हालाँकि शहर की भाँति अब गाँवों में भी स्थितियाँ बदल रही हैं लेकिन गाँव में बड़ों का अभी भी रुतवा वही है, पुराना वाला। पहले तो हालात और भी अजीब थे, इसके एकदम उलट थे। बाप जबतक दिन में एक-दो बार उठा-पटक कर न दे तबतक उसे जैसे लगता ही नहीं था कि वह बाप भी है किसी का। बिना बात के ही हड़का देना जैसे उनकी आदत का अहम हिस्सा होता था।
...मेरा एक मित्र है, रांची से। उसके पिता जी बिहार सरकार में उच्च पदस्थ अधिकारी थे। वे शौकिया सफाचट (बिना दाढ़ी-मूँछ के) रहते थे और इसके विपरीत मेरे मित्र को मूँछ रखने का शौक था। इस बात से उसके पिता जी को तंज करने का मौका जब भी मिलता, वह ताने मार ही देते थे। एकदिन उन्होंने शनिवार को दोपहर के बाद उसे डाकखाने कुछ काम से भेजा। शनिवार होने के कारण दोपहर बाद जब मेरा मित्र पहुँचा तो डाकखाना बंद हो चुका था अतः काम नहीं हुआ। फिर क्या था? जब मेरा मित्र घर वापस आया तो उसे कुछ ऐसा सुनना पड़ा, "तुम, तुम्हारी मूँछ देखकर तो आजकल डाकखाने में भी ताले पड़ने लगे हैं। तुम से होगा ही क्या? मूँछें जो रखते हो।"....ऊपर से मार पड़ी सो अलग..। खैर...
प्रस्तुत लघुकथा में भी गाँव के इसी परिवेश की झलक है। आनन्द जब एस. एस. सी. की परीक्षा पास नहीं कर सका तो इस डर से कि पिता श्री के कोप का भाजन होना पड़ेगा, वह अपने ननिहाल चला गया। ऐसा नहीं है कि नानी के यहाँ सब इस बात से प्रसन्न हुए होंगे लेकिन नानी के घर अक्सर प्यार ज्यादा मिलता ही है और बड़ी से बड़ी गलती माफ कर दी जाती है। ...सो जनाब हो-हल्ला बरगलाने के लिए दो दिन बाद घर पहुँचे और जिम्मेदारी का अहसास देखिए कि इस बात की खबर माँ को दे भी दी थी कि आप नानी के घर जा रहे हैं ताकि बतंगड़ बनने की स्थिति में माँ संभाल ले। आखिर, माँ, माँ ही होती है। उसकी असफलता पर खुशी तो नहीं ही मिली होगी लेकिन माँ के लिए, "सबसे नटखट है मेरा राजदुलारा, सबसे प्यारा है मेरा राजदुलारा।" तो माँ को विश्वास में ले लिया, नानी के घर भी घूम आये लेकिन....पिता श्री के हाथ और जीभ की खुजली कहाँ मिटने वाली थी?
...घर वापस पहुंचने पर जो आवभगत हुई, और जैसा कि होता है, दूसरे सफल बच्चों के नाम ले-लेकर ताने दिए जाते हैं। जब मुहल्ले के दूसरे सफल बच्चों के नाम गिनाए तो आनन्द का जबाब था कि कुछ बच्चे तो आरक्षण की सीढ़ी से पार हुए हैं। आनन्द के इस जबाब के बाद के जो संवाद हैं, उसी में कथा का सार है। जो जाति व्यवस्था के आधार पर आरक्षण पाया है, उसके साथ उनकी जो आर्थिक स्थिति और उनकी दिनचर्या का वर्णन है, वह बहुत ही तार्किक और मनन योग्य है। ऐसा वक्तव्य कोई मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही दे सकता है।
आनन्द के आरक्षण वाले तर्क पर उसके पिता जी का संवाद देखें, "रमुआ के बेटे की बराबरी तू करेगा रे! ओकरा पैर के धुअन भी नहीं है। ऊ सबेरे खेत में काम करता है। स्कूल से आने के बाद गाय भी चराता है। रात में मकई और आम का रखबारी करते हुए पढ़ाई किया है। और एक तुम हो जिसको हम न आटा पिसाने भेजे और न ही कभी पेठिया से तरकारी लाने।" ...और आखिरी पंक्ति पर तो जैसे कथा ऊंचाई पर पहुंच गई - "
#इस_हिसाब_से_तो_आरक्षण_तुमको_भी_मिला"। ...और फिर वही बापपना, "आगे से कभी आरक्षण का नाम लिया न तो जूता भिगाकर मारेंगे।"
...और जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ, गाँव में अभी भी सहनशक्ति, बड़ों के गुस्से में छिपा प्यार बच्चे पढ़ पाते हैं। उन्हें न तो अपने सम्मान हनन का डर है, न ही बड़ों की बात को दिल पर रखने की बुरी आदत है। इसी आत्मविश्वास के साथ परिवार के बड़े लोग भी यह कह पाने की हिम्मत रखते हैं कि उनके कड़े व्यवहार के बाद भी बच्चे बुरा नहीं मानेंगे और कोई अनुचित कदम नहीं उठायेंगे।
उत्तर भारत में दक्षिण भारत की तरह यह तय नहीं है कि उन्हें दसवीं-बारहवीं के बाद कमाने के लिए बाहर जाना ही पड़ेगा। तुलनात्मक रूप से देखें तो संयुक्त परिवार की परंपराएं, घर के लोगों से लगाव, अपनी भाषा, जमीन और आपस में प्रेम आदि में उत्तर भारत के लोग आगे हैं। जहाँ दक्षिण भारतीयों में कमाने के लिए प्रदेश-देश से बाहर जाना बहुत ही सामान्य है, वहीं उत्तर भारत में इस पर निर्णय बड़ी देर में और बड़ी सलाह, मशवरा के बाद ही लिया जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि उत्तर भारतीयों के पास विकल्प ज्यादा हैं लेकिन कुछ बातें उन्हें ऐसा करने से पहले बहुत सोचनी पड़ती हैं। ...और आनन्द के पिता जी का यह कहना कि, "देख लो! अब तुम अपना कि दिल्ली जाना है या मुम्बई।" उन्हें बहुत अफसोस है कि उनके आसपास के बच्चे सफल हो गए और आनन्द सफल न हो सका। आनन्द के पिता के इस आदेशात्मक वाक्य में कई अभिव्यक्तियाँ छुपी हैं। जहाँ उन्हें आनन्द के असफल होने का दुख है वहीं अपने ऊपर बढ़ रहे आर्थिक बोझ की भी चिंता है और उसके विछोह का संताप भी। आखिर... बाप जो है। उसकी यही छवि है और उसमें वह सहज है।
इसी अलगाव की चिंता में आनन्द का कथा के अंत में एक वादे के साथ समर्पण, रिश्तों की खूबसूरती का बेजोड़ नमूना है।..और मुँह न दिखाने वाली बात पर कौन न पसीजेगा? लेकिन अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए उसके पिता ने आरक्षण के दंश की हकीकत की स्वीकारोक्ति करते हुए सफलता का मंत्र भी दिया कि डटे रहना है और सर्वश्रेष्ठ बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
इस लघुकथा में मृणाल जी ने एक साथ कई पक्षों को रखा है। जहाँ एक ओर आरक्षण एक गंभीर सच्चाई है, वहीं कठिन परिश्रम, परिवार में बड़ों के सम्मान, उनकी नाराजगी का प्रतिकूल प्रभाव न पड़ना, माँ, नानी के घर और उसके पिता के प्रेम के विविध रूप और साथ में आनन्द के सामान्य सुलभ व्यवहार को बड़ी कुशलता से रचा है। यह रचना आज के शहरी माहौल को बहुत कुछ सीख दे सकती है। आज शहरी अभिभावकों को हर पल यह सताता रहता है कि अगर बच्चों से कुछ कह दिया तो वे कहीं कोई गलत कदम न उठा लें।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। इस लघुकथा में भी क्षेत्रीय बोली की सौंधी खुशबू का पाठक जरूर आनन्द लेंगे।