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Wednesday, September 11, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी-2)

लघुकथा - रिश्ता
लेखक - अर्चना त्रिपाठी जी

अगर व्यक्ति पूर्वाग्रहों से बाहर आ जाये तो विश्वास मानिए कि उसके जीवन की आधे से ज्यादा समस्याओं को पैदा ही न होना पड़े। मसलन, हमारे यहाँ यह पहले से ही माना हुआ है कि बहू आयेगी तो उनके लड़के को वश में कर लेगी और हमारी सेवा नहीं करेगी। बहू भी पहले से ही सास के रौद्र रूप को मन में संजोकर आती है। ..और परिणाम स्वरूप वही होता है जिसकी परिकल्पना उसने की हुई होती है।
आजकल इसे मनोविज्ञान से जोड़कर भी देखा जा रहा है और नई-नई बातें और घटनायें सुनने में आ रही हैं...कि यदि व्यक्ति अपनी सोच और समझ सही रखे तो वह अपनी मन वांछित कामना पूरी कर सकता है। यहाँ मनोविज्ञान से आगे एक और चरण है और वहाँ चेतन और अचेतन मन की बातें होती हैं। खैर...ज्यादा अन्दर उतरूंगा तो विषयांतर जैसा लगेगा लेकिन यहाँ एक प्रसिद्ध कथावाचक स्व. श्री राजेश्वरानंद जी का बताया हुआ प्रसंग लिखना चाहूँगा।
....उनके अनुसार, एक आश्रम में, जहाँ भगवान श्री राम का मंदिर था, वहाँ बहुत से संतों का जमावड़ा रहता था। वहाँ केवल एक संत को छोड़कर सभी संत मंदिर की सुबह-शाम की संध्या-आरती में सम्मिलित होते। वह इकलौते संत कभी भी किसी भी आरती में नहीं जाते लेकिन हर भंडारे आदि में बढ़चढ़ कर भाग लेते, खीर-पूरी छकते। जब कोई आरती में शामिल न होने की वजह पूछता तो वे कहते कि "मैं राम का गुरु हूँ और यदि मैं उनकी आरती में आऊँगा तो उन्हें मेरा सम्मान करना पड़ेगा, अतः मैं अपनी कुटिया में ही ठीक हूँ।" आश्रम के कुछ लोगों का यह भी कहना था कि कभी-कभी उन्होंने उन संत के मुँह से उनके कमरे में रखी राम जी की प्रतिमा को छड़ी दिखाकर, डांटते हुए भी सुना था कि, "कुछ पढ़-लिख लो, तो काम आएगा...." और उनके छड़ी दिखाते ही भगवान की प्रतिमा डर से कांपने लगती थी।.....इस सबके बाबजूद भी अन्य संतों ने उनको कहा कि नौटंकी बंद करो और रोज पूजा में आया करो। एक दिन सबने जबरन उन्हें आरती के समय राम जी की मूर्ति के सामने खींचकर लाया तो सबने देखा कि जैसे ही उनका मूर्ति से आमना-सामना हुआ, भगवान का मुकुट उनके सम्मान में झुक गया।
इस प्रसंग की चीरफाड़ और सत्यता जानने के प्रयास करने के स्थान पर आवश्यक यह है कि इसके मंतव्य को समझा जाये। यानी, पूर्वाग्रह आपकी जिंदगी को संवारने या बिगाड़ने के लिए जिम्मेवार हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि आपके पूर्वाग्रह क्या हैं? और आपके मन में कितने अंदर बैठे हैं?
अर्चना जी की इस लघुकथा के अंदर अच्छे खासे चल रहे रिश्ते में भी कथा की नायिका पूर्वी के मन में समाज में व्याप्त सोच का प्रभाव है। और यह तब तो और भी गहरा और प्रभावी होने की संभावना रखता है जब इसे अपने खास लोग कहें। यह कितना सामान्य है कि बच्चे अपने छोटे-मोटे काम स्वयं कर लें। इससे न केवल वे अपना काम करना स्वयं सीखते हैं, अपितु उन्हें आत्मनिर्भर होना आता है। इसके इतर बड़ों को सहूलियत भी मिलती है। पता नहीं लोगों को उस नकारात्मक कोंण से सोचने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? अगर ऐसा न होता तो पूर्वी की माँ उसे क्यों टोकती कि उसका सौतेला लड़का स्नान करने के बाद अपने कपड़े खुद क्यों पहन रहा है? खैर... इसे अगर बेटी की माँ की ओर से अतिरिक्त चिंता मान भी लिया जाए तो भी पूर्वी के उस बयान का क्या कि "मैं चाहे कुछ भी कर डालूँ लेकिन हमारा रिश्ता बहुत ही नाजुक है क्योंकि मैं सौतेली जो हूँ।" दरअसल, ऐसी बातें जहाँ अच्छे रिश्ते पनपने की बहुत सुखद संभावनाएं हैं, कुछ पूर्वाग्रहों के कारण उनमें भी जल्दी 'ग्रहण' लगा ही देती हैं।
प्रस्तुत लघुकथा, समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों पर आधारित कथानक को लेकर है, जहाँ सबकुछ अच्छा होते हुए भी, खराब करने की पूरी खाद मौजूद है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इस पक्ष को लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी-1)

लघुकथा - दिवास्वप्न
लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी

"नारी तू नारायणी"
पता नहीं इस उक्ति को स्थापित करने में नारी के किन-किन गुणों का अध्ययन किया गया होगा। क्या उसका मातृत्व? क्या उसका अथक परिश्रम? क्या पति, बच्चों और परिवार के पीछे दिन को दिन और रात को रात न समझने के पीछे छुपे असीम प्यार और समर्पण की हदों को पार करने का जज्बा? क्या समय आने पर दुर्गा, काली बनने की कहानियाँ, या और कुछ भी? इस प्रश्न का उत्तर पा भी लिया जाये तो क्या होगा? आखिर में उसे मिलता ही क्या है? अपवादों को छोड़कर अगर देखा जाये तो जो नारी शक्ति ने दिया है उसका पासंग भी पुरुष समाज नहीं दे पाता है। यहाँ मैं पुरुषों के योगदान को नकार नहीं रहा हूँ लेकिन बराबरी कहना बेमानी है। महिलाओं की ओर से बराबरी के हक की मांग अक्सर उठती है। यह बहुत ही ज्यादा हास्यास्पद है। दरअसल बराबरी के हक की दुहाई तो पुरुष समाज को करनी चाहिए थी। लेकिन पुरुषों ने बड़ी चालाकी से ऐसे नियमों का जाल बनाया कि दुर्भाग्य से नारी को सदैव 'कृपा' के लिए पुरुषों की ओर ताकना पड़ा। पुरुषों ने हमेशा ही अपना वर्चश्व बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये और ऐसे नियम-कायदा कानून थोपे जिससे एक महिला को उनकी ओर दयनीय होकर गुहार लगानी पड़े।
.. हालाँकि मैं उस तरह की बराबरी के पक्ष में कतई नहीं हूँ जिसके लिए आजकल बड़े-बड़े आंदोलन चल रहे हैं। मुझे माफ़ किया जाये लेकिन बड़ी बिंदी वाले गैंगों से यह न हो पायेगा। यदि अपवाद छोड़ दें तो स्त्रियों के तथाकथित जीवन स्तर को उठाने के नाम पर बड़े-बड़े संगठन बने हैं जिनके धन की उगाही, विदेशी यात्रायें, सैर-सपाटा आदि से ऊपर कोई खास उद्देश्य हैं भी नहीं। वैसे इनके घोषित-अघोषित उद्देश्य भी हैं जो प्रथम दृष्टया लगते हैं कि यह महिलाओं के उत्थान हेतु हैं लेकिन अगर इन आन्दोलनों की हकीकत में परिणति हो भी जाये तो फिर उसी स्थिति में पुरुष आ जायेंगे जिसके लिए महिलाएं यह तथाकथित संघर्ष कर रही हैं। क्योंकि उनको पता ही नहीं है कि बराबरी किस तरह से हो? उन्हें याद ही नहीं है कि पुरुषों के बराबर आना है, उनसे बदला लेना नहीं है। पहले समझें कि आप का लक्ष्य क्या है? महिला या पुरुष कभी एक दूसरे के विरोधी नहीं हो सकते। वे एक दूसरे के पूरक हैं। .... बराबरी की बात आयी है तो यह बात भी कर लें। यही हाल जाति-वाद पर आधारित आन्दोलनों का है। पहले जो उनके साथ ज्यादती और अन्याय हुआ, आज अगर आप गौर से देखो तो जिनके साथ अन्याय हुआ वे मन में घृणा भरे घूम रहे हैं। दरअसल वे बदला लेना चाहते हैं। वे किसी बराबरी और सामंजस्य की चाह में नहीं हैं। वे दूसरे पक्ष को उसी स्थिति में देखने की चाहत में हैं जो भूतकाल में उनके साथ हो चुका है। हालाँकि इन्हीं ढकोसलों में अपवाद भी होते हैं जो इनमें भी संभव हैं।
थोड़ा कथा के मूल पर भी बात कर लें। ... जब पिता और घर का मुखिया या पालक किसी रोग के कारण असहाय हो गया हो, जीविकोपार्जन के साधन पर जैसे विराम लग जाये, सामने छोटे भाई-बहन हों तो एक अपरिपक्व मन में भी बड़प्पन और उससे जुड़ी जिम्मेवारियां सहज ही जन्म ले लेती हैं। उसे संभालना ही होता है बिलखते और बिखरते परिवार को। और जैसे समाज तो इसी के लिए घात ही लगाए बैठा रहता है।वह बेचारी करती भी तो क्या करती? 17 वर्ष की नाबालिग उम्र, उसे जो समाज ने दिया, उसे अपनाना पड़ा। ऐसा नहीं है कि केवल यही एक चारा है या रहा होगा धनोपार्जन का लेकिन कहते हैं कि व्यक्ति परिस्थितियों का गुलाम होता है। एक तो स्त्री जो पहले से ही डरी हुई है, दूसरी उसके पिता का रुग्ण शरीर जो लकवे के कारण कोई भी काम करने में असमर्थ है। उसके पास सम्भवत: यही विकल्प बचा होगा। हालाँकि यह रचना में यह स्पष्ट नहीं है लेकिन बहुत सम्भव है कि उसे इस रास्ते पर किसी अपने ने ही ला कर खड़ा किया होगा। इसे पूर्वाग्रह भी कहा जा सकता है लेकिन असंख्य कहानियां इस पक्ष की ओर ज्यादा इशारे करती हैं।
... कहा जाता है कि लोगों की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है और यदि वे लोग अपने हों तो कहना ही क्या? अपनों ने कठिन समय में उनके लिए क्या किया, क्या बलिदान दिया, यह बहुत कम लोगों को याद रह पाता है। जरा संयुक्त परिवारों की संस्कृति और उनसे सम्बंधित कहानियों पर गौर करें। अक्सर बड़े बेटों-बेटियों को शिक्षा आदि से वंचित होना पड़ा है और छोटों को उनसे बेहतर शिक्षा के साधन और अन्य सुविधाएँ मिली हैं। उसके नैपथ्य में आप जाकर आकलन करें तो आपको यही पता चलेगा कि पहले घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं रही कि बड़ों को समान अवसर मिल पाते। लेकिन कालांतर में जिन्हें अवसर का लाभ मिला, जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति ठीक हो गई, वे अपने बड़ों के बलिदानों को भूल जाते हैं। ....तो जब उससे दूसरा सवाल हुआ कि, "अब तो सब अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए हैं, तो तुम क्यों नहीं छोड़ देती यह सब?"
क्या जबाब देती वह वीरांगना? मुझे यहाँ उसे वीरांगना कहने में संकोच नहीं होता। वह विजेता है। समाज को उस पर ऊँगली उठाने का कोई हक नहीं है। फिर, इस प्रश्न पर जो जबाब आया है, उसमें तथाकथित अपनों और समाज के दोगलेपन की बड़ी गन्दी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उसके जबाब की पहली पंक्ति,"जिन लोगों के लिए हर हद पार कर ली, #वे_भी_मुझे_गन्दी_नाली_समझते_हैं" पर किसी तर्क की सम्भावना ही नहीं बचती है। ...लेकिन दूसरी पंक्ति कि "गन्दी नाली, नदियों में भी नहीं मिला करती है तो घर के नलों में....? यह तो दिवास्वप्न ही है।" यह उस बालिका/महिला के स्तर से अच्छा जबाब है और तार्किक भी लगता है लेकिन हकीकत यह है कि आज कलियुग में सभी गन्दी नालियां और नाले नदियों में ही तो मिल रहे हैं जिससे हमारे देश की सभी नदियाँ प्रदूषित हैं और जो भयंकर संक्रमित बीमारियां फ़ैलाने के प्रमुख स्रोत हैं। खैर...
प्रस्तुत रचना में दो पात्रों के बीच हुए संवाद में कथा का निर्वाहन किया गया है। दोनों पात्रों में से किसी का नाम भी नहीं है। हालाँकि इससे कथा के सम्प्रेषण में कोई जरुरत या इसकी कमी भी समझ में नहीं आई लेकिन हाल ही में वरिष्ठ लेखक और प्रकाशक आदरणीय #मधुदीप_गुप्ता जी ने इस बावत चर्चा को जन्म दिया था। मुझे लगता है कि उस कोंण से भी विचार करना चाहिए।
मात्र 79 शब्दों में सिमटी प्रस्तुत लघुकथा, समाज के खोखलेपन और दोगलेपन पर बड़ा प्रहार करती है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इसके लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

ये जो मेरी हिन्दी है

काफी दिनों से मेरे साहित्यिक क्रिया-कलापों को देखते रहने के बाद, कल किसी ने मुझसे पूछा, "I think, you like Hindi very much."
मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे पता नहीं कि बांछें कहाँ होती हैं, लेकिन खिल गईं।
मेरा जबाब था, "मैं हिन्दी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खेला हूँ, मैं हिन्दी में रोया हूँ, मैं हिन्दी में हँसा हूँ, मैं हिन्दी में नाराज हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खुश हुआ हूँ। मैं हिन्दी में प्यार करता हूँ, मैं हिन्दी में शिकायत करता हूँ, मैं हिन्दी के अलावा यदि किसी और भाषा में भी जबाब देता हूँ तो उससे पहले मैं हिन्दी में सोचता हूँ। कुल मिलाकर, मैं हिन्दी में सना हुआ हूँ।
... और तो और, मैं दिन भर की मेहनत के बाद अपनी हिन्दी की गोद और उसके आलिंगन में सो जाता हूँ। (...और यह कहते-कहते मेरी आँखों की कोरों पर उभर आयी भावनाओं को शायद उन्होंने महसूस किया। मैंने उन्हें छलकने से रोका भी नहीं।)
....कुछ क्षणों के विराम के बाद, मैंने फिर कहना शुरू किया, "हिन्दी मेरी माँ है और संस्कृत को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाएँ मेरी मौसी हैं। दरअसल, संस्कृत मेरी नानी/दादी माँ है।"
पता नहीं, उन्हें मेरी बात कितनी समझ में आयी?
फिर उन्होंने टकले पर खुजलाते हुए पूछा, "What about English?"
Hey, She is my Aunty. I replied.

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -2)

लघुकथा - आरक्षण
लेखक - मृणाल आशुतोष जी


हालाँकि शहर की भाँति अब गाँवों में भी स्थितियाँ बदल रही हैं लेकिन गाँव में बड़ों का अभी भी रुतवा वही है, पुराना वाला। पहले तो हालात और भी अजीब थे, इसके एकदम उलट थे। बाप जबतक दिन में एक-दो बार उठा-पटक कर न दे तबतक उसे जैसे लगता ही नहीं था कि वह बाप भी है किसी का। बिना बात के ही हड़का देना जैसे उनकी आदत का अहम हिस्सा होता था।
...मेरा एक मित्र है, रांची से। उसके पिता जी बिहार सरकार में उच्च पदस्थ अधिकारी थे। वे शौकिया सफाचट (बिना दाढ़ी-मूँछ के) रहते थे और इसके विपरीत मेरे मित्र को मूँछ रखने का शौक था। इस बात से उसके पिता जी को तंज करने का मौका जब भी मिलता, वह ताने मार ही देते थे। एकदिन उन्होंने शनिवार को दोपहर के बाद उसे डाकखाने कुछ काम से भेजा। शनिवार होने के कारण दोपहर बाद जब मेरा मित्र पहुँचा तो डाकखाना बंद हो चुका था अतः काम नहीं हुआ। फिर क्या था? जब मेरा मित्र घर वापस आया तो उसे कुछ ऐसा सुनना पड़ा, "तुम, तुम्हारी मूँछ देखकर तो आजकल डाकखाने में भी ताले पड़ने लगे हैं। तुम से होगा ही क्या? मूँछें जो रखते हो।"....ऊपर से मार पड़ी सो अलग..। खैर...

प्रस्तुत लघुकथा में भी गाँव के इसी परिवेश की झलक है। आनन्द जब एस. एस. सी. की परीक्षा पास नहीं कर सका तो इस डर से कि पिता श्री के कोप का भाजन होना पड़ेगा, वह अपने ननिहाल चला गया। ऐसा नहीं है कि नानी के यहाँ सब इस बात से प्रसन्न हुए होंगे लेकिन नानी के घर अक्सर प्यार ज्यादा मिलता ही है और बड़ी से बड़ी गलती माफ कर दी जाती है। ...सो जनाब हो-हल्ला बरगलाने के लिए दो दिन बाद घर पहुँचे और जिम्मेदारी का अहसास देखिए कि इस बात की खबर माँ को दे भी दी थी कि आप नानी के घर जा रहे हैं ताकि बतंगड़ बनने की स्थिति में माँ संभाल ले। आखिर, माँ, माँ ही होती है। उसकी असफलता पर खुशी तो नहीं ही मिली होगी लेकिन माँ के लिए, "सबसे नटखट है मेरा राजदुलारा, सबसे प्यारा है मेरा राजदुलारा।" तो माँ को विश्वास में ले लिया, नानी के घर भी घूम आये लेकिन....पिता श्री के हाथ और जीभ की खुजली कहाँ मिटने वाली थी?
...घर वापस पहुंचने पर जो आवभगत हुई, और जैसा कि होता है, दूसरे सफल बच्चों के नाम ले-लेकर ताने दिए जाते हैं। जब मुहल्ले के दूसरे सफल बच्चों के नाम गिनाए तो आनन्द का जबाब था कि कुछ बच्चे तो आरक्षण की सीढ़ी से पार हुए हैं। आनन्द के इस जबाब के बाद के जो संवाद हैं, उसी में कथा का सार है। जो जाति व्यवस्था के आधार पर आरक्षण पाया है, उसके साथ उनकी जो आर्थिक स्थिति और उनकी दिनचर्या का वर्णन है, वह बहुत ही तार्किक और मनन योग्य है। ऐसा वक्तव्य कोई मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही दे सकता है।
आनन्द के आरक्षण वाले तर्क पर उसके पिता जी का संवाद देखें, "रमुआ के बेटे की बराबरी तू करेगा रे! ओकरा पैर के धुअन भी नहीं है। ऊ सबेरे खेत में काम करता है। स्कूल से आने के बाद गाय भी चराता है। रात में मकई और आम का रखबारी करते हुए पढ़ाई किया है। और एक तुम हो जिसको हम न आटा पिसाने भेजे और न ही कभी पेठिया से तरकारी लाने।" ...और आखिरी पंक्ति पर तो जैसे कथा ऊंचाई पर पहुंच गई - "#इस_हिसाब_से_तो_आरक्षण_तुमको_भी_मिला"। ...और फिर वही बापपना, "आगे से कभी आरक्षण का नाम लिया न तो जूता भिगाकर मारेंगे।"
...और जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ, गाँव में अभी भी सहनशक्ति, बड़ों के गुस्से में छिपा प्यार बच्चे पढ़ पाते हैं। उन्हें न तो अपने सम्मान हनन का डर है, न ही बड़ों की बात को दिल पर रखने की बुरी आदत है। इसी आत्मविश्वास के साथ परिवार के बड़े लोग भी यह कह पाने की हिम्मत रखते हैं कि उनके कड़े व्यवहार के बाद भी बच्चे बुरा नहीं मानेंगे और कोई अनुचित कदम नहीं उठायेंगे।
उत्तर भारत में दक्षिण भारत की तरह यह तय नहीं है कि उन्हें दसवीं-बारहवीं के बाद कमाने के लिए बाहर जाना ही पड़ेगा। तुलनात्मक रूप से देखें तो संयुक्त परिवार की परंपराएं, घर के लोगों से लगाव, अपनी भाषा, जमीन और आपस में प्रेम आदि में उत्तर भारत के लोग आगे हैं। जहाँ दक्षिण भारतीयों में कमाने के लिए प्रदेश-देश से बाहर जाना बहुत ही सामान्य है, वहीं उत्तर भारत में इस पर निर्णय बड़ी देर में और बड़ी सलाह, मशवरा के बाद ही लिया जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि उत्तर भारतीयों के पास विकल्प ज्यादा हैं लेकिन कुछ बातें उन्हें ऐसा करने से पहले बहुत सोचनी पड़ती हैं। ...और आनन्द के पिता जी का यह कहना कि, "देख लो! अब तुम अपना कि दिल्ली जाना है या मुम्बई।" उन्हें बहुत अफसोस है कि उनके आसपास के बच्चे सफल हो गए और आनन्द सफल न हो सका। आनन्द के पिता के इस आदेशात्मक वाक्य में कई अभिव्यक्तियाँ छुपी हैं। जहाँ उन्हें आनन्द के असफल होने का दुख है वहीं अपने ऊपर बढ़ रहे आर्थिक बोझ की भी चिंता है और उसके विछोह का संताप भी। आखिर... बाप जो है। उसकी यही छवि है और उसमें वह सहज है।
इसी अलगाव की चिंता में आनन्द का कथा के अंत में एक वादे के साथ समर्पण, रिश्तों की खूबसूरती का बेजोड़ नमूना है।..और मुँह न दिखाने वाली बात पर कौन न पसीजेगा? लेकिन अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए उसके पिता ने आरक्षण के दंश की हकीकत की स्वीकारोक्ति करते हुए सफलता का मंत्र भी दिया कि डटे रहना है और सर्वश्रेष्ठ बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
इस लघुकथा में मृणाल जी ने एक साथ कई पक्षों को रखा है। जहाँ एक ओर आरक्षण एक गंभीर सच्चाई है, वहीं कठिन परिश्रम, परिवार में बड़ों के सम्मान, उनकी नाराजगी का प्रतिकूल प्रभाव न पड़ना, माँ, नानी के घर और उसके पिता के प्रेम के विविध रूप और साथ में आनन्द के सामान्य सुलभ व्यवहार को बड़ी कुशलता से रचा है। यह रचना आज के शहरी माहौल को बहुत कुछ सीख दे सकती है। आज शहरी अभिभावकों को हर पल यह सताता रहता है कि अगर बच्चों से कुछ कह दिया तो वे कहीं कोई गलत कदम न उठा लें।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। इस लघुकथा में भी क्षेत्रीय बोली की सौंधी खुशबू का पाठक जरूर आनन्द लेंगे।

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - विभाजन की त्रासदी

#पुस्तक - विभाजन की त्रासदी
#लेखक - मुनीश त्रिपाठी जी
#पेज - 199
#कीमत - ₹ 400/- लेकिन अमेज़ॉन/फ्लिपकार्ट पर रियायती कीमत पर डाकखर्च सहित उपलब्ध है।
#प्रकार - सजिल्द
#प्रकाशन - प्रभात प्रकाशन के सह प्रकाशक विद्या विकास एकेडमी, नई दिल्ली द्वारा।

विभाजन की त्रासदी
मेरे प्रिय अनुज, मित्र और पत्रकारिता को अपना पेशा बना चुके मुनीश त्रिपाठी जी द्वारा लिखित पुस्तक "विभाजन की त्रासदी" पढ़ने का सुअवसर मिला।
सबसे बड़ी प्रसन्नता तो इस बात की है कि उन्होंने इस जटिल विषय को लिया। यह विषय निश्चित रूप से न केवल लिखने की दृष्टि से व्यापक है अपितु इसमें दर्ज किस्से भी बड़े पेचीदे हैं। पेचीदे इसलिए कि इसमें जो भी तथ्य दर्ज हैं, पढ़ने के बाद उसकी सत्यता का प्रमाणन हर पाठक के मन मस्तिष्क में घूमता है। इसके लिए मुनीश जी की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। क्योंकि उन्होंने प्रमाणन के सबूत के तौर पर #202 पुस्तकों, आलेखों आदि का संदर्भ दिया है। संदर्भों के व्यापक संकलन को देखकर ही अंदाज लगाया जा सकता है कि इस विषय को पुस्तक के रूप में लाने के लिए उन्होंने कितना श्रम किया होगा।
मुनीश जी ने इस पुस्तक को 'भूमिका' के बाद अनुक्रमणिका के अंतर्गत चार भागों में लिखा है और अंत में विस्तार से "टिप्पणियाँ एवं संदर्भ" भाग में संदर्भ लिखे हैं।
सबसे खास बात यह भी है कि संदर्भों के लिए संबंधित पुस्तकें, आलेख, पत्र-पत्रिकाएं आदि इकट्ठी करने के बाद भी उनको पाठकों के लिए सिलसिलेवार प्रस्तुत करना भी श्रमसाध्य कार्य है। इसका नमूना पाठकों को इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही मिल पायेगा। वैसे तो इस विषय पर पूर्व में इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है, बहुत पुस्तकें भी आयी हैं लेकिन मेरे ख्याल से हमारी पीढ़ी के दौर के किसी लेखक द्वारा लिखी गई यह पुस्तक अपने आप में अनूठी है। इसमें जहाँ पुस्तकों में तथ्य तो पुराने हैं लेकिन लेखक की सोच नई और समसामयिक है जिससे पाठक इसे पढ़ते समय अवश्य महसूस करेंगे।
पुस्तक का आवरण आकर्षक है। मुद्रण भी अच्छा है लेकिन वर्तनी की अशुद्धियाँ जहाँ-तहाँ मिल जाती हैं। ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि यह आजकल के प्रकाशकों के साथ यह आम समस्या है। इसे प्रकाशकों को ध्यान में लेना चाहिए और लेखकों को भी प्रकाशकों के साथ इस मुद्दे पर बात करनी चाहिए।
स्वभाव से सरल, सच्चे और स्पष्टवादी मुनीश जी की यह शोधपरक पुस्तक पाठकों में पहले ही काफी प्रसिद्धि पा चुकी है। आशा है कि यह समय के साथ अपना विस्तार करती रहेगी। इस पुस्तक की सफलता के लिए मुनीश जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

Tuesday, August 13, 2019

पुण्यतिथि पर स्मरण : अमृतराय जी

वही लिखो जो तुमने जिया है और जो नया लिखना है उसको पहले जियो।
 - अमृतराय
(स्रोत - लघुकथा कलश, द्वितीय महाविशेषांक)
  
1921 में बनारस में जन्मे और 14 अगस्त 1996 को इलाहबाद में स्वर्गवासी हुए अमृतराय जी को साहित्य जगत में शायद ही कोई होगा जो उनके लेखन कौशल्य से परिचित न होगा और उनके लेखन का मुरीद न होगा। उपन्यासकार, निबन्धकार, समीक्षक, अनुवादक और कहानीकार अमृतराय जी की कल पुण्यतिथि है। हरदिल अजीज मुंशी प्रेमचंद जी के सुपुत्र अमृतराय जी को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन और श्रद्धांजलियाँ।
     

अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन जैसा ही कुछ मैं 2014 के चुनाव के समय से ढूंढ़ रहा था। मुझे इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि इस तरह का किसी ने कहा या लिखा नहीं होगा। यह मेरी अपनी अनुभूति थी कि इस तरह ही लेखन होना चाहिए। .... दरअसल मुझे इस तरह के कथन और उसके अनुपालन की कमी उस समय महसूस हुई जब कुछ नामी-गिरामी अभिनेताओं, लेखकों आदि ने एक शब्द को इतना उछाला कि उससे उनके चेहरे पर चढ़ी नकली परत उतर गई। नीले सियार का रंग पहली ही बारिश में उतर गया। असल में जिन लेखकों और कलाकारों ने अपनी कृतियों और भावनात्मक अभिनय के कारण आम जनमानस में जो अपनी छवि बनायी थी वह चुनाव आते ही धुल गई। लोगों को लगता था कि जो साहित्य उन्होंने लिखा है या जो किरदार उन्होंने फिल्मों आदि में जिया है वह तो उनका क्षद्म लेखन और केवल अभिनय मात्र था। उस समय तक असहिष्णुता शब्द के बारे में केवल साहित्य क्षेत्र से जुड़े लोग ही ज्यादा परिचित थे। इस शब्द को आम किया नकली चोले वालों ने। समय गवाह है कि कितने लोगों ने गन्दी राजनीति से प्रेरित इन लेखकों, पत्रकारों और अभिनेताओं को अपनी नजर से उनके दोहरे चरित्र के कारण गिरा दिया। उनके सम्मान वापसी जैसे क्रिया-कलापों से स्पष्ट हो गया कि उनका यह कार्य किस उद्देश्य के तहत किया गया होगा। 

पिछले दिनों सिनेमा और पत्रकारिता जगत में  #मीटू अभियान के तहत जिनके चरित्र उजागर हुए, उनमें भी वस्तुतः वही दोहरे चेहरे वाले ही निकलकर बाहर आये। आध्यात्म जगत भी इससे बचा नहीं रहा। कितने तथाकथित समाज सुधारक, प्रचारक, प्रवचनकर्ता जिनके मुख से सतत ईश्वरीय वाणी ही निकलती थी, उनके चरित्र के काले चिट्ठे भी खूब खुले।   

मुझे लगता है कि इस तरह का आचरण रखने वाले लेखक, कवि, शायर, पत्रकार, अभिनेता या आध्यात्मिक लोग बहुत ही कम हैं जिन्होंने जो लिखा है, जो कहा है या जो अभिनय किया है, उसे जिया है या जो लिख दिया है उसे जीने वाले हैं। अधिकतर तो वह लिखते या करते हैं जो आदर्श रूप में होना चाहिए। उनका इसके अनुपालन से कोई लेना नहीं है। 

उपर्युक्त कथन से गंभीर और संवेदनशील लोगों को जरूर आत्ममंथन के लिए इशारा मिल गया होगा। जरूर अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन अनुपालन से समाज में सकारात्मक कदम की शुरुआत बड़े स्तर पर की जा सकती है। यहाँ पर मैं खलनायकों को उनके अभिनय और असल जिंदगी में चरित्र को इस लेख में अपवाद की तरह लेता हूँ। 

कृपया इस लेख के मंतव्य पर जायें। आपकी किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया का स्वागत है।         

Friday, August 9, 2019

ये जो मेरी हिन्दी है....


काफी दिनों से मेरे साहित्यिक क्रिया-कलापों को देखते रहने के बाद, कल किसी ने मुझसे पूछा, "I think, you like Hindi very much."

मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे पता नहीं कि बांछें कहाँ होती हैं, लेकिन खिल गईं। 

मेरा जबाब था, "मैं हिन्दी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खेला हूँ, मैं हिन्दी में रोया हूँ, मैं हिन्दी में हँसा हूँ, मैं हिन्दी में नाराज हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खुश हुआ हूँ। मैं हिन्दी में प्यार करता हूँ, मैं हिन्दी में शिकायत करता हूँ, मैं हिन्दी के अलावा यदि किसी और भाषा में भी जबाब देता हूँ तो उससे पहले मैं हिन्दी में सोचता हूँ। कुल मिलाकर, मैं हिन्दी में सना हुआ हूँ।

... और तो और, मैं दिन भर की मेहनत के बाद अपनी हिन्दी की गोद और उसके आलिंगन में सो जाता हूँ। (...और यह कहते-कहते मेरी आँखों की कोरों पर उभर आयी भावनाओं को शायद उन्होंने महसूस किया। मैंने उन्हें छलकने से रोका भी नहीं।) 

....कुछ क्षणों के विराम के बाद, मैंने फिर कहना शुरू किया, "हिन्दी मेरी माँ है और संस्कृत को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाएँ मेरी मौषियां हैं। दरअसल, संस्कृत मेरी दादी माँ है।"

पता नहीं, उन्हें मेरी बात कितनी समझ में आयी? 

फिर उन्होंने टकले पर खुजलाते हुए पूछा, "What about English?" 

Hey, She is my Aunty.  I replied.

Saturday, August 3, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -1)

लघुकथा - बछड़ू
लेखक - मृणाल आशुतोष जी 

विछोह किन्हीं के बीच का भी हो, बहुत दुखदायी होता है। इसमें भावनाओं को चोट पहुँचती है, संवेदनायें क्रंदन करती हैं और कभी-कभी स्थितियाँ इतनी विषम होती हैं कि सिर्फ अफ़सोस करने के सिवा कुछ नहीं रह जाता है। हमारे शास्त्रों में इसे लगाव, मोह या आसक्ति कहा गया है। वैसे यह मोह अगर मानवीय संबंधों से इतर हो तो लोग संयत और संयमित रह भी सकते हैं लेकिन अपनों का जुदा होना अक्सर बहुत कष्टकारी होता है। इससे पहले कि मैं प्रस्तुत कथा में गहरा उतरूं, मुझे एक वाक्या याद आ गया। मैं तब छोटा था, शायद कक्षा पाँच में पढ़ता था। एक दिन मेरी साईकिल मेरा एक दोस्त लेकर गया था और शाम को बारिश होने की वजह से वह वापस करने नहीं आ सका था। मुझे आज भी याद है कि मैं उस रात बहुत असहज रहा था। मुझे यही चिंता सता रही थी कि पता नहीं मेरे दोस्त ने साईकिल को संभाल कर रखा होगा कि नहीं, कहीं बारिश में भीग न रही हो, आदि, आदि। मुझे नहीं पता कि वह आसक्ति थी कि कुछ और लेकिन मन में कहीं उसके अलगाव का दंश तो था ही। मुझे यह भी याद है कि मेरा जो दर्द था वह कीमती साईकिल के लिए नहीं था। मैं कहीं उस साईकिल के अलग होने को एक मित्र के वियोग की तरह महसूस कर रहा था। खैर...कुछ बातें सिर्फ महसूस की जाती हैं, उनका वर्णन करना आसान नहीं होता।
इस कथा में दो सामान घटनाओं को तुलनात्मक तरीके से संबंधों की धुरी पर तौला गया है जिससे यह सहज रूप से प्रतीत होता है कि चाहे इंसान हो या कोई जानवर, प्रकृति ने संवेदनाएं सभी को सामान रूप से दी हैं। कहते भी हैं कि आप किसी की वेदना को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि वह आपके साथ घटित न हो। जाके पाँव न फटी बिंवाई, सो का जाने पीर पराई।
संबंधों को महसूस करने और उन्हें निभाने की बात जब भी आती है तो माँ के प्रेम को सर्वोपरि रखा जाता है। और यह सच भी है क्योंकि माँ का प्रेम निश्वार्थ होता है। और जब एक माँ के कष्ट की बात हो तो उसे कोई माँ ही असली रूप में समझ सकती है।
...."गनेशिया ने अपना बछड़ू बेच दिया।" मुझे लगता है इस वाक्य को कहते-कहते अनिता का गला भर आया होगा। बात ही ऐसी है। पति-पत्नी की हलकी-फुलकी चुहल से शुरू हुई बात ने इस वाक्य के आटे-आते गंभीर मोड़ ले लिया था। विमल के इस तार्किक उत्तर से "कि लो, इसमें परेशान होने की क्या बात है? उसे तो बेचना ही था" ने अनिता को और भी मौका दे दिया कि, " आखिर, तुम्हें गाय का दर्द दिखा ही नहीं, न? गाय अपने बछड़े के वियोग में परेशान है और ठीक से दो मिनट के लिए भी नहीं बैठी है।" मंतव्य तो अनिता का शायद यही रहा होगा कि.... आखिर तुम मर्द जो ठहरे। तुम्हें यह सब कहाँ पता चलेगा? लेकिन मर्दों का अपना अलग तरीका होता है सोचने का, जताने का। अक्सर भाइयों और बापों को बहन/बेटी की डोली उठने के बाद, माँ/पत्नी को हँस-हँस कर ढांढस बँधाते देखा गया है और अकेले में उन्हें दहाड़ें मारकर रोते। वे दुनिया को, अपने आप को तर्कों से समझा लेते हैं। लेकिन पत्थर दिल वह भी नहीं होते हैं। उन्हें तो जैसे यह सब नियति का तय किया हुआ लगता है। तो, यहाँ विमल और क्या तर्क देता? मिलान कर दिया उस घटना से कि "यह तो होता ही है। उसने अपने ही बेटे सौरभ का उदाहरण दे डाला जो जर्मनी में जाकर बस गया था और अब कौन माँ-बाप और कौन अपने? उसे लग रहा था कि यहाँ आज गनेशिया ने अपने बछड़ू का सौदा किया है और पाँच साल पहले उन्होंने अपने सौरभ का सौदा कुछ बीस लाख रूपये और एक गाडी में कर दिया था।
...वैसे तो किसान बहुत दयालु प्रवत्ति का होता है लेकिन कहावत है कि घोड़ा अगर घास से यारी करेगा तो खायेगा, क्या? आखिर बछड़े को खूंटे पर कब तक बांध कर खिलायेगा? अब तो वह ज़माना भी नहीं रहा जब हर घर के बाड़े में बैलों की जोड़ी शोभा बढाती थी। लड़की वाले जब लड़का देखने आते थे तो घर के बड़े लोग रौब से अपने बैलों की जोड़ी दिखाते हुए फख्र महसूस करते थे। बाड़े में जबतक 10-15 जानवरों की रेलम-पेल न हो तबतक रौनक ही नहीं बनती थी। इसके लिए लोग सुबह से ही चारा काटने वाली मशीन पर लग जाते थे और चारे के कटने की लयबद्ध "खच-पच, खच-पच" की आवाज किसी सरगम से कम नहीं लगती थी। जानवरों और उनके बच्चों के गले में बंधी घंटियों से 'टुन-टुन' की आवाज जैसे बता देती थी कि बाड़े में सब ठीक है और तभी बड़े मजीरे सी तेज आवाज यह भी बता देती थी कि युवा होते बछड़ुओं में किसी बात पर अनबन सी है शायद। थोड़ी देर में कभी गाय-भैंस के रंभाने से यह भी पता चल जाता था कि उसकी नाद में सानी (चारा) अब ख़त्म होने को है।
... लेकिन अब जमाना बदल चुका है। खेती करने के तरीके बदले, आवागमन के संसाधन बदले। अब ट्रैक्टर से जुताई और मोटर-कारों, स्कूटर-मोटरसाइकिल से आवागमन आम हो गया है। अब बैलगाड़ियों का ज़माना गया। और जब खेती में पैदावार भी घटने लगी है तो फिर इन जानवरों की रखवाली कैसे हो पाये? अत: पहले जो कहावत बकरी के बच्चे के लिए (कि बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी) प्रयोग की जा रही थी, अब आप किसी भी जानवर के लिए और जानवर के लिए ही क्यों, किसी के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं।
मृणाल जी की यह रचना काफी बार पढ़ने को मिली। इसे कई प्रकाशकों/ सम्पादकों ने अपनी पत्रिका/ पुस्तकों में स्थान दिया। अगर इस रचना को मैं मृणाल जी की हस्ताक्षर रचना कहूँ तो शायद गलत न होगा। प्रस्तुत कथा का कथानक तो अच्छा है ही शिल्प और कथ्य भी अच्छे बन पड़े हैं। कथा में संवाद शैली भी सुंदर है। पति-पत्नी के बीच सहज बिहार की बोली का क्षेत्रीय पुट लिए संवाद अच्छे लगते हैं। कुछ शब्द जैसे खुट्टा, गनेशिया, सौगंध ने गाँव के भीने परिवेश की याद दिला दी है। रचना के शीर्षक "बछड़ू" ने इसे कहने के तरीके से और भी लगाव वाला बना दिया। वैसे इसे बछड़ा कहा जाता है लेकिन "बछड़ू" यानी लाड़ वाला नाम।
रचना के अंत में एक अंदेशा रह जाता है कि विमल ने जब सौरभ के सौदे की बात कही तो पाठक को स्पष्ट नहीं होता है कि यह बीस लाख और एक गाड़ी की कीमत उसके ससुराल वालों को दी कीमत (दहेज़) है या फिर उसे जर्मनी में काम देने वाली कम्पनी के वेतन और भत्ते को कहा गया है। खैर...यह स्पष्ट न होने के बाद भी रचना की सुंदरता पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा है।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

Friday, August 2, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)

पुस्तक - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)
प्रकाशक - व्हाइट फाल्कोन पब्लिशिंग 
कीमत - ₹ 199/- (अमेजन पर 25% रियायत पर रु. 150/-में उपलब्ध)
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....आशीष दलाल, नाम तो सुना होगा। जी, यही है नाम 'उसके हिस्से का प्यार' के लेखक का। आशीष दलाल जी (संपर्क - +91 9712748824) का यह प्रथम कहानी संग्रह है। 129 पेज के इस कहानी- संग्रह में आशीष जी ने कहानियों के 17 मोतियों को पिरोया है जो एक से बढ़कर एक चमक रखते हैं। इसकी भूमिका कहानी लेखन महाविद्यालय, अम्बाला की निदेशक और मासिक पत्रिका शुभ तारिका की सम्पादक आदरणीया श्रीमती उर्मि कृष्ण जी ने लिखी है।
संग्रह में लिखी हर कहानी घर-घर की कहानी सी प्रतीत होती है। आजकल समाज में व्याप्त घटनाओं को आशीष जी ने अपनी कलम से रोचक बनाते हुए कहानियों का रूप दिया है। इन कहानियों में घर-परिवार, समाज, उससे जुड़े लोग, उनके आपसी सम्बन्ध और उन समबन्धों में व्याप्त प्रेम, द्वेष, आत्मीयता, घृणा, दया आदि भावनाओं के समीकरणों को बड़ी रोचकता से पाठकों तक पहुँचाया है।

जहाँ, पुस्तक का शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है, वहीं कहानियों के शीर्षक भी पाठकों को कहानियां पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 17 कहानियों में से एक कहानी का शीर्षक ही 'उसके हिस्से का प्यार' है। अन्य शीर्षकों में - एक रात की मुलाकात, लव मैरिज, अग्नि परीक्षा, देवकी, अपना, बेटा, दूसरा पुरुष, वापसी, दूसरा मौका, अंतिम संस्कार, फैसला, दर, जीवनदान, कर्ज, सम्बन्ध, तुम्हारा हिस्सा, और वजूद जैसे आकर्षक और प्रभावशाली शीर्षक पुस्तक को वजनी बनाते हैं। पुस्तक का आवरण पृष्ठ बहुत ही मनोहारी है जो कि इसके शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' से गलबहियां करता सा लगता है। शीर्षक और आवरण पृष्ठ एक-दूसरे के पूरक हैं। पुस्तक की छपाई और आकार भी बहुत सुन्दर हैं। जहाँ इतनी सारी खूबियाँ हैं वहीं पुस्तक में कहीं-कहीं वर्तनी की अशुद्धियाँ भी हैं जिसे प्रकाशक को ध्यान में रखना चाहिए था।
आशीष जी को उनकी इस पुस्तक के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। 
इच्छुक पाठक, लेखक, मित्र इस पुस्तक को निम्नलिखित लिंक से प्राप्त कर सकते हैं।


एक पाठक की प्रतिक्रिया

चार दिन पहले......यही कोई देर शाम, आठ बजे का समय। फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर नजर गई तो देखा... +9122xxxxxxxx मुम्बई का नम्बर।
हेलो...

केन आई टॉक टू मिस्टर दीक्षित?
यस, यू आर टॉकिंग टू रजनीश दीक्षित।

सर, आप दिसंबर के पहले हफ्ते मुम्बई आये थे और हमारे होटल में रुके थे।
जी, हाँ। बताइये, क्या हुआ?

सर, हुआ कुछ नहीं। वो आपकी एक किताब रह गयी है यहाँ, "उसके हिस्से का प्यार"।
क्या??, वो किताब आपके पास है? लेकिन अब तो एक महीने से ज्यादा हो रहा है और आप अब बता रहे हैं? मैं तो परेशान था कि कहाँ गुम हुई?

सॉरी सर, वो मैंने पढ़ने के लिये रख ली थी। आज ही पढ़कर खत्म की। बहुत अच्छी कहानियां हैं, सर। सोचा, अब आपको लौटा दूँ।
ठीक है। आप भेज दीजिये। मैं कोरियर खर्च दे दूँगा।

सर। मैं भेज देता हूँ, कोरियर से। आपका पता वही है न, जो रजिस्टर में लिखवाया था।
हाँ, वही है। ठीक है जल्दी भेजना। धन्यवाद।

...... और यह पुस्तक दो दिन पहले ही दुबारा प्राप्त हुई।
** ** ** ** तो, अब शायद आपको पता चल ही गया होगा कि "उसके हिस्से के प्यार" की समीक्षा में आखिर इतनी देर क्यों लगी? मैंने यह किताब डेढ़ बार पढ़ी है। मतलब आधी पहले और फिर पूरी अब।......आखिर कहांनियाँ अच्छी जो इतनी हैं और इसकी समीक्षा भी लिखनी बाकी थी।



Tuesday, July 30, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - जिंदगी 50 -50 (उपन्यास)

उपन्यास - जिंदगी 50 -50 
लेखक - भगवंत अनमोल  

अनमोल जी का "जिंदगी 50-50" उपन्यास पढ़ने का सुअवसर मिला। मेरा इस उपन्यास तक पहुंचना निश्चित रूप से एक संयोग ही है। चूंकि मैं फेसबुक पर चल रहे 'हिन्दी लेखक संघ' समूह का सदस्य हूँ और इस समूह के एक साहित्यकार सदस्य डॉ फैयाज अहमद की फेसबुक पोस्ट से पता चला कि भगवंत अनमोल जी ने "जिंदगी 50-50" नामक उपन्यास लिखा है। लेखक के बारे में जब पता चला कि आप कानपुर से हैं तो यहाँ क्षेत्रवाद ने थोड़ा काम किया और मैं इस कारण भी लेखक को पढ़ने के लिए उत्सुक हो गया। इसके बाद जब डॉ फैयाज जी का एक साक्षात्कार इस पुस्तक के बारे में पढ़ा तो विषय के बारे में थोड़ी जिज्ञासा और बढ़ी। प्रेम कथाएं तो बहुत उपलब्ध हैं पर किन्नरों का विषय हमारे समाज में विभिन्न कारणों से चर्चा का विषय तो है और लोग इनके बारे में शायद जानते भी हैं लेकिन यह विषय कभी खुले और स्वस्थ रूप में बहसों का हिस्सा नहीं बना। जब भी इसकी चर्चा हुई, छुप छुपाकर या हम उम्र के लोगों ने जो जहाँ जैसी जानकारी मिली, बात की। इसका परिणाम ये हुआ कि जिसे जो जानकारी थी, चाहे वह सही भी थी, उसे कभी प्रामाणिक जानकारी नहीं समझा गया। अच्छा, इस विषय को नजरअंदाज या नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि किन्नर हमें जाने अनजाने दिख ही जाते हैं। कभी किसी के घर बच्चा पैदा हुआ, किन्नर आ गए। शादी विवाह हुआ, किन्नर आ गए। और नहीं तो कहीं चौराहे की लाल बत्ती पर मिल गए, कभी आउटर पर ट्रेन रुकी, किन्नर आ गए।

अनमोल जी ने इस उपन्यास में दो कथाओं को समानांतर रूप से लिखा है, ऐसे दो भी क्यों, अगर तीन भी कहें तो गलत नहीं होगा। एक तो अनमोल (उपन्यास का नायक) के पिता जी और हर्षा/ हर्षिता (अनमोल का भाई - जिसको केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा गया) की कहानी, अनमोल की अनाया (अनमोल की प्रेमिका और नायिका) के साथ प्रेम कहानी और अनमोल की सूर्या (अनमोल का बेटा) के साथ की कहानी।

लगभग आधा उपन्यास पढ़ने तक ऐसा लगा कि पहली दो कहानियां ज्यादा समानांतर नहीं हैं और एक के बाद लिखी हैं अतः ऐसा लगा कि पहले अनमोल और उसके पिता जी की कहानी छाँट छाँट कर पढ़ ली जाए और बाद में इसी तरह अनमोल और अनाया की कहानी लेकिन जब तक यह पाठक निर्णय लेता है, कड़ियाँ जुड़ने लगती हैं और फिर अलग अलग वाला विचार छोड़ना पड़ता है।

उपन्यास को अनमोल जी ने जिस शैली और कुशलता से लिखा है वह पाठकों को कहानी के साथ ज्यादा जोड़े रखता है। पाठकों को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे लेखक उसके सामने बैठ कर कहानी सुना रहा है। कहानी जैसे जैसे बढ़ती है पाठक को किसी चलचित्र की भांति उसमें प्रवेश कर देती है लेकिन अधिकतर स्थानों पर लेखक ने नायक की तुलना शाहरुख खान की फिल्मों में नायक से की है। जैसे ही यह तुलना पाठक पढ़ता है, वह तुरंत चलचित्र वाले माहौल से बाहर आ जाता है और पाठक को इसके काल्पनिक होने का एहसास होने लगता है लेकिन अगले ही पल गाड़ी फिर प्रवाह पकड़ लेती है। इसी प्रकार कुछ स्थानों पर चेतु भैया (चेतन भगत) की पुस्तकों और उनमें मौजूद किरदारों के भी जिक्र है जो कुछ पाठकों के लिये या तो अनभिज्ञ होने के कारण या फिर वह उनके पसंदीदा लेखक न होने के कारण अरुचिजनक सबब बनता होगा। इस उपन्यास में शाहरुख खान की फिल्मों और चेतन भगत की किताबों का जिक्र जब देखा तो मेरा ध्यान विदेशी लेखकों की किताबों की तरफ चला गया। अक्सर विदेशी लेखक अपनी किताबों में या तो अपनी पुरानी किताबों या उनके मित्रों की किताबों का संदर्भ देते मिल जाएंगे। असल में यह एक तरीका परोक्ष रूप से संदर्भित किताबों की मार्केटिंग के रूप में भी किया जाता है, जो कि एक तरह से ठीक भी है।

इस उपन्यास में लेखक ने अंग्रेजी के शब्दों का और सोशल मीडिया का भरपूर प्रयोग किया है जो कि आजकल आम भाषा और जीवनचर्या का हिस्सा हैं। इससे जरूर ही आजकल के पाठक पसंद करेंगे। इसी तरह पुस्तक में गांव की बोली का बहुतायत में इस्तेमाल हुआ है जो कि हिन्दी भाषी क्षेत्र और उम्रदराज लोगों में तो रुचि बनाये रखती ही है साथ ही नौजवान पाठक जिनका गांव और वहां की बोली से सरोकार खत्म या न के बराबर है, उन्हें भी उस परिवेश से परिचय कराती है। कहीं-कहीं उपन्यास में बहुत जगह पाठकों को कई चीजें विस्तार से समझाई गई हैं, जो कि शुरुआत में (जैसे मूंछों वाले लोग, वगैरा... बताए गए हैं) तो पाठक को उत्सुकता पैदा करते हैं और पढ़ने को प्रेरित करते हैं लेकिन बाद में जब इसी तरह की पुनरावृत्ति थोड़ी अजीब भी लगती है।

उपन्यास में अनमोल जी ने एक आम उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की मनोदशा का बखूबी चित्रण किया है जिसमें यह बताया है कि ग्रमीण क्षेत्र में उसका हर कृत्य किस प्रकार से समाज से जुड़ा हुआ है। उसकी पसंद, नापसंद अपने से ज्यादा 'समाज क्या कहेगा?' इस बात पर निर्भर करती है फिर चाहे उसे अपनी या अपने परिवार की खुशियों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। अनमोल के पिता ने सिर्फ समाज की वजह से ही न सिर्फ अपने छोटे बेटे को मारने की कोशिश की बल्कि उसकी पूरी जिंदगी उसे यातनाएं देकर उसकी जिंदगी को भी नरक बनाने का काम किया। इस समाज की वजह से वह खुद भी हीन भावना की जिंदगी जीते रहे।

लेखक ने उपन्यास को कम पात्र देकर भी भरपूर व्यक्तित्व दिए हैं। इसे एक खूबी ही कहा जायेगा क्योंकि सीमित पात्रों की वजह से पाठक सभी किरदारों से परिचित और जुड़ा हुआ महसूस करता है। उपन्यास के अंत में लेखक ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए खूबसूरत मोड़ दिया है जिसे शायद ही कोई पाठक भांप पाए। यह पाठकों को तबतक पता नहीं चलता है जब तक अनमोल लगभग 28 सालों के बाद अनाया के घर पहुंच नहीं जाता है। अनाया के घर पहुँचने पर जो खुलासे हुए, उससे लेखक ने जहाँ अनाया के चरित्र को नये आयाम दिए वहीं प्यार की अभिव्यक्ति को भी बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंचा दिया। लेखक की इसके लिए जितनी प्रसंशा की जाए कम है। इस चित्रण में उपन्यास में जहाँ कुछ देर पहले तक पाठक अनभिज्ञ रहता है वहीं जब अनमोल उसके घर से बाहर आता है और उसे अपनी अनाया के साथ वाली फोटो की याद आती है, प्रबुद्ध पाठक सब कुछ जान जाता है और इसके बाद जो भी वर्णित हुआ है, पढ़कर अपनी विद्वता पर इतराता भी है। इसी वक्त जब अनमोल अनाया से फिर कभी न मिलने का वादा लेकर उसके घर से बाहर निकलता है और रास्ते में उसकी अनाया के बेटे से नजरें मिलती हैं उस  समय पाठक यह सोचता है की जब उसकी फोटो अनाया के साथ उसके घर मे लगी हुई है तो उसके बेटे ने नजरें मिलने के बाबजूद अनमोल को पहिचाना क्यों नहीं? फिर अगले ही पल पाठक अनमोल को इस बात का फायदा देता है कि वह फोटो तो लगभग 28 साल पुरानी है और इस कारण सम्भव है कि क्षणिक मुलाकात में किसी को न पहिचाना जा सके। इसके बाद का जो प्रसंग कि क्यों अनाया के बेटे ने संभावित लाइसेंस को ठुकराया दिया, उसके लिए भी लेखक को बधाई कि उसने अनाया के द्वारा उसके बेटे में अच्छे संस्कार डाले।

भगवंत अनमोल जी को उनके इस उपन्यास के लिए बहुत बधाई और शुभकामनायें। 

रजनीश दीक्षित


Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से आदरणीय गणेश जी बागी जी  की लघुकथा को लिया है। आज उनकी लघुकथा "चित्त और पट" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - चित्त और पट 
लेखक - गणेश जी बागी जी 


नेताओं की बातें क्या, उनकी नियति क्या? अब तो थाली का बैगन भी शर्म से डूब मरे क्योंकि नेता जी में तो जैसे स्वचालित यंत्र लगे हों। इन्हें कब, कहाँ, क्या, किससे, कैसे बात करनी है? क्या आचरण करना है? कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता। इन्हें तो भीड़ में दिखता है एक बड़ा बाजार और अपना कारोबार। ..और दिखे भी क्यों न? आम आदमी यही तो चाहता है कि नेता जी इसी तरह बंदरों की तरह इस पेड़ से उस पेड़, इस शाखा से उस शाखा पर जाते रहिये, हम आपके करतबों से खुश होते रहेंगे। आप मौषम और स्वादानुसार बदल-बदल कर फलों का आनंद लीजिए और खुश हो रही जनता अगर कभी अपने लिए भी किसी फल की इच्छा करे तो उसे गुठलियों का प्रसाद दीजिये।
हमारे देश में आज यही हो रहा है। चनाव जीतने के सूत्र सबको पता हैं, उसके नियम कानून तय हैं। चुनावी कार्यक्रम आज एक बड़ा तिकड़मी व्यवसाय है जिसमें धनबल और बाहुबल का प्रयोग आम है। इसीलिए आज राजनीति में आने के लिए किसी के पास चारित्रिक योग्यता हो न हो, वह छल, प्रपंचों में अब्बल होना चाहिए। यदि ये गुण हैं तो रही कसर पूरी कर देते हैं हमारे तथाकथित चतुर्थ स्तंभ के जिम्मेदार लोग। राजनीति के बाद अगर किसी और पेशे के स्तर में गिरावट आई है तो वह है पत्रकारिता।

जब आप सत्ता में काबिज हैं तो वही वादे आपके लिए ब्रह्म वाक्य हैं और यदि आप विपक्ष में हैं तो आप उन्हीं को जनता के लिए अभिशाप बताते हैं। पता नहीं ये दोहरा चरित्र लाते कहाँ से हैं? जिन योजनाओं से किसी 'और' दल की सरकार के समय विपक्ष को कमियां ही कमियां और नुकसान नजर आते थे, खुद की सरकार आने पर उन्हीं योजनाओं ने जैसे सर्वमनोकामना पूरी करने वाली योजनाओं का रूप ले लिया हो। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन इन्हीं अपनी योजनाओं को विपक्ष जब खुद लागू कर रहा था तो उसे स्वर्ग की सीढ़ी जैसी दिख रही थी लेकिन आज जब सत्ता पक्ष उनसे समुद्र मंथन कर रत्न प्राप्त करना चाहता है तो उनमें उन्हें खोट ही खोट नजर आता है।
इसीतरह के नेताओं के दो-मुहें चरित्र का बखान करती हुई लघुकथा "चित्त और पट" अच्छी बन पड़ी है। आजकल पत्रकार भी अंतर्जालीय जमाने वाला है। उसके पास प्रश्नावली भी संयुक्त वाली ही है। उसने मौकापरस्त नेताओं और दलों की तरह, पूछे जाने वाले प्रश्नों का गठबंधन करा दिया है। आजकल हर गली-नुक्कड़ पर नेता मिल जाएंगे। बेरोजगार हैं तो क्या हुआ? नेता तो बन ही सकते हैं। कभी भी अपनी जाति और धर्म वाले की टोपी और झंडा लगा लेंगे और बन जाएंगे नेता जी। ....तो पत्रकार को आजकल अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है, कि पता नहीं किस दल के नेता कहाँ मिल जाएं? तो उसने भी एक ऐसी प्रश्नावली ईजाद की है कि हर नेता पर वह सटीक बैठ जाये जिससे नेता जी भी सहज महसूस करें और उसकी अपनी पत्रकारिता भी चमकती रहे, नौकरी भी बनी रहे।
...प्रस्तुत लघुकथा में भी जब पत्रकार ने पहला प्रश्न किया तो नेता जी ने आशानुरूप यही जबाब दिया कि, "विपक्ष की रैली असफल रही। इस रैली की वजह से सभी को परेशानी हुई। अब परेशानी का कारण तो भीड़ ही थी जो कि कहीं न कहीं इस बात का संकेत थी कि विपक्ष की लोकप्रियता बढ़ी है। और जब पत्रकार ने बढ़ी भीड़ की उनकी स्वीकरोक्ति के बारे में पूछा तो उनका एकदम उलट जबाब था। उन्होंने अपने 40 वर्षों के भीड़ जुटाने और रैलियां आयोजित कराने के लिए उपयोग में लाये जाने वाले हथकंडों को जग-जाहिर कर दिया। ..... आखिर, रंगा सियार कब तक अपनी "हुआं-हुआं" रोक पाता।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -1)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में लेखक हैं आदरणीय गणेश जी बागी जी । आज उनकी लघुकथा "आस्तीन का साँप" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - आस्तीन का साँप 
लेखक - गणेश जी बागी जी 

आज तकनीक और सूचना औद्योगिकी के बाद भी यह एक बड़ी समस्या है कि देश के दुश्मन अपने घृणित कारनामों में कामयाब हो जाते हैं और हम सिर्फ हाथ मलते रह जाते हैं। आज आतंकवाद केवल भारत की ही समस्या नहीं है अपितु यह एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बानी हुई है। लगभग सभी देश किसी न किसी रूप में इसकी गिरिफ्त में हैं। प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या पर आधारित उस विषय को लिया है जिसमें आतकवादियों को पड़कना एक बड़ी समस्या है। यह तो तब है जब इन गतिविधियों और उनके संचालकों के सुराग पता लगाने के लिए सम्बंधित विभाग बड़े-बड़े इंतजामों के साथ लगे हुए हैं जिसमे हर तरह की तकनीक और अकूत धन का उपयोग किया जाता है। इन सबके बाद भी उपलब्धता के नाम पर ज्यादा बार असफलता ही हाथ लगती है। इन असफलताओं के बहुत कारण हैं लेकिन जो एक बड़ा कारण है वह है ऐसे आतंकवादी तत्वों के समर्थकों का होना। इस लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या को रेखांकित किया है। इसका जीता जागता उदाहरण कश्मीर की समस्या है। वहाँ के कुछ तथाकथित भटके हुए लोग दाना-पानी तो हमारे देश का खाते हैं लेकिन आतंकियों के लिए ढाल का काम करते हैं। ऐसे लोगों को आस्तीन का साँप न कहा जाये तो क्या कहा जाये?
बिना लाग-लपेट के 107 शब्दों में समाहित प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने समस्या का कथानक तो अच्छा लिया लेकिन कथ्य तार्किक नहीं बन पाया है। जैसे, जब अधिकारी ने मिस्टर सिंह से पूछा कि आप पिछले छः माह से उस आतंकवादी को पकड़ने में लगे हैं जिसका सुराग भी यह मिला था कि वह पडोसी देश में है लेकिन आपकी प्रगति शून्य क्यों है।" .. तो यहाँ यह प्रतीत होता है कि या तो साहब नए-नए हैं या शायद साहब सीधे छः महीने बाद ही अपने मातहतों से मिल रहे हैं। बीच में कोई संवाद ही नहीं हुआ। और जैसे आतकवादी के बारे में अगर यह पता चल जाये कि वह किस देश में है तो उसे पकड़ना तो जैसे बायें हाथ का काम है। दूसरा, मिस्टर सिंह का भी जबाब भी उन्हीं की तर्ज पर है, "कि अगर वह आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो वे जिन्दा या मुर्दा उसे महज दो दिन में पकड़ सकते थे लेकिन...." जैसे मिस्टर सिंह भी पिछले छः महीने से इस सवाल का ही इन्तजार कर रहे थे और अभी तक यह सूचना ऊपर तक नहीं पहुंची थी कि वह खूंखार आतंकवादी पड़ोसी देश में न होकर अपने देश में ही है। .... वैसे मिस्टर सिंह के इस जबाब का भी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है कि अगर आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो उसे जिन्दा या मुर्दा दो दिन में पकड़ लेते। यह न केवल हास्यास्पद है अपितु सफ़ेद झूठ भी है। यह तो सभी को पता है कि कितने ही नामी गिरामी आतंकवादी हमारे पडोसी देशों में पनाह लिए हुए हैं और दो दिन तो छोड़िये, दशकों से उनको पकड़ने के नाम पर शिफर ही हासिल हुआ है।

लघुकथा में उपर्युक्त विरोधाभास होते हुए भी इस बात से कतई असहमत नहीं हुआ जा सकता कि हमारे देश में आस्तीन के साँंप बहुतायत में हैं। चाहे वह बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं के अवैध रूप से भारत में घुसपैठ और बसने का मामला हो, सजायाफ्ता आतंकियों के जनाजे में शामिल होने की बात हो, उनकी फांसी की सजा को माफ़ करने वाली अपीलें हों या फिर दिल्ली के एक विश्विद्यालय में देश विरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन हो। इन सभी मामलों में हमारे देश में बड़ी संख्या में उसके समर्थक मौजूद हैं। इसके साथ इस रचना की यह विशेषता भी रही कि इसमें जो दो अधिकारीयों के बीच संवाद हुआ है उसमें नाम (अधूरा ही सही) केवल मिस्टर सिंह का ही आया है। दूसरे बड़े अधिकारी के नाम का जिक्र भी नहीं है फिर भी उपस्थिति का एहसास नाम की अनुपस्थिति में भी उतना ही हुआ है। ...आखिर ख़ुफ़िया तंत्र के बड़े अधिकारी हैं, उनके नाम आधे अधूरे या पूरी तरह से गुप्त रखने ही चाहिए। यह और कुछ नहीं, लेखक की कलम की कुशलता ही है।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।