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Wednesday, September 11, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -3)

लघुकथा - औरंगज़ेब
लेखक - मृणाल आशुतोष जी

हमारे देश में हर दूसरा व्यक्ति अपने आप में एक कुशल चिकित्सक, नेता और उपदेशक होता है जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित मानसिकताओं को ढो रहा होता है। आप रोग बताइए, नुस्खा हाजिर, देश की समस्याओं पर टिप्पणी करवा लो, किसी के चरित्र का निर्धारण तो जैसे चुटकी बजाने जैसा काम है। ऐसे लोग किसी के बारे में भी किसी ज्योतिषी से अधिक जानकारी देते आसानी से मिल जायेंगे। इनको दूसरों के काम की जानकारी, उनके आचरण के बारे में (मुख्यतः कमियाँ) सब पता रहता है। इस तरह के जातकों के पास यदि किसी 'वस्तु' की कमी होती है तो वह है, अपने बारे में जानकारी। यहाँ अपने बारे में जानकारी का अर्थ किसी धर्मयोगी के अनुसार 'खुद को जानने' से नहीं है। इसका अर्थ है कि अपने काम, व्यवहार के बारे में उन्हें कुछ पता नहीं है, यह भी नहीं कि क्या उनमें मानवीय संवेदनाएं निहित हैं भी या नहीं? उन्हें इससे कुछ लेना देना नहीं होता है।
मुझे याद आता है मेरे एक करीबी मित्र के परिवार के बारे में, जिनके साथ कुछ ऐसा ही घटित हो चका है। उसकी माँ के एक पैर में चोट लगने के कारण पहले सूजन हुई और बाद में संक्रमण की वजह से स्थिति भयावह हो गई। पैर में फफोले पड़ गए, फफोले फूटे तो पैर में सड़न पैदा हो गई। वह परिवार तो बहुत ही घबरा गया। उन्होंने अपने पारिवारिक चिकित्सक को दिखाया, उनसे सलाह ली। उन चिकित्सक ने अपने से ज्यादा अनुभवी चिकित्सक से मशवरा किया और उन्होंने संयुक्त रूप से निर्णय लिया तथा मेरे करीबी को बताया कि 'थोड़ा समय लगेगा लेकिन हम पैर बचा लेंगे।' साथ ही हिदायत भी दी कि जितना हो सके रिश्तेदारों, मिलने वालों की सलाह को मानना तो दूर सुनना भी नहीं। अगर आपने अपने तथाकथित हितैषियों की बात मानी तो सम्भव है कि आपको बड़े शहर के बड़े चिकित्सालय जाना पड़े। वहाँ आपका खर्चा भी ज्यादा होगा और अधिक संभावना है कि पैर भी कटवाना पड़े। अंत में उन्होंने यही किया और उनकी माता जी का पैर भी ठीक हो गया और वह पूरी तरह से स्वस्थ हैं। .... जैसा कि उनके पारिवारिक चिकित्सक ने कहा था, जो भी हितैषी मिलने आता था उनके मशवरे कुछ ऐसे होते थे - क्यों घर में रखे हुए हो? फलानी जगह ले जाओ, वहाँ अच्छा इलाज होता है। बहुत लोभी हो। वहाँ, मेरे बहिनोई की जान-पहचान है, भर्ती करवा दो। जान है तो जहान है, पैर कटता है तो कटवा दो, कम से कम जिन्दा रहेंगी तो लोगों को देखती तो रहेंगी, आदि, आदि।
आज की कथा 'औरंगज़ेब' में भी कथानक का एक हिस्सा इसी तरह का है। लोगों को सिर्फ अपने हिसाब से ही मतलब निकालना है। आपका दृष्टिकोंण, उनकी बला से। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों भला सुशील का दोस्त सुयश अपने मित्र के बारे में इस तरह की अनर्गल बातें कहता? सुयश ने तो बिना सही तथ्य जाने ही सुशील के बारे में न जाने क्या-क्या धारणाएं बना ली थीं। कहते हैं कि अगर शक्कर वाली बीमारी (मधुमेह) का इलाज करना है तो करेले का जूस भी पीना पड़ता है और उसका कड़ुआ स्वाद बर्दास्त करना पड़ता है। सुशील के पिता जी जो कि लकवाग्रस्त भी हैं और उन्हें मधुमेह भी है तो इस स्थिति में वह क्या करे? क्या शक्कर वाली चाय पिलाता रहे? और क्यों ऐसे लोगों से मिलने दे जो हौसला बढ़ाने की जगह यह कहें कि लकवा का मरीज ज्यादा दिन नहीं चलता है, अब तो हरि नाम ही जपो। यह भी सलाह देने वालों की बेशर्मी ही होती है कि वे किसी मरीज के मरने की इसलिए कामना करते हैं ताकि उसे तकलीफ कम हो। अब ऐसे में तो घर-परिवार वालों के लिए यही बनता है कि ऐसे लोगों से मरीज को दूर ही रखा जाए जिससे उसे भी तकलीफ कम हो और इलाज से स्वास्थ्य लाभ भी जल्दी मिले।
इस लघुकथा में एक आदर्श बेटे और बहू का चरित्र-चित्रण लेखक ने बखूबी किया है। जहाँ सुशील को अपने पिता की देखभाल के लिए लोगों के ताने सुनना भी मंजूर है वहीं उसकी पत्नी ने अपने ससुर की देखभाल करने, उनकी बिस्तर पर ही मल-मूत्र करने की शारीरिक अवस्था के कारण जब साफ-सफाई के लिए कोई परिचारिका नहीं मिली तो खुद की नौकरी छोड़ दी और उनकी सेवा में समर्पित हो गई।
इतना सब करने के बाद भी लोगों के विचार बदलना मुश्किल है। लोगों को कटाक्ष करने में समय नहीं लगता है। उन्हें इससे क्या मतलब कि रोगी और उसका परिवार किस मनोदशा से गुजर रहा है? इस प्रसंग का दिलचस्प पहलू यह है कि इतने ताने देने के बाद भी सुयश ने सुशील को सीधा-सीधा औरंगज़ेब नहीं कहा है। लेकिन समाज से मिले तानों से सुशील के मन की वेदना को इसी से समझा जा सकता है कि वह अपने आपकी छवि को, औरंगज़ेब की इतिहास में दर्ज छवि जैसा समझने लगा है और इसे स्वीकार करने को भी तैयार है। क्योंकि अगर इससे उसके पिता का कष्ट कम होता है तो सौदा बुरा नहीं है। सुशील के ये सब गुण उसे उसके पिता के प्रति प्रेम, आदर, सेवाभाव और समर्पण के कारण एक आदर्श पुत्र के रूप में स्थापित करवाने में सहायक हैं। निश्चित रूप से सुशील का चरित्र आज के समाज के लिये अनुकरणीय है जहाँ यह सेवा भाव लगातार अवनति की और अग्रसर है। बतौर लेखक, हर परिवार को एक चाहिए सुशील के जैसा औरंगज़ेब। सही भी है, नाम में क्या रखा है? एक बात और कि सुशील के साथ उसकी पत्नी भी यहाँ प्रसंशा की पूरी हकदार है जो कथा के मूल संदेश को और भी मजबूती से समाज के पटल पर रख रही है।

लघुकथा में तीन स्थानों पर "......." का प्रयोग हुआ है। यह उस समय प्रयोग हुआ है जब सुशील अपने मित्र को स्पष्टीकरण दे रहा है। सुशील के दो कथनों के बीच "......." का प्रयोग होना मुझे लगता है, उसके मनोभावों को दिखाने का प्रयास है, उसके मन के अंदर चल रहे द्वंदों का प्रतीक है कि वह किस-किस को जबाब दे, किस तरह से पिता के स्वास्थ्य पर ध्यान दे और कुछ इस तरह की बात भी न कह दे कि लोगों को बुरा लगे। अगर मैं सही हूँ तो इस संकेत (".......") का बेहतरी से प्रयोग करने के लिए लेखक अतिरिक्त बधाई का पात्र है।
सुन्दर शिक्षा/सन्देश से ओतप्रोत इस लघुकथा के लिए भी मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

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