'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय अनमोल झा जी । आज उनकी दो लघुकथाओं 'विश्वास' और 'भीख' पर अपनी समझ रख रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - अनमोल झा
लघुकथा - विश्वास
"बातें हैं बातों का क्या?" गाने की तर्ज पर अनमोल जी ने राजनेताओं पर पूरी तरह सटीक बैठते "वादे हैं वादों का क्या?" को अपनी रचना में चरितार्थ किया है। नेता चाहे गांव के मुखिया स्तर का हो या फिर राष्ट्रीय स्तर का, उन्होंने सत्ता की कुर्सी पाने के लिए हर चुनाव से पहले 'खोखले वादों' का सब्ज़बाग दिखाना और फिर सत्ता हासिल होते ही जनता को 'ठेंगा दिखाना', जैसे नियम बना लिया हो।
इस बार-बार के वादाखिलाफी से नेताओं पर जनता का अविश्वास बढ़ा है। तभी तो जब ग्रामीण, मुखिया जी से किरासन के कूपन की मांग करता है और बदले में मुखिया कहता है कि 'तुम लोग क्यों चिंता करते हो, वोट के बाद तुरंत घर-घर में बिजली लगवा दूंगा' तो ग्रामीण के मन में नेताओं के प्रति गहरे बैठे 'अविश्वास' की झलक उसके जबाब से पता चलती है। ग्रामीण जबाब देता है कि 'मालिक, आप बिजली रहने दीजिए, हमें तो किरासन का कूपन ही चाहिए"।
इस लघुकथा में जहाँ आज की गंदी राजनीति की तस्वीर है वहीं इसमें इसके मुख्य कारण भी छिपे हैं। आखिर आजादी मिलने के सत्तर-इकहत्तर सालों बाद भी हम शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पेयजल, भुखमरी आदि की समस्याओं से क्यों नहीं उबर पाए हैं?
जनता की सेवा के नाम पर नेताओं ने अपने कुनबों को तो धन-कुबेर बना लिया लेकिन जनता वहीं की वहीं, लाचार, गरीब, अनाथ...। इसके कारण हैं कि जनता आज भी अपना नेता अपने विवेक से चुन नहीं पा रही है। उसे अपनी जाति, अपने धर्म, अपनी भाषा वाले में अपना नेता दिखता है। उसे नेता जी के अनपढ़ होने, भ्रष्टाचारी होने, गुंडा होने से कोई परहेज नहीं है क्यों कि वह उनके मजहब या जाति का है। इन सब के कारण जनता अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी भूल जाती है।...और जनता के इसी असीम प्रेम का फायदा नेताओं ने उठाया और जनता को बना लिया अपना 'वोट बैंक'। अगर ऐसा न होता तो एक अनपढ़ नेत्री एक प्रदेश की मुख्यमंत्री न बनती, एक नौंवी फेल नेता एक प्रदेश का उपमुख्यमंत्री न बनता, एक दस्यु सुंदरी सांसद न बनती, एक बारहवीं तक पढ़ाई करने वाला एक प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री न बनता। ये तो एक नमूना भर है। न जाने ऐसे कितने उदाहरण थे और हैं हमारे देश में। जनता 'बोओगे बबूल तो आम कहाँ से पाओगे' की कहावत को खुद ही चरितार्थ करने में लगी है तो नेताओं को दोष क्यों देना?
लघुकथा के अंतिम वाक्य में मुखिया को 'मालिक' का सम्बोधन भी दासता का प्रतीक है। इसी मानसिकता ने 'जनता की सेवा' करने आये राजनेताओं को सेवक से मालिक बना दिया। जनता को ध्यान रहे कि वह स्वयं मालिक है और राजनेता सिर्फ सेवक।
मुखिया और ग्रामीण की संक्षिप्त वार्तालाप में आज की राजनीति की तस्वीर को उकेरती सुंदर लघुकथा। वैसे इस कथा का शीर्षक 'अविश्वास' भी होता तो भी कथानक के साथ अन्याय न होता।
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लेखक - अनमोल झा
लघुकथा - भीख
अनमोल जी की दूसरी लघुकथा 'भीख' में आज के आधुनिक माहौल का जाना-पहचाना सा कथानक है। प्रस्तुत कथा में भिखारी कथा के नायक की पत्नी से 'कुछ' मांगता है। नायक ने पत्नी को 'दो रुपये देने की सलाह' न मानते हुए भिखारी को दस रुपये देने का कहा। पत्नी के 'दो रुपये के स्थान पर दस देने' का कारण पूछने पर जो जबाब मिला वह काबिल-ए-गौर है। जबाब था 'अरे, बूढ़ा है, कुछ खा लेगा। बहू-बेटे मस्ती करते होंगे। बूढ़े को कौन देखता है?"
.....फिर पति को पत्नी की नजरों से ऐसा लगना कि जैसे कह रही हो कि 'आपने भी तो ऐसा किया था' कथा में गंभीरता ला देता है।
इसे पढ़ने के बाद पाठक के मन में कुछ द्वंद्व सा चलता है। वह थोड़ा पीछे जाकर कथा के 'पति-पत्नी' के वार्तालाप वाले अंश फिर से पढ़ता है। फिर समझने की कोशिश करता है कि - संवेदनायें हर व्यक्ति में होती हैं। फिर भी अक्सर लोग थोड़ी-थोड़ी जिम्मेवारियों से बचने के लिए 'माँ-बाप' को अलग-थलग छोड़ देते हैं। ऐसा सब करने के बावजूद जब ऐसा कोई भी दृश्य सामने आता है तो उसे आत्मबोध होता, अपराध बोध भी उत्पन्न होता है और आत्मग्लानि भी। दूसरी बात, हर बार वहू ही घर में हुए विघटन के लिए जिम्मेदार नहीं होती है। यह पत्नी की नजरों से होने वाले आत्मबोध वाला दृश्य 'आपने भी तो ऐसा किया था' इस कथा को अन्य समकक्ष कथानकों से अलग करता है।
आदरणीय अनमोल झा जी को उपरोक्त दोनों सुंदर लघुकथाओं के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।