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Tuesday, August 13, 2019

पुण्यतिथि पर स्मरण : अमृतराय जी

वही लिखो जो तुमने जिया है और जो नया लिखना है उसको पहले जियो।
 - अमृतराय
(स्रोत - लघुकथा कलश, द्वितीय महाविशेषांक)
  
1921 में बनारस में जन्मे और 14 अगस्त 1996 को इलाहबाद में स्वर्गवासी हुए अमृतराय जी को साहित्य जगत में शायद ही कोई होगा जो उनके लेखन कौशल्य से परिचित न होगा और उनके लेखन का मुरीद न होगा। उपन्यासकार, निबन्धकार, समीक्षक, अनुवादक और कहानीकार अमृतराय जी की कल पुण्यतिथि है। हरदिल अजीज मुंशी प्रेमचंद जी के सुपुत्र अमृतराय जी को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन और श्रद्धांजलियाँ।
     

अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन जैसा ही कुछ मैं 2014 के चुनाव के समय से ढूंढ़ रहा था। मुझे इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि इस तरह का किसी ने कहा या लिखा नहीं होगा। यह मेरी अपनी अनुभूति थी कि इस तरह ही लेखन होना चाहिए। .... दरअसल मुझे इस तरह के कथन और उसके अनुपालन की कमी उस समय महसूस हुई जब कुछ नामी-गिरामी अभिनेताओं, लेखकों आदि ने एक शब्द को इतना उछाला कि उससे उनके चेहरे पर चढ़ी नकली परत उतर गई। नीले सियार का रंग पहली ही बारिश में उतर गया। असल में जिन लेखकों और कलाकारों ने अपनी कृतियों और भावनात्मक अभिनय के कारण आम जनमानस में जो अपनी छवि बनायी थी वह चुनाव आते ही धुल गई। लोगों को लगता था कि जो साहित्य उन्होंने लिखा है या जो किरदार उन्होंने फिल्मों आदि में जिया है वह तो उनका क्षद्म लेखन और केवल अभिनय मात्र था। उस समय तक असहिष्णुता शब्द के बारे में केवल साहित्य क्षेत्र से जुड़े लोग ही ज्यादा परिचित थे। इस शब्द को आम किया नकली चोले वालों ने। समय गवाह है कि कितने लोगों ने गन्दी राजनीति से प्रेरित इन लेखकों, पत्रकारों और अभिनेताओं को अपनी नजर से उनके दोहरे चरित्र के कारण गिरा दिया। उनके सम्मान वापसी जैसे क्रिया-कलापों से स्पष्ट हो गया कि उनका यह कार्य किस उद्देश्य के तहत किया गया होगा। 

पिछले दिनों सिनेमा और पत्रकारिता जगत में  #मीटू अभियान के तहत जिनके चरित्र उजागर हुए, उनमें भी वस्तुतः वही दोहरे चेहरे वाले ही निकलकर बाहर आये। आध्यात्म जगत भी इससे बचा नहीं रहा। कितने तथाकथित समाज सुधारक, प्रचारक, प्रवचनकर्ता जिनके मुख से सतत ईश्वरीय वाणी ही निकलती थी, उनके चरित्र के काले चिट्ठे भी खूब खुले।   

मुझे लगता है कि इस तरह का आचरण रखने वाले लेखक, कवि, शायर, पत्रकार, अभिनेता या आध्यात्मिक लोग बहुत ही कम हैं जिन्होंने जो लिखा है, जो कहा है या जो अभिनय किया है, उसे जिया है या जो लिख दिया है उसे जीने वाले हैं। अधिकतर तो वह लिखते या करते हैं जो आदर्श रूप में होना चाहिए। उनका इसके अनुपालन से कोई लेना नहीं है। 

उपर्युक्त कथन से गंभीर और संवेदनशील लोगों को जरूर आत्ममंथन के लिए इशारा मिल गया होगा। जरूर अमृतराय जी के उपर्युक्त कथन अनुपालन से समाज में सकारात्मक कदम की शुरुआत बड़े स्तर पर की जा सकती है। यहाँ पर मैं खलनायकों को उनके अभिनय और असल जिंदगी में चरित्र को इस लेख में अपवाद की तरह लेता हूँ। 

कृपया इस लेख के मंतव्य पर जायें। आपकी किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया का स्वागत है।         

Friday, August 9, 2019

ये जो मेरी हिन्दी है....


काफी दिनों से मेरे साहित्यिक क्रिया-कलापों को देखते रहने के बाद, कल किसी ने मुझसे पूछा, "I think, you like Hindi very much."

मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे पता नहीं कि बांछें कहाँ होती हैं, लेकिन खिल गईं। 

मेरा जबाब था, "मैं हिन्दी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खेला हूँ, मैं हिन्दी में रोया हूँ, मैं हिन्दी में हँसा हूँ, मैं हिन्दी में नाराज हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खुश हुआ हूँ। मैं हिन्दी में प्यार करता हूँ, मैं हिन्दी में शिकायत करता हूँ, मैं हिन्दी के अलावा यदि किसी और भाषा में भी जबाब देता हूँ तो उससे पहले मैं हिन्दी में सोचता हूँ। कुल मिलाकर, मैं हिन्दी में सना हुआ हूँ।

... और तो और, मैं दिन भर की मेहनत के बाद अपनी हिन्दी की गोद और उसके आलिंगन में सो जाता हूँ। (...और यह कहते-कहते मेरी आँखों की कोरों पर उभर आयी भावनाओं को शायद उन्होंने महसूस किया। मैंने उन्हें छलकने से रोका भी नहीं।) 

....कुछ क्षणों के विराम के बाद, मैंने फिर कहना शुरू किया, "हिन्दी मेरी माँ है और संस्कृत को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाएँ मेरी मौषियां हैं। दरअसल, संस्कृत मेरी दादी माँ है।"

पता नहीं, उन्हें मेरी बात कितनी समझ में आयी? 

फिर उन्होंने टकले पर खुजलाते हुए पूछा, "What about English?" 

Hey, She is my Aunty.  I replied.

Saturday, August 3, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -1)

लघुकथा - बछड़ू
लेखक - मृणाल आशुतोष जी 

विछोह किन्हीं के बीच का भी हो, बहुत दुखदायी होता है। इसमें भावनाओं को चोट पहुँचती है, संवेदनायें क्रंदन करती हैं और कभी-कभी स्थितियाँ इतनी विषम होती हैं कि सिर्फ अफ़सोस करने के सिवा कुछ नहीं रह जाता है। हमारे शास्त्रों में इसे लगाव, मोह या आसक्ति कहा गया है। वैसे यह मोह अगर मानवीय संबंधों से इतर हो तो लोग संयत और संयमित रह भी सकते हैं लेकिन अपनों का जुदा होना अक्सर बहुत कष्टकारी होता है। इससे पहले कि मैं प्रस्तुत कथा में गहरा उतरूं, मुझे एक वाक्या याद आ गया। मैं तब छोटा था, शायद कक्षा पाँच में पढ़ता था। एक दिन मेरी साईकिल मेरा एक दोस्त लेकर गया था और शाम को बारिश होने की वजह से वह वापस करने नहीं आ सका था। मुझे आज भी याद है कि मैं उस रात बहुत असहज रहा था। मुझे यही चिंता सता रही थी कि पता नहीं मेरे दोस्त ने साईकिल को संभाल कर रखा होगा कि नहीं, कहीं बारिश में भीग न रही हो, आदि, आदि। मुझे नहीं पता कि वह आसक्ति थी कि कुछ और लेकिन मन में कहीं उसके अलगाव का दंश तो था ही। मुझे यह भी याद है कि मेरा जो दर्द था वह कीमती साईकिल के लिए नहीं था। मैं कहीं उस साईकिल के अलग होने को एक मित्र के वियोग की तरह महसूस कर रहा था। खैर...कुछ बातें सिर्फ महसूस की जाती हैं, उनका वर्णन करना आसान नहीं होता।
इस कथा में दो सामान घटनाओं को तुलनात्मक तरीके से संबंधों की धुरी पर तौला गया है जिससे यह सहज रूप से प्रतीत होता है कि चाहे इंसान हो या कोई जानवर, प्रकृति ने संवेदनाएं सभी को सामान रूप से दी हैं। कहते भी हैं कि आप किसी की वेदना को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि वह आपके साथ घटित न हो। जाके पाँव न फटी बिंवाई, सो का जाने पीर पराई।
संबंधों को महसूस करने और उन्हें निभाने की बात जब भी आती है तो माँ के प्रेम को सर्वोपरि रखा जाता है। और यह सच भी है क्योंकि माँ का प्रेम निश्वार्थ होता है। और जब एक माँ के कष्ट की बात हो तो उसे कोई माँ ही असली रूप में समझ सकती है।
...."गनेशिया ने अपना बछड़ू बेच दिया।" मुझे लगता है इस वाक्य को कहते-कहते अनिता का गला भर आया होगा। बात ही ऐसी है। पति-पत्नी की हलकी-फुलकी चुहल से शुरू हुई बात ने इस वाक्य के आटे-आते गंभीर मोड़ ले लिया था। विमल के इस तार्किक उत्तर से "कि लो, इसमें परेशान होने की क्या बात है? उसे तो बेचना ही था" ने अनिता को और भी मौका दे दिया कि, " आखिर, तुम्हें गाय का दर्द दिखा ही नहीं, न? गाय अपने बछड़े के वियोग में परेशान है और ठीक से दो मिनट के लिए भी नहीं बैठी है।" मंतव्य तो अनिता का शायद यही रहा होगा कि.... आखिर तुम मर्द जो ठहरे। तुम्हें यह सब कहाँ पता चलेगा? लेकिन मर्दों का अपना अलग तरीका होता है सोचने का, जताने का। अक्सर भाइयों और बापों को बहन/बेटी की डोली उठने के बाद, माँ/पत्नी को हँस-हँस कर ढांढस बँधाते देखा गया है और अकेले में उन्हें दहाड़ें मारकर रोते। वे दुनिया को, अपने आप को तर्कों से समझा लेते हैं। लेकिन पत्थर दिल वह भी नहीं होते हैं। उन्हें तो जैसे यह सब नियति का तय किया हुआ लगता है। तो, यहाँ विमल और क्या तर्क देता? मिलान कर दिया उस घटना से कि "यह तो होता ही है। उसने अपने ही बेटे सौरभ का उदाहरण दे डाला जो जर्मनी में जाकर बस गया था और अब कौन माँ-बाप और कौन अपने? उसे लग रहा था कि यहाँ आज गनेशिया ने अपने बछड़ू का सौदा किया है और पाँच साल पहले उन्होंने अपने सौरभ का सौदा कुछ बीस लाख रूपये और एक गाडी में कर दिया था।
...वैसे तो किसान बहुत दयालु प्रवत्ति का होता है लेकिन कहावत है कि घोड़ा अगर घास से यारी करेगा तो खायेगा, क्या? आखिर बछड़े को खूंटे पर कब तक बांध कर खिलायेगा? अब तो वह ज़माना भी नहीं रहा जब हर घर के बाड़े में बैलों की जोड़ी शोभा बढाती थी। लड़की वाले जब लड़का देखने आते थे तो घर के बड़े लोग रौब से अपने बैलों की जोड़ी दिखाते हुए फख्र महसूस करते थे। बाड़े में जबतक 10-15 जानवरों की रेलम-पेल न हो तबतक रौनक ही नहीं बनती थी। इसके लिए लोग सुबह से ही चारा काटने वाली मशीन पर लग जाते थे और चारे के कटने की लयबद्ध "खच-पच, खच-पच" की आवाज किसी सरगम से कम नहीं लगती थी। जानवरों और उनके बच्चों के गले में बंधी घंटियों से 'टुन-टुन' की आवाज जैसे बता देती थी कि बाड़े में सब ठीक है और तभी बड़े मजीरे सी तेज आवाज यह भी बता देती थी कि युवा होते बछड़ुओं में किसी बात पर अनबन सी है शायद। थोड़ी देर में कभी गाय-भैंस के रंभाने से यह भी पता चल जाता था कि उसकी नाद में सानी (चारा) अब ख़त्म होने को है।
... लेकिन अब जमाना बदल चुका है। खेती करने के तरीके बदले, आवागमन के संसाधन बदले। अब ट्रैक्टर से जुताई और मोटर-कारों, स्कूटर-मोटरसाइकिल से आवागमन आम हो गया है। अब बैलगाड़ियों का ज़माना गया। और जब खेती में पैदावार भी घटने लगी है तो फिर इन जानवरों की रखवाली कैसे हो पाये? अत: पहले जो कहावत बकरी के बच्चे के लिए (कि बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी) प्रयोग की जा रही थी, अब आप किसी भी जानवर के लिए और जानवर के लिए ही क्यों, किसी के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं।
मृणाल जी की यह रचना काफी बार पढ़ने को मिली। इसे कई प्रकाशकों/ सम्पादकों ने अपनी पत्रिका/ पुस्तकों में स्थान दिया। अगर इस रचना को मैं मृणाल जी की हस्ताक्षर रचना कहूँ तो शायद गलत न होगा। प्रस्तुत कथा का कथानक तो अच्छा है ही शिल्प और कथ्य भी अच्छे बन पड़े हैं। कथा में संवाद शैली भी सुंदर है। पति-पत्नी के बीच सहज बिहार की बोली का क्षेत्रीय पुट लिए संवाद अच्छे लगते हैं। कुछ शब्द जैसे खुट्टा, गनेशिया, सौगंध ने गाँव के भीने परिवेश की याद दिला दी है। रचना के शीर्षक "बछड़ू" ने इसे कहने के तरीके से और भी लगाव वाला बना दिया। वैसे इसे बछड़ा कहा जाता है लेकिन "बछड़ू" यानी लाड़ वाला नाम।
रचना के अंत में एक अंदेशा रह जाता है कि विमल ने जब सौरभ के सौदे की बात कही तो पाठक को स्पष्ट नहीं होता है कि यह बीस लाख और एक गाड़ी की कीमत उसके ससुराल वालों को दी कीमत (दहेज़) है या फिर उसे जर्मनी में काम देने वाली कम्पनी के वेतन और भत्ते को कहा गया है। खैर...यह स्पष्ट न होने के बाद भी रचना की सुंदरता पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा है।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

Friday, August 2, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)

पुस्तक - उसके हिस्से का प्यार (कहानी संग्रह)
प्रकाशक - व्हाइट फाल्कोन पब्लिशिंग 
कीमत - ₹ 199/- (अमेजन पर 25% रियायत पर रु. 150/-में उपलब्ध)
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....आशीष दलाल, नाम तो सुना होगा। जी, यही है नाम 'उसके हिस्से का प्यार' के लेखक का। आशीष दलाल जी (संपर्क - +91 9712748824) का यह प्रथम कहानी संग्रह है। 129 पेज के इस कहानी- संग्रह में आशीष जी ने कहानियों के 17 मोतियों को पिरोया है जो एक से बढ़कर एक चमक रखते हैं। इसकी भूमिका कहानी लेखन महाविद्यालय, अम्बाला की निदेशक और मासिक पत्रिका शुभ तारिका की सम्पादक आदरणीया श्रीमती उर्मि कृष्ण जी ने लिखी है।
संग्रह में लिखी हर कहानी घर-घर की कहानी सी प्रतीत होती है। आजकल समाज में व्याप्त घटनाओं को आशीष जी ने अपनी कलम से रोचक बनाते हुए कहानियों का रूप दिया है। इन कहानियों में घर-परिवार, समाज, उससे जुड़े लोग, उनके आपसी सम्बन्ध और उन समबन्धों में व्याप्त प्रेम, द्वेष, आत्मीयता, घृणा, दया आदि भावनाओं के समीकरणों को बड़ी रोचकता से पाठकों तक पहुँचाया है।

जहाँ, पुस्तक का शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है, वहीं कहानियों के शीर्षक भी पाठकों को कहानियां पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 17 कहानियों में से एक कहानी का शीर्षक ही 'उसके हिस्से का प्यार' है। अन्य शीर्षकों में - एक रात की मुलाकात, लव मैरिज, अग्नि परीक्षा, देवकी, अपना, बेटा, दूसरा पुरुष, वापसी, दूसरा मौका, अंतिम संस्कार, फैसला, दर, जीवनदान, कर्ज, सम्बन्ध, तुम्हारा हिस्सा, और वजूद जैसे आकर्षक और प्रभावशाली शीर्षक पुस्तक को वजनी बनाते हैं। पुस्तक का आवरण पृष्ठ बहुत ही मनोहारी है जो कि इसके शीर्षक 'उसके हिस्से का प्यार' से गलबहियां करता सा लगता है। शीर्षक और आवरण पृष्ठ एक-दूसरे के पूरक हैं। पुस्तक की छपाई और आकार भी बहुत सुन्दर हैं। जहाँ इतनी सारी खूबियाँ हैं वहीं पुस्तक में कहीं-कहीं वर्तनी की अशुद्धियाँ भी हैं जिसे प्रकाशक को ध्यान में रखना चाहिए था।
आशीष जी को उनकी इस पुस्तक के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। 
इच्छुक पाठक, लेखक, मित्र इस पुस्तक को निम्नलिखित लिंक से प्राप्त कर सकते हैं।


एक पाठक की प्रतिक्रिया

चार दिन पहले......यही कोई देर शाम, आठ बजे का समय। फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर नजर गई तो देखा... +9122xxxxxxxx मुम्बई का नम्बर।
हेलो...

केन आई टॉक टू मिस्टर दीक्षित?
यस, यू आर टॉकिंग टू रजनीश दीक्षित।

सर, आप दिसंबर के पहले हफ्ते मुम्बई आये थे और हमारे होटल में रुके थे।
जी, हाँ। बताइये, क्या हुआ?

सर, हुआ कुछ नहीं। वो आपकी एक किताब रह गयी है यहाँ, "उसके हिस्से का प्यार"।
क्या??, वो किताब आपके पास है? लेकिन अब तो एक महीने से ज्यादा हो रहा है और आप अब बता रहे हैं? मैं तो परेशान था कि कहाँ गुम हुई?

सॉरी सर, वो मैंने पढ़ने के लिये रख ली थी। आज ही पढ़कर खत्म की। बहुत अच्छी कहानियां हैं, सर। सोचा, अब आपको लौटा दूँ।
ठीक है। आप भेज दीजिये। मैं कोरियर खर्च दे दूँगा।

सर। मैं भेज देता हूँ, कोरियर से। आपका पता वही है न, जो रजिस्टर में लिखवाया था।
हाँ, वही है। ठीक है जल्दी भेजना। धन्यवाद।

...... और यह पुस्तक दो दिन पहले ही दुबारा प्राप्त हुई।
** ** ** ** तो, अब शायद आपको पता चल ही गया होगा कि "उसके हिस्से के प्यार" की समीक्षा में आखिर इतनी देर क्यों लगी? मैंने यह किताब डेढ़ बार पढ़ी है। मतलब आधी पहले और फिर पूरी अब।......आखिर कहांनियाँ अच्छी जो इतनी हैं और इसकी समीक्षा भी लिखनी बाकी थी।



Tuesday, July 30, 2019

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - जिंदगी 50 -50 (उपन्यास)

उपन्यास - जिंदगी 50 -50 
लेखक - भगवंत अनमोल  

अनमोल जी का "जिंदगी 50-50" उपन्यास पढ़ने का सुअवसर मिला। मेरा इस उपन्यास तक पहुंचना निश्चित रूप से एक संयोग ही है। चूंकि मैं फेसबुक पर चल रहे 'हिन्दी लेखक संघ' समूह का सदस्य हूँ और इस समूह के एक साहित्यकार सदस्य डॉ फैयाज अहमद की फेसबुक पोस्ट से पता चला कि भगवंत अनमोल जी ने "जिंदगी 50-50" नामक उपन्यास लिखा है। लेखक के बारे में जब पता चला कि आप कानपुर से हैं तो यहाँ क्षेत्रवाद ने थोड़ा काम किया और मैं इस कारण भी लेखक को पढ़ने के लिए उत्सुक हो गया। इसके बाद जब डॉ फैयाज जी का एक साक्षात्कार इस पुस्तक के बारे में पढ़ा तो विषय के बारे में थोड़ी जिज्ञासा और बढ़ी। प्रेम कथाएं तो बहुत उपलब्ध हैं पर किन्नरों का विषय हमारे समाज में विभिन्न कारणों से चर्चा का विषय तो है और लोग इनके बारे में शायद जानते भी हैं लेकिन यह विषय कभी खुले और स्वस्थ रूप में बहसों का हिस्सा नहीं बना। जब भी इसकी चर्चा हुई, छुप छुपाकर या हम उम्र के लोगों ने जो जहाँ जैसी जानकारी मिली, बात की। इसका परिणाम ये हुआ कि जिसे जो जानकारी थी, चाहे वह सही भी थी, उसे कभी प्रामाणिक जानकारी नहीं समझा गया। अच्छा, इस विषय को नजरअंदाज या नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि किन्नर हमें जाने अनजाने दिख ही जाते हैं। कभी किसी के घर बच्चा पैदा हुआ, किन्नर आ गए। शादी विवाह हुआ, किन्नर आ गए। और नहीं तो कहीं चौराहे की लाल बत्ती पर मिल गए, कभी आउटर पर ट्रेन रुकी, किन्नर आ गए।

अनमोल जी ने इस उपन्यास में दो कथाओं को समानांतर रूप से लिखा है, ऐसे दो भी क्यों, अगर तीन भी कहें तो गलत नहीं होगा। एक तो अनमोल (उपन्यास का नायक) के पिता जी और हर्षा/ हर्षिता (अनमोल का भाई - जिसको केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा गया) की कहानी, अनमोल की अनाया (अनमोल की प्रेमिका और नायिका) के साथ प्रेम कहानी और अनमोल की सूर्या (अनमोल का बेटा) के साथ की कहानी।

लगभग आधा उपन्यास पढ़ने तक ऐसा लगा कि पहली दो कहानियां ज्यादा समानांतर नहीं हैं और एक के बाद लिखी हैं अतः ऐसा लगा कि पहले अनमोल और उसके पिता जी की कहानी छाँट छाँट कर पढ़ ली जाए और बाद में इसी तरह अनमोल और अनाया की कहानी लेकिन जब तक यह पाठक निर्णय लेता है, कड़ियाँ जुड़ने लगती हैं और फिर अलग अलग वाला विचार छोड़ना पड़ता है।

उपन्यास को अनमोल जी ने जिस शैली और कुशलता से लिखा है वह पाठकों को कहानी के साथ ज्यादा जोड़े रखता है। पाठकों को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे लेखक उसके सामने बैठ कर कहानी सुना रहा है। कहानी जैसे जैसे बढ़ती है पाठक को किसी चलचित्र की भांति उसमें प्रवेश कर देती है लेकिन अधिकतर स्थानों पर लेखक ने नायक की तुलना शाहरुख खान की फिल्मों में नायक से की है। जैसे ही यह तुलना पाठक पढ़ता है, वह तुरंत चलचित्र वाले माहौल से बाहर आ जाता है और पाठक को इसके काल्पनिक होने का एहसास होने लगता है लेकिन अगले ही पल गाड़ी फिर प्रवाह पकड़ लेती है। इसी प्रकार कुछ स्थानों पर चेतु भैया (चेतन भगत) की पुस्तकों और उनमें मौजूद किरदारों के भी जिक्र है जो कुछ पाठकों के लिये या तो अनभिज्ञ होने के कारण या फिर वह उनके पसंदीदा लेखक न होने के कारण अरुचिजनक सबब बनता होगा। इस उपन्यास में शाहरुख खान की फिल्मों और चेतन भगत की किताबों का जिक्र जब देखा तो मेरा ध्यान विदेशी लेखकों की किताबों की तरफ चला गया। अक्सर विदेशी लेखक अपनी किताबों में या तो अपनी पुरानी किताबों या उनके मित्रों की किताबों का संदर्भ देते मिल जाएंगे। असल में यह एक तरीका परोक्ष रूप से संदर्भित किताबों की मार्केटिंग के रूप में भी किया जाता है, जो कि एक तरह से ठीक भी है।

इस उपन्यास में लेखक ने अंग्रेजी के शब्दों का और सोशल मीडिया का भरपूर प्रयोग किया है जो कि आजकल आम भाषा और जीवनचर्या का हिस्सा हैं। इससे जरूर ही आजकल के पाठक पसंद करेंगे। इसी तरह पुस्तक में गांव की बोली का बहुतायत में इस्तेमाल हुआ है जो कि हिन्दी भाषी क्षेत्र और उम्रदराज लोगों में तो रुचि बनाये रखती ही है साथ ही नौजवान पाठक जिनका गांव और वहां की बोली से सरोकार खत्म या न के बराबर है, उन्हें भी उस परिवेश से परिचय कराती है। कहीं-कहीं उपन्यास में बहुत जगह पाठकों को कई चीजें विस्तार से समझाई गई हैं, जो कि शुरुआत में (जैसे मूंछों वाले लोग, वगैरा... बताए गए हैं) तो पाठक को उत्सुकता पैदा करते हैं और पढ़ने को प्रेरित करते हैं लेकिन बाद में जब इसी तरह की पुनरावृत्ति थोड़ी अजीब भी लगती है।

उपन्यास में अनमोल जी ने एक आम उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की मनोदशा का बखूबी चित्रण किया है जिसमें यह बताया है कि ग्रमीण क्षेत्र में उसका हर कृत्य किस प्रकार से समाज से जुड़ा हुआ है। उसकी पसंद, नापसंद अपने से ज्यादा 'समाज क्या कहेगा?' इस बात पर निर्भर करती है फिर चाहे उसे अपनी या अपने परिवार की खुशियों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। अनमोल के पिता ने सिर्फ समाज की वजह से ही न सिर्फ अपने छोटे बेटे को मारने की कोशिश की बल्कि उसकी पूरी जिंदगी उसे यातनाएं देकर उसकी जिंदगी को भी नरक बनाने का काम किया। इस समाज की वजह से वह खुद भी हीन भावना की जिंदगी जीते रहे।

लेखक ने उपन्यास को कम पात्र देकर भी भरपूर व्यक्तित्व दिए हैं। इसे एक खूबी ही कहा जायेगा क्योंकि सीमित पात्रों की वजह से पाठक सभी किरदारों से परिचित और जुड़ा हुआ महसूस करता है। उपन्यास के अंत में लेखक ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए खूबसूरत मोड़ दिया है जिसे शायद ही कोई पाठक भांप पाए। यह पाठकों को तबतक पता नहीं चलता है जब तक अनमोल लगभग 28 सालों के बाद अनाया के घर पहुंच नहीं जाता है। अनाया के घर पहुँचने पर जो खुलासे हुए, उससे लेखक ने जहाँ अनाया के चरित्र को नये आयाम दिए वहीं प्यार की अभिव्यक्ति को भी बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंचा दिया। लेखक की इसके लिए जितनी प्रसंशा की जाए कम है। इस चित्रण में उपन्यास में जहाँ कुछ देर पहले तक पाठक अनभिज्ञ रहता है वहीं जब अनमोल उसके घर से बाहर आता है और उसे अपनी अनाया के साथ वाली फोटो की याद आती है, प्रबुद्ध पाठक सब कुछ जान जाता है और इसके बाद जो भी वर्णित हुआ है, पढ़कर अपनी विद्वता पर इतराता भी है। इसी वक्त जब अनमोल अनाया से फिर कभी न मिलने का वादा लेकर उसके घर से बाहर निकलता है और रास्ते में उसकी अनाया के बेटे से नजरें मिलती हैं उस  समय पाठक यह सोचता है की जब उसकी फोटो अनाया के साथ उसके घर मे लगी हुई है तो उसके बेटे ने नजरें मिलने के बाबजूद अनमोल को पहिचाना क्यों नहीं? फिर अगले ही पल पाठक अनमोल को इस बात का फायदा देता है कि वह फोटो तो लगभग 28 साल पुरानी है और इस कारण सम्भव है कि क्षणिक मुलाकात में किसी को न पहिचाना जा सके। इसके बाद का जो प्रसंग कि क्यों अनाया के बेटे ने संभावित लाइसेंस को ठुकराया दिया, उसके लिए भी लेखक को बधाई कि उसने अनाया के द्वारा उसके बेटे में अच्छे संस्कार डाले।

भगवंत अनमोल जी को उनके इस उपन्यास के लिए बहुत बधाई और शुभकामनायें। 

रजनीश दीक्षित


Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से आदरणीय गणेश जी बागी जी  की लघुकथा को लिया है। आज उनकी लघुकथा "चित्त और पट" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - चित्त और पट 
लेखक - गणेश जी बागी जी 


नेताओं की बातें क्या, उनकी नियति क्या? अब तो थाली का बैगन भी शर्म से डूब मरे क्योंकि नेता जी में तो जैसे स्वचालित यंत्र लगे हों। इन्हें कब, कहाँ, क्या, किससे, कैसे बात करनी है? क्या आचरण करना है? कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता। इन्हें तो भीड़ में दिखता है एक बड़ा बाजार और अपना कारोबार। ..और दिखे भी क्यों न? आम आदमी यही तो चाहता है कि नेता जी इसी तरह बंदरों की तरह इस पेड़ से उस पेड़, इस शाखा से उस शाखा पर जाते रहिये, हम आपके करतबों से खुश होते रहेंगे। आप मौषम और स्वादानुसार बदल-बदल कर फलों का आनंद लीजिए और खुश हो रही जनता अगर कभी अपने लिए भी किसी फल की इच्छा करे तो उसे गुठलियों का प्रसाद दीजिये।
हमारे देश में आज यही हो रहा है। चनाव जीतने के सूत्र सबको पता हैं, उसके नियम कानून तय हैं। चुनावी कार्यक्रम आज एक बड़ा तिकड़मी व्यवसाय है जिसमें धनबल और बाहुबल का प्रयोग आम है। इसीलिए आज राजनीति में आने के लिए किसी के पास चारित्रिक योग्यता हो न हो, वह छल, प्रपंचों में अब्बल होना चाहिए। यदि ये गुण हैं तो रही कसर पूरी कर देते हैं हमारे तथाकथित चतुर्थ स्तंभ के जिम्मेदार लोग। राजनीति के बाद अगर किसी और पेशे के स्तर में गिरावट आई है तो वह है पत्रकारिता।

जब आप सत्ता में काबिज हैं तो वही वादे आपके लिए ब्रह्म वाक्य हैं और यदि आप विपक्ष में हैं तो आप उन्हीं को जनता के लिए अभिशाप बताते हैं। पता नहीं ये दोहरा चरित्र लाते कहाँ से हैं? जिन योजनाओं से किसी 'और' दल की सरकार के समय विपक्ष को कमियां ही कमियां और नुकसान नजर आते थे, खुद की सरकार आने पर उन्हीं योजनाओं ने जैसे सर्वमनोकामना पूरी करने वाली योजनाओं का रूप ले लिया हो। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन इन्हीं अपनी योजनाओं को विपक्ष जब खुद लागू कर रहा था तो उसे स्वर्ग की सीढ़ी जैसी दिख रही थी लेकिन आज जब सत्ता पक्ष उनसे समुद्र मंथन कर रत्न प्राप्त करना चाहता है तो उनमें उन्हें खोट ही खोट नजर आता है।
इसीतरह के नेताओं के दो-मुहें चरित्र का बखान करती हुई लघुकथा "चित्त और पट" अच्छी बन पड़ी है। आजकल पत्रकार भी अंतर्जालीय जमाने वाला है। उसके पास प्रश्नावली भी संयुक्त वाली ही है। उसने मौकापरस्त नेताओं और दलों की तरह, पूछे जाने वाले प्रश्नों का गठबंधन करा दिया है। आजकल हर गली-नुक्कड़ पर नेता मिल जाएंगे। बेरोजगार हैं तो क्या हुआ? नेता तो बन ही सकते हैं। कभी भी अपनी जाति और धर्म वाले की टोपी और झंडा लगा लेंगे और बन जाएंगे नेता जी। ....तो पत्रकार को आजकल अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है, कि पता नहीं किस दल के नेता कहाँ मिल जाएं? तो उसने भी एक ऐसी प्रश्नावली ईजाद की है कि हर नेता पर वह सटीक बैठ जाये जिससे नेता जी भी सहज महसूस करें और उसकी अपनी पत्रकारिता भी चमकती रहे, नौकरी भी बनी रहे।
...प्रस्तुत लघुकथा में भी जब पत्रकार ने पहला प्रश्न किया तो नेता जी ने आशानुरूप यही जबाब दिया कि, "विपक्ष की रैली असफल रही। इस रैली की वजह से सभी को परेशानी हुई। अब परेशानी का कारण तो भीड़ ही थी जो कि कहीं न कहीं इस बात का संकेत थी कि विपक्ष की लोकप्रियता बढ़ी है। और जब पत्रकार ने बढ़ी भीड़ की उनकी स्वीकरोक्ति के बारे में पूछा तो उनका एकदम उलट जबाब था। उन्होंने अपने 40 वर्षों के भीड़ जुटाने और रैलियां आयोजित कराने के लिए उपयोग में लाये जाने वाले हथकंडों को जग-जाहिर कर दिया। ..... आखिर, रंगा सियार कब तक अपनी "हुआं-हुआं" रोक पाता।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - गणेश जी बागी जी -1)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में लेखक हैं आदरणीय गणेश जी बागी जी । आज उनकी लघुकथा "आस्तीन का साँप" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - आस्तीन का साँप 
लेखक - गणेश जी बागी जी 

आज तकनीक और सूचना औद्योगिकी के बाद भी यह एक बड़ी समस्या है कि देश के दुश्मन अपने घृणित कारनामों में कामयाब हो जाते हैं और हम सिर्फ हाथ मलते रह जाते हैं। आज आतंकवाद केवल भारत की ही समस्या नहीं है अपितु यह एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बानी हुई है। लगभग सभी देश किसी न किसी रूप में इसकी गिरिफ्त में हैं। प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या पर आधारित उस विषय को लिया है जिसमें आतकवादियों को पड़कना एक बड़ी समस्या है। यह तो तब है जब इन गतिविधियों और उनके संचालकों के सुराग पता लगाने के लिए सम्बंधित विभाग बड़े-बड़े इंतजामों के साथ लगे हुए हैं जिसमे हर तरह की तकनीक और अकूत धन का उपयोग किया जाता है। इन सबके बाद भी उपलब्धता के नाम पर ज्यादा बार असफलता ही हाथ लगती है। इन असफलताओं के बहुत कारण हैं लेकिन जो एक बड़ा कारण है वह है ऐसे आतंकवादी तत्वों के समर्थकों का होना। इस लघुकथा में लेखक ने इसी समस्या को रेखांकित किया है। इसका जीता जागता उदाहरण कश्मीर की समस्या है। वहाँ के कुछ तथाकथित भटके हुए लोग दाना-पानी तो हमारे देश का खाते हैं लेकिन आतंकियों के लिए ढाल का काम करते हैं। ऐसे लोगों को आस्तीन का साँप न कहा जाये तो क्या कहा जाये?
बिना लाग-लपेट के 107 शब्दों में समाहित प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने समस्या का कथानक तो अच्छा लिया लेकिन कथ्य तार्किक नहीं बन पाया है। जैसे, जब अधिकारी ने मिस्टर सिंह से पूछा कि आप पिछले छः माह से उस आतंकवादी को पकड़ने में लगे हैं जिसका सुराग भी यह मिला था कि वह पडोसी देश में है लेकिन आपकी प्रगति शून्य क्यों है।" .. तो यहाँ यह प्रतीत होता है कि या तो साहब नए-नए हैं या शायद साहब सीधे छः महीने बाद ही अपने मातहतों से मिल रहे हैं। बीच में कोई संवाद ही नहीं हुआ। और जैसे आतकवादी के बारे में अगर यह पता चल जाये कि वह किस देश में है तो उसे पकड़ना तो जैसे बायें हाथ का काम है। दूसरा, मिस्टर सिंह का भी जबाब भी उन्हीं की तर्ज पर है, "कि अगर वह आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो वे जिन्दा या मुर्दा उसे महज दो दिन में पकड़ सकते थे लेकिन...." जैसे मिस्टर सिंह भी पिछले छः महीने से इस सवाल का ही इन्तजार कर रहे थे और अभी तक यह सूचना ऊपर तक नहीं पहुंची थी कि वह खूंखार आतंकवादी पड़ोसी देश में न होकर अपने देश में ही है। .... वैसे मिस्टर सिंह के इस जबाब का भी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है कि अगर आतंकवादी पड़ोसी देश में होता तो उसे जिन्दा या मुर्दा दो दिन में पकड़ लेते। यह न केवल हास्यास्पद है अपितु सफ़ेद झूठ भी है। यह तो सभी को पता है कि कितने ही नामी गिरामी आतंकवादी हमारे पडोसी देशों में पनाह लिए हुए हैं और दो दिन तो छोड़िये, दशकों से उनको पकड़ने के नाम पर शिफर ही हासिल हुआ है।

लघुकथा में उपर्युक्त विरोधाभास होते हुए भी इस बात से कतई असहमत नहीं हुआ जा सकता कि हमारे देश में आस्तीन के साँंप बहुतायत में हैं। चाहे वह बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं के अवैध रूप से भारत में घुसपैठ और बसने का मामला हो, सजायाफ्ता आतंकियों के जनाजे में शामिल होने की बात हो, उनकी फांसी की सजा को माफ़ करने वाली अपीलें हों या फिर दिल्ली के एक विश्विद्यालय में देश विरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन हो। इन सभी मामलों में हमारे देश में बड़ी संख्या में उसके समर्थक मौजूद हैं। इसके साथ इस रचना की यह विशेषता भी रही कि इसमें जो दो अधिकारीयों के बीच संवाद हुआ है उसमें नाम (अधूरा ही सही) केवल मिस्टर सिंह का ही आया है। दूसरे बड़े अधिकारी के नाम का जिक्र भी नहीं है फिर भी उपस्थिति का एहसास नाम की अनुपस्थिति में भी उतना ही हुआ है। ...आखिर ख़ुफ़िया तंत्र के बड़े अधिकारी हैं, उनके नाम आधे अधूरे या पूरी तरह से गुप्त रखने ही चाहिए। यह और कुछ नहीं, लेखक की कलम की कुशलता ही है।
मैं इस लघुकथा के लिए गणेश जी बागी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - हूंदराज बलवाणी जी-2)

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी दूसरी लघुकथा "जादुई चिराग" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - जादुई चिराग 

लेखक - हूंदराज बलवाणी जी 

... और फिर वह चल दिया उस पार्टी के दफ्तर की ओर जिसके सबसे ज्यादा नेता उस जादुई चिराग की वजह से धनाढ्य हो चुके थे, उनके पास जमीन, जायदाद, गाड़ी-घोड़े, विदेशी दौरे, बच्चों की विदेश में पढाई-लिखे, सैर-सपाटे, भोग-विलास के साघनों की कोई कमी नहीं है। जैसे कुबेर के खजाने उनके लिए ही खोल दिए गए हों। उसने इधर-उधर भी नजर डाली, दूसरी पार्टियों के नेता भी किसी से कम नहीं थे लेकिन उसे वहाँ अमीरों में वही ज्यादा दिखे जो किसी खास कुनबे से तालुक्कात रखते थे। हालाँकि उस परिवार से सम्बंधित जाति के लोगों का भी बहुत उद्धार हुआ था, कुछ खास महकमों में सिर्फ उन्हीं लोगों को भर्ती किया गया था लेकिन यह तो कुछ भी नहीं। उन्होंने रेवड़ियां जो बाँट दी थी, सत्ता में आते ही। उनके खुद के कुनबे के लोग तो जैसे विधानसभा या लोकसभा का टिकिट लेकर ही पैदा होते हैं। सामान्यतः आम जनता का पहला नाम सरकार के जन्म-मृत्यु तालिका में पंजीकृत होता है लेकिन ऐसे राजनैतिक परिवार के लोगों का पहला नाम विधायक या सांसद की आगामी सूची में तय हो जाता है। उसने और नजर डाली तो कमोबेस हर पार्टी के यहाँ यही हालत थी। अब उसके लिए अपार संभावनाएं जाग गई थी। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था सिवाय जमीर को बेचने के। उसने लम्बे-लम्बे डग भरने शुरू कर दिए ताकि जल्दी से उस दल के कार्यालय में पहुंचकर वैभव की मंजिल पर पहुँचने की पहली सीढ़ी को छू सके।
....शायद यही कुछ विचार रहे होंगे 'उसके' जब उसने अलादीन का "चिराग" के बारे में जवाब सुना होगा।

... एक ताजातरीन अध्ययन और रपट के अनुसार आज भारत भ्रष्टाचार में नीचे से 78वें स्थान पर है। यह कितने शर्म की बात है। हम इस बात से खुश नहीं हो सकते कि हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान और सबसे भ्रष्ट देश सोमालिया से क्रमशः 117 वें और 180 वें स्थान से तो बेहतर ही हैं। यहाँ यह बात स्पष्ट करना उचित रहेगा कि भ्रष्ट देशों की जब आंकड़ों के आधार पर सूची बनती है तो केवल नेताओं को ही आधार नहीं बनाया जाता है बल्कि इसमें अफसरसाही और हर स्तर के भ्रष्टाचार को ध्यान में रखा जाता है।
... आखिर यह सोच ही क्यों पनपती है कि काश हमारे पास भी कोई अलादीन के चिराग जैसा साधन हो जिससे हम पलक झपकते ही अपने मन की चाहत को पूरा कर सकें। इसके पीछे अकर्मण्यता तो हो है ही साथ में असंतुष्टि और वैमनस्यता भी एक प्रमुख कारण है। और ये सब भी यों ही नहीं पनपते हैं। जब योग्य व्यक्ति को उसकी योग्यता के आधार पर काम न मिले, अयोग्य व्यक्ति को कम या बिना परिश्रम के ऊँचे ओहदे मिल जाएँ तो आदमी के पास क्या यह सोचने की भी छूट नहीं कि वह किसी अलादीन के चिराग की तरह किसी जुगाड़ की तलाश में लग जाये। हालाँकि किसी भी देश की प्रगति में उसके हर देशवासी का छोटा-बड़ा योगदान होता है और भारत भी उससे अलहदा नहीं है। किसी भी देश में उसकी जनता से वसूले गए कर से उस देश की सेना, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था,आदि सुचारु ढंग से चलाई जाती हैं लेकिन क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं कि हमारे देश में यह कर चंद लोगों से वसूला जाता है या कहिये सरकार वसूल पाती है। सरकार के संसाधनों और उसकी व्यवस्थाओं पर सैद्धांतिक रूप से तो सबका अधिकार है लेकिन हकीकत और विडंबना तो यह है कि जिस-जिसने अपनी मेहनत की कमाई से ईमानदारी से सरकार को कर दिया है उनमें से अधिकतर इन अधिकारों से स्वयं को महरूम पाते हैं। यह बड़ा दुर्भाग्य था कि प्राचीन काल में समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए जिन व्यवस्थाओं को योग्यताओं के आधार पर बनाया गया था बाद में वे परिवार आधारित हो गईं और इसने एक गलत सामाजिक व्यवस्था का रूप ले लिया और लोगों के साथ अन्याय हुआ। इस अन्याय की जितनी भर्त्सना की जाये वह कम है। आजादी के बाद इसी बुराई और असमानता को खत्म करने के लिए तात्कालिक आधार पर कुछ व्यवस्थाएं की गईं थी। इन व्यवस्थाओं से बहुत लोगों को लाभ भी हुआ और अभी भी हो रहा है जिससे उनके जीवन स्तर में बेहतरी आयी। लेकिन कालांतर में इस व्यवस्था का भी कमोवेश वही हाल हुआ जो प्राचीन काल में बनायी गई व्यवस्था का हुआ था। इस बात से किसी को एतराज नहीं है कि अगर कोई वास्तव में वंचित है तो उसे उसकी जरूरतों के अनुसार उसकी पूरी मदद होनी चाहिए लेकिन यदि यही मदद पीढ़ी दर पीढ़ी किसी जाति या मजहब के नाम पर निश्चित कर दी जाये तो इससे बड़ा दुर्भाग्य उस देश का नहीं हो सकता। आज दशकों पुरानी चली आ रही इस व्यवस्था से समाज के एक बड़े वर्ग के साथ अन्याय हो रहा है। इस व्यवस्था को राजनैतिक दलों ने सत्ता में बैठे रहने का अपने-अपने तरीके से दुरूपयोग किया है। किसी ने इसका समर्थन करके तो किसी ने इसका विरोध करके। जहाँ जिसकी गोटी बैठी, उसने उसका भरपूर फायदा उठाया। इस व्यवस्था ने न सिर्फ योग्यता और दक्षता को पीछे छोड़ दिया अपितु समाज में आपस में दूरियाँ पैदा की हैं। योग्य लोग हताश और निराश हैं। .....तो फिर अलादीन का चिराग तो चाहिए ही। हर व्यक्ति को खोज तो जारी रखनी ही चाहिए। शायद, चिराग न भी मिले लेकिन अलादीन तो मिल ही जायेगा जहाँ से सम्भव है कि उम्मीद की कोई किरण दिख जाये। लेकिन ध्यान इतना ही रखा जाये कि अगर मंजिल चमकदार और रास्ते सुगम हों तो रास्तों की जाँच कर लेना और अगर रास्ते दुर्गम से दिखें परवाह मत करना, अख्तियार कर लेना। उस दुर्गम रास्ते पर मेहनत और सच्चाई से आगे बढ़ते रहना। मंजिल पाते ही आप खुद ही हो जाओगे अलादीन और मेहनत व आत्मविश्वास के हथियार के रूप में आपके पास भी होगा जादुई चिराग।
किसी ने सच ही कहा है - "हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-खुदा।"
प्रस्तुत रचना में लेखक ने आज समाज की बड़ी समस्या "हर योग्य हाथ को काम" पर बड़े ही सुन्दर ढंग से कलम चलाई है। इसमें जहाँ एक पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक के अलादीन के चिराग की तलाश के पीछे के मनोभावों को कुशलता से वयां किया है वहीं राजनीति के उस परदे को भी उजागर किया जहाँ अक्सर अयोग्य व्यक्ति किस तरह से कुछ ही दिनों में धन-धान्य से अपना घर भर लेता है। मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - हूंदराज बलवाणी जी-1)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय हूंदराज बलवाणी जी। आज उनकी लघुकथा "अरमान" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - अरमान

लेखक - हूंदराज बलवाणी जी 

उत्तर भारत में श्रीमद्भागवत कथा के आयोजन में कथावाचक अक्सर एक प्रसंग सुनाते हैं। एक सम्राट गर्मी के दिनों में शाम के वक्त अक्सर अपने महल की छत पर विश्राम करने जाते थे। उनके लिए उनके महल में नियुक्त दास-दासियाँ आरामदायक बिस्तर का प्रबंध करते और जब सम्राट उस बिस्तर पर आराम फरमाने आते तो पास ही खड़ी दासी उन्हें ठंडी हवा के झौंके देने के लिए धीरे-धीरे पंखा झलती थी। सम्राट इन्हीं सुखद अहसासों के साथ धीरे-धीरे निंद्रा के आगोश में चले जाते। एक दिन सम्राट को आने में थोड़ी देर हो गई तो सेवा में नियुक्त दासी ने विचार किया कि जबतक सम्राट आते हैं, क्यों न वह थोड़ी देर के लिए इस सेज का सुख लेले। वह जैसे ही उस बिस्तर पर बैठी, उसे बहुत ही आनंद का अनुभव हुआ और न जाने कब उसकी आँख लग गई। कुछ समय बाद जब उसकी नींद टूटी तो उसने देखा कि सम्राट पास ही खड़े हैं और उस पर पंखा झल रहे हैं।....आगे की कहानी फिर कभी। पाठकों को सूचनार्थ बता दूँ कि उस सम्राट ने उस दासी को कोई सजा नहीं दी और यह कहते हुए बात को टाल दिया कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। मैं तो वही कर रहा था जो कि यहाँ पर खड़े व्यक्ति को करना होता है यानि पंखा झलने का काम।

इस कथा का यहाँ सदर्भित करने का उद्देश्य यही था कि प्रस्तुत रचना 'अरमान' के 'सुखराम' की तरह ही अक्सर हर व्यक्ति के मन में इच्छाएँ, लालसाएँ जगती हैं कि काश वह भी आज किसी व्यक्ति के स्थान पर होता तो शायद असीम आनंद का सुख भोग रहा होता। हालाँकि यह जगत ही मिथ्या है। हर किसी को अपना काम ख़राब और दूसरे का काम अच्छा और आकर्षक प्रतीत होता है। अधिकतर लोग तो अपने कष्टों के कारण कम दुखी हैं, वे दूसरे के सुखों के कारण ज्यादा दुखी रहते हैं। यह तो एक सामान्य बात है लेकिन कुछ बातें मानवता के आधार पर भी समझी जा सकती हैं। कुछ लोग चांदी की चम्मच लेकर पैदा होते हैं। उन्हें रहने, खाने, उचित स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि सारी सुविधाएँ उनके संपन्न माँ-बाप की बदौलत प्राप्त होती हैं तो सम्भावना रहती है कि वे कम संघर्ष के भी एक आरामदायक जिंदगी गुजर-बसर कर सकें। लेकिन उन लोगों का क्या कसूर जिनका शारीरिक ढांचा तो सबके सामान ही होता है लेकिन किन्हीं कारणों से वह समाज में सम्पन्नता और शिक्षा की दौड़ में पीछे रह जाते हैं जिसके कारण उन्हें आभाव की जिंदगी जीने और छोटी-मोटी नौकरियां कर जीवन यापन करना पड़ता है। ... और फिर यहीं से शुरू होती है उनके अरमानों की चाह कि 'काश! वह भी इस तरह की नौकरी कर रहे होते।' आगे चलकर यही इच्छाएँ, कुंठाओं में बदल जाती हैं और फिर ईर्ष्या आदि का कारण बनती हैं। यह बहुत प्राकृतिक है कि यदि मानव सुलभ संवेदनाओं को मिटने न दिया जाये तो और अपनी पद-प्रतिष्ठा से इतर अपने नीचे काम करने वालों से भी सहृदयता से व्यवहार किया जाये तो उन्हें आर्थिक रूप से न ही सही, भावनात्मक रूप से मजबूती तो मिलती ही है। यह बहुत तरह से सिद्ध हो चुका है कि साथ में काम करने वालों की भावनाएं और उनका स्पंदन माहौल को बनाने में बहुत काम करता है। इनका असर वातावरण में सुखद या दुखद किसी भी रूप में हो सकता है। कार्यालय में कर्मचारी सुखराम की भावनाएं ही देख लीजिये, "वह ऐसे उठा जैसे उसके पैरों बेड़ियाँ बंधी हों।" हालाँकि नियमानुसार यह सुखराम का दायित्व है लेकिन उसे बार-बार साहब के बुलाने पर खीझ हो रही है और वह अपने भाग्य को कोस रहा है कि वह ज्यादा क्यों न पढ़ पाया ? सुखराम के इस विचार का किसी भी तरह से समर्थन तो नहीं किया जा सकता लेकिन सत्यता से मुंह भी नहीं मोड़ा जा सकता।
दूसरा सत्य पक्ष 'साहब' का भी है। हो सकता है कि साहब की व्यस्तता इतनी ज्यादा हो कि वह छोटा काम भी स्वयं नहीं कर सकते लेकिन सुखराम की भावनाओं के वेग को रोकना व उसे समझाना यह उसकी अपनी बुद्धिमत्ता पर ही निर्भर है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह हरगिज साहब की अनुपस्थिति में घंटी बजाकर साहब को 'पानी लाने का आदेश' न देता। यह सब उसके अंदर उपज चुकी हीन भावना की पराकाष्ठा है जो अब सतह पर आ चुकी थी। हालाँकि इसका कारण एक यह भी होता है कि यदि आदमी को शारीरिक और मानसिक अभ्यास कम करने पड़ें तो फिर नकारात्मकता का हावी होना अवश्यसंभावी है। इसे आम बोलचाल की भाषा में हम "खाली दिमाग, शैतान का घर" भी बोलते हैं। इस लघुकथा में सुखराम का कार्य ऐसा है कि जिसमें वह शारिरिक रूप से भागदौड़ में भले ही लगा रहता हो लेकिन उसे ऐसा कोई कार्य नहीं करना पड़ता है जिसमें उसे दिमागी तौर पर श्रम करना पड़े।
प्रस्तुत रचना में लेखक ने सामान्य और रोजमर्रा के होने वाले हालात को बड़े ही प्रभावी ढंग से लघुकथा में ढाला है। कथा के मुख्य पात्र 'सुखराम' की भावनाओं को जिस तरह से जीवंत करके लिखा है, उसके लिए लेखक के लेखन कौशल्य की जितनी प्रसंशा की जाए कम है। लघुकथा का शीर्षक 'अरमान' भी कथानक के अनुसार बहुत सटीक बैठता है। इस सुन्दर लघुकथा के लिए मैं हूंदराज बलवाणी जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-3)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "दंगे की जड़" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:
लघुकथा - दंगे की जड़


मैंने बचपन में एक बड़ी ताई जी के बारे में सुना था कि उनको अक्सर लोगों से झगड़ने की आदत थी। लोगों से किस बात पर झगड़ा करना है, उनके लिए कारण ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक बार की बात है कि कुछ लड़के गली में गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अचानक एक लड़के ने गुल्ली को बहुत दूर तक पहुंचा दिया। बस ताई जी ने लड़कों को आड़े हांथों ले लिया। बोलीं, "खेलना बंद करो"। जब लड़कों ने कारण पूछा तो बोलीं, "अगर मेरी बेटी आज ससुराल से घर आ रही होती तो उसको चोट लग सकती थी।" बेचारे लड़के अपना सिर खुजलाते अपने घरों की ओर चले गए। लड़कों को पता था कि यदि बहस में पड़े तो दंगे जैसे हालात हो सकते हैं।
...आज हमारे देश में ऐसी ताइयों की कमी थोड़े ही है। इस स्वभाव के लोगों को राजनीति में स्वर्णिम अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। आखिर इसी की तो कमाई खा रहे हैं लोग। सुना है अंग्रेजों ने हमारा देश 1947 में छोड़ दिया था लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जाते-जाते वे हमें "फूट डालो और राज करो" का मंत्र सिखा कर गए। इसका अनुसरण करने में फ़ायदे ही फायदे जो हैं। इसके लिए नेताओं को कुछ खास करना भी नहीं है। पांच साल सत्ता का सुख भोगिये और चुनाव से पहले धर्म-जाति के नाम पर शिगूफे छोड़िए, बहुत संभावना है कि अगली सरकार आपकी ही बने। हाँ, यह उनकी दक्षता पर निर्भर करता है कि किसने कितनी बेशर्मी से इस मंत्र का प्रयोग किया। 'जीता वही सिकंदर' वाली बात तो सही है लेकिन जो हार गए वह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन्होंने भी आजकल बगुला भगत वाला चोला पहना हुआ है।

मैंने एक पंडित जी के बारे में सुना है कि वे बड़े ही धार्मिक और पाक साफ व्यक्ति हैं। वह केवल बुधवार को ही मांस-मछली खाते हैं, बाकी सब दिन प्याज भी नहीं। लेकिन बुधवार को भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जब मांस-मछली का सेवन करते हैं तो जनेऊ को उतार देते हैं और बाद में अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद ही जनेऊ पहनते हैं। इन्हें संभवतः अपने धर्म की अच्छाईयों के बारे में न भी पता हो लेकिन दूसरे धर्मों में क्या बुराइयां हैं, इन्हें सब पता है। यह हाल केवल या किसी एक धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के नहीं हैं। कमोवेश यही हाल सब जगह है। इस तरह के पाखंडियों का क्या कहिये? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे पाखंडी लोगों के बड़े-बड़े आश्रम हैं, मठ हैं, इज्जत है, पैसा है और भक्तों की बड़ी भीड़ भी है। अब ऐसे ही चरित्र वालों को जगह मिल गयी है राजनीति में। वर्तमान समय में राजनीति में धर्म है या धर्म में राजनीति, यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि इनका गठजोड़ रसगुल्ले और चाशनी जैसा हो गया है। खैर...
यह बात किसी के भी गले नहीं उतरेगी कि आखिर रावण के पुतले को आग लगाने वाला सिर्फ आतंकवादी इसलिए करार दिया गया क्योंकि वह किसी और धर्म का है। सुना है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता तो फिर बुराई खत्म करने वाले का धर्म कैसे निश्चित हो गया। और वैसे भी जब रावण बुराई का प्रतीक है तो फिर उसका धर्म कैसे निश्चित हो गया? और इस तर्ज पर यह जरूरी क्यों है कि आप उसे किसी धर्म का माने? और जो बुरा व्यक्ति जब आपके धर्म का है ही नहीं तो फिर उसे किस धर्म के व्यक्ति ने मारा? इस प्रश्न का औचित्य ही क्या रह जाता है? लेकिन नहीं, साहब। ये तो ठहरे राजनेता। इन्हें तो मसले बनाने ही बनाने हैं। कैसे भी हो, इनके मतलब सिद्ध होने चाहिए।
वैसे भी आजकल रावण दहन के प्रतीकात्मक प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं रह गया है उल्टे अनजाने ही सही वायु प्रदूषण का कारण बनता है सो अलग। क्योंकि जिनके करकमलों द्वारा इस कार्य को अंजाम दिया जाता है, उनके अंदर कई गुना बड़ा रावण (अपवादों को छोड़कर) दबा पड़ा है। रावण का चरित्र तो कम से कम ऐसा था कि उसने सीता को हरण करने के बाद भी कभी भी जबरन कोई गलत आचरण नहीं किया और वह इस आस में था कि एकदिन वह उसे स्वीकार करेंगी लेकिन क्या आजकल के धर्म या राजनीति के ठेकेदारों से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं।
....तो फिर क्या आपत्ति है? और यह जानने की भी आवश्यकता क्या है कि रावण को किसने जलाया? क्या यह काफी नहीं है कि रावण जला दिया गया? यह जरूर काफी होगा उस सामान्य जनमानस के लिए जिसे बुराईयों से असल में नफरत है। लेकिन ये ठहरे नेता। इन्हें तो मजा ही तबतक नहीं आता जबतक समाज में जाति-धर्म के नाम पर तड़का न लगे। आदमी की खुशबू आयी नहीं कि सियार रोने लगे जंगल में, टपकने लगी लार। माना कि पुलिस ने उस तथाकथित आतंकवादी को पकड़ भी लिया है तो यह तो पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी तरफ से तफ्तीश करें और जो कानूनन ठीक हो, उसके हिसाब से सजा मिले। लेकिन....फिर वही। यही तो राजनीति का चारा है। इतिहास गवाह है कि कितने ही अनावश्यक दंगे इन राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए कराए हैं। लेकिन...इनका अपना जमीर इनका खुद ही साथ नहीं देता है। ये तो अपने खुद के कर्मो से अंदर ही अंदर इतने भयभीत हैं कि इनकी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि ये किसी पाक-साफ आदमी से नजर मिलाकर बात भी कर सकें। आखिर साधारण और सरल आदमी को मंदबुद्धि भी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अंदर छल और प्रपंच नहीं होता। लेकिन बुराई को पहचानना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता। उसके लिए हमारा समाज ही बहुत है। तभी तो उस मंदबुद्धि के बालक ने बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जला डाला था। जब वह मंदबुद्धि ही था तो संभव है कि उसे अपने धर्म का भी न पता हो लेकिन अच्छाई और बुराई का ज्ञान किसी भी धर्म के व्यक्ति को हो ही जाता है। इसके लिए किसी खास बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। उसने रावण को जला डाला और छोड़ दिया अनुत्तरित प्रश्न, इस स्वीकरोक्ति के साथ कि "हाँ, मैंने ही जलाया है रावण को। क्या मैं, राम नहीं बन सकता?"
यह ऐसा यक्ष प्रश्न है कि अगर इसका उत्तर खोज लिया है तो "दंगे की जड़ों" का अपने आप ही सर्वनाश हो जाये।
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चंद्रेश छतलानी जी-2)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "अन्नदाता" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - चंद्रेश छतलानी जी

लघुकथा - अन्नदाता 

मैंने बहुत पहले एक कविता लिखी थी, उसकी दो पंक्तियाँ :
बरसात में कुकुरमुत्ते जैसे उग आते हैं,
नेता भी चुनावों में वैसे ही बढ़ जाते हैं।

अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इन्हें नेता कहना 'नेता' शब्द का अपमान हैं क्योंकि इनके क्रिया-कलाप इस शब्द के पासंग भी नहीं हैं।
कई साल पहले एक फ़िल्म आयी थी जिसमें कहा गया था कि "बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो अब संसद में बैठते हैं।" राजनेताओं ने अपनी इस छवि को बनाने में बड़ी मेहनत की है। जनता के पसीने की कमाई की जो बंदर-बाँट करते हैं, उसकी जितनी मजम्मत की जाए कम है।
..कहते हैं जंगल में आदमी कितना भी सावधानी से कदम रखे, शिकार की तलाश में बैठे जानवरों को खबर हो ही जाती है। दरअसल, प्रकृति ने उनके उदर पूर्ति के लिए ये हुनर दिया है कि वे अपने शिकार को उसकी गंध और तापमान से दूर से ही पहचान लें और घात लगाकर उन पर आक्रमण कर दें। बिल्कुल यही प्रक्रिया आजकल के राजनेता अपनाते हैं। हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों ने हमेशा जनता को अपने हित साधने के लिए प्रयोग किया है। चाहे वह 1947 में देश के विभाजन की दुःखद घटना हो या उसके बाद से समय-समय पर होने वाले धर्म/मजहब या जाति आधारित दंगे हों। सबके पीछे नेताओं की सत्ता लोलुपता और अपने फायदे ही छुपे रहते हैं। नेताओं ने बड़ी ही चतुरता से देश को जाति-मजहब में बाँटने का काम किया है। आज हालात यह हैं कि मतदाता अपने कीमती मत का प्रयोग इन चालबाजों की बातों में आकर कर रहे हैं और इनकी कुटिल राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं। इन नेताओं ने इसे अपना ऐसा ब्रम्हास्त्र बनाया हुआ है कि जब इसका असर होता है तो न तो जनता को अच्छी शिक्षा चाहिए, न स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए और न ही और कोई विकास।

सुप्रसिद्ध कवि और गीतकार नीरज जी की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं :
"भूखा सोने को तैयार है मेरा देश,
बस उसे परियों के सपने दिखाते रहिए।"

नीरज जी ने यह बात कई दशकों पहले लिखी थी लेकिन आजकल की हकीकत तो यह है कि आप सपने छोड़िए, बस एक मोबाइल, लैपटॉप या साइकिल दे दीजिए।। बस, मतदाता आपका गुलाम। नेताओं के इसी सफलता के अचूक सूत्र ने बहुत से नेताओं को उनकी पीढ़ियों से सत्तासीन किया हुआ है। इन नेताओं के हालात कुछ ही दशक में कहाँ से कहाँ पहुँच गए? इन्होंने बाँटने की राजनीति को इस तरह बोया और काटा कि उनके परिवार का हर सदस्य सत्ता सुख भोगता रहा और देश की जनता के पसीने की कमाई से खुद की झोपड़ी, महलों में बदल ली और आम आदमी का जीवन स्तर नीचे, और नीचे गिरता चला गया।
....प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने आज की राजनीति को देश के अन्नदाताओं से जोड़कर लिखा है। आजकल खेती करना बहुत ही घाटे के सौदा हो गया है। तकनीक की उपलब्धता के बाबजूद आज भी किसान प्रकृति के रहमो-करम पर निर्भर है। प्रकृति को हमने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए बदलने पर इतना मजबूर कर दिया कि अब उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। जंगल के जंगल साफ हो रहे हैं, सड़कों को चौड़ा करने के फलस्वरूप पेड़ों की कटाई लगातार जारी है, नदियों का पानी, कारखानों की गंदगी और रसायन के लगातार मिलने से प्रदूषित हो रहा है। तो ऐसे में किसान करे भी तो क्या करे? सब किसानों की यह क्षमता नहीं है कि वे अपने कुएं खोद लें और पम्प से पानी प्राप्त कर लें और जिनकी यह स्थिति है उन्हें भी पानी के लगातार कम हो रहे जलस्तर से इस सुविधा का लाभ आखिरकार कब तक मिल पायेगा? चलो मान भी लिया जाए कि समय से बारिश हो भी गई तो रही बची कसर पूरी कर देते हैं आवारा जानवर। किसानों की जिंदगी इन समस्याओं के कारण बहुत ही मुश्किल और दयनीय हो जाती है। आजकल खेती से जो पैदावार होती है उसमें किसान की लागत भी नहीं निकलती है। ऐसे में कई किसान समस्या के निदान हेतु या तो किसी बैंक के कर्जदार ही जाते हैं या किसी साहूकार के। दोनों ही हालात में वह कर्ज के चक्रव्यूह से निकलने में अपने आपको असहाय महसूस करता है और फिर उसे इस जहाँ से रुखसत होने का दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठाना पड़ता है।
किसी ने इस तरह के हालात पर कहा है -
चेहरा बता रहा था कि मरा है भूख से,
सब लोग कह रहे थे कुछ खा के मर गया।😢

चुनावों का मौसम आ चुका था और आज उस किसान की फसल कटी है। वह फसल से हुई उपज और जिंदगी को तौलने की असफल कोशिश में था कि 'गिद्धों' का आना शुरू हो गया। इन्हें आम आदमी की मुश्किलों से कोई मतलब नहीं। आम आदमी की मुश्किलें इनकी बला से। शिकार देखा और अपने धर्म के रंग का तीर चला दिया, "काका, आपका मत मेरा मत। क्योंकि आपका धर्म मेरा धर्म और धर्म की रक्षा हेतु आपका कर्तव्य है कि आप मुझे ही अपना मत प्रदान करें।" .... अब होली चाहे त्योहार के नियत समय पर अपने रूप में कम मनाई जाए लेकिन चुनावों में रंगों का महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें पास आती जा रही हैं, हर रंग वाला, धर्म की रक्षा हेतु खुद को सच्चा ठेकेदार बताते हुए आम आदमी से खुद को चुनने के लिए गुहार करता है। आम आदमी? उसके लिए तो इन रंगों के क्या मायने होंगे जब उसकी जिंदगी में सिर्फ रातें ही नहीं दिन भी स्याह हो चुके हैं।
...लेकिन हमारे देश का किसान या कोई भी मेहनतकश आदमी इन चमचमाती गाडियों में आने वालों की चाशनी से पगी बातों में अपनापन देखता है और उसे लगता है कि यह सब तो अपने ही हैं। सभी उसके साथ हैं, शायद जिन्दगी का सफर इतना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन हकीकत इन सबसे अलग होती है। उसे यह पता भी नहीं चल पाता कि इन रंगों ने अपना काम कब कर दिया? चारों तरफ अपने ही तरह और उन्हीं रंगों में रंगे लोगों का हित शायद सिद्ध हो चुका है। अब बस आखिरी निर्णय और वह अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर चुका है। एक ऐसे गन्तव्य की ओर जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता, अन्नदाता भी नहीं।😢
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मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।