Powered By Blogger

Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अनमोल झा )

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय अनमोल झा जी । आज उनकी दो लघुकथाओं 'विश्वास' और 'भीख' पर अपनी समझ रख रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - अनमोल झा
लघुकथा - विश्वास

"बातें हैं बातों का क्या?" गाने की तर्ज पर अनमोल जी ने राजनेताओं पर पूरी तरह सटीक बैठते "वादे हैं वादों का क्या?" को अपनी रचना में चरितार्थ किया है। नेता चाहे गांव के मुखिया स्तर का हो या फिर राष्ट्रीय स्तर का, उन्होंने सत्ता की कुर्सी पाने के लिए हर चुनाव से पहले 'खोखले वादों' का सब्ज़बाग दिखाना और फिर सत्ता हासिल होते ही जनता को 'ठेंगा दिखाना', जैसे नियम बना लिया हो।
इस बार-बार के वादाखिलाफी से नेताओं पर जनता का अविश्वास बढ़ा है। तभी तो जब ग्रामीण, मुखिया जी से किरासन के कूपन की मांग करता है और बदले में मुखिया कहता है कि 'तुम लोग क्यों चिंता करते हो, वोट के बाद तुरंत घर-घर में बिजली लगवा दूंगा' तो ग्रामीण के मन में नेताओं के प्रति गहरे बैठे 'अविश्वास' की झलक उसके जबाब से पता चलती है। ग्रामीण जबाब देता है कि 'मालिक, आप बिजली रहने दीजिए, हमें तो किरासन का कूपन ही चाहिए"।
इस लघुकथा में जहाँ आज की गंदी राजनीति की तस्वीर है वहीं इसमें इसके मुख्य कारण भी छिपे हैं। आखिर आजादी मिलने के सत्तर-इकहत्तर सालों बाद भी हम शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पेयजल, भुखमरी आदि की समस्याओं से क्यों नहीं उबर पाए हैं?
जनता की सेवा के नाम पर नेताओं ने अपने कुनबों को तो धन-कुबेर बना लिया लेकिन जनता वहीं की वहीं, लाचार, गरीब, अनाथ...। इसके कारण हैं कि जनता आज भी अपना नेता अपने विवेक से चुन नहीं पा रही है। उसे अपनी जाति, अपने धर्म, अपनी भाषा वाले में अपना नेता दिखता है। उसे नेता जी के अनपढ़ होने, भ्रष्टाचारी होने, गुंडा होने से कोई परहेज नहीं है क्यों कि वह उनके मजहब या जाति का है। इन सब के कारण जनता अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी भूल जाती है।...और जनता के इसी असीम प्रेम का फायदा नेताओं ने उठाया और जनता को बना लिया अपना 'वोट बैंक'। अगर ऐसा न होता तो एक अनपढ़ नेत्री एक प्रदेश की मुख्यमंत्री न बनती, एक नौंवी फेल नेता एक प्रदेश का उपमुख्यमंत्री न बनता, एक दस्यु सुंदरी सांसद न बनती, एक बारहवीं तक पढ़ाई करने वाला एक प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री न बनता। ये तो एक नमूना भर है। न जाने ऐसे कितने उदाहरण थे और हैं हमारे देश में। जनता 'बोओगे बबूल तो आम कहाँ से पाओगे' की कहावत को खुद ही चरितार्थ करने में लगी है तो नेताओं को दोष क्यों देना?
लघुकथा के अंतिम वाक्य में मुखिया को 'मालिक' का सम्बोधन भी दासता का प्रतीक है। इसी मानसिकता ने 'जनता की सेवा' करने आये राजनेताओं को सेवक से मालिक बना दिया। जनता को ध्यान रहे कि वह स्वयं मालिक है और राजनेता सिर्फ सेवक।
मुखिया और ग्रामीण की संक्षिप्त वार्तालाप में आज की राजनीति की तस्वीर को उकेरती सुंदर लघुकथा। वैसे इस कथा का शीर्षक 'अविश्वास' भी होता तो भी कथानक के साथ अन्याय न होता।
***********
लेखक - अनमोल झा
लघुकथा - भीख

अनमोल जी की दूसरी लघुकथा 'भीख' में आज के आधुनिक माहौल का जाना-पहचाना सा कथानक है। प्रस्तुत कथा में भिखारी कथा के नायक की पत्नी से 'कुछ' मांगता है। नायक ने पत्नी को 'दो रुपये देने की सलाह' न मानते हुए भिखारी को दस रुपये देने का कहा। पत्नी के 'दो रुपये के स्थान पर दस देने' का कारण पूछने पर जो जबाब मिला वह काबिल-ए-गौर है। जबाब था 'अरे, बूढ़ा है, कुछ खा लेगा। बहू-बेटे मस्ती करते होंगे। बूढ़े को कौन देखता है?"
.....फिर पति को पत्नी की नजरों से ऐसा लगना कि जैसे कह रही हो कि 'आपने भी तो ऐसा किया था' कथा में गंभीरता ला देता है।
इसे पढ़ने के बाद पाठक के मन में कुछ द्वंद्व सा चलता है। वह थोड़ा पीछे जाकर कथा के 'पति-पत्नी' के वार्तालाप वाले अंश फिर से पढ़ता है। फिर समझने की कोशिश करता है कि - संवेदनायें हर व्यक्ति में होती हैं। फिर भी अक्सर लोग थोड़ी-थोड़ी जिम्मेवारियों से बचने के लिए 'माँ-बाप' को अलग-थलग छोड़ देते हैं। ऐसा सब करने के बावजूद जब ऐसा कोई भी दृश्य सामने आता है तो उसे आत्मबोध होता, अपराध बोध भी उत्पन्न होता है और आत्मग्लानि भी। दूसरी बात, हर बार वहू ही घर में हुए विघटन के लिए जिम्मेदार नहीं होती है। यह पत्नी की नजरों से होने वाले आत्मबोध वाला दृश्य 'आपने भी तो ऐसा किया था' इस कथा को अन्य समकक्ष कथानकों से अलग करता है।
आदरणीय अनमोल झा जी को उपरोक्त दोनों सुंदर लघुकथाओं के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

Saturday, July 27, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अनन्या गौड़)

.....'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनन्या गौड़ जी। आपकी लघुकथा 'अपाहिज' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अनन्या गौड़
लघुकथा - अपाहिज
प्रस्तुत लघुकथा में आज के जीवन की भागदौड़ और परिवार के दायित्यों के प्रति सामंजस्य बनाने की जद्दोजहद की चिरपरिचित बानगी रखी है अनन्या जी ने।
....कहते हैं, बुढ़ापे में मन बच्चों जैसा हो जाता है। जहाँ अम्मा जी की रसगुल्ले खाने की इच्छा जितनी प्राकृतिक लगती है वहीं वहू देवकी का तर्क या कुतर्क भी उतना ही असहज कर देता है लेकिन किशोर का प्रेम भरा तार्किक आग्रह सुखद रहता है। हालांकि कथा में अम्मा जी की उम्र का सीधा हवाला नहीं है लेकिन 'असंख्य सिलवटों से घिरे चेहरे' ने सब वयां कर दिया।...और ऐसा नहीं है कि माँ को केवल रसगुल्ले खाने की ही इच्छा है, नहीं। उन्हें बेटे की परेशानी का ख्याल भी है सो जब बेटा ऑफिस से लौटते वक्त रसगुल्ले लाने की बात करता है तो 'देर होने की स्थिति में न लाने' की बात कहकर अपनी इच्छाओं की तिलांजलि भी देती हुई मातृप्रेम उड़ेलती दिखाई देती हैं। जब बेटा कहता है कि "आज देर नहीं होगी" तो पुत्र का प्रेम भी झलकता दिखाई देता है।
जब किशोर गाड़ी चला रहा होता है तो उसका आत्मन्थन और अफसोस भी जाहिर होता है कि किन कारणों से वह अम्मा जी से कितने दिनों से मिला भी नहीं। हालांकि कारण कितने भी दिए जाएं, असंभव तो नहीं है कि कोई एक ही घर में रहते हुए दूसरे सदस्य से मिल न सके। यह आज के आधुनिक परिवेश की दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है जिसमें बृद्ध माँ-बाप के प्रति बच्चों की असंवेदनशीलता स्पष्ट नजर आती है। इस पर मुझे मेरे स्कूल के दिन याद आ गए। जब कोई छात्र/छात्रा गृहकार्य न कर पाने के कई कारण गिनाता था तो हमारे गुरू जी कड़कती आवाज में पूछते थे, "अच्छा, इतने व्यस्त थे तो भोजन करना भूल गए थे क्या?'...और फिर बहानेवाज को निरुत्तर ही होना पड़ता था।
हालांकि लेखन की दृष्टि से कथा का अंत बहुत सुंदर तरीके से किया गया है लेकिन अंत में ऐसा भी लगता है कि शीर्षक 'अपाहिज' के साथ प्रस्तुति थोड़ी और बेहतर हो सकती थी। यह इसलिये भी लगा क्योंकि कि आखिरी दृश्य का सीधा संबंध 'शीर्षक - अपाहिज' से है। कथा में कहीं भी अम्मा जी के अपाहिज या विकलांग/दिव्यांग होने की बात नहीं कही गयी है। देवकी ने भी जब फोन करके अम्मा जी की अचानक बिगड़ी तबीयत के बारे में बताया तो ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे अम्मा जी के अपाहिज होने का संकेत मिलता हो। अमूमन सांस लेने की तकलीफ को 'अपाहिज' कहना थोड़ा सा अजीब लगता है, हालांकि इस परिभाषा को पूर्णत: नकारा भी नहीं जा सकता। शायद कथा के पूर्व, मध्य या देवकी के फोन की बातचीत में ऐसा कुछ बदलाव किया जा सकता था कि वह शीर्षक, अंतिम वाक्य और अन्ततः सार के साथ 'पूरी तरह' तारतम्य मिला पाता।
कुल मिलाकर उपर्युक्त लघुकथा अच्छी बन पड़ी है। अनन्या जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। 

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अनघा जोगलेकर)

नमस्कार,
रविवार की सुबह अब तो कुनकुनी धूप अच्छी लगने लगी है। गुलाबी सर्दी में गरम-गरम चाय का अपना आनंद ही अलग है। ऐसे में कोई साहित्य सामने हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है।
.....'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं अनघा जोगलेकर जी। इससे पहले कि मैं अनघा जोगलेकर जी की लघुकथाओं' पर अपनी समझ रखूँ, सर्वप्रथम मैं उन्हें उनके उपन्यास "अश्वत्थामा - यातना का अमरत्व" के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। उसके बाद अब रख रहा हूँ, उनकी लघुकथाओं 'दुर्भाग्य' और 'आजादी' पर 'मेरी समझ' कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अनघा जोगलेकर
लघुकथा - दुर्भाग्य

इस लघुकथा में अनघा जी ने राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में देश की आम जनता, किसान और सैनिकों की समस्याओं को उपमाओं और सांकेतिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें चाहे सीमा पर तैनात सैनिकों का विषम परिस्थितियों में देश के लिए डटे रहने, मौका आने पर खुद को न्यौछावर कर देने की बात हो या आम आदमी के लिए दो वक्त की रोटी पर भुखमरी के आतंक, रहने को छत की समस्या हो या फिर किसानों की भौतिक और आर्थिक समस्यायें हों, सभी पर लेखिका ने उनकी दीन स्थिति को उजागर किया है। इसमें लेखिका ने आमजन की पीड़ा को सुंदर लेखन शैली से अपने शब्दों में ढाला है।

आज भले ही तकनीक और सोशल मीडिया के सहयोग से जहाँ विभिन्न समाचार वाहकों, इंटरनेट की सहायता से विभिन्न वेबसाइटों, फेसबुक, ट्विटर आदि पर अनावश्यक प्रायोजित बहसें छिड़ी रहती हैं वहीं वास्तविक स्थिति बहुत भिन्न है। सत्ता में बैठे लोग धन के प्रभाव से भले ही लच्छेदार बातों, विभिन्न योजनाओं और उस पर खर्च होने वाली घोषणाओं पर ज्ञान बाँटते रहें मगर धरातल पर स्थिति शिफर ही रहती है। वे समय-समय पर मनगढ़ंत आंकड़ों और हुई प्रगति की तस्वीर कुछ भी प्रस्तुत करते रहें लेकिन वास्तविक स्थिति बड़ी भयाभय है जिसे व्यक्त करते समय लेखिका के मन का दर्द खूब छलका है। सच में आज अगर शास्त्री जी जैसे ईमानदार और जिम्मेदार नेता होते तो उन्हें आज के नेताओं और वर्तमान राजनीतिक माहौल पर दुःख हो रहा होता।
********
लेखिका - अनघा जोगलेकर

लघुकथा - आज़ादी

जिस प्रकार से स्वचालित मशीन अपना काम करती है, उसी तरह हम आजादी यानी स्वतंत्रता दिवस या इसी तरह के अन्य पर्व भी मनाते हैं। वही रटे रटाये देश भक्ति के गाने, गांधी जी के भजन, तिरंगे का फहराना, ऊंची ऊंची हांकने वालों का लिखे लिखाये भाषणों को पढ़ना, राज्यों की झांकियां, सैनिकों के कुछ करतब, रंग-बिरंगे गुब्बारों का आकाश में छोड़ना, आजादी के प्रतीक के रूप में कुछ पक्षियों को आजाद करना या इसी तर्ज पर मिलते जुलते कार्यक्रमों का आयोजित होना।....यही सब तो होता है हमारे यहाँ।
इन आयोजनों की औपचारिकता के बाद फिर से शुरू हो जाते हैं, वही पुराने काम। अंग्रेजों से आजादी तो मिली लेकिन अफसरशाही, भ्रष्टाचार, दबंगई आज भी कायम है। आम आदमी अभी भी थोपी गईं व्यवस्थाओं से परेशान है। वह हर समय अपने आप को असहज महसूस करता रहता है। इसमें लेखिका ने मानव मन की मिश्रित सहज प्रवत्ति को बड़े सहज ढंग से लिखा है। जब अधिकतर पक्षी मिली हुई आजादी से खुश हैं वहीं एक पक्षी वर्तमान में मिली आजादी से इसलिए खुश नहीं है क्यों कि उसे आगे आने वाली कैद का अंदेशा हैं। शायद पुराने कटु अनुभव हैं।
...यहाँ मुझे ओशो याद आ गए। ओशो कहते हैं, 'तुम्हारा कल आज जन्म ले रहा है। इसलिए आज ही खुशी से जियो। अगर तुम्हारा आज सुखमय नहीं है तो कल तो अवश्य ही दुःख लाएगा। कल आसमान से नहीं उतरेगा। इसे तुम आज ही गढ़ सकते हो। इसलिये, हमें अभी और आज में जीना चाहिये। आज और अभी का आनंद लेना चाहिए। यदि हम आज में मिली खुशी को जी पा रहे हैं तो निश्चित रूप से संभावना है कि कल को भी खुशियों भरा बना सकें।'
...लेकिन, ये जीवन सबका अलग-अलग है। कोई दो व्यक्तियों के जीवन और उनके अनुभव एक जैसे नहीं। कोई इसकी परिभाषा नए प्रयोग करके लिखता है तो कोई पुराने अच्छे या बुरे अनुभवों से।
*******
उपरोक्त दोनों लघुकथाओं में अनघा जी ने कथानक राजनीति और उसकी तय व्यवस्थाओं से लिये हैं। इन व्यवस्थाओं में आम आदमी की परेशानियों और पीड़ाओं को अभिव्यक्ति दी है। दोनों ही कथाओं में पढ़ते समय पाठक अपने आप को पीड़ित/ भुक्तभोगी के स्थान पर स्वयं को खड़ा पाता है, अपने आप को उससे जुड़ा पाता है। इन कथाओं की विशेषता यह है कि कोई भी पाठक लगातार (एक के बाद एक) दोनों कथाएं नहीं पढ़ सकता। मेरा मतलब है कि एक कथा पढ़ने के बाद पाठक कथानक पर मनन करता है, सोचता है, वह अपने आपको पात्रों से जोड़ता है, उसका ह्रदय द्रवित होता है...फिर दूसरी लघुकथा पढ़ना शुरू करता है।...जी, यह मेरा अनुभव है।
दोनों अच्छी लघुकथाओं के लिए अनघा जोगलेकर जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

Friday, July 26, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अखिलेश शर्मा)


शुभ संध्या,

आज मेरे पास गंतव्य तक पहुंचने के लिए लगभग चार घंटे का समय था। जानबूझकर ''लघुकथा कलश' रखी ही थी थैले के ऊपरी खाने में। बैटरी भी लगभग 95% थी तो फिर कर लिया समय का सदुपयोग। 'मेरी समझ' की अगली कड़ी में एक और लघुकथा लेखक श्री अखिलेश शर्मा जी की दो लघुकथायें   'चीरहरण इस बार' और 'संबल' को इस यात्रा में पढ़ने और समझने का प्रयास किया, कुछ इस प्रकार:

लेखक - अखिलेश शर्मा
लघुकथा - चीरहरण इस बार

जैसे ही पढ़ना शुरू किया, पहले तो लगा कि शायद लेखक को महाभारत काल के उस दुःखद दृश्य के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, या लिखने में कोई भूल हुई है पर अगले ही पल मन को समझा लिया कि 'नाम' में क्या रखा है? दरअसल इस लघुकथा में द्वापर युग के 'चीरहरण' से भिन्न, चीरहरण, दुःशासन नहीं, दुर्योधन करने वाला है।

इस बार सब तैयार हैं। आततायी भी, द्रोपदी भी और भगवान भी और तमाशबीन भी। जगदीश्वर तो उस समय भी तैयार थे लेकिन बकौल अखिलेश जी, इस बार उतने तामझाम की गुंजाइश नहीं छोड़ी उन्होंने। कोई मंच पर मंचन तो हो नहीं रहा कि हर बार की तरह फिर सारे वही काम दोहरा दिए जायें। दर्शक अगर सो भी जाये तो क्या फर्क पड़ता है? उसे तो सारी कहानी याद है, सारे किरदार, उनके काम और वक्तव्य। 

....पर इस बार कुछ नया है, त्वरित है। पहले भी भगवान का पूरा सहारा था, इस बार भी है। पहले तो चीर को बढ़ाते गए थे लेकिन इस बार इतना श्रम क्यों? इस बार द्रोपदी तुम स्वयं ही सक्षम हो अपनी सहायता के लिए, अपनी रक्षा के लिए। संदेश बड़ा साफ है। गलतियों से सीखो 'निर्भया'। तुम्हारी गलती इतनी ही रहती है कि तुम चुप रहती हो, खामोश रहती हो। लेकिन अब और नहीं। तुम्हें तुम्हारा सम्बल स्वयं बनना है, निर्भया। तो फिर तरकीब अच्छी है। खुद ही सुसज्जित हो जाये नारी। अब वह अबला न रही। सबला बन चुकी है। खुद खड़ी है डटकर, आत्मरक्षा के लिए। आओ, भेडियो, तुम्हें आज ही रौंद देना है। वर्षों बाद #मीटू के खुलासे नहीं होंगे अब। #मीटू के खुलासों की जरूरत भी न होगी। अब तो सीधे परिणाम आएंगे। अभी, आज ही खत्म करने हैं तुम्हारे गलत मंसूबे, अभी आज ही पढ़ाना है पाठ तुम्हें, अभी आज ही लगानी है आग तुम्हारे वहशी इरादों में, ताकि फिर किसी और 'चीरहरण' की नौबत ही न आये।

अखिलेश शर्मा जी ने अपने लेखन कौशल्य से बताया कि समय कोई भी हो, युग कोई भी हो, समाज का विन्यास और महिला की स्थिति बदलने वाली नहीं है। 

मशहूर हास्य कवि श्री सुरेंद्र शर्मा जी की कुछ लाइनें याद आ गईं। जिसमें उन्होंने जनता की तुलना त्रेता और द्वापर युग की प्रताड़ित महिलाओं से की है। यहाँ हम थोड़ी देर के लिए जनता को अलग रखते हैं और रचना में दर्ज महिला की विभिन्न युगों में स्थिति को देखते हैं।

कोई फर्क नहीं पड़ता
इस देश में राजा रावण हो या राम, 
जनता तो बेचारी सीता है
रावण राजा हुआ तो वनवास से चोरी चली जाएगी
और राम राजा हुआ तो अग्नि परीक्षा के बाद फिर वनवास में भेज दी जाएगी।

कोई फर्क नहीं पड़ता इस देश में राजा
कौरव हो या पांडव
जनता तो बेचारी द्रौपदी है
कौरव राजा हुए तो चीर हरण के काम आयेगी
और पांडव राजा हुए तो जुए में हार दी जाएगी।

~~सही भी है, महिलाओं के लिए समय कभी नहीं बदलता।

प्रस्तुत लघुकथा में आज के समय में फिर से वही दरबार सजा है, उसी कुत्सित मानसिकता से लवरेज मानवों के वेश और भेष में लालची, लंपट, धूर्त, राक्षस मौजूद हैं। और जो इनके इतर हैं उनसे भी एक ही उम्मीद है कि उन्हें तमाशा देखना है, चुप रहना है और मौका लगते ही अट्टहास करना है। तब भी पितामह, मंत्री विदुर, आचार्य द्रोण जैसे विद्वान चुप थे और आज भी स्थिति उससे ज्यादा बदली नहीं है। तब भी ईश्वर का सहारा था और आज भी है। फिर ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है, उसे ही कुछ करना पड़ेगा और उन्होंने फिर शर्मा जी की लेखनी से सशक्त कर दिया द्रोपदी को, निर्भया को....।

इस लघुकथा में अंग्रेजी का एकमात्र शब्द 'प्लान' नहीं भी होता तो चलता था लेकिन अब है तो है।

तीन पात्रों, बढ़िया कथानक और सुंदर संदेश के साथ, अनावश्यक विस्तार से दूर अच्छी रचना।
              ********

लेखक - अखिलेश शर्मा
लघुकथा - संबल

अक्सर हम उम्रदराज लोगों से सुनते हैं कि 'मेरे बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं' यानी उनकी उम्र यों ही बड़ी नहीं हो गई। उन्होंने जिंदगी के बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं और इन्हीं अनुभवों से सीखकर वह जिंदगी में आने वाली समस्याओं से जूझते हैं और मुश्किलों से पार पा लेते हैं। ऐसा ही अखिलेश जी ने लिखा है अपनी दूसरी सुंदर लघुकथा 'संबल' में। मौषम और बूढ़े बृक्ष के संक्षिप्त वार्तालाप में बहुत सुंदर तरीके से बताने का सुंदर प्रयास किया है कि मुश्किलों से घबरायें नहीं। इनसे सीखें और भविष्य में यदि कोई समस्या आती है तो इन्ही से सीखकर समस्याओं का तोड़ निकालें और डटे रहें। 

हिन्दी के महान कवि श्री सोहनलाल द्विवेदी जी ने अपनी एक बहुचर्चित कविता में भी बहुत सुंदर संदेश दिया है। उनकी उस सुप्रसिद्ध कविता की कुछ लाइनें आप सब की नज़र :

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

अखिलेश शर्मा जी की उपर्युक्त दोनों लघुकथाओं में 'में' के साथ ज्यादती हो गई। इसे हर जगह 'मे' ही मुद्रित किया गया है। दोनों लघुकथाओं में 'तुममें' का 'में' भी अगर जोड़ लें तो ऐसा कुल 6 बार हुआ है। दूसरी लघुकथा 'संबल' में एक जगह 'हूँ' का 'हुँ' भी हुआ है लेकिन 'की फर्क पेंदा'?

उपर्युक्त दोनों सुंदर लघुकथाओं के लिए आदरणीय अखिलेश शर्मा जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।


गुरुग्राम से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र '​हरियाणा प्रदीप' में में प्रकशित मेरा आलेख


"हिन्दी लघुकथा - प्रासंगिकता एवं प्रयोजन" में प्रकशित मेरा आलेख





हिन्दी लघुकथा प्रासंगिकता एवं प्रयोजन

अपनी समझ अपनी समझ के तहत पुस्तक समीक्षा 
"हिन्दी लघुकथा प्रासंगिकता एवं प्रयोजन"

हिन्दी लघुकथा - प्रासंगिकता एवं प्रयोजन। जी हाँ, यही है इस पुस्तक का नाम जो अभी नई-नई पाठकों के हांथों में आई है। इस पुस्तक की संपादिका हैं डॉ मिथिलेश दीक्षित जी। 

आज सर्वविदित है कि लघुकथा विधा किसी परिचय की मोहताज नहीं है। इसके बाबजूद आज भी कुछ दूसरी विधाओं के लेखक और विद्वान इस विधा के औचित्य और भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते मिल जाएंगे। उनका सोचना है कि यह चंद पंक्तियों की रचना भी क्या साहित्य की एक प्रमुख विधा हो सकती है? किसी भी आलोचना के एक से अधिक पहलू होते हैं अतः लघुकथा की आलोचना को भी सामान्य तरह से ही लेना श्रेयस्कर होगा। संभवतः इस आलोचना के पीछे उनकी चिंता लघुकथा का उनकी विधाओं पर आधिपत्य के संकट के रूप में हो लेकिन हकीकत इससे काफी दूर है। लघुकथा की प्रासंगिकता यह भी है कि आज बहुत से उपन्यासकार, कहानीकार व अन्य विधाओं के लेखक भी लघुकथायें लिख रहे हैं। लघुकथा के प्रति दुराव या संकीर्ण सोच का कोई ठोस आधार किसी के पास नहीं है। दरअसल, लघुकथा किसी विधा को खत्म करने नहीं बल्कि दूसरी विधाओं को सम्बल देने आई है। आज एक अफवाह है जिसमें आंशिक सच्चाई भी है कि आज हिन्दी साहित्य पाठकों की कमी महसूस कर रहा है। यह आंशिक रूप से सही है। पाठकों का किसी भी साहित्य से अरुचि का कारण स्वयं लेखक और उनका लिखा हुआ साहित्य है। जब पाठक को साहित्य के नाम पर कचरा परोसा जाएगा तो इस कचरे को कोई भी पाठक अधिक समय तक पचा नहीं पाता है, खासकर तब जब यह साहित्य बड़ा और उबाऊ हो। यहाँ बड़ा से तात्पर्य कहानी और उपन्यासों से है (हालांकि अच्छी पुस्तकों की हर विधा और भाषा में मांग हमेशा रहती है)। इसी नीरसता के माहौल को हल्का करने, पाठकों को साहित्य से सरोकार और संबंध बनाने का काम करती है, लघुकथा। लघुकथा अपने सुडौल आकार, बनक-ठनक और 'सीधी बात - बिना बकवास' के कारण पाठकों तक सीधी अपनी पैठ बनाती है और उनकी प्रिय बन जाती है। यहीं से फिर शुरू होता है पाठकों का साहित्य से जुड़ाव। आज का माहौल आपाधापी वाला है, समय की किल्लत है तो ऐसे में भी जो पाठकों को अपने से जोड़े रहती है, वह है लघुकथा।

आकर्षक आवरण और साजसज्जा के साथ 100 पृष्ठीय यह पुस्तक अपने आप में एक ग्रंथ सरीखी है। इस पुस्तक को ग्रंथ कहने के पीछे कुछ कारण हैं : 
पहला तो यह कि इस पुस्तक को ग्रंथ बनाने में जिन 34 मनीषियों ने अपना योगदान दिया है उनमें संपादिका सहित लघुकथा जगत के अग्रणी पंक्ति के लोग हैं। संदर्भ के लिए कृपया संलग्न अनुक्रमणिका  देखें। इन विद्वानों/विदुषियों को पढ़ा जाना, सुना जाना किसी भी लघुकथा और साहित्य प्रेमी के लिए वरदान और सौभाग्य सदृश होता है। यहाँ यह लिखना आवश्यक भी है कि इन पारखियों के सानिध्य में मेरे जैसे विद्यार्थी को भी कुछ लिखने का अवसर मिला जिसके लिए मैं संपादिका जी का ह्रदय से आभारी हूँ।


दूसरा - संभवत: हिन्दी लघुकथा के बारे में इस तरह का काम पहली बार इतनी संजीदगी से हुआ है जहाँ पाठकों को एक ही स्थान पर लघुुकथा के बारेे में सिर्फ परिचय ही नहीं अपितु इसके भूूूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में, इसकी प्रासंगिकता और प्रयोजन केे  बारे में भी सही, सटीक और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध हो रही है। निश्चित रूप से यह पुस्तक लघुकथा के शोधकर्ताओं के लिए एक अच्छी सहायक पुस्तक का काम करेगी।

पुस्तक को संपादक महोदया ने डॉ कमलकिशोर गोयनका जी को समर्पित किया है। संपादिका जी के प्राक्कथन के बाद आरंभ होते हैं पुस्तक में निहित आलेखों के मूल बिन्दु। इन मूल बिन्दुओं में सभी लेखकों के आलेखों के निचोड़ लिखे हैं। इन बिंदुओं को अगर पुस्तक की कुंजी कहा जाय तो अतिश्योक्ति न होगी। जहाँ पाठक को इन बिंदुओं को पढ़कर तुरंत पुस्तक की गंभीरता के बारे में पता चल जाता है वहीं वह पुस्तक को प्राप्त करने और पढ़ने के लिए भी प्रेरित होता है। यह कुछ उसी तरह से है जैसे एक कुशल गृहिणी जब हांडी में चावलों के पकने का अंदाज लगाती है तो उसे सभी चावल देखने की आवश्यकता नहीं होती है अपितु एक-दो चावलों के नमूनों से ही वह सहजता से निर्णय ले लेती है।

इन बिंदुओं के बाद ही आरंभ होते हैं लेखकों के सारगर्भित आलेख।

मैं इस पुस्तक की संपादक आदरणीया मिथिलेश दीक्षित जी और सभी लेखकों को इस उपयोगी पुस्तक को पाठकों तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद, बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। उनके इस सफर में सहायक बने प्रकाशक निखिल प्रकाशन को सुंदर मुद्रण के लिए बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।


Tuesday, July 23, 2019

केवल तुम्हारे लिए

''अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा"
◆◆  ●●  ◆◆◆◆  ●●  ◆◆◆◆  ●●  
काव्य संग्रह - "केवल तुम्हारे लिए"
रचनाकार - डॉ क्षमा सिसौदिया
प्रकाशक - श्रद्धा जेम्स रॉबिन्स 
मूल्य: ₹ २००/- 

....अक्सर हम किताबें मुख्य पृष्ठ से पढ़ना शुरू करते हैं लेकिन कुछ संयोग ऐसा बना कि मैंने "केवल तुम्हारे लिए" का आखिरी आवरण पृष्ठ सबसे पहले पढ़ा। अच्छा ही हुआ जो पहले यह पढ़ लिया नहीं तो पूरी किताब पढ़ने के बाद ही पता चलता कि क्षमा जी का इस खूबसूरत पुस्तक को लिखने और इसका यह नाम रखने के पीछे क्या कारण रहे होंगे। क्षमा जी के विस्तृत परिचय के साथ उसमें निहित कारण पता चले और रही सही कसर पूरी कर दी इसमें लगे हुए बुक मार्क ने। क्षमा जी ने बुक मार्क में अपने पति की तस्वीर लगाई है। दरअसल जब उन्होंने पहली बार पति से अपने लिखने की इच्छा जाहिर की थी तो उन्होंने कहा था कि 'लिखिये, मगर नाम मेरा लिखना'। हालांकि उस समय तो लेखिका ने जैसे लिखना बंद ही कर दिया था पर अंतराल के बाद जब लिखा तो इस पुस्तक का नाम ही 'केवल तुम्हारे लिए' रख दिया। लेखिका की इस स्वीकारोक्ति से ही पता चलता है कि वह कितनी संवेदनशील हैं।


इसी तरह पुस्तक के आवरण के रंग-रूप, साज-सज्जा को समझ पाना भी मेरे लिए थोड़ा सा पहेली जैसा था। आवरण पृष्ठ के स्याह, श्वेत-श्याम रंग में छुपे 'गुलाब के पुष्प, इबादत की मुद्रा में एक जोड़ी हाथ और साथ में कलम' से पहले तो कुछ आभास न कर पाया लेकिन जैसे-जैसे उनकी रचनाओं से रूबरू होता गया, परतें खुलने लगीं। आकर्षक जिल्द और उच्च गुणवत्ता के कागजों पर मुद्रित ८८ पेज के गुलदस्ते में क्षमा जी ने ६ क्षणिकाओं सहित ६० रंग-बिरंगी रचनाओं को गूंथा है। उनकी लगभग हर रचना में एक पीड़ा सी है, समाज के दिए गए दंशों के कारण क्षुब्धता है, आक्रोश है, एक दर्द सा है और दर्द के साथ उम्मीद, हिम्मत और साहस से आगे बढ़ने की सीख भी है। क्षमा जी ने जैसे स्त्री मन की सारी व्यथाओं, मनःस्थितियों और जीवन के विभिन्न पड़ावों पर मिलने वाले कुछ चरित्रों, अनुभवों, उनसे मिली सीखों, आदि को अपनी किताब में बड़ी कुशलता से उकेरा है। उनकी हर रचना पाठक को थोड़ा रुककर, ठहरकर सोचने और मंथन करने पर मजबूर कर देती है। उन्होंने नारी मन को बहुत करीब से पढ़ा है। उनकी हर रचना से उनके सरल और विचारशील व्यक्तित्व का भी परिचय मिलता है। उनकी अधिकतर रचनाएँ अतुकांत हैं जो कि आधुनिक काव्य की एक प्रचिलित और स्वीकार्य शैली है। रचनाकार ने इस पुस्तक में हिन्दी के बहुत ही सरल और आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है जो पाठकों को जल्दी ही रचनाओं की आत्मा तक पहुंचा देता है। इसी प्रकार रचनाओं के शीर्षक बहुत ही चिर परिचित हैं।   
  
'केवल तुम्हारे लिए' की सुन्दर भूमिका लेखिका के गुरुदेव प्रो. हरमोहन बुधौलिया जी ने लिखी है। आत्मकथ्य के आभारी उद्बोधन के बाद शुरू होती है उनकी लेखनी की बाजीगरी। उनकी प्रथम रचना "प्रार्थना" में 'तेरे साथ रोऊँ, तेरे साथ हँसू, तुम मेरे साथ रहना मेरे संग प्रभु।' जैसे ईश्वर के साथ साक्षात बात हो रही है। असल में यही है प्रार्थना, यही है इबादत।

जैसे जैसे आगे बढ़ता हूँ, 'श्रद्धांजलि' और 'हमराही' दो रचनायें, दोनों एक दूसरे की पूरक सी लगती हैं। जैसे कोई डर है प्रिय से दूर होने का -

"उठती है सिसकियाँ जब कलेजे को चीरती, कौन सुन पाता है उसके दर्द की आवाज।" 

दर्द का अहसास भी है और अगले पल सांत्वना भी है - 'तुम ही वीर और तुम ही हो वीरांगना नारी।' 

अब पाठक थोड़ा शांत हो जाता है। उसे लगा, नहीं, उसे दर्द तो है पर हिम्मत भी है। अगली रचनायें जहाँ "भ्रूण हत्या' और 'समझौता' बालिका और नारी मन की पीड़ा बताती हैं वहीं अगले ही पल 'जिंदगी' में भी दुःख के बाद "ओस की वो बून्द नहीं, जो धूप आने पर चली जाए" बड़ी गंभीर बात कहती प्रतीत होती है। दूसरों के फैसलों से 'फैसला' में एतराज भी है और 'आंसू' में इसे ताकत बनाने की सलाह भी है। 'नारी' में लिखा कि स्त्री क्या है? "उसने ठान लिया है, मान लिया है, चट्टानों से टकराना जान लिया है।" 

फिर नारी मन की 'परिभाषा' गढ़ती और निरंतर 'कोशिश' में नजरिये को सकारात्मक करने की बात कहती हैं। 'वक्त' के 'दर्द' को 'कलम' से 'बदलाव' का सन्देश देती चार सशक्त कविताओं की अच्छी कड़ी बन पड़ी है। अगली कविता में 'नदी' को आवाज बनाकर उसके साथ बहने की बात है तो 'झरोखा' में फिर सन्देश है कि 'दुःख की अंधेरी रात ढली, सुख का सुखद प्रभात फिर आया' - महिलाओं के लिए अच्छा और सुखद सन्देश है। थोड़ा और आगे बढ़े तो 'शुतुरमुर्ग' में स्त्रियों के सम्मान बचाने की बात है तो 'पलायन' में जिंदगी के झंझावातों से घबराकर न भागने की बात है। 'हारकर पलायन कर जाना जिंदगी नहीं, रौंदकर विपत्तियों को जीना है जिंदगी।' 

'संगीत' में उसके सकारात्मक गुणों की बात है तो 'खत','बिरहिन', 'गजल', 'वादा', 'सावन' और 'खारा प्यार'  में प्रेमी/साथी से क्रमशः ग़लतफ़हमी, जुदाई और शिकायतों की गठरियां हैं। 'शब्द' और 'कविता' में व्यक्ति की सोच और उसके दूसरों पर प्रभाव का आकलन है। 'सम्बल' में जिंदगी को कोशिशों का नाम दिया है तो 'उड़ान', 'दुनिया' और 'तृष्णा' में फिर से मुश्किलों से डटकर जूझने की बात कही है। 'संपत्ति' में असली धन का अर्थ समझाया है तो 'दूरदर्शिता' में सजग रहते हुए समस्याओं से निजात पाने की सीख है। 'प्रकृति' में उसके साथ हो रहे अतिक्रमण की समस्या की  चिंता है तो 'नैराश्य' और 'उम्मीद' में निराशा से आशा में जीने की बातें हैं। 'जिद्द' में बुराइयों से दूर रहने की जिद है तो 'मोल' में एकबार फिर से आत्मचिंतन कर अपना मूल्य पहचानने की बात है। 'आश्चर्य' में जीवन में आये अनेक बदलावों से अचंभित होने का जिक्र है तो 'ख्वाहिश' में आसमां छूने की आशावादी बातें हैं। 'माँ' में माँ की महिमा का वर्णन है तो 'शाम' में दिनभर की तपिश के बाद की सुखद तस्वीर है। 'कल्पना' और 'मुस्कान' में एक बार फिर से नई उम्मीद के साथ जिंदगी जीने के सुखद फलसफे हैं। 'मित्र' में अवसरवादी मित्रों की बातें हैं, 'स्वप्न' में नारी मन के विचारों को हकीकत से रूबरू कराती चर्चा है और 'ख़ामोशी' व 'मौन' जैसी कविताओं में अपनी पीड़ाओं को सहेजती पंक्तियाँ हैं। 

'अनोखी कार' में दूसरों की ईर्ष्या-द्वेष पर व्यंग तो 'रिश्ते' में महिला को पुरुष के अत्याचार से सचेत कराती सलाह भी है। 'कन्यादान' में बेटी की शादी में हमारी परम्पराओं की बात तो 'बेटियां' में बेटियों की खूबियां, 'मेरे पिता' में पिता-पुत्री के रिश्ते की वह तस्वीर जिसमे प्रेम भी है और पिता का अनुशासन भी है। 'कवि' में आदर्श कवि की परिभाषा तो 'अहसास' में एकबार फिर से नारी को स्वयं को पहचानने की बात कही है। यहाँ पता नहीं, कुछ त्रुटि है या और कुछ। कवितायें 'नारी' और 'अहसास' की कुछ पक्तियां दोनों रचनाओं में एक समान हैं। खैर.... 'चाहत' में प्रिय के साथ बीते सुखद समय को भुलाने की कोशिश है तो 'दृष्टिकोण' में सकारात्मक रहने की बात और जीवन के अंतिम सत्य 'मौत' में अपने-पराये और उनकी सोच से परिचय कराना है। 

अंत में ६ क्षणिकाएं हैं जिनमें मेहनतकश, गरीबी-अमीरी और उनमें निहित मनोभावों के सूक्ष्म चित्रण हैं।

अगर छोटी-मोटी वर्तनी की त्रुटियों, दो कविताओं में कुछ पंक्तियों की पुनरावृत्ति को नजरअंदाज किया जाए तो डॉ क्षमा जी का यह प्रथम काव्य संग्रह बहुत सुंदर बन पड़ा है। हालांकि कुछ रचनाओं में विषयों की समानता भी है लेकिन भिन्न शीर्षक और विन्यास से कहीं भी एकरसता नहीं आयी है जो कि रचनाकार की लेखन क्षमता की विविधता का परिचायक है। मुझे लगता है कि हर पाठक, खासकर महिलाएँ अपने आपको इन रचनाओं में किसी न किसी रूप में महसूस करेंगी। डॉ क्षमा जी को उनके इस काव्य संग्रह के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। मुझे विश्वास है कि आगामी समय में पाठकों को उनके और भी संग्रहों को पढ़ने का लाभ मिलेगा।

रजनीश दीक्षित


Friday, July 19, 2019

मेरी लघुकथा - "धर्म की सीढ़ी"

गुरुग्राम से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र '​हरियाणा प्रदीप' में प्रकाशित मेरी लघुकथा  - "धर्म की सीढ़ी"

मेरी लघुकथा "जिज्जी की राखी" का मैथिली में अनुवाद "दीदीक राखी"

बड़े हर्ष के साथ सूचित कर रहा हूँ कि कोलकाता से प्रकाशित मैथिली पत्रिका - कर्णामृत (जनवरी- जून 2019, लघुकथा अंक) में मेरी हिन्दी की मूल लघुकथा "जिज्जी की राखी" को मैथिली में अनूदित करके "दीदीक राखी" शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। इसका अनुवाद श्री मिथिलेश कुमार झा जी ने किया है। इसके लिए पत्रिका के संपादन मंडल, विशेष रूप से अतिथि संपादक श्री अनमोल झा जी का बहुत आभारी हूँ। 


मेरी हिन्दी की मूल लघुकथा "जिज्जी की राखी" का  मैथिली में अनुवाद करके "दीदीक राखी" शीर्षक से प्रकाशित किया गया 

आप सबके लिए अपनी मूल रचना को यहाँ प्रेषित  कर रहा हूँ। आप सबको सूचनार्थ बता दूँ की मुझे "जिज्जी की राखी" के लिए "हिन्दी लेखक संघ" दिल्ली द्वारा अगस्त 2017 में आयोजित एक साप्ताहिक लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में "सर्वश्रेष्ठ लघुकथाकार" का सम्मान भी प्राप्त हुआ था। 

Thursday, July 18, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अखिलेश पालरिया)


सादर नमस्कार,
आज फिर हाजिर हूँ, एक और लघुकथा लेखक आदरणीय श्री अखिलेश पालरिया जी की दो लघुकथाओं  'संवेदना' और 'निःशुल्क' पर अपनी यानी 'मेरी समझ' के साथ। अब मुझे जो समझ में आया, कुछ इस प्रकार है:

लेखक - अखिलेश पालरिया
लघुकथा - संवेदना

....ह्म्म्म कहीं पढ़ी थी मैंने वो शायरी। मुझे ठीक से शायर का नाम और उनका पूरा शेर याद तो नहीं है लेकिन शब्द कुछ इस तरह के थे -

नई दुनिया बसाने को आमादा हैं लोग,
कई तो एक ही घर में न्यारे हो रहे हैं।

पालरिया जी ने अपनी इस लघुकथा में आज के समय की लगभग हर घर की कहानी को पिरोया है। इसमें संवेदनाओं का तानाबाना बना है, लेखक ने, जहाँ आज यथासंभव शारीरिक और आर्थिक रूप से समर्थ और स्वाभिमानी बुजुर्ग, लड़के और खासकर बहू के नियंत्रण में रहना नहीं चाहते हैं। उन्हें लगता है कि सारी उम्र जहाँ परिवार के प्रबंधन में खपाई, अब किसी और की निगरानी और रहमोकरम पर क्यों रहें? वहीं नई पीढ़ी, बुजुर्ग माँ-बाप को अपने साथ नहीं रखना चाहती। उन्हें लगता है कि बूढ़े माँ-बाप या सास-ससुर उनके ऊपर आर्थिक और देखभाल की जिम्मेवारी के रूप में भार बन जाते हैं। आज के समय की यह कड़वी और दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है। 

पालरिया जी ने इस लघुकथा में इस घर-घर की कहानी को बहुत ही संतुलित ढंग से प्रस्तुत किया है। जहाँ केसरी देवी अपने पति के मकान को नहीं छोड़ना चाहतीं हैं और अकेले रह रहीं हैं वहीँ दूसरा कारण उनकी बहू का रुखा व्यवहार भी है। बहू का रूखा व्यवहार वैसे तो ज्यादा वर्णित या मुखर नहीं है लेकिन उस समय इस बात की तस्दीक हो ही गई जब उनके नाती ने दादी के लिए कचौड़ी लेने की बात कही और उस मासूम को डांट मिली कि 'तुम केवल अपना ध्यान रखो, समझे?'

इस कथा में लेखक ने हालाँकि  केसरी देवी के बेटे के व्यवहार को ज्यादा उभारा नहीं है और लगभग उदासीन ही रखा है लेकिन माँ और पत्नी के बीच सामंजस्य बनाते दिखता है। इसे उसका चातुर्य कहें तो भी ठीक रहेगा। वास्तविक जीवन में भी अक्सर आप बेटों को इस जद्दोजहद से जूझते देख सकते हैं। 

पहला बहुत ही सकारात्मक पक्ष इस कथा का 'बहू-बेटे का माँ के पास हर रविवार को जाना' है। समाज में अगर कुछ समस्याएं हैं तो उनकी तासीर कम करने के लिए उपाय भी हैं। इसके सम्भव होने के दो कारण हैं। पहला बहू-बेटे का सहयोगी व्यवहार और दूसरा कि वे उसी शहर में रहते हैं।

कथा का दूसरा सकारात्मक पहलू है केसरी देवी के पोते का व्यवहार जो चतुराई से अपनी कचौड़ी दादी के लिए बचा लेता है और जाते वक्त उन्हें थमा देता है। इस लघुकथा का शीर्षक 'संवेदना' सरसरी तौर पर देखा जाए तो अंत में पोते-दादी के कचौड़ी वाले प्रसंग में दिखता है लेकिन थोड़ा गौर से देखें तो वे सब संवेदनायें ही हैं जब केसरी देवी का पुत्र-पुत्रबधू-पोते का हर रविवार को इंतजार करना, उनके बेटे-बहू-पोते का हर रविवार जाना और पोते का कचौड़ी प्रसंग।

लघुकथा के कुल चार पात्रों में केसरी देवी के अलावा किसी का नामकरण नहीं हुआ है। पाठक को वैसे तो कोई खास दिक्कत नहीं लेकिन इस कारण 'बेटे' शब्द का 12 बार प्रयोग किया गया क्यों कि दो पात्रों (केसरी देवी के बेटे और पोते) को आवश्यकतानुसार बेटे से ही संबोधित किया गया। 

लेखक - अखिलेश पालरिया
लघुकथा - निःशुल्क

बचपन से एक कहावत सुनता आया हूँ 'घर की मुर्गी दाल बराबर' यानी अक्सर हम उन व्यक्तियों या वस्तुओं की कद्र नहीं करते जो हमारे अपने होते हैं और हमें किसी प्रकार की पीड़ा या हमसे बिना किसी अपेक्षा के हमारे काम आते हैं या जो वस्तुयें हमें बिना किसी कठिन परिश्रम या बिना पैसे खर्च किये प्राप्त होती हैं। 

....ऐसा ही कुछ लिखा है अपनी लघुकथा 'निःशुल्क' में पालरिया जी ने। मानव मन की सरल मन:स्थिति का चित्रण जिसमें अक्सर अस्पताल में जाते ही हमारे मन में आता है कि आज 'जेब कटनी' ही है। यह बात आज के परिवेश में विचारणीय है। आज शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत जरूरतें हमारे देश में व्यवसाय बन चुकीं हैं। अधिक लोगों की बिमारी भयंकर रूप तो इसीलिए ले लेती है कि किसी बिमारी की प्रारम्भिक स्थिति में वह दवाखाना जाना ही नहीं चाहता क्यों कि उसे 'जेब कटने' का भय रहता है। दो पात्रों की संक्षिप्त बातों में बड़ा सन्देश देती हुई सुंदर लघुकथा है 'निःशुल्क'।
   

श्री अखिलेश पालरिया जी को उपर्युक्त दोनों लघुकथाओं के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

फिर वही..... कि - अभी के लिए इतना ही। जैसे जैसे समय मिलेगा, कुछ और पढूंगा फिर कुछ और लिखूंगा।


Wednesday, July 17, 2019

अपनी समझ - पुस्तक समीक्षा "अनुगुंजन" -जुलाई-सितंबर 2018

अपनी समझ/1/अनुगुंजन-जुलाई-सितंबर 2018
                     ** ** ** ** ** ** ** ** ** ** ** ** ** ** ** ** **
                  डॉ लवलेश दत्त जी और रमेश गौतम जी के संपादकत्व (क्रमशः संपादक और अतिथि संपादक) में प्रकाशित साहित्य-कला-संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका अनुगुंजन का जुलाई-सितंबर 2018 अंक उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ। सर्व प्रथम डॉ दत्त को बहुत बहुत धन्यवाद।

              मो. राशिद द्वारा संकलित मनोहारी आवरण पृष्ठ को देखते ही यह "लघुकथा अंक" किसी को भी अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेगा। पत्रिका के अनुक्रम पर सरसरी नजर डालते ही पता चल जाता है कि 104 पृष्ठों के इस अंक को लघुकथा को केंद्र में रखकर मुख्यतः दो खण्डों में बांटा गया है, जिन्हें विमर्श और सृजन खण्ड नाम दिए गए हैं। विमर्श खण्ड को पुनः 'लेख गुंजन' और 'बातचीत' नामक दो भागों में विभाजित किया है जबकि सृजन खण्ड में छपी लघुकथाओं को 'लघुकथा गुंजन' नाम की टोकरी में रखा गया है।

                 अनुक्रम के बाद डॉ दत्त और गौतम जी के प्रभावी संपादकीय लेख हैं जिन्हें पढ़ने के बाद लगता है कि सहज और सुन्दर बातों से भरे इन लेखों को एक बार फिर से पढ़ें, इतने अच्छे जो हैं।

                  दोनों खण्डों के तीनों उप खण्डों (लेख गुंजन, बातचीत और लघुकथा गुंजन) के मुख़्य पृष्ठों पर पहुंचते ही कुछ कलाकृतियों ने स्वागत किया। कलाकृतियों की समझ न होने के बाबजूद भी इन्होंने अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया। इनको निहारने में यहाँ कुछ समय ठहरना अच्छा लगता है।
'लेख गुंजन' में नौ विद्वानों के सारगर्भित लेख हैं। इन लेखों में लघुकथा के विभिन्न विषयों पर जैसे छायावादी कवित्व से निकली लघुकथायें, लघुकथा का विकास, स्वरूप और संभावनाएं, सार्थक सृजन, शिल्प, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, कालखण्ड दोष, विधा का महत्व, नवीन सृजन आदि विषयों पर लघुकथा के क्षेत्र में अपनी गहरी समझ रखने वाले साहित्यकारों ने बड़ी बारीकी से अपनी कलम चलाई है।

             विमर्श खण्ड के दूसरे भाग 'बातचीत' में दो महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं। एक साक्षात्कार में श्री हरिशंकर शर्मा जी और माधव नागदा जी की बातचीत है और दूसरे में अशोक दर्द जी और डॉ  बलराम अग्रवाल जी की लघुकथा पर वार्ता है। दोनों वार्ताओं को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारे सामने सजीव प्रसारण हो रहा है।    

               अनुगुंजन के 'लघुकथा गुंजन' में 55 लेखकों की 77 सुन्दर लघुकथाएँ हैं जो विभिन्न सामाजिक परिवेशों को अपने में समाए हुए, अच्छी लगती हैं। इन लघुकथाओं में गायत्री जोशी जी की 'वसीयत' और सुनील गज्जाणी जी की 'परिवर्तन' चार-पांच लाइनों की छोटी छोटी लघुकथाएँ जो कथानक और कथ्य के अलावा अपनी शब्द संख्या के कारण भी इस अंक के आकर्षण का कारण हैं।

                इस अंक में स्थान का सदुपयोग बहुत अच्छी प्रकार से देखने को मिलता है। इस क्रम में कमल चोपड़ा जी के संपादन में लघुकथा को समर्पित वार्षिक पत्रिका 'संरचना' के दसवें अंक के प्रकाशन की सूचना, ज्योत्स्ना सिंह जी और उपमा शर्मा जी के सम्पादन में प्रकाशित लघुकथा संकलन 'आस-पास से गुजरते हुए' की सूचना, हरिशंकर शर्मा जी की लघुकथा पर केंद्रित पुस्तक 'एक कोलाज' के प्रकाशन की सूचना और बरेली में आयोजित होने वाली मासिक लघुकथा गोष्ठी के आयोजन की सूचना "जगह मिलने पर पास दिया जाएगा" की तर्ज पर उपलब्ध स्थान के अनुसार विभिन्न स्थानों पर दी गई हैं।

               कुल मिलाकर इतना ही कहूँगा कि अनुगुंजन का यह लघुकथा अंक संग्रहणीय है। अनुगुंजन के संपादक मंडल, लेखकों और पाठकों को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

पत्रिका के अंतिम पृष्ठ पर अंदर की ओर भविष्य में 'अनुगुंजन' के 'भावत्रयी' के बदले रूप में आने की सूचना दी गई थी। बाद में जिसमें बदलाव किया है। अब यह अनुगुंजन ही रहेगी। और इसकी सूचना डॉ लवलेश दत्त जी ने अपनी फेसबुक संदेश के माध्यम से सबको दे दी थी।

कविता - "मिलन"

गुरुग्राम से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र '​हरियाणा प्रदीप' में प्रकाशित मेरी कविता - "मिलन"