किश्त -०३ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...नीरज शर्मा जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :
अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।
मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है।
इस खण्ड की एक और लेखिका हैं नीरज शर्मा जी। आइए, डालते हैं उनकी लघुकथाओं पर नजर। उनकी पहली लघुकथा है 'अनकही' जो भावनात्मक विचारों से जूझती अच्छी लघुकथा है। अपनों का विछोह? यह विचार मात्र ही बदन में सिहरन पैदा कर देता है। क्या कभी किसी के जाने से पनपा शून्य कभी भर पाता है? कभी नहीं। और फिर वह अलगाव बचपन मे अगर किसी बच्चे का उसके माँ-बाप से हो तो फिर कहने को भी कुछ नहीं रह जाता है। 'अनकही' में इसी अनाथ बच्चे राजू की व्यथा है जो आश्रम में पलकर जीवन जी रहा है। जादू - कितना आकर्षण
होता है बच्चों में! और बच्चे क्या? बड़ों में भी कौतूहल कहाँ कम होता है? सभी को लगता है कि जादूगर कुछ भी कर सकता है। कितनी आशाएँ पनपी होंगी राजू के मन में जब उसने कहा होगा कि आप भी कुछ बताओ, मैं आपकी मांग भी पूरी कर दूँगा। राजू को एकबार तो लगा ही था कि आज वह भी अपने माँ-बाप से मिल लेगा लेकिन अबतक शायद उसे समझ में आ गया होगा कि ऊपर जाने वाला फिर कभी वापस नहीं आता है, उसे कोई भी नहीं ला सकता। कोई जादूगर भी नहीं। इसलिये वह उम्मीद के साथ जादूगर के पास आया जरूर था लेकिन बिना किसी फरमाइश के ही वापस चला गया। भावनाओं के ज्वर को असीम ऊँचाई तक ले जाकर हकीकत के धरातल तक की यात्रा कराती यह लघुकथा बहुत ही संवेदनशील बन पड़ी है।
कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देने लगते हैं। इसी कहावत को चरितार्थ करती अगली लघुकथा है 'सक्षम'। हम बचपन में एक कहावत सुना करते थे - हित, अनहित पशु-पक्षियु जानें। अर्थात बिना जबान के भी पशु-पक्षी भी जान लेते हैं कि उनका कौन हितकारी है और कौन अहित कर सकता है। दूध पीती सात माह की बच्ची, उसकी माँ की अनुपस्थिति में जब डे-केयर में उसके हाथ से उसका खिलौना दूसरा बच्चा छीन लेता है तो पहली-बार, दूसरी बार...आखिर कब तक वह अपना शोषण सहती? और अंततः चौथी बार उसने अपना विरोध जता ही दिया और अपना खिलौना गँवाने से बचा लिया। लेखिका ने इसे 'सक्षम' शीर्षक देकर इस लघुकथा की विषयवस्तु को मुखरता दी है। निश्चित रूप से उस बालिका ने अपने से बड़े बच्चे से अपना खिलौना बचाकर न केवल यह परिचय दिया कि उसे उसका यह काम अच्छा नहीं लगा अपितु जूझकर अपना खिलौना बचा भी लिया। लघुकथा में माँ की बच्चे के प्रति ममता और उसके भविष्य के प्रति चिंता का भी अच्छा समायोजन किया गया है।
मानव मन स्थितियों के साथ में तारतम्य बना लेता है और किसी यंत्र की भांति स्वचालित सा होने लगता है। इसी मनोवैज्ञानिक धरातल पर आधारित लघुकथा है 'निक्कू नाच उठी'। निक्कू एक छोटी सी बच्ची जिसे नृत्य में बहुत रुचि है और उसे एहसास है कि वह अच्छा नाचती है और अपने दादा-दादी और आने वाले मेहमानों को अपनी बाल सुलभ क्रिया कलापों से परिचय कराने और करतब दिखाने में उसे बहुत उत्साह रहता है। लघुकथा में नन्हीं बच्ची के स्वभाव, मन की स्थिति को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ऐसा भी नहीं है कि वह आज्ञाकारी नहीं है और बड़ों की बातों को नहीं मानती है लेकिन..ऊधौ, मन न भये दस-बीस। एक हतो सो गयो श्याम संग...। यही हुआ निक्कू के साथ। बड़ों की हिदायतें और उसने स्वयं अपने मन को समझा लिया है कि वह चाचू के घर आने पर नहीं नाचेगी क्योंकि वह पहले दिन ही बहुत थक गई थी और उसके पैर दुख रहे थे, लेकिन मन वाबरा... क्या करे? जैसे ही टेलीविजन पर किसी कार्यक्रम में कोई सरगम की आवाज आई, निक्कू नाच उठी। रूसना यानी नाराज हो जाना। यह मूलतः हरियाणा की बोली का शब्द है लेकिन निक्कू के प्रसंग में यह अटपटा नहीं लगता है बल्कि यह कथा के सम्प्रेषण को बढ़ा देता है। इसी तरह से निक्कू का रूसकर कहना 'मुझे नी देखना', भी कथ्य में परिवेश को साधने में मददगार बना है। हालाँकि कथा बहुत सुंदर है, कथानक बहुत सामान्य है, लेकिन इस पर लिखना उतना सामान्य नहीं है क्योंकि इस तरह की कथा लिखने के लिए बाल मन को समझनेवाली सूक्ष्म दृष्टि की जरूरत होती है। उसी तरह से हर पाठक को भी इस कथा में कथातत्व समझने के लिए भी उसी तरह की समझ चाहिए। पाठक इस कथा को आसानी से या एकबार में समझ पाने में जद्दोजहद से जूझता दिखाई पड़ सकता है।
मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसी कहावत को चरितार्थ करती अगली कथा है 'सकल तीरथ'। भारत में हमारी परंपराओं में निहित है कि यदि जवानी में तीर्थ स्थानों की यात्रा न भी पर पाये तो कम से कम बुढ़ापे में तो यह कर ही लिया जाए ताकि परलोक सुधार जाए और जिसे इसका मौका मिल जाता है वे अपने आपको सौभाग्यशाली समझते हैं और ऐसा न कर सकने वाले दुर्भाग्यपूर्ण। सलाह तो यही रहती है कि ये काम जवानी में ही किये जायें क्योंकि ढलती उम्र में शरीर का स्वस्थ रहना भी अति आवश्यक हो जाता है। मयंक की माँ भी पक्षाघात के कारण मोहल्ले के लोगों के साथ तीर्थ यात्रा पर नहीं जा सकती, इसके लिए न केवल उसकी माँ उदास है अपितु मयंक भी। लेकिन कहते हैं ना कि जहाँ चाह, वहाँ राह। आखिर उदासी के बादल छट गए जब समस्या का हल निकल आया। घर बैठे ही टीवी के माध्यम से माँ ने माँ वैष्णो देवी के दरबार के दर्शन कर लिए और मन उसी तरह प्रसन्न हो गया जैसे वह खुद तीर्थ यात्रा पर जाकर दर्शन कर रही हो। ...लेकिन यह क्या? अब माँ उदास है। वह इसलिए उदास है कि उसकी समस्या का हल तो निकल आया लेकिन अब बेटा तीर्थ यात्रा पर नहीं जा सकता है। हालाँकि मयंक की खुशी और उसका उद्देश्य तो माँ के तीर्थ दर्शन में ही निहित था लेकिन माँ का दिल...! यही तो है वह भाव जिसमें एक-दूसरे की भावनाओं में माँ-बेटे एक दूसरे की खुशी ढूँढ़ रहे थे। कभी-कभी कथा उलझ भी जाये या कमजोर सी बन पड़े तो शीर्षक बात बना देता है। ऐसा कुछ हुआ है इस लघुकथा के साथ। यदि लघुकथा को बिना शीर्षक के पढ़ा जाए तो कथातत्व ढूंढने में थोड़ी मशक्कत तो करनी पड़ती है लेकिन 'सकल तीरथ' शीर्षक पढ़ते ही मामला सुलझ जाता है और तार जुड़ जाते हैं।
'खरीदी हुई औरत' समाज के ऊपर बड़ा सा धब्बा है। जब एक इंसान और वह भी स्त्री, का महत्व रुपये-पैसे से जोड़कर देखा जाने लगे तो फिर इंसानियत के नाम पर बचता ही क्या है? इस कथा में न केवल एक महिला, एक असंवेदनशील परिवार की दास्तान है बल्कि भारत की वर्तमान स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी सवाल हैं। आजकल जब स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत तरक्की हो चुकी है, पैसे की कमी और अस्पतालों के बड़े-बड़े खर्चो की वजह से आज भी बहुत बड़ा वर्ग घर में ही असुरक्षित प्रसव कराने के लिए मजबूर हैं। मँहगे इलाज, समाज में विवाह की अनिवार्यता, शिक्षा की कमी और आत्मिक संबंधों पर तंज मारती यह लघुकथा अंत आते-आते यह सिद्ध करने लगती है कि वास्तव में पीड़िता जैसे किसी वस्तु की तरह खरीदी ही गई थी। इसे न केवल इस परिवार की कहानी मानकर नजरअंदाज करना ठीक है बल्कि यह समाज की खोखली तस्वीर है जहाँ एक इंसान की अहमियत पैसे से तौलकर देखी जाती है। ...और फिर माँ का किरदार, जरूर एक शीतलता भरी पहल करता है लेकिन आखिर है तो वह भी स्त्री ही। कथा में आंचलिक बोली के शब्दों का प्रयोग कथा के सम्प्रेषण को प्रभावी बना रहा है। हालाँकि कथा में यह स्पष्ट नहीं है कि रशीद की पत्नी का यह पहला बच्चा है या अन्य भी हैं लेकिन माँ के आखिरी संवाद की पंक्ति '.....के ला देवेगा इन बालकों कू।' यह भी बताता है कि भारत में उपर्युक्त समस्याओं के साथ जनसंख्या भी एक विचारणीय विषय है।
साहित्य में एक बड़े वर्ग ने किन्नरों पर बहुत लिखा है। इसमें उपन्यास, कहानी संग्रह, लघुकथा संग्रह आदि प्रमुखता से प्रकाशित हुए हैं जिनमें अमूमन उनके प्रति समाज में व्याप्त तथाकथित अज्ञानता, भ्रांतियाँ आदि दूर करने की कोशिश की जाती रही है साथ ही समाज को उनके प्रति सहानुभूति की नजर से देखने को भी प्रेरणा देने के उद्देश्य रहे हैं। सहानुभूति तो ठीक है लेकिन आम तौर पर ये उतनी सहानुभूति के हकदार हो नहीं पाते हैं क्योंकि रेलगाड़ियों, बसअड्डों, चौराहों आदि स्थानों पर और शादी विवाह आदि के बहुत मौकों पर बिना मतलब की धन उगाही के साथ, अभद्रता, अश्लीलता, मारपीट जैसे इनके असामाजिक काम भी देखे गए हैं। यह एक बड़ा कारण है कि समाज में इन्हें घृणा की दृष्टि से भी देखा जाता है। खैर...। नीरज जी की अगली लघुकथा 'अप्रत्याशित' में किन्नरों के सकारात्मक पक्ष को उभारा गया है कि वे संवेदनशील प्राणी हैं और वे न केवल बधाई के नाम पर विभिन्न मौकों पर आ धमकते हैं अपितु दुःख के समय भी भावनात्मक सहारा बनने के लिए तत्पर रहते हैं।
जहाँ भारत में पहले संयुक्त परिवार की परंपरा स्थापित थी वहीं आज के समय जब ये सब व्यवस्थाएँ ध्वस्त सी होती जा रही हैं, परिवार की अपनों से और अपनों के प्रति क्रमशः अपेक्षाएं और जिम्मेवारियाँ आज भी जीवित हैं। पूरी तरह से कुछ भी कभी खत्म नहीं होता है। इन्हीं अपेक्षाओं की उन्नत बानगी है अगली लघुकथा 'अपेक्षा'। एक माँ, अपनी सहेली के बेटे की शादी में जाने को बहुत इच्छुक है और उसका वहाँ जा पाना इस बात पर निर्भर है कि उसे रेलगाड़ी में आरक्षण मिल जाये। इसके लिए वह अपने बेटे के फोन की प्रतीक्षा में है कि कब उसकी तरफ से यह खुशखबरी आये कि उसका रेलगाड़ी में टिकट आरक्षित हो गया है। ...लेकिन उसके हृदय पर आघात लगता है जब ये खबर 'ना' में आती है। इस बात पर उसके पति का यह कहना कि इसे बेटे से यह कह देना चाहिए था कि वह हवाई जहाज का टिकट करा देता तो एक महिला का आत्मसम्मान आड़े आ जाता है और वह किसी तरह अपने मन को मसोसकर रह जाती है। ...लेकिन अंततः जब थोड़ी देर बाद बेटे का फोन आता है कि उसने हवाई जहाज में टिकट करा दिया है तो सुखद आश्चर्य के साथ कथा अंत करती है। इस कथा में अपेक्षाओं की ऊहापोह में सकारात्मक परिणाम निकला है। इसमें लेखिका इस बात के लिए प्रसंशा की पात्र है कि उसने पाठक को रेलगाड़ी में टिकट न मिलने पर अवसाद और अगली हवाईजहाज के टिकट की खबर पर सुखद खबर देकर एक झंझावात से गुजारा है। हालाँकि कई पाठक इस तरह के अंत का अंदाज लगा भी सकते हैं लेकिन शीर्षक के कारण असमंजस को बनाये रखने में कथा अंत तक सफल रहती है।
अगली कथा 'दुआ', कथानक के हिसाब से सामान्य सी लघुकथा है लेकिन इसके शीर्षक, कथ्य और शैली ने इसे इस लायक बनाया कि यह इस खण्ड का हिस्सा बनी। इस कथा में कथाओं में आम हो चुकी उस बाप की गाथा है जिसमें वह अपने बेटों की परवरिश में सबकुछ लुटा देता है और अब बुढ़ापे के समय खुद पनाह पाने के लिए बेटों की दयादृष्टि पर निर्भर है। इस लघुकथा में फ्लैशबैक तकनीक का बेहतर प्रयोग किया गया है।
'दबे पाँव' जैसी कथाएँ लिखने के लिए लेखकीय कौशल की आवश्यकता के साथ-साथ घटनाओं को समानांतर देखने की कला भी आनी चाहिए। ऐसी शैली में आजकल लघुकथाएँ लिखी तो जा रही हैं लेकिन उनमें विषयों में विविधता की कमी है। इस विषय पर भी कई लघुकथाएँ पहले ही लिखी जा चुकी हैं। वैसे विषय तो गंभीर है ही क्योंकि आजकल अस्पतालों के खर्चे आदमी को कंगाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
किसी शायर ने लिखा है -
तुम्हारे शहर में अर्थी को चार काँधे नहीं मिलते,
हमारे गाँव में मिलकर सभी छप्पर उठाते हैं।
जब से राजनीति गाँव में भी घुस आई है, वहाँ का माहौल भी आजकल शहर से कोई अलग नहीं है लेकिन फिर भी गाँव का परिवेश एक बड़े घर-परिवार जैसा होता है। लोगों में अपनापन, एक-दूसरे की मदद का जज्बा और जरूरत पर सहारे के लिए लोग हमेशा तत्पर रहते हैं। ऐसी ही कुछ कथा है 'भरम'। कथा की मुख्य किरदार असगरी नाइन जिसे सब दादी कहकर बुलाते थे। यही तो ख़ूबसूरती होती है गाँव की। सभी का सबसे रिश्ते होता है फिर चाहे उम्र के हिसाब से कोई छोटा/ बड़ा ही क्यों न हो? लोग इन रिश्तों में ही अपनों को खोज लेते हैं और कट जाता है जीवन। अकेली असगरी ने गाँव में अपने तो खोज लिए थे। लघुकथा 'भरम' की कहानी कम से कम इस भ्रम को तो पुख्ता करती ही है। उस नाइन को गाँव के घरों से बहुत प्यार भी मिल रहा था लेकिन अंत समय में उसे वह सहारा न मिल सका जिसकी उम्मीद लिए वह जी रही थी। कथांत में दुनिया को बेमुरब्बत सिद्ध किया गया है लेकिन फिर भी पाठक को कहीं यह बात आसानी से गले नहीं उतरती क्योंकि कथा की शुरुआत में बड़ा सकारात्मक माहौल है और किसी प्रकार की गाँव वालों से उसे तकलीफ भी नहीं दी गई है। पाठक की इस बात की तस्दीक के लिए असगरी की किसी बीमारी की खबर पर उसे मदद न मिल पाने या इंकार करने जैसी स्थिति आदि से रूबरू ना कराया जाना भी एक बहुत बड़ा कारण है।
भारत में पुलिस महकमे की आज जो गन्दी छवि बनी हुई है, उसके लिए उन्होंने बहुत परिश्रम किया है। पुलिस की ही क्यों? आज अधिकतर सरकारी महकमों में लोग जाने से डरते हैं। भारत में सरकारी नौकरी यानी पक्की नौकरी। एकबार आदमी अगर सरकारी नौकरी पर काबिज हो जाये तो फिर उसे आसानी से निकालना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि वे अकर्मण्यता की राह पकड़ लेते हैं और फिर शुरू होता है भ्रष्टाचार, अनियमितताएँ, आदि। आज समाज के बहुत से अपराध सिर्फ इसलिए नहीं रोके जा सकते हैं क्योंकि आम आदमी सजग, सक्रिय होते हुए भी मदद के लिए आसानी से आगे नहीं आ पाते हैं क्योंकि उन्हें सरकारी पचड़ों में पड़ने से बहुत डर लगता है। पुलिस की अनावश्यक पूछताछ और थाने, अदालत आदि के चक्कर लगाने से बचने का अप्रतिम उदाहरण दिया गया है लघुकथा 'डर' में जिसमें भीड़भाड़ में भी एक आदमी सरेआम आत्महत्या कर लेता है और भीड़ पुलिस के डर से उसे नहीं बचाती है।
कहते हैं कि लेखक के काम, परिवेश, माहौल आदि की झलक लेखन में प्रतिबिंबित होती है। नीरज जी की कथाओं में भी उनके चिकित्सक होने की तस्दीक मिल जाती है। उनकी कथाओं में मानसिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक परिवेश और भावनाओं की उपस्थिति की झांकियां दिखाई देती हैं। घर, आसपास से सामान्य कथानकों को चुनना और उन कथाओं को मजबूत शीर्षक देकर मजबूती देने में नीरज जी ने पारंगता हासिल की है। इनकी लघुकथाओं में विषय, कथानकों में विविधताओं के साथ-साथ शैली, कथ्य और निर्वाह के भी उच्च पैमाने छुए गए हैं। यही कारण है कि आज लेखिका स्थापित लेखकों में सुमार हो चुकी हैं।
डॉ रजनीश दीक्षित