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Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - हूंदराज बलवाणी जी-1)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी लघुकथा "अरमान" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - अरमान

लेखक - हूंदराज बलवाणी जी 

उत्तर भारत में श्रीमद्भागवत कथा के आयोजन में कथावाचक अक्सर एक प्रसंग सुनाते हैं। एक सम्राट गर्मी के दिनों में शाम के वक्त अक्सर अपने महल की छत पर विश्राम करने जाते थे। उनके लिए उनके महल में नियुक्त दास-दासियाँ आरामदायक बिस्तर का प्रबंध करते और जब सम्राट उस बिस्तर पर आराम फरमाने आते तो पास ही खड़ी दासी उन्हें ठंडी हवा के झौंके देने के लिए धीरे-धीरे पंखा झलती थी। सम्राट इन्हीं सुखद अहसासों के साथ धीरे-धीरे निंद्रा के आगोश में चले जाते। एक दिन सम्राट को आने में थोड़ी देर हो गई तो सेवा में नियुक्त दासी ने विचार किया कि जबतक सम्राट आते हैं, क्यों न वह थोड़ी देर के लिए इस सेज का सुख लेले। वह जैसे ही उस बिस्तर पर बैठी, उसे बहुत ही आनंद का अनुभव हुआ और न जाने कब उसकी आँख लग गई। कुछ समय बाद जब उसकी नींद टूटी तो उसने देखा कि सम्राट पास ही खड़े हैं और उस पर पंखा झल रहे हैं।....आगे की कहानी फिर कभी। पाठकों को सूचनार्थ बता दूँ कि उस सम्राट ने उस दासी को कोई सजा नहीं दी और यह कहते हुए बात को टाल दिया कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। मैं तो वही कर रहा था जो कि यहाँ पर खड़े व्यक्ति को करना होता है यानि पंखा झलने का काम।

इस कथा का यहाँ सदर्भित करने का उद्देश्य यही था कि प्रस्तुत रचना 'अरमान' के 'सुखराम' की तरह ही अक्सर हर व्यक्ति के मन में इच्छाएँ, लालसाएँ जगती हैं कि काश वह भी आज किसी व्यक्ति के स्थान पर होता तो शायद असीम आनंद का सुख भोग रहा होता। हालाँकि यह जगत ही मिथ्या है। हर किसी को अपना काम ख़राब और दूसरे का काम अच्छा और आकर्षक प्रतीत होता है। अधिकतर लोग तो अपने कष्टों के कारण कम दुखी हैं, वे दूसरे के सुखों के कारण ज्यादा दुखी रहते हैं। यह तो एक सामान्य बात है लेकिन कुछ बातें मानवता के आधार पर भी समझी जा सकती हैं। कुछ लोग चांदी की चम्मच लेकर पैदा होते हैं। उन्हें रहने, खाने, उचित स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि सारी सुविधाएँ उनके संपन्न माँ-बाप की बदौलत प्राप्त होती हैं तो सम्भावना रहती है कि वे कम संघर्ष के भी एक आरामदायक जिंदगी गुजर-बसर कर सकें। लेकिन उन लोगों का क्या कसूर जिनका शारीरिक ढांचा तो सबके सामान ही होता है लेकिन किन्हीं कारणों से वह समाज में सम्पन्नता और शिक्षा की दौड़ में पीछे रह जाते हैं जिसके कारण उन्हें आभाव की जिंदगी जीने और छोटी-मोटी नौकरियां कर जीवन यापन करना पड़ता है। ... और फिर यहीं से शुरू होती है उनके अरमानों की चाह कि 'काश! वह भी इस तरह की नौकरी कर रहे होते।' आगे चलकर यही इच्छाएँ, कुंठाओं में बदल जाती हैं और फिर ईर्ष्या आदि का कारण बनती हैं। यह बहुत प्राकृतिक है कि यदि मानव सुलभ संवेदनाओं को मिटने न दिया जाये तो और अपनी पद-प्रतिष्ठा से इतर अपने नीचे काम करने वालों से भी सहृदयता से व्यवहार किया जाये तो उन्हें आर्थिक रूप से न ही सही, भावनात्मक रूप से मजबूती तो मिलती ही है। यह बहुत तरह से सिद्ध हो चुका है कि साथ में काम करने वालों की भावनाएं और उनका स्पंदन माहौल को बनाने में बहुत काम करता है। इनका असर वातावरण में सुखद या दुखद किसी भी रूप में हो सकता है। कार्यालय में कर्मचारी सुखराम की भावनाएं ही देख लीजिये, "वह ऐसे उठा जैसे उसके पैरों बेड़ियाँ बंधी हों।" हालाँकि नियमानुसार यह सुखराम का दायित्व है लेकिन उसे बार-बार साहब के बुलाने पर खीझ हो रही है और वह अपने भाग्य को कोस रहा है कि वह ज्यादा क्यों न पढ़ पाया ? सुखराम के इस विचार का किसी भी तरह से समर्थन तो नहीं किया जा सकता लेकिन सत्यता से मुंह भी नहीं मोड़ा जा सकता।
दूसरा सत्य पक्ष 'साहब' का भी है। हो सकता है कि साहब की व्यस्तता इतनी ज्यादा हो कि वह छोटा काम भी स्वयं नहीं कर सकते लेकिन सुखराम की भावनाओं के वेग को रोकना व उसे समझाना यह उसकी अपनी बुद्धिमत्ता पर ही निर्भर है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह हरगिज साहब की अनुपस्थिति में घंटी बजाकर साहब को 'पानी लाने का आदेश' न देता। यह सब उसके अंदर उपज चुकी हीन भावना की पराकाष्ठा है जो अब सतह पर आ चुकी थी। हालाँकि इसका कारण एक यह भी होता है कि यदि आदमी को शारीरिक और मानसिक अभ्यास कम करने पड़ें तो फिर नकारात्मकता का हावी होना अवश्यसंभावी है। इसे आम बोलचाल की भाषा में हम "खाली दिमाग, शैतान का घर" भी बोलते हैं। इस लघुकथा में सुखराम का कार्य ऐसा है कि जिसमें वह शारिरिक रूप से भागदौड़ में भले ही लगा रहता हो लेकिन उसे ऐसा कोई कार्य नहीं करना पड़ता है जिसमें उसे दिमागी तौर पर श्रम करना पड़े।
प्रस्तुत रचना में लेखक ने सामान्य और रोजमर्रा के होने वाले हालात को बड़े ही प्रभावी ढंग से लघुकथा में ढाला है। कथा के मुख्य पात्र 'सुखराम' की भावनाओं को जिस तरह से जीवंत करके लिखा है, उसके लिए लेखक के लेखन कौशल्य की जितनी प्रसंशा की जाए कम है। लघुकथा का शीर्षक 'अरमान' भी कथानक के अनुसार बहुत सटीक बैठता है। इस सुन्दर लघुकथा के लिए मैं हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-3)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "दंगे की जड़" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - दंगे की जड़


मैंने बचपन में एक बड़ी ताई जी के बारे में सुना था कि उनको अक्सर लोगों से झगड़ने की आदत थी। लोगों से किस बात पर झगड़ा करना है, उनके लिए कारण ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक बार की बात है कि कुछ लड़के गली में गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अचानक एक लड़के ने गुल्ली को बहुत दूर तक पहुंचा दिया। बस ताई जी ने लड़कों को आड़े हांथों ले लिया। बोलीं, "खेलना बंद करो"। जब लड़कों ने कारण पूछा तो बोलीं, "अगर मेरी बेटी आज ससुराल से घर आ रही होती तो उसको चोट लग सकती थी।" बेचारे लड़के अपना सिर खुजलाते अपने घरों की ओर चले गए। लड़कों को पता था कि यदि बहस में पड़े तो दंगे जैसे हालात हो सकते हैं।
...आज हमारे देश में ऐसी ताइयों की कमी थोड़े ही है। इस स्वभाव के लोगों को राजनीति में स्वर्णिम अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। आखिर इसी की तो कमाई खा रहे हैं लोग। सुना है अंग्रेजों ने हमारा देश 1947 में छोड़ दिया था लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जाते-जाते वे हमें "फूट डालो और राज करो" का मंत्र सिखा कर गए। इसका अनुसरण करने में फ़ायदे ही फायदे जो हैं। इसके लिए नेताओं को कुछ खास करना भी नहीं है। पांच साल सत्ता का सुख भोगिये और चुनाव से पहले धर्म-जाति के नाम पर शिगूफे छोड़िए, बहुत संभावना है कि अगली सरकार आपकी ही बने। हाँ, यह उनकी दक्षता पर निर्भर करता है कि किसने कितनी बेशर्मी से इस मंत्र का प्रयोग किया। 'जीता वही सिकंदर' वाली बात तो सही है लेकिन जो हार गए वह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन्होंने भी आजकल बगुला भगत वाला चोला पहना हुआ है।

मैंने एक पंडित जी के बारे में सुना है कि वे बड़े ही धार्मिक और पाक साफ व्यक्ति हैं। वह केवल बुधवार को ही मांस-मछली खाते हैं, बाकी सब दिन प्याज भी नहीं। लेकिन बुधवार को भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जब मांस-मछली का सेवन करते हैं तो जनेऊ को उतार देते हैं और बाद में अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद ही जनेऊ पहनते हैं। इन्हें संभवतः अपने धर्म की अच्छाईयों के बारे में न भी पता हो लेकिन दूसरे धर्मों में क्या बुराइयां हैं, इन्हें सब पता है। यह हाल केवल या किसी एक धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के नहीं हैं। कमोवेश यही हाल सब जगह है। इस तरह के पाखंडियों का क्या कहिये? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे पाखंडी लोगों के बड़े-बड़े आश्रम हैं, मठ हैं, इज्जत है, पैसा है और भक्तों की बड़ी भीड़ भी है। अब ऐसे ही चरित्र वालों को जगह मिल गयी है राजनीति में। वर्तमान समय में राजनीति में धर्म है या धर्म में राजनीति, यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि इनका गठजोड़ रसगुल्ले और चाशनी जैसा हो गया है। खैर...
यह बात किसी के भी गले नहीं उतरेगी कि आखिर रावण के पुतले को आग लगाने वाला सिर्फ आतंकवादी इसलिए करार दिया गया क्योंकि वह किसी और धर्म का है। सुना है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता तो फिर बुराई खत्म करने वाले का धर्म कैसे निश्चित हो गया। और वैसे भी जब रावण बुराई का प्रतीक है तो फिर उसका धर्म कैसे निश्चित हो गया? और इस तर्ज पर यह जरूरी क्यों है कि आप उसे किसी धर्म का माने? और जो बुरा व्यक्ति जब आपके धर्म का है ही नहीं तो फिर उसे किस धर्म के व्यक्ति ने मारा? इस प्रश्न का औचित्य ही क्या रह जाता है? लेकिन नहीं, साहब। ये तो ठहरे राजनेता। इन्हें तो मसले बनाने ही बनाने हैं। कैसे भी हो, इनके मतलब सिद्ध होने चाहिए।
वैसे भी आजकल रावण दहन के प्रतीकात्मक प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं रह गया है उल्टे अनजाने ही सही वायु प्रदूषण का कारण बनता है सो अलग। क्योंकि जिनके करकमलों द्वारा इस कार्य को अंजाम दिया जाता है, उनके अंदर कई गुना बड़ा रावण (अपवादों को छोड़कर) दबा पड़ा है। रावण का चरित्र तो कम से कम ऐसा था कि उसने सीता को हरण करने के बाद भी कभी भी जबरन कोई गलत आचरण नहीं किया और वह इस आस में था कि एकदिन वह उसे स्वीकार करेंगी लेकिन क्या आजकल के धर्म या राजनीति के ठेकेदारों से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं।
....तो फिर क्या आपत्ति है? और यह जानने की भी आवश्यकता क्या है कि रावण को किसने जलाया? क्या यह काफी नहीं है कि रावण जला दिया गया? यह जरूर काफी होगा उस सामान्य जनमानस के लिए जिसे बुराईयों से असल में नफरत है। लेकिन ये ठहरे नेता। इन्हें तो मजा ही तबतक नहीं आता जबतक समाज में जाति-धर्म के नाम पर तड़का न लगे। आदमी की खुशबू आयी नहीं कि सियार रोने लगे जंगल में, टपकने लगी लार। माना कि पुलिस ने उस तथाकथित आतंकवादी को पकड़ भी लिया है तो यह तो पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी तरफ से तफ्तीश करें और जो कानूनन ठीक हो, उसके हिसाब से सजा मिले। लेकिन....फिर वही। यही तो राजनीति का चारा है। इतिहास गवाह है कि कितने ही अनावश्यक दंगे इन राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए कराए हैं। लेकिन...इनका अपना जमीर इनका खुद ही साथ नहीं देता है। ये तो अपने खुद के कर्मो से अंदर ही अंदर इतने भयभीत हैं कि इनकी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि ये किसी पाक-साफ आदमी से नजर मिलाकर बात भी कर सकें। आखिर साधारण और सरल आदमी को मंदबुद्धि भी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अंदर छल और प्रपंच नहीं होता। लेकिन बुराई को पहचानना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता। उसके लिए हमारा समाज ही बहुत है। तभी तो उस मंदबुद्धि के बालक ने बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जला डाला था। जब वह मंदबुद्धि ही था तो संभव है कि उसे अपने धर्म का भी न पता हो लेकिन अच्छाई और बुराई का ज्ञान किसी भी धर्म के व्यक्ति को हो ही जाता है। इसके लिए किसी खास बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। उसने रावण को जला डाला और छोड़ दिया अनुत्तरित प्रश्न, इस स्वीकरोक्ति के साथ कि "हाँ, मैंने ही जलाया है रावण को। क्या मैं, राम नहीं बन सकता?"
यह ऐसा यक्ष प्रश्न है कि अगर इसका उत्तर खोज लिया है तो "दंगे की जड़ों" का अपने आप ही सर्वनाश हो जाये।
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-2)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "अन्नदाता" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - चंद्रेश छतलानी जी

लघुकथा - अन्नदाता 

मैंने बहुत पहले एक कविता लिखी थी, उसकी दो पंक्तियाँ :
बरसात में कुकुरमुत्ते जैसे उग आते हैं,
नेता भी चुनावों में वैसे ही बढ़ जाते हैं।

अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इन्हें नेता कहना 'नेता' शब्द का अपमान हैं क्योंकि इनके क्रिया-कलाप इस शब्द के पासंग भी नहीं हैं।
कई साल पहले एक फ़िल्म आयी थी जिसमें कहा गया था कि "बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो अब संसद में बैठते हैं।" राजनेताओं ने अपनी इस छवि को बनाने में बड़ी मेहनत की है। जनता के पसीने की कमाई की जो बंदर-बाँट करते हैं, उसकी जितनी मजम्मत की जाए कम है।
..कहते हैं जंगल में आदमी कितना भी सावधानी से कदम रखे, शिकार की तलाश में बैठे जानवरों को खबर हो ही जाती है। दरअसल, प्रकृति ने उनके उदर पूर्ति के लिए ये हुनर दिया है कि वे अपने शिकार को उसकी गंध और तापमान से दूर से ही पहचान लें और घात लगाकर उन पर आक्रमण कर दें। बिल्कुल यही प्रक्रिया आजकल के राजनेता अपनाते हैं। हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों ने हमेशा जनता को अपने हित साधने के लिए प्रयोग किया है। चाहे वह 1947 में देश के विभाजन की दुःखद घटना हो या उसके बाद से समय-समय पर होने वाले धर्म/मजहब या जाति आधारित दंगे हों। सबके पीछे नेताओं की सत्ता लोलुपता और अपने फायदे ही छुपे रहते हैं। नेताओं ने बड़ी ही चतुरता से देश को जाति-मजहब में बाँटने का काम किया है। आज हालात यह हैं कि मतदाता अपने कीमती मत का प्रयोग इन चालबाजों की बातों में आकर कर रहे हैं और इनकी कुटिल राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं। इन नेताओं ने इसे अपना ऐसा ब्रम्हास्त्र बनाया हुआ है कि जब इसका असर होता है तो न तो जनता को अच्छी शिक्षा चाहिए, न स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए और न ही और कोई विकास।

सुप्रसिद्ध कवि और गीतकार नीरज जी की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं :
"भूखा सोने को तैयार है मेरा देश,
बस उसे परियों के सपने दिखाते रहिए।"

नीरज जी ने यह बात कई दशकों पहले लिखी थी लेकिन आजकल की हकीकत तो यह है कि आप सपने छोड़िए, बस एक मोबाइल, लैपटॉप या साइकिल दे दीजिए।। बस, मतदाता आपका गुलाम। नेताओं के इसी सफलता के अचूक सूत्र ने बहुत से नेताओं को उनकी पीढ़ियों से सत्तासीन किया हुआ है। इन नेताओं के हालात कुछ ही दशक में कहाँ से कहाँ पहुँच गए? इन्होंने बाँटने की राजनीति को इस तरह बोया और काटा कि उनके परिवार का हर सदस्य सत्ता सुख भोगता रहा और देश की जनता के पसीने की कमाई से खुद की झोपड़ी, महलों में बदल ली और आम आदमी का जीवन स्तर नीचे, और नीचे गिरता चला गया।
....प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने आज की राजनीति को देश के अन्नदाताओं से जोड़कर लिखा है। आजकल खेती करना बहुत ही घाटे के सौदा हो गया है। तकनीक की उपलब्धता के बाबजूद आज भी किसान प्रकृति के रहमो-करम पर निर्भर है। प्रकृति को हमने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए बदलने पर इतना मजबूर कर दिया कि अब उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। जंगल के जंगल साफ हो रहे हैं, सड़कों को चौड़ा करने के फलस्वरूप पेड़ों की कटाई लगातार जारी है, नदियों का पानी, कारखानों की गंदगी और रसायन के लगातार मिलने से प्रदूषित हो रहा है। तो ऐसे में किसान करे भी तो क्या करे? सब किसानों की यह क्षमता नहीं है कि वे अपने कुएं खोद लें और पम्प से पानी प्राप्त कर लें और जिनकी यह स्थिति है उन्हें भी पानी के लगातार कम हो रहे जलस्तर से इस सुविधा का लाभ आखिरकार कब तक मिल पायेगा? चलो मान भी लिया जाए कि समय से बारिश हो भी गई तो रही बची कसर पूरी कर देते हैं आवारा जानवर। किसानों की जिंदगी इन समस्याओं के कारण बहुत ही मुश्किल और दयनीय हो जाती है। आजकल खेती से जो पैदावार होती है उसमें किसान की लागत भी नहीं निकलती है। ऐसे में कई किसान समस्या के निदान हेतु या तो किसी बैंक के कर्जदार ही जाते हैं या किसी साहूकार के। दोनों ही हालात में वह कर्ज के चक्रव्यूह से निकलने में अपने आपको असहाय महसूस करता है और फिर उसे इस जहाँ से रुखसत होने का दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठाना पड़ता है।
किसी ने इस तरह के हालात पर कहा है -
चेहरा बता रहा था कि मरा है भूख से,
सब लोग कह रहे थे कुछ खा के मर गया।😢

चुनावों का मौसम आ चुका था और आज उस किसान की फसल कटी है। वह फसल से हुई उपज और जिंदगी को तौलने की असफल कोशिश में था कि 'गिद्धों' का आना शुरू हो गया। इन्हें आम आदमी की मुश्किलों से कोई मतलब नहीं। आम आदमी की मुश्किलें इनकी बला से। शिकार देखा और अपने धर्म के रंग का तीर चला दिया, "काका, आपका मत मेरा मत। क्योंकि आपका धर्म मेरा धर्म और धर्म की रक्षा हेतु आपका कर्तव्य है कि आप मुझे ही अपना मत प्रदान करें।" .... अब होली चाहे त्योहार के नियत समय पर अपने रूप में कम मनाई जाए लेकिन चुनावों में रंगों का महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें पास आती जा रही हैं, हर रंग वाला, धर्म की रक्षा हेतु खुद को सच्चा ठेकेदार बताते हुए आम आदमी से खुद को चुनने के लिए गुहार करता है। आम आदमी? उसके लिए तो इन रंगों के क्या मायने होंगे जब उसकी जिंदगी में सिर्फ रातें ही नहीं दिन भी स्याह हो चुके हैं।
...लेकिन हमारे देश का किसान या कोई भी मेहनतकश आदमी इन चमचमाती गाडियों में आने वालों की चाशनी से पगी बातों में अपनापन देखता है और उसे लगता है कि यह सब तो अपने ही हैं। सभी उसके साथ हैं, शायद जिन्दगी का सफर इतना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन हकीकत इन सबसे अलग होती है। उसे यह पता भी नहीं चल पाता कि इन रंगों ने अपना काम कब कर दिया? चारों तरफ अपने ही तरह और उन्हीं रंगों में रंगे लोगों का हित शायद सिद्ध हो चुका है। अब बस आखिरी निर्णय और वह अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर चुका है। एक ऐसे गन्तव्य की ओर जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता, अन्नदाता भी नहीं।😢
**
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-1)

मेरी समझ' की आज की कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश_छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "इलाज" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - चंद्रेश छतलानी जी

लघुकथा - इलाज 

अगर सही अर्थों में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति नास्तिक नहीं होता है। कम से कम यह बात हमारे भारत में तो लागू होती ही है। हमारे देश में ज्यादातर तथाकथित नास्तिक मानते हैं कि उसी धर्म के होकर, उसी धर्म और उनके ईश्वर की बुराई करना और दूसरे धर्म के बारे में अच्छा बोलना ही नास्तिकता है। दरअसल वे राजनीति से प्रेरित जो होते हैं। हमारे देश में धर्म, राजनीति में घुस गया है और विचारधाराएं इसे अपने नफा-नुकसान की तरह प्रयोग करती हैं। यह मुझे तबतक पता न चलता जबतक मैं एक ऐसे देश में नहीं गया जहाँ के अधिकतर लोग नास्तिक हैं और वह भी वास्तविक वाले नास्तिक। हालांकि, उस देश में आस्तिक भी हैं जो बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं लेकिन 20-25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। मैंने इसकी तह में जाना चाहा तो पता चला कि बाकी के 75-80 प्रतिशत वास्तव में असली वाले नास्तिक हैं। मैंने जब उन नास्तिकों से उनकी धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानना चाहा तो उनके हावभाव ऐसे थे जैसे कि मैंने कोई फालतू सा सवाल पूछा हो। वे बिल्कुल ही धार्मिक जैसे शब्द से अनभिज्ञ लगे। उन्हें कुछ भी नहीं पता। यहाँ तक कि यह भी नहीं कि उनके देश में पूजा पाठ की कोई परंपरा भी है। इनके व्यवहार में कोई कटुता, विद्वेष या विकार मुझे नजर ही नहीं आया। बड़े मिलनसार, सह्रदय और बिल्कुल उस परिभाषा से भिन्न जो हमें भारत के तथाकथित नास्तिकों में दिखाई देती है। निश्चित रूप से हमारे देश के अनेक नास्तिक मनोरोगी हैं जिन्हें बड़े 'इलाज' की जरूरत है। यहाँ यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हर देश के तथाकथित आस्तिकों को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं है। अर्थात, उन्हें भी है।
...यह तो सर्वविदित है कि किसी भी स्थान पर चल रहे कार्यकलापों का वहाँ के वातावरण में, वहाँ की फिजा में उसका अपना प्रभाव रहता है। यह प्रभाव वहां पर उपस्थित या उससे संबंधित सभी मनुष्यों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों पर समान रूप से अपना असर करता है लेकिन यह निर्भर करता है कि किसमें कितनी ग्राह्य क्षमता है। किसकी कैसी भावना है और किसका क्या उद्देश्य है? हमारे देवालयों में बहुत लोग जाते हैं जिसमें कोई भगवान को धन्यवाद कहने जाता है, कोई माफी मांगने जाता है, कोई आशीर्वाद, कृपा के लिए जाता है, कोई जेब काटने के लिए और कोई जूते-चप्पल की फिराक में।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुसलीदास जी कहते हैं: 
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

....तो वहाँ के वातावरण का असर लोगों की अपनी सोच और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि उन्हें वहाँ से क्या हांसिल हुआ, होता है या होगा?
प्रस्तुत लघुकथा में भी गिरजाघर में सफाई के काम में कार्यरत स्टीव का भी ऐसा ही कुछ हाल था। उसे ईश्वर पर कितना विश्वास था यह अलग बात है लेकिन उसे उस रूढ़ि से नफरत थी कि लोगों को घंटी बजाकर प्रार्थना की याद दिलानी पड़ती है। संभवतः यह उसकी अपनी सोच थी लेकिन मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर के संचालन के अपने नियम होते हैं और सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे कायदे होते हैं जिन्हें वहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए यह सब करना पड़ता है। खैर....अक्सर जिन्हें नियम, कायदे कानूनों से खासी परेशानी होती है उनके अपने कुछ अलग ही चरित्र होते हैं। स्टीव का भी यही हाल था। लेखक ने भले ही उसे दिलफेंक न कहा हो लेकिन जब-तब प्राकृतिक/अप्राकृतिक, अभिलाषायें/कुंठाएं सतह पर आ ही जाती हैं। इन्हीं कुंठाओं को शांत करने के लिए वह चला जाता था उस वैश्यालय में जहाँ नियत समय पर सारी लड़कियां बालकनी में खड़ी होती होंगी। शायद ग्राहकों को आमंत्रित करने का समय होता होगा। अब जब स्टीव एक नियत समय पर पहुंचता था तो घटना तो आगे के चरण पर जाना ही चाहेगी। उसे उस समूह की सबसे सुंदर लड़की बहुत पसंद थी और उसके साथ समय बिताने की कीमत थी 55 डॉलर। उसकी अंटी में 10-15 डॉलर से ज्यादा कभी हुए ही नहीं। इतनी रकम उस सफाई कर्मचारी के लिए दूर की कौड़ी थी। तो क्या करे? फिलहाल तो बस उसके दर्शन मात्र से ही सुख पा रहा था। कहते हैं कि आकर्षण के नियम (लॉ ऑफ अट्रैक्शन) का एक सिद्धान्त है कि जो आप चेतन मन से अधिक सोचते हैं वह धीरे-धीरे आपके अचेतन मन में प्रवेश कर जाता है और फिर अचेतन मन उसे आपके लिए उपलब्ध कराने में जुट जाता है। ध्यान रहे, अचेतन मन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी सोच अच्छी है या बुरी। उसे तो हुक्म की तामील करनी होती है।
जब व्यक्ति का अंतर्मन अनुचित विचारों में लगा रहता है तो फिर किसी बाह्य देवालय के वश की बात नहीं होती है कि आपका आचरण बदल पाए। क्योंकि कि हर व्यक्ति का पहला देवालय उसके अंदर होता है और दूसरा बाहर। जब अंतर्मन ही आपने शुद्ध नहीं किया तो फिर बाहर के मंदिर से जुड़ना असंभव होता है।
स्टीव के अचेतन मन के प्रयासों से उसके विकारों को साकार करने के लिए उसे एक दिन सफाई करते हुए उसी गिरजाघर में किसी का बटुआ मिल गया जिसमें 400 डॉलर की बड़ी रकम थी। स्टीव को तो जैसे इन्हीं की दरकार थी। उसने यह परवाह भी नहीं की कि इस तरह से किसी के बटुए को हड़प लेना कितना बड़ा पाप है। हालांकि उसने चोरी नहीं की थी मगर यह किसी चोरी से कम भी नहीं थी। और जैसे उसकी मुराद पूरी हो गई थी। और फिर वह रकम लेकर वैश्यालय की ओर दौड़ गया, उसी सुन्दर लड़की के पास जिसे उसने बहुत समय से केवल देखकर संतोष किया था। हालांकि उसे पता था कि वह क्या करने जा रहा था, लेकिन किसी का बटुआ हड़पने और वैश्यालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले वह प्रभु यीशु को मथ्था टेकना नहीं भूला। अब वह बिना देर किए, उस लड़की को पाना चाहता था और वासना से लथपथ सारी हदें पार करना चाहता था।
....एकतरफा ही सही, उसकी अपनी स्वप्न सुंदरी से मुलाकात और वार्तालाप शुरू हुआ। इससे पहले कि 'मिलन' की बहुप्रतीक्षित घड़ी आती, स्टीव को पता चला कि उसका नाम "मैरी" है। शायद बुराइयों से लदे उस व्यक्ति में गिरजाघर में सफाई के दौरान कहीं न कहीं दुआओं, प्रार्थनाओं, उद्घोषों से छन-छन कर आने वाला पवित्र नाम "मैरी" आज ऊपरी सतह पर आ गया था। आज गिरजाघर में सुने उस "मैरी" शब्द की आवृत्ति (frequency) संभवतः इस वैश्यालय में सुने शब्द से मेल खा गई थी। मन के किसी कौने से आवाज आई और हृदय परिवर्तन हो गया उसका। आखिर रोज-रोज की प्रार्थनाओं, घंटियाँ और वैश्यालय की ओर चलने से पहले प्रभु की चरण वंदना का कुछ तो असर होना ही था। इससे पहले कि वह उस खाई में गिरता, उसने अपने पास उपलब्ध सारे पैसे उस हसीन लड़की को दे दिए। स्टीव के मन में चल रहे झंझावतों से अनभिज्ञ वह सुंदरी तो जैसे घबरा ही गई थी कि इतने ज्यादा पैसे देकर अब उसे और न जाने क्या अनैतिक करना पड़ेगा? पूछने पर स्टीव इतना ही कह सका, "अपना नाम बदल लेना"...और फिर वह वैश्यालय, उस लड़की से दूर आ गया।
आज उसके अंतर्मन ने अनजाने ही सही, उसका 'इलाज' कर दिया था। अब उसके मन में मैरी और गिरजाघर से दूर भी वहाँ की पवित्र घंटियाँ सुनाई दे रही थीं। अब उसे उन आवाजों से कोई नफरत नहीं हो रही थी। मन से काले बादल छँट गए थे।
मैं छतलानी साहब को अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - आशीष दलाल - 2)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक एक बार पुनः आदरणीय आशीषदलाल जी हैं। आज उनकी दूसरी लघुकथा "परम्परा" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक -आशीष दलाल जी
लघुकथा - परम्परा 

अगर कहा जाए कि भारत श्रद्धालुओं का देश है तो अतिश्योक्ति न होगी लेकिन यह श्रद्धा जब अंधभक्ति का रूप ले लेती है तो वहाँ जीवन रूढ़ियों में जकड़ा हुआ सा प्रतीत होता है। इसी अंधभक्ति के कारण न जाने कितने ढोंगियों ने अपनी दुकानें चलाई और यह छोटे-मोटे विरोधों के साथ आज एक बड़ा व्यवसाय बना हुआ है। हमारे यहाँ एक कहावत हमारे खून में शामिल कर दी गई है और वह यह कि जब श्रद्धा आदि की बात की जाए तो उसमें तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। ताज्जुब की बात तो यह है कि जिस बात पर तर्क न करने की बात कही जाती है उसी बात को तर्कसंगत बताने के लिए कुछ और बातें कह दी जाती हैं। जैसे - संत रविदास जी के संदर्भ के साथ "मन चंगा तो कठौती में गंगा" और "मानिए तो ईश्वर नहीं हो पत्थर तो है ही"। हालांकि यहाँ भी तर्क तो सही दिए गए हैं लेकिन इनके द्वारा जो मंतव्य परोसा जाता है वह गलत है। इन दोनों बातों का संबंध सीधे तौर पर व्यक्ति की मनःस्थिति को सकारात्मक दृष्टि देने से है न कि किसी बात को बिना वैज्ञानिक आधार पर खरा मानने के लिए।
...प्रस्तुत लघुकथा गुजरात में प्रचलित एक परंपरा पर आधारित है जिसने आज व्यापक रूप लिया हुआ है। आज यह गुजरात के साथ कई अन्य राज्यों में भी अपना प्रसार कर रही है।

हमारे गुजरात में एक परंपरा है कि हर वह व्यक्ति जिसकी चाय-नाश्ते की दुकान है, वह अपने दुकान की पहली चाय का एक कप और एक गिलास पानी सड़क के बीचों बीच फैलाकर आता है और उस पर मान्यता यह है कि जो भी ऐसा करता है उसकी दुकान दिन भर अच्छी चलती है और उसका कारोबार बढ़ता है। सबको पता है कि अमूमन चाय वाले वैसे भी मासूम होते हैं। उन्हें क्या दिक्कत है यदि मात्र एक कप चाय और एक गिलास पानी से पूरे दिन गुल्लक में दनादन खनक लगी रहे। वैसे यह बात अलग है कि चाय वाले को कभी हल्के में न लें।
...तो यह परंपरा बहुत पुरानी और प्रचिलित है जिसे आप लगभग पूरे राज्य में देख सकते हैं। वैसे इस अंधविश्वास के इतर इस प्रथा के पीछे की कहानी और हकीकत कुछ और है। निश्चित रूप से यह प्रथा दुकान चलाने के लिए ही शुरू हुई थी लेकिन यह करना हर दुकानदार के लिए आवश्यक नहीं है। इसके मूल में जाएं तो पता चलता है कि पुराने जमाने में हाइवे और जो बड़े-बड़े शहरों या दो राज्यों को जोड़ने वाले राजमार्ग होते थे, उनके आसपास कोई बस्ती या गांव नहीं होते थे क्योंकि कि सड़कों की परियोजना अमूमन उस जगह को चयनित करके साकार होती थी जो निर्जन हो और जिससे खेती आदि के माफिक जमीनों और बने बनाये, बसे बसाए घरों को न उजाड़ना पड़े। फिर जब ये मार्ग शुरू हो जाते थे तो एकाध लोग झुग्गी-झोपड़ी बनाकर इनके किनारे चाय आदि की दुकान खोल लेते थे। ये दुकानें इन मार्गों के पास होते हुए भी काफी दूर होती थी और खासकर रात में अंधेरे के कारण इनके बारे में सड़क से गुजरने वालों को पता नहीं चल पाता था। तो इस समस्या से निजात पाने के लिए यह परम्परा शुरू हुई कि सुबह की पहली चाय और एक गिलास पानी यदि सड़क के बीचोंबीच फैला दिया जाए तो दूर से ही मोटर, बस, ट्रैक्टर आदि की रोशनी से उन्हें इस बात का पता चल जाएगा कि यहाँ चाय आदि की दुकान है। कालांतर में इसने अपना विस्तार किया और मूल कारण को छोड़ अन्य मान्यताओं को जोड़कर वर्तमान में ऐसा रूप लिया कि आजकल बीच शहर की दुकानों में भी यह चलन जारी है जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है। खैर...
....लेकिन कहते हैं न, कि विकास की अपनी एक यात्रा है। चाहे वह विचारों का विकास हो या किसी सभ्यता का विकास हो या कुछ और। उदाहरण के लिए यदि सोचें कि आज जिन फलों, सब्जियों को हम बड़े विश्वास के साथ उनके गुणों-अवगुणों को जानते हुए सेवन करते हैं, क्या वह बिना किसी विकास यात्रा के सुलभ हो गए? नहीं। हरगिज़ नहीं। पता नहीं इसके लिए हमारे कितने पूर्वजों ने अपने जीवन को खोया होगा। कितनों ने अपनी भूख मिटाने के लिए जहरीले फलों और सब्जियों को खाया होगा। ...और फिर सदियों की बलिदान गाथा के बाद वे इन नतीज़ों पर पहुंचे होंगे कि फलाना फल या सब्जी के क्या गुण और अवगुण हैं।
इस प्रकार की विकास यात्रा अनवरत चलती है और आज हम जिस स्थिति में हैं इसके मूल में "करो और सीखो" के सिद्धांत ही हैं।
....तो आज भी उसने धंधे के शुरुआत का पहला चाय का कप जैसे ही सड़क पर फैलाने की ओर कदम बढ़ाए, संभवतः अचेतन मन में बसी भावनाओं ने उन कदमों को थामने का फैसला कर लिया था। बुढ़ापे का शरीर हो, ठंडी का मौसम हो और गरीबी की मार हो तो एक सामान्य मन में संवेदनाओं का जग जाना स्वाभाविक है। और यह क्षण वह होता है जब परमात्मा आप से स्वयं अपना काम करवाता है। इससे पहले कि वह, चाय सड़क के हवाले करता, उसके कदम मुड़ गए उस ठिठुरती बुढ़िया की ओर जिसे शायद इस चाय के कप की सबसे ज्यादा जरूरत थी। कहते हैं कि जब नेकी करने का इरादा हो तो रास्ते भी उसी तरह बनते जाते हैं। आज से उस चाय वाले ने नई परम्परा को जन्म दे दिया था जिससे व्यवसाय बढ़ने की शायद कोई निश्चितता न भी हो लेकिन उस बुढ़िया की प्रसन्नता सुनिश्चित हो गयी थी। आज परम्परा बदल गई थी। खर्चा उतना ही था, बस एक कप चाय।
चूंकि आज चाय अपने सही गंतव्य तक पहुँच चुकी थी, मैं 146 शब्दों में मात्र एक शब्द की वर्तनी पर आज फिर चुप रहूँगा। संयोग यह है कि यह शब्द फिर से कल वाला ही है।
मैं आशीष दलाल जी को पुनः अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - आशीष दलाल-1)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय आशीष दलाल जी। आज उनकी लघुकथा "आग" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक -आशीष दलाल जी
लघुकथा - आग 

मानव मन अति संवेदनशील होता है। इसमें जितनी अधिक विस्तार की संभावना होती है उतनी ही ज्यादा संकुचित विचारों को पनपने की नकारात्मक क्षमता भी होती है। मनोविज्ञान कहता है कि यदि आपने अपने मन को जागरूकता से प्रशिक्षित नहीं किया है तो ज्यादा संभावना है कि मन बनी बनाई पगडंडियों पर चलकर भटक जाए और गलत निर्णय ले ले। मन पानी की तरह निर्मल हो न हो लेकिन पानी की तरह उपलब्ध बर्तन का आकार और उसके अनुरूप ढलने की क्षमता अवश्य रखता है फिर चाहे बर्तन के गुण-धर्म उसे विषाक्त ही क्यों न कर दें।
इसी मनोवैज्ञानिक आधार शिला पर टिकी लघुकथा है "आग"। जैसे ही कोई शीर्षक हमारे जेहन में आता है हम उसके नकारात्मक, सकारात्मक, नुकसान, फायदे आदि का खाका तैयार करने लग जाते हैं। 'आग' शब्द से ही विदित होता है कि यह भले ही कितनी भी सहायक या आवश्यक हो लेकिन इसके दुष्परिणामों से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। सुना है कि दक्षिण अफ्रीका में विषैले सर्पों का विष कई गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए संरक्षित किया जाता है और इससे अनेक दवाइयां बनाई जाती हैं। यह बात कितनी भी सत्य और हितकारी लगे लेकिन फिर भी विष के आचरण के बारे में कोई गलतफहमी नहीं पालना चाहेगा।
कई बार किवदंतियों ने बड़ा नुकसान किया है।..लेकिन किया भी क्या जाए जब बात को हकीकत से बड़ी नजदीक से देखने और तुलना करने का मौका मिले। ऐसी स्थिति में किसी के लिए भी उससे अपने हालातों से जोड़ना लाजिमी है।
हालांकि इस बात पर मत भिन्नता है और चर्चा की जा सकती है लेकिन यह भारत में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर देखा गया सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी महिला के लिए उसके शौहर से बड़ा और कोई नहीं होता, खासकर तब जब उसकी साझेदारी पर बात आ जाये। भले ही आपसी संबंध कितने भी उबाऊ हों, जनाब कितने भी खराब स्वभाव के हों, कोई भी महिला अपने पति को नहीं बांट सकती। कभी भी नहीं और किसी से भी नहीं, यहाँ तक कि अपनी बहिन से भी नहीं।
.....ऐसा ही कुछ ताना बाना है इस लघुकथा में निहित कथानक का। वैसे तो किसी भी महिला के लिए बात की तह में जाकर शोध करने का काम एक चुटकी बजाने से भी कम समय में करने जैसा होता है लेकिन जब मन में ऐसा कोई विचार ही न हो या बात को उस कोंण से देखा ही न हो तो शायद इधर-उधर की संभावनाओं पर ध्यान नहीं जाता है। यही किया इस कथा की महिला पात्र ने, जिसे पास ही रहने वाली श्रीमती वर्मा की आत्महत्या करने पर बहुत दुःख हो रहा था। यदि बात का कारण पता न हो तो व्यक्ति किसी की मौत पर ज्यादा दुखी होता है क्योंकि बिना संबंधित कारणों के उस आत्महत्या को बहानों की आड़ नहीं मिल पाती है। लेखक की यहाँ प्रसंशा करनी पड़ेगी कि उन्होंने किस तरह से एक घटना का जिक्र करके विचारों के प्रवाह को नई दिशा और गति दे दी। जैसे ही पतिदेव ने श्रीमती वर्मा की मौत का संभावित कारण श्री वर्मा और उनकी साली साहिबा के अंतरंग सबंधो की सुनी सुनाई संभावना की चर्चा की, मामला पलट गया। मनोविज्ञान के सिद्धांत ठांठें मारने लगे। श्रीमान जी तो अपनी बात कहकर गुशलखाने में चले गए लेकिन एक तूफान को जन्म देकर। इधर आनन फानन में उस भोली महिला ने निर्णय ले लिया और अपने पिता को पति के नाम बिल फाड़कर (झूठ बोलकर) अपनी छोटी बहिन को आगे की शिक्षा हेतु उसके यहाँ भेजने से इनकार कर दिया।
दरअसल, उनके यहाँ उनकी छोटी बहिन आगे की शिक्षा हेतु उनके पास आकर रहने वाली थी। बतौर इन महिला के इससे पहले कि इस घटना की पुनरावृत्ति इनके घर में हो, उन्होंने इस आग को सुलगने के पहले ही शांत कर देना उचित समझा।
बेचारे पति देव। इन्हें पता ही नहीं कि जिस विचार तक वह पहुंचे भी नहीं, उसका फरमान भी उनके हस्ताक्षर बना कर जारी कर दिया गया था। श्रीमती जी इस निर्णय के दुष्परिणामों से अंजान कि उनकी अपनी छोटी बहिन को अब एक अजनबी शहर में जाना पड़ेगा और किन मुश्किलों से दो-चार होना पड़ेगा। इससे इतर शायद अपने इस अग्निशमन कार्यक्रम की सफलता पर खुश भी बहुत होंगी।
यह लघुकथा आशीष जी ने अपने चिरपरिचित यानी कि 'पात्रों के नामों को नदारद या यथासंभव कम रखने' और हमारी आम बोली में सम्मिलित अंग्रेजी के शब्दों को मिश्रित करके लिखने वाले' अंदाज में ही लिखा है। जिस तरह से अगर दुकानदार बिल भले ही 100 रुपये 5 पैसे का दे लेकिन वह आपसे लेगा मात्र सौ रुपये ही, 5 पैसे का हिसाब कौन रखता है? इसी तर्ज पर 227 शब्दों में मात्र एक शब्द की वर्तनी पर मैं मौन हूँ।😊
मैं आशीष दलाल जी को एक आज के मध्यमवर्गीय सामाजिक परिवेश और आम गृहणी के मनोविज्ञान को आधार बनाकर लिखी गई लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - रतन राठौड़)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय रतन राठौड़ जी। आज उनकी लघुकथा "बर्फ जैसे बाल" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - रतन राठौड़ जी
लघुकथा - बर्फ जैसे बाल

...पुरानी बात है कि "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" और जो नियम प्राकृतिक होते हैं उन्हें किसी छद्म आवरण से न तो बदला जा सकता है और न ही टाला जा सकता है। वह अलग बात है कि अपना मन रखने के लिए, जानबूझकर स्वयं से ही लुका छिपी का खेल खेला जाए। प्रकृति के नियम सब पर समान रूप से लागू होते हैं। क्या जड़ क्या चेतन? क्या महिला, क्या पुरुष?
इसी नियम पर आधारित प्रस्तुत कथा में व्यक्ति के उम्र के साथ होने वाले एक प्रमुख शारीरिक बदलाव को एक नये नजरिये से प्रस्तुति मिली और मुझे उससे दो-चार होने का अवसर मिला।
...तो प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में बदलाव कुछ कहते हैं? क्या असलियत में इन बदलावों के कुछ मायने होते हैं? इसी प्रकार के कई प्रश्न पैदा कर दिए इस लघुकथा ने। इसे लेखक की वैचारिक धनाढ्यता या अमीरी ही कहा जायेगा कि उन्होंने बालों की सफेदी को बर्फ से तौल डाला और उससे आते हुए संदेशों को सुना, समझा।
जी, वही बर्फ, जिससे शीतलता और ठंडक का एहसास होता है। इस कथा में कथा के नायक का संवाद भी एक शीशे यानी दर्पण से कराया गया है। यह दर्पण भी वह किरदार है जो हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। शायद ही कोई इंसान होगा जिसका रोजमर्रा की जिंदगी में शीशे से पाला न पड़ता हो। यह तो वह हमसफ़र सरीखा है जिसने अपने जेहन में हमारे कितने ही राज समेटे होते हैं। और जब मैं यहाँ राज समेटने की बात कहता हूँ तो वह केवल बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक भावों को भी शामिल करना चाहता हूँ। ये शीशा तो हमारी भाव भंगिमाओं कोे रोज-रोज पढ़ा करता है। कभी तो ख्याल आता है कि अच्छा ही है कि इसमें जबान नहीं है। नहीं तो इसे संभालना भी मुश्किल का ही सबब था। फिर दूसरे ही पल भाव भंगिमा वाली बात से ख्याल आया कि काश! इसके जबान होती तो शायद एक अच्छे दोस्त का काम भी करता। यदि मुझे कभी उदास देखता तो हाल पूछ लेता, कभी जरूरत पड़ती तो कोई सलाह ही दे देता या सांत्वना देता। कभी कुछ मेरी सुनता, कभी अपनी सुनाता। खैर....
....तो फिर विवेक बाबू से जब प्रश्न पूछा गया तो वह तो सहम उठे और सकते में आ गए। स्वाभाविक सी बात है कि कोई भी व्यक्ति उस व्यक्ति के प्रश्न सुनना पसंद नहीं करता है जिसे उसने स्वयं पाला हो या उसके होने में उसी का सौजन्य हो। लेकिन आप कब तक किसी की बात को अनसुना करेंगे। सच बात को सभी को एक न एक दिन सुनना ही पड़ता है। और अगर उस सही बात में जीवन के मूल्यों का निचोड़ हो तो फिर तो नकारा भी नहीं जा सकता।

...बालों का रंगना, स्वयं को केवल जवान दिखाने का ही उपक्रम मात्र नहीं है। बल्कि इसमें निहित हैं और भी कई उद्देश या और स्पष्ट कहें तो 'दुर्गुण'। क्योंकि व्यक्ति के अंदर इसका पूरा वैचारिक तंत्र निहित है जो एक चाह से शुरू होकर कई चरणों और पड़ावों से होकर गुजरता है और कहीं अन्य जाकर रुकता है।
अब रचना पर ध्यान दें। विवेक बाबू से संवाद के दौरान आईने ने सबसे पहले सिर के बालों की तुलना बर्फ से की। बकौल आईना, "सिर के ऊपर उगी सफेद बर्फ यानी बालों को काला करके सिर्फ जवान दिखने तक की ही मंशा नहीं है। यहाँ उसके बाद कड़ी जुड़ती है व्यक्ति के क्रोध बढ़ने की। यानी बाल काले करने और जवान दिखने के साथ, समानांतर रूप से क्रोध भी बढ़ता है क्योंकि कहीं न कहीं परोक्ष रुप से जवानी और क्रोध का सुलभ साथ प्राकृतिक और स्वाभाविक है।
अब आईने के दिए संदेशों पर नजर डालें। उसने इस बर्फ अर्थात सफेद बालों के जरिये जो बातें कही हैं, वे बहुत संदेशपरक और काबिले तारीफ हैं। सिर पर सफेद बालों का सन्देश है कि आप शांत रहें, आराम से सोचें और क्रोध से बचें। भौंहों के सफेद बाल नजरों में करुणा और प्रेम के भाव रखने का संदेश दे रहे हैं। मूछों की सफेदी मीठा बोलने और सीने की सफेदी दिल के क्रोध को शांत रखने की बात कहती है, धैर्य रखने का संदेश देती है और किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना से दूर रहने की सलाह देती है।
....और फिर कहते हैं न कि कभी-कभी छोटे मुंह बड़ी बात हो ही जाती है। अंत में दर्पण ने कहते-कहते आखिरी संदेश भी स्पष्ट कर दिया। उसने कहा कि अब जब इस सफेदी के आगोश में आपका पूरा शरीर आ ही गया है तो सारे शरीर की सफेदी या बर्फीली ठंडक से अपनी "वासना की आग" को भी शांत करें।
...लेखक ने कथा का अंत बड़े ही रोचक ढंग से किया है। आईने ने अपने संदेश का अंतिम वाक्य पूरा किया और टूट गया। क्योंकि संभवतः वह अपना लक्ष्य भेद चुका था। हालांकि लेखक अगर यहाँ शीशे को सलामत भी रखता तो रचना पर कोई प्रतिकूल फर्क तो नहीं पड़ता लेकिन पाठकों को शायद उतना रोचक न लगता। यह और कुछ नहीं अपितु लेखकीय कौशल्य का एक नमूना है कि रचना को "चटकाकर" कैसे अच्छा अंत दिया जाये। निश्चित ही ऐसी रचना के लिए नए तरीके की दृष्टि चाहिए। रचना में संवाद शैली भी बड़ी प्राकृतिक सी है जिससे यह अनुभव नहीं होता है कि यह सजीव और निर्जीव के बीच की बात है।
...वैसे सरसरी तौर पर कथा में लयबद्धता है और कहीं किसी प्रकार का झोल नजर नहीं आता है लेकिन जब पाठक थोड़ा गौर करता है तो थोड़ी संशय और असमंजस की स्थिति बनती है।
कथा के शुरुआत में ही विवेक बाबू से पूछे गए प्रश्न में भ्रम और विरोधभास लगा। 'भ्रम' इस बात का कि लेखक ने लिखा है कि - अक्स बोल उठा कि, "आइए, आइए विवेक बाबू। कैसे हैं? बड़े दिनों बाद आई याद हमारी?".... और बाद में जब बात खरीदने की आई तो लगता है यह प्रश्न अक्स ने नहीं, शीशे ने किया था। यह इसलिए और कि बाद की रचना में स्पष्टतः आईने से बात हुई है।
दूसरा, 'विरोधाभास' इसलिए लगा कि विवेक बाबू जैसा व्यक्ति जो सफेद बालों को कृत्रिम रूप से काला करना चाहता है और जवान दिखना चाहता है, वह शीशे को "बड़े दिनों बाद" क्यों याद करेगा? उसका तो रोज ही और दिन में कई-कई बार, सँवरने का उपक्रम चलता रहता होगा। वैसे भी, शीशा तो आम वस्तु है जिसे शायद ही कोई कई दिनों के अंतराल के बाद प्रयोग करता हो। ..और यहाँ तो रंगीले विवेक बाबू की बात है। वह भला शीशे के बिना कहाँ सब्र करने वाले।
मैं रतन राठौड़ जी को इस लघुकथा को लिखने के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। प्रस्तुत कथा की सफेदी उर्फ बर्फ से एक बात याद आयी। फेसबुक पर लघुकथा विषयक विवाद आजकल आम हो चले हैं। क्यों न हम सब लोग इस कथा को पढ़ें, गुनें और सिर के बालों की सफेदी के संदेश को अनुसरण करें, क्रोध को त्याग दें, अच्छा सोचें, शांत रहें और शांति व सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने में सहयोग दें...। मुझे विश्वास है कि सबको लाभ मिलेगा।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चितरंजन गोप जी)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चितरंजन गोप जी। आज उनकी लघुकथा "ऐतिहासिक भ्रातृ-मिलन" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - चितरंजन गोप जी
लघुकथा - ऐतिहासिक भ्रातृ-मिलन

अभी अभी पर्यावरण दिवस गुजरा। हम सभी ने अपने अपने हिसाब से इसे मनाया। किसी ने पेड़ लगाए, किसी ने लेख लिखे, कहीं व्याख्यान दिए गए...। इसी दौरान मेरे सामने आई गोप जी की लघुकथा "भ्रातृ-मिलन"। हालांकि इस कथा में लिखी तारीखों पर चर्चा हो सकती है लेकिन उनका कोई महत्व नहीं है। अगर इतिहास में जाएं तो बर्लिन की दीवार कोई एक दिन में नहीं टूटी थी। इसे तोड़ने का निश्चय नवंबर 1989 को हुआ था लेकिन दीवार को तोड़ने का काम जून 1990 में आधिकारिक रूप से शुरू हुआ और 1992 तक चला। खैर... जैसा कि मैंने कहा तारीखें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण है गोप जी की प्रस्तुति और उसमें निहित मंतव्य। इस मंतव्य को समझने के लिए प्रकृति को समझना पड़ेगा।
बचपन में हमने स्वर्गीय श्री रामधारी सिंह #दिनकर जी की एक कविता पढ़ी थी:
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो मां, मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

इस सुन्दर बाल कविता में भी प्रकृति के जीवंत होने की बात कही गयी है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति भी वह सब महसूस करती है जो हम मनुष्य या अन्य जीव।
गोप जी की कथा में निहित संवाद को देखें तो चाँद ने अपनी माँ, पृथ्वी को प्रसन्न देखकर सवाल किया कि "आज आप काफी प्रसन्न लग रही हैं। होठों की मुस्कान छुपाए नहीं छुप रही। बात क्या है?"
मेरे लिए कथा यहीं खत्म हो गई। मैंने इतनी कथा पढ़कर पेज 98-99 उलटकर रख दिया और आँख बंद करके प्रकृति (चाँद-पृथ्वी) के इस संवाद को देखने की कोशिश करने लगा कि कैसा रहा होगा "वह दृश्य"?
इस बात को समझना, अनुभव करना और इसकी तह में जाकर अगर मतलब समझ में आ जाये तो फिर पर्यावरण दिवस सालाना नहीं, रोज-रोज का काम हो जाये। और काम भी नहीं, धर्म हो जाये, उत्सव हो जाये। क्योंकि जो काम हम अपनी खुशी से करते हैं, वह उत्सव ही होता है, उसमें न थकान होती है न अवसाद।
....खैर, मैं पाठकों को अधर में नहीं छोडूंगा। कथा आगे बढ़ी। धरती ने अपनी खुशी का कारण बताया कि कल बर्लिन की दीवार ढहेगी और उसके बच्चे (वहां के निवासी) आपस में मिलेंगे फिर प्रेम से रहेंगे।...और फिर उस घटना का घटित होना। कथा समाप्त हुई।
ये निरी काल्पनिक बातें नहीं हैं। इनमें शब्दशः सच्चाई है। तो इसे समझने के लिए जरा प्रकृति की ओर मुड़ना पड़ेगा। वैसे, यह दिव्य ज्ञान हमारे पूर्वजों ने हमें युगों पहले दिया था। लेकिन हम उस मृग की तरह रहे जो कस्तूरी को उसके पास होते हुए भी जंगल भर में भटक-भटक कर खोजता है और असफल ही रहता है।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :
“क्षिति जल पावक गगन समीरा,
पंच रचित अति अधम शरीरा।।”

अर्थात हमारा शरीर इन पाँच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से मिलकर बना है। और हमारा शरीर ही क्यों? सम्पूर्ण प्रकृति की संरचना में भी इन्हीं तत्वों का सौजन्य है। यह बात हम सभी जानते हैं लेकिन जानने और समझने में बहुत फर्क है। आश्चर्य की बात है कि यह सब जानते हुए भी प्रायः हमारा व्यवहार प्रकृति के साथ उस तरह का नहीं होता, जैसा अपेक्षित होता है। उसका कारण है कि इसे शायद हम अपने से अलग मानते हैं। यह अलग बात है कि यह सब जानते हुए होता है।
पर्यावरण दिवस जैसे अवसरों पर अक्सर प्रकृति के संरक्षण की बात, जंगलों को बचाने, पानी के संग्रहण की बात, वायु को प्रदूषित होने से बचाना, आदि कितने ही ऐसे अवसर होते हैं जब हम इनकी पैरोकारी करते हैं और हलफ लेते हैं कि इन्हें हम संरक्षित करेंगे। लेकिन ऐसा बहुत ही कम देखा गया है कि इन्हें लोग गंभीरता से लेते हैं। जब व्यक्ति अकेले में होता है तो वह इन बातों को भूल जाता है क्योंकि शायद उसे लगता कि उसके एक के करने न करने से कुछ नहीं होगा या फिर वह उसके गंभीर परिणामों को कल्पनीय मान कर नजरअंदाज कर देता है।
हमारे प्राचीन काल से ही ग्रंथों आदि से पता चलता है कि इन पाँच तत्वों का क्या महत्व होता है। इसीलिए हमने इन तत्वों के देवता भी निर्धारित किये हैं। हमने समय-समय पर इन देवताओं की आराधना के लिए समय भी निर्धारित किये। शायद इसी कारण से हमने नदियों को माँ का दर्जा दिया। आज भी दक्षिण भारत में पानी के बर्तन की रोज फूल आदि से पूजा होती है।
हमारे ग्रंथों की बातों को हमारे ही देश में कुछ तथाकथितों ने इन पर मजाक बनाया और इनके महत्व को नकारा भी। लेकिन गत वर्षों में प्रकृति के आचरण पर विलायत में वैज्ञानिकों ने इन पर शोध किया तो पाया कि इन तत्वों की स्मरण शक्ति बहुत अधिक होती है और इनका व्यवहार हमारे साथ वही होता है जो हम इनके साथ करते हैं। यह बात बड़ी गंभीर और डराने वाली है। कहते हैं कि जिस पानी के पास झगड़ा हुआ हो, वह पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि कि पानी में वह शक्ति होती है कि वह अपने आसपास उपस्थित नकारात्मक या सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करता है और उसके गुण धर्म उसी तरह के हो जाते हैं। अगर इस बात को हम अपने धार्मिक स्थानों के पानी को प्रसाद के रूप में देने की बात को जोड़ें तो कड़ी जुड़ती सी है। हमारे मंदिरों, गिरजाघर, मस्जिदों, गुरुद्वारों से पवित्र पानी के स्पर्श मात्र से चमत्कारी लाभ के बारे में सबको पता है। अमृतसर में स्वर्णमंदिर में स्थित सरोवर के पवित्र पानी की महिमा किसी से छुपी नहीं है।
मैं चितरंजन गोप जी को इस लघुकथा के लिखने के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। साथ ही समस्त पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि आप सब इस कथा को पढ़ें ही नहीं अपितु इस पर मनन करते हुए प्रकृति के प्रति अपने आचरण को भी बदलें।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - प्रतिभा मिश्रा)

मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया प्रतिभा मिश्रा जी। आज उनकी लघुकथा "सीख" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - प्रतिभा मिश्रा जी

लघुकथा - सीख

किसी के काम, पहनावे से भुलावे में मत आ जाना और यह गलती भी मत कर देना कि उसके चरित्र और चाल का आकलन करने लग जाओ। न, बिल्कुल नहीं। अब समय चला गया जब खतों की रंगत से पता चल जाता था कि पैगाम क्या होगा? किसी के पेशे से उसके हालात को पढ़ने की गलती भी अक्सर हो जाती है। पेशा, करना तो पड़ता ही है क्योंकि ऊपर वाले ने एक पेट जो दिया है। अपना पेट तो ठीक है लेकिन कभी-कभी ऐसे कई पेटों को भरने की जिम्मेवारी भी अगर किसी पर आ जाये तो फिर कभी-कभी दलदल में पांव रखना भी पड़ सकता है। लेकिन घ्यान रहे, जो दलदल में आपको खड़ा दिख रहा है जरूरी नहीं वह उसका हिस्सा भी हो। नहीं, कमल को ही देख लो, खिलता तो कीचड़ में है लेकिन धन की देवी लक्ष्मी जी पर चढ़ाया जाता है। कभी-कभी मजबूरियों के चलते उठाने पड़ते हैं वे कदम जिन्हें "सभ्यता" के समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। उस पर भी ताज्जुब यह है कि जो तथाकथित समाज उसे अच्छा नहीं कहता, अक्सर उन्हीं की हाजिरी लगती है वहाँ। बहुतायत में यही हमारे यहाँ के समाज की कड़वी हकीकत है।
.....तो फिर धर दिया न झन्नाटेदार झापड़। और क्या करे? जिन अय्याशों को रात के अंधेरे और गुमनाम गलियों में रंगरेलियां कराती महिलाएं खुद को परोसती हैं, क्या कभी उनके बारे में सोच पाते हैं लोग? सोच भी कैसे पाएं, जब खुद का ज़मीर गिरबी रखा पड़ा हो? जो अपनी पत्नी और परिवार वालों को धोखे में रख सकते हैं, उनसे उम्मीद ही क्या की जाए? जनाब, सुंदरता और उसके सुर पर मुग्ध हो गए थे। और इतना मोहित हो गए, इतना कि जनाब अपनी माँ का मंगलसूत्र ही ले गए उपहार में। ऐसों की कला पसंदगी क्या, उनका चरित्र क्या?
...लेकिन कहते हैं ना कि चाहे हजारों विषधर भी क्यों न लिपटे रहें चंदन के पेड़ों पर, चंदन कभी अपने मूलभूत गुणों, शीतलता आदि को नहीं छोड़ता है। और वही किया उस महिला ने। जैसे ही उसे पता चला कि सुधीर आज उसके तथाकथित "प्रेम" में पड़कर उसके लिए अपनी माँ का मंगलसूत्र चुराकर लाया है तो जाग गई उसके अंदर की महिला। सुना दिया अपना फैसला कि, "हम लोगों का दिल भले ही बहलाते हैं, किसी महिला को बदनाम नहीं करते।" और फिर हिदायत दी कि अगर दुबारा यहाँ आया तो टाँग तुड़वा ढ़ी जाएगी।
यहाँ सिर्फ लोभ लालच से तिलांजलि की ही बात नहीं है अपितु उसे अपने महिला और दूसरी महिला के सम्मान का भी ख्याल है। उसे खुद के कीचड़ में पड़े होने का एहसास भी है और एक दूसरी महिला का ख्याल भी है, और उस महिला का जिसका एक रूप माँ भी होता है ।...तीसरी सबसे खास बात कि उसे सुधीर की चिंता भी है कि वह वहाँ दुबारा न आये ताकि इस कीचड़ में फँसने से बच जाए। शायद यही सीख थी जो "बाई" ने सुधीर को देनी चाही थी।
किसी ने सच ही कहा है, "नारी तू नारायणी"।।
उपर्युक्त रचना के लिए प्रतिभा जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई।