में पिसती रही महिला का आज भी कोई आत्मसम्मान नहीं है? कुछ पोथियाँ जैसे किसी को भी उसके शयनकक्ष तक स्वत: ही खींच लाएंगी? थू है ऐसी विकृत मानसिकता पर।
खबरदार, जंगल के तथाकथित स्वयम्भू 'सर', अब गलतफहमी के शिकार न रहें। सुनंदा के रूप में हिरणियों ने तुम्हारी गुफा में जाकर फंसने वालों के पंजों के निशान पहिचान लिए हैं। उन्होंने देख लिया है कि इस गुफा में जाने वालों के निशान तो हैं, लेकिन वहां से सुरक्षित आने वालों के लिए नहीं? हर किसी को एक ही खूंटे से बांधने की समझ रखने वाले 'सर' को सुनंदा ने पटखनी दे ही दी।
कलई खुलने के बाद भी 'सर' के अंदर का शकुनि हार नहीं मान रहा। कहता है, 'मतलब, तुमने भी मुझे वैसा ही समझा?' लेकिन सुनंदा ने भी शोध 'गूगल से सर्च' करके नहीं की थी। उसे इस शोध यात्रा में तुम्हारे जैसों धूर्तों से भी दो-चार होना पड़ा होगा। और उसकी इस यात्रा की सीख ने उसे किसी की उपलब्धियों की चमक के भ्रमजाल से खुद को बचा लिया।
...और 'सर' के लिए अंगूर खट्टे हो गए।
....शत-प्रतिशत तो नहीं लेकिन कमोवेश हर चमकती चीज से संपर्क ज्यादा रहे तो खुद में चमक आने का भ्रम, त्वचा की रंगत और आंखों की सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ना अवश्यसंभावी है।
प्रस्तुत कथानक तो एक उदाहरण मात्र है। इसी के समानांतर अन्य क्षेत्रों में भी कमोवेश वहशी मानसिकता का सूचकांक ऐसा ही है। यहाँ हेमामालिनी जी का 'बागबान' फ़िल्म का डायलॉग बरबस ही याद आ गया - "महिलाओं के लिए जमाना कभी नहीं बदलता"।
अम्बुजा जी ने अपनी सुंदर लघुकथा के माध्यम से संबंधित क्षेत्र में व्याप्त गंदगी को उजागर कर मासूमों को बड़ी सीख दी है। अम्बुजा जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
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