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Saturday, July 29, 2023

किश्त -०१ : मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा सिंह जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

मधुदीप जी द्वारा प्रकाशित ६ नवोदिताओं की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल से ...सीमा सिंह जी की लघुकथाओं पर डॉ रजनीश दीक्षित की समीक्षा :

अमूमन अगर किसी से पूछा जाए कि नवोदित किसे कहते हैं? तो संभवतः यही जेहन में आएगा कि जिस व्यक्ति की कम उम्र हो और उस अमुक क्षेत्र में अनुभव कम हो, आदि-आदि। ऐसी ही कुछ छवि उभर कर आती है जब खण्ड-28 की लघुकथाओं के साथ लेखिकाओं के नाम के साथ इस 'नवोदित' शब्द पर नजर डाली जाती है। लेकिन इस अंक को पढ़ने के बाद जो सबसे पहला ख्याल पाठकों के मन में आता होगा, संभवतः वह यह कि अगर ये लेखिकाएँ जिनकी रचनाओं को इस अंक में लिया गया है, अगर वे नवोदित हैं तो फिर नवोदित होने की परिभाषा क्या है? खैर.... उम्र का पैमाना तो छोड़ ही देना चाहिए। क्योंकि अमूमन लिखने की उम्र तबसे ही शुरू होती है जबसे आप लिखना शुरू करते हैं। निश्चित रूप से मधुदीप जी का लेखक को नवोदित कहने का पैमाना बहुत विस्तार लिए हुए है। वैसे नवोदित होने के अपने अलग ही फायदे हैं। जबतक व्यक्ति अपने आपको नवोदित मानता रहता है, उसके चहुँमुखी विकास और उन्नति के द्वार खुले रहते हैं। उसके सामने आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं होती हैं। और जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह अब स्थापित होने लगा है या हो गया है तो फिर धीरे-धीरे वह सीखने से सिखाने वाले पायदान पर आ जाता है। खैर...यहाँ विषयांतर न करते हुए अब आ जाते हैं मधुदीप जी के पड़ाव और पड़ताल के अट्ठाइसवें खण्ड पर जिसमें उन्होंने छः नवोदिताओं की छियासठ लघुकथाओं की पड़ताल की है। वैसे इस आलेख में मुझे भी यही करना है तो पाठक के मन मे एक सवाल जरूर उठेगा कि इन लघुकथाओं की पुनः पड़ताल यानी समीक्षा की क्या आवश्यकता आन पड़ी? सवाल वाजिब सा है लेकिन इसकी आवश्यकता की वजह उस सवाल से ज्यादा वाजिब है। इन वजहों को देखें कि सबसे पहली वजह यह हो सकती है कि पहले इनकी पड़ताल वरिष्ठ समीक्षिकाओं द्वारा की गई थी और अब इसकी समीक्षा एक नवोदित द्वारा ही कराई जा रही है। इसकी प्रमुख वजह जानने के लिए हमें लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर नजर डालने की जरूरत है। आज अनवरत और बहुत ही तीब्र गति से लघुकथाओं को लिखा जा रहा है। रोज नये मापदण्डों की फेहरिश्त आ रही है। लेखक भ्रमित है, पाठक आशंकित है और समीक्षक अब अपना कर्तव्य प्रशंसक बनकर निभा रहा है। पिछले कुछ दिनों में समीक्षकीय आलेखों और टिप्पणियों में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसे सोशल मीडिया का प्रभाव/दुष्प्रभाव कहा जा सकता है जहाँ आलोचना के लिए जगह बहुत कम है। खैर...पुनः विषयांतर न करते हुए अब आते हैं इस खण्ड की लघुकथाओं पर।

मघुदीप जी का लघुकथा के लिए संघर्ष और पड़ाव और पड़ताल योजना का सफल क्रियान्वयन, उनके मजबूत इरादों की एक झलक भर है। वैसे तो इस श्रंखला के सभी खण्ड अपने आप में अनूठे ग्रंथों की तरह हैं लेकिन खण्ड - २८ की तासीर ही बहुत अलग है। इसमें खासबात यह है कि इसमें संकलित लघुकथाएँ न केवल श्रेष्ठ हैं अपितु सभी लेखिकाओं द्वारा यह भी स्पष्ट सन्देश है कि लघुकथा की प्रगति यात्रा में उनकी भागीदारी किसी से कम नहीं है। 

 अब और ना ज्यादा भूमिका बांधते हुए, सबसे पहले नजर डालते हैं  इसी खण्ड में सकलित श्रीमती सीमा सिंह जी की लघुकथाओं पर : 

                                                                         सीमा सिंह जी

...इन्हें तुम यों ही उड़ने दो, इन्हीं का आसमां भी है। ...काश! लोग समझ पाते कि अनावश्यक बंदिशों से न केवल नकारात्मक सोच का जन्म होता है अपितु कुंठा जैसी मानसिक बीमारी भी जन्म ले लेती है। लघुकथा 'तितलियों के रंग' में लेखिका ने बड़े ही करीने से समाज की पर्दा प्रथा पर करारा व्यंग किया है। सुंदरता प्राकृतिक उपहार है और इसे बिना फूहड़ किये युवा मन की आकांक्षाओं की तृप्ति सम्भव है। आखिर इसकी शुरुआत कौन करेगा? अच्छा हुआ कि इसे हरी झंडी देकर हिना और गुलाबो की माँ और दादी ने सुखद शुरुआत कर दी। समाज में सकारात्मक बदलाव की सुंदर शुरुआत पर सुंदर कथानक की अच्छी लघुकथा। सच में, तितलियाँ रंग-बिरंगी ही अच्छी लगती हैं।


'हे ईश्वर! या तो ये तेरा ही काम है या फिर यह तेरा बिल्कुल भी नहीं।' मुझे लगता है कि गृहणी को अगर माँ दुर्गा के सच्ची-मुच्ची भी आठों हाथ लगा दो तो भी कम पड़ जाएँ। वह 'औरत तेरी यही कहानी....'तो सबने पढ़ा या सुना तो होगा ही। बस, इसी सब का निरूपण है अगली लघुकथा 'भुलक्कड़' में। एक महिला क्या करे, क्या न करे? सारे घर की जिम्मेदारी और फिर भी कोई संतुष्ट नहीं। सास, ससुर, पति, बच्चे....सबकी देखभाल, फिर भी हाल उसी का बेहाल। 'भुलक्कड़' - सच में भुलक्कड़ ही तो है जिसे खुद की परवाह ही नहीं है और दूसरों को उसकी कोई कद्र ही नहीं है। लघुकथा को बहुत ही करीने से लिखा गया है। इसका कथानक पुराना होते हुए भी विषयवस्तु की प्रस्तुति बहुत सुंदर है।

अगली लघुकथा 'कर्मभूमि', 'भुलक्कड़' का ही जैसे अगला भाग है। एक पराये घर से आई लड़की का पति के घर में मुख्य किरदार में आना न केवल जिम्मेदारियों के कारण होता है अपितु उसके अपने परिवार के संस्कार भी होते हैं। कितना सुंदर वाक्य है, "आप लोग हो आइए, दीदी! प्लीज, मेरी वजह से प्रोग्राम खराब मत कीजिए। मेरे पति, सासू माँ और घर को मेरी जरूरत है।"

लघुकथा 'रंग' भी किसी नगीने से कम नहीं है। समाज सुधार घर से ही शुरू होता है और इसकी शुरुआत किसी न किसी को मजबूत निर्णय लेकर करने से ही होती है। भारतीय समाज में महिला का स्थान दुर्भाग्यवश पुरुष प्रधान देश में दूसरे दर्जे का ही रहा है। यह तब तो कोढ़ में खाज का काम करता है जब महिला विधवा हो। तब तो घर में उसकी स्थिति किसी गुलाम से भी बुरी हो जाती है जैसे उसकी अपनी कोई इच्छायें ही नहीं हैं। वह तो बस एक स्वचालित यंत्र की तरह हो जाती है। इस कथा में 'विधवा विवाह और उसे भी अपने जीवन को जीने का हक है' की सुंदर बानगी है। कथा में न केवल सुंदर संदेश है बल्कि लेखन की भी कमाल की जादूगरी है।


'बेटियाँ तो होती ही हैं पापा की परियाँ।' सच में इसी कहावत का चित्रांकन है अगली लघुकथा - 'ख्वाहिशों के छोर' में। इस कथा की खास बात है कि इसमें जहाँ एक पिता अपनी इकलौती बेटी की आशाओं, इच्छाओं को पूरा करके, कराने, करने पर खुश है,साथ ही समाज को यह संदेश भी है कि बेटी की इच्छाएँ भी होती हैं। कथा में पति-पत्नी के बेटी के कपड़ों को लेकर उसकी पसंद पर संवादों द्वारा अच्छी चुहल है जो कथा को आभासी से वास्तविक होने का भान कराती है। कथा के अंत में पिता के संवाद, 'ये बेकार पड़े कपड़े अगर मिष्ठी नहीं पहनना चाहती, तो महरी को दे दो।' ने शीर्षक को संबल दे दिया है जिसमें जहाँ मिष्ठी तो खुश है ही, महरी की आंखों में भी खुशी चमक उठी है।


लघुकथा ' ठहरा हुआ दुःख' का कथानक सीमा जैन जी की लघुकथा 'उड़ान' से ही मेल खाता हुआ है लेकिन प्रस्तुति भिन्न है। इसमें न केवल बेटी के बाप, माँ, उसकी दादी, स्वयं बेटी अपितु बेटी की बुआ के अंदर कहीं न कहीं दशकों पहले के दबे हुए दुःख का सुखद अंत हुआ है। यह 'बेटी पढ़ाओ' के नारे को बलवती करती सुंदर रचना बन पड़ी है।

वैसे तो माँ-बाप होते ही बच्चों की 'तरक्की की सीढ़ी' हैं लेकिन जिस तरह से इस कथा में बेटे ने माँ का उपयोग अपनी तरक्की के लिए किया है, वह आज की पीढी की सोच को अवलोकन करने की जरूरत पर ध्यान आकर्षित करती है। कथानक अपनी जगह है लेकिन कथा को लेखिका ने जिस तरह से घर में पड़ी सीढ़ी को माँ के चरित्र के समानांतर प्रयोग कर अपने लेखन कौशल का परिचय दिया है, वह काबिले तारीफ है। वैसे तो लोग गधे को भी बाप बनाते हैं लेकिन इस कथा में माँ को अपने फायदे के लिए उपयोग करना चिंतन का विषय है।

एक और कुरीति पर तमाचा मारा है लघुकथा 'मायका' ने और यह कुरीति है - दहेज प्रथा। दहेज का दंश कितने ही माँ-बाप के सपनों को खाक कर देते हैं। हालाँकि यह समीक्षक की सोच नहीं है लेकिन भारत में बेटों की चाह के लिए एक प्रमुख कारण दहेज प्रथा भी है जिससे बचने के लिए लोग चाहते हैं कि वे बिना बेटियों के ही ठीक हैं। दहेज एक मध्यमवर्गीय परिवार की आर्थिक स्थिति को तोड़ देता है जिससे उसके आगे के भविष्य पर ही कुठाराघात हो जाता है। इस कथा में बड़े ही कुशलता से एक बेटी द्वारा उसके पिता द्वारा उनकी बेटियों की शादी के लिए प्लॉट बेचने की मार्मिक दास्तान है। सम्भव है कि समाज में ऐसी सोच को इस संदेश के माध्यम से वैचारिक मंथन के लिए फलक मिले। इस लघुकथा ने 'मायका' के अर्थ को बहुत गहरे अर्थों में परिभाषित किया है।

कुछ सुने-सुने से पढ़े-पढ़े एहसास मिले हैं,
सुनो, सूखे पत्ते फिर से पास-पास मिले हैं।  

...ऐसी ही कथा है 'पुनर्नवा' की। पुनर्नवा, एक औषधीय वनस्पति। दबे हुए एहसास कब मुखर हो जाएँ और अपना ऐसा असर कर जाएँ कि फिर किसी और नशे की जरूरत ही न रहे। अपनों को खो कर शराब की लत में उन्हें भूलने की जुगत कर रहे मदन के लिए जैसे एकाकीपन दूर हो गया हो। उस अजनबी लड़के ने मदन के हृदय में  संरक्षित परिवार वाले सारे प्यार को अपनी ओर समेट लिया है। ...और मदन को भी जैसे कोई औषधि मिल गई हो। जज्बातों के मनोविज्ञान की अच्छी प्रस्तुति है इस कथा में।

कहते हैं जोड़ियाँ ऊपर बनती हैं। अगर इस बात में जरा सी भी सच्चाई है तो फिर आये दिन बहुएँ जलाई नहीं जाती या फिर उन्हें ससुराल पक्ष के उत्पीड़न से आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। 'मायका' के बाद यह सीमा सिंह जी की दूसरी लघुकथा है 'दूध का जला' जिसमें दहेज प्रथा नाम की बुराई को समाज की एक समस्या की तरह उठाया गया है। यह सच भी है कि जब एकबार कोई बाप अपनी बेटी दहेज लोभियों की भेंट चढ़ा चुका है तो ऐसे में फिर उसे दोहराने की क्या जरूरत है? इस कथा में एक और खास संदेश है कि लोभी लोगों से बचने की बहुत जरूरत है क्योंकि उनकी लालची भूख चाँद की चाह में ज्वारभाटे की तरह बढ़ती और उछलती ही रहती है। यहाँ गरीब या अमीर का सवाल नहीं है। सवाल यह है कि यदि आप सक्षम हैं तो भी उनको दहेज कभी न दें जो लोभी, लम्पट हों क्योंकि उनकी क्षुदा शांत होगी नहीं और आप देते-देते तक कर हार जाएँगे।

विलियम शेक्सपियर ने कहा था, 'नाम में क्या रखा है?' वैसे भी हम नाम तो सुंदर रखते हैं लेकिन ज्यादातर मसलों में नाम के अनुसार व्यक्ति का आचरण नहीं होता है। ऐसे विरले लोग ही पाए जाते हैं जिनका आचरण उनके नाम के अनुरूप हो। हालाँकि इस कथा के शीर्षक के अनुसार तो नाम और उसकी सीधी शाब्दिक परिभाषा ही केंद्र में है लेकिन कई बार शब्दों के छिछले अर्थ, अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। जैसे इसी कथा में दादी ने जब भावी बहू के बारे में यह जाना कि उसका नाम तो अन्नपूर्णा है लेकिन पाक कला में हाथ साफ नहीं है तो उलाहना ही दे दिया कि यह तो नाम की परिभाषा बदलने जैसा ही हुआ। ...लेकिन यहाँ पर दादी ने केवल अन्नपूर्णा का अर्थ पाक कला तक ही सीमित रखा। जबकि हकीकत यह है कि जो पढ़-लिखकर अच्छे अंकों के साथ इंजीनियर बन गई है क्या वह उदरपूर्ति के लिए किसी अन्नपूर्णा से कम है? भोजन तो सेवादार भी समय से उपलब्ध करा सकते हैं यदि आप सक्षम हैं उनकी सेवाओं को लेने के लिए। लघुकथा 'अन्नपूर्णा' में भी 'बेटी पढ़ाओ' के संदेश को मुखरता दी गई है जिसके लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं। 

सीमा सिंह जी की लघुकथाओं में बहुत ताजगी है, नयापन है। विषय भले ही रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हों लेकिन उन्हें चित्रित करने की कला में अनोखी धार है। उनकी कथाओं में नारी-पीड़ा बहुत मुखर होकर झलकती है। संभवतः यह पहली बार हुआ जब मैं  (समीक्षक)  'भुलक्कड़' और 'मायका' जैसी लघुकथाओं को पढ़कर रो दिया।

डॉ रजनीश दीक्षित 

Wednesday, October 16, 2019

ब्रजभाषा/अनुवाद-01 (लघुकथा - हिस्से का दूध, लेखक - श्री मधुदीप गुप्ता, अनुवादक - रजनीश दीक्षित)

ब्रजभाषा/अनुवाद-01

शीर्षक : हींसा_को_दूध

ओंगानींदी आँखिन कों मलत भई बा अपयें पति के जोरें आइकें बैठ गई। बू दिवार के सहारें बीड़ी के कश लै रहो हतो।

     "सो गयो मुन्ना...?"
     "हओ! लेव दूध पी लेव।" सिल्वर को पुरानो गिलास बाने बढ़ाओ।
     "हुंउँ, मुन्ना के लानें धर देव। उठिहे तो...।" बू गिलास को नाप सो रहो तो।
      "बाय, हम अपओं दूध पिवाय दिंगे।" बा निश्चिंत हती।
      "पगलो, बीड़ी के ऊपर चाय-दूध नईं पिओ जात। तुम पी लेव।" बाने बहाना बनायकें दूध और बई के तनें कर दओ।
       तभैं...
       बाहर सें हवा के संगें एक आवाज बाके कानन में टकराई। बाकी आंखें कुर्ता की खाली खलीता में घुस गईं।
       "सुनो, नैक चाय चढ़ाय देव।"
        पत्नी सें जा कहती बेरा बाको गरो बैठ गओ।

Wednesday, September 11, 2019

लघुकथा_कलश_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक - संपादकीय

"जोगी जी धीरे-धीरे"
"चुनौती, मेरे जुनून की भट्ठी का ईंधन है"
..और कुछ? क्या अब भी है कोई उत्साह बढ़ाने वाली पुस्तक की जरूरत? इस ध्येय वाक्य में ही समस्त ऊर्जाओं को क्रियान्वित करने की क्षमता है। और यह नवोदितों के लिए नई ऊर्जा का संचार करने में बहुत सहायक है। यह वाक्य मेरा नहीं है। यह मुझे #लघुकथा_कलश के ताजातरीन #रचना_प्रक्रिया महाविशेषांक के संपादकीय से मिला जिसे लिखा है श्री योगराज प्रभाकर जी ने।
जैसा कि संपादकीय में लिखा है कि इसका उद्देश्य वरिष्ठों से ज्यादा नवोदितों की रचना-प्रक्रिया जानने और हौसला बढ़ाने का था, निश्चित रूप से यह एक प्रकार का शोध है जिससे यह पता चल सके कि आजकल की लघुकथायें किन-किन परिदृश्यों की परिणति हैं। इससे न केवल रचनाओं के नैपथ्य में चल रहे विचारों का पता चलता है बल्कि यह भी जाना जा सकता है कि आज का लेखक किन बातों से ज्यादा प्रभावित होता है ओर उन्हें अपनी रचनाओं में किस तरह पिरोता है। संपादक जी की नवोदितों के प्रति सोच, संकल्प और लघुकथा के प्रति समर्पण न केवल सराहनीय है अपितु अनुकरणीय भी है। आशा है, मठाधीशों के कान पर जूं रेंग सके।
दिल दिआँ गल्लाँ - जी हाँ, यही है इस संपादकीय का शीर्षक। उनके एक आवाहन और उस पर लेखकों की रचनाओं का प्रचुर मात्रा में प्राप्त होने के बीच जो अपनत्व की कड़ी बनी उसके मुताबिक यह शीर्षक एकदम सटीक बैठता है। जब लेखक-संपादक राजी तो क्या करेगा काजी? लेकिन हनुमान जी ने क्या सोचा था? सीधे समंदर के इस पार से उड़ेंगे और पहुँच गये लंका? हालांकि उनके श्री राम और स्वयं में दृढ़विश्वास से उनके कार्य मे सफलता सुनिश्चित थी और उन्हें मिली भी लेकिन रास्ते में कदम-कदम पर मिलने वाली 'सुरसा' जैसी आपदाओं से निपटना भी जरूरी था। कहते हैं कि डर क्या चीज है, बस मन का वहम। और डर के आगे जीत है। इसी तरह के अन्य प्रपंचों के बारे में पढ़कर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि इसकी झलक आजकल सोशल मीडिया पर जबतब मिलती रहती है।
'अहं ब्रह्मास्मि' का झंडा उठाने वालों की समस्या ये है कि उन्हें अपना अस्तित्व बनाये रखना है, मठ की चिंता है और जय-जय करने वालों की भीड़ चाहिए। इसके लिए वे जबतब नवोदितों के अल्पज्ञान की माला जपते रहते हैं। इस पुनीत कार्य में कईबार तो गुत्थमगुत्था भी हुए और जो छवि बनाई थी वह भी धुल गई। कभी-कभी तो बस चर्चा में आने भर की चाहत ने उनकी अपनी भद्द करवाई। खैर...जो हुआ, अच्छा हुआ। अक्सर कै करने के बाद, आराम महसूस होता ही है।
यह सही है कि अधिकतर नवोदितों के मन मे लघुकथा छोटी-बड़ी-मझोल होती हुई अपने दोषों से मुक्त है लेकिन फिर भी मीनमेख वाले साधुसंतों का प्रादुर्भाव जबतब होता रहता है जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है।
नवोदितों के लिए कुछ नेक सलाहें, रोजमर्रा के कथानकों से निकलने की सलाह, खुद का लिखा नकारने की हिम्मत और रचनात्मक विषयों के चुनाव आदि बहुत महत्वपूर्ण हैं। जहाँ तक सीखने और सिखाने वालों की बात है तो यह बहुत हद तक भ्रामक बात है क्योंकि सच्चे संत अब हिमालय में ही मिलेंगे और जो मैदानी इलाकों में विचरण कर रहे हैं उनमें 99 प्रतिशत सिर्फ अपने हित साधने की फिराक में हैं। उनसे बचा जाए नहीं तो फिर अध्यात्म का ही सहारा बचेगा। अपवादों की गुंजाइश 1 प्रतिशत में निहित है।
हर नए अंक की तरह इस बार की सम्पादकीय की मारक क्षमता में न केवल इजाफा हुआ है अपितु इसका 360 अंश दायरा भी बढ़ा है। ठीक #अभिनंदन की तरह।
इस संपादकीय में बातें भले ही सांकेतिक हों लेकिन एकदम स्पष्ट हैं। ठीक उसी तरह कि आप काने* (जिसकी एक आंख खराब है) से सीधा नहीं पूछ सकते -
काने से काना कहो, तो वो जाये रूठ,
धीरे-धीरे पूछ लो, कैसे गई थी फूट?
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*माफ करें, यहाँ किसी की शारीरिक स्थिति का मजाक नहीं है। यह एक प्रचिलित बात पर आधारित है।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -3)

लघुकथा - औरंगज़ेब
लेखक - मृणाल आशुतोष जी

हमारे देश में हर दूसरा व्यक्ति अपने आप में एक कुशल चिकित्सक, नेता और उपदेशक होता है जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित मानसिकताओं को ढो रहा होता है। आप रोग बताइए, नुस्खा हाजिर, देश की समस्याओं पर टिप्पणी करवा लो, किसी के चरित्र का निर्धारण तो जैसे चुटकी बजाने जैसा काम है। ऐसे लोग किसी के बारे में भी किसी ज्योतिषी से अधिक जानकारी देते आसानी से मिल जायेंगे। इनको दूसरों के काम की जानकारी, उनके आचरण के बारे में (मुख्यतः कमियाँ) सब पता रहता है। इस तरह के जातकों के पास यदि किसी 'वस्तु' की कमी होती है तो वह है, अपने बारे में जानकारी। यहाँ अपने बारे में जानकारी का अर्थ किसी धर्मयोगी के अनुसार 'खुद को जानने' से नहीं है। इसका अर्थ है कि अपने काम, व्यवहार के बारे में उन्हें कुछ पता नहीं है, यह भी नहीं कि क्या उनमें मानवीय संवेदनाएं निहित हैं भी या नहीं? उन्हें इससे कुछ लेना देना नहीं होता है।
मुझे याद आता है मेरे एक करीबी मित्र के परिवार के बारे में, जिनके साथ कुछ ऐसा ही घटित हो चका है। उसकी माँ के एक पैर में चोट लगने के कारण पहले सूजन हुई और बाद में संक्रमण की वजह से स्थिति भयावह हो गई। पैर में फफोले पड़ गए, फफोले फूटे तो पैर में सड़न पैदा हो गई। वह परिवार तो बहुत ही घबरा गया। उन्होंने अपने पारिवारिक चिकित्सक को दिखाया, उनसे सलाह ली। उन चिकित्सक ने अपने से ज्यादा अनुभवी चिकित्सक से मशवरा किया और उन्होंने संयुक्त रूप से निर्णय लिया तथा मेरे करीबी को बताया कि 'थोड़ा समय लगेगा लेकिन हम पैर बचा लेंगे।' साथ ही हिदायत भी दी कि जितना हो सके रिश्तेदारों, मिलने वालों की सलाह को मानना तो दूर सुनना भी नहीं। अगर आपने अपने तथाकथित हितैषियों की बात मानी तो सम्भव है कि आपको बड़े शहर के बड़े चिकित्सालय जाना पड़े। वहाँ आपका खर्चा भी ज्यादा होगा और अधिक संभावना है कि पैर भी कटवाना पड़े। अंत में उन्होंने यही किया और उनकी माता जी का पैर भी ठीक हो गया और वह पूरी तरह से स्वस्थ हैं। .... जैसा कि उनके पारिवारिक चिकित्सक ने कहा था, जो भी हितैषी मिलने आता था उनके मशवरे कुछ ऐसे होते थे - क्यों घर में रखे हुए हो? फलानी जगह ले जाओ, वहाँ अच्छा इलाज होता है। बहुत लोभी हो। वहाँ, मेरे बहिनोई की जान-पहचान है, भर्ती करवा दो। जान है तो जहान है, पैर कटता है तो कटवा दो, कम से कम जिन्दा रहेंगी तो लोगों को देखती तो रहेंगी, आदि, आदि।
आज की कथा 'औरंगज़ेब' में भी कथानक का एक हिस्सा इसी तरह का है। लोगों को सिर्फ अपने हिसाब से ही मतलब निकालना है। आपका दृष्टिकोंण, उनकी बला से। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों भला सुशील का दोस्त सुयश अपने मित्र के बारे में इस तरह की अनर्गल बातें कहता? सुयश ने तो बिना सही तथ्य जाने ही सुशील के बारे में न जाने क्या-क्या धारणाएं बना ली थीं। कहते हैं कि अगर शक्कर वाली बीमारी (मधुमेह) का इलाज करना है तो करेले का जूस भी पीना पड़ता है और उसका कड़ुआ स्वाद बर्दास्त करना पड़ता है। सुशील के पिता जी जो कि लकवाग्रस्त भी हैं और उन्हें मधुमेह भी है तो इस स्थिति में वह क्या करे? क्या शक्कर वाली चाय पिलाता रहे? और क्यों ऐसे लोगों से मिलने दे जो हौसला बढ़ाने की जगह यह कहें कि लकवा का मरीज ज्यादा दिन नहीं चलता है, अब तो हरि नाम ही जपो। यह भी सलाह देने वालों की बेशर्मी ही होती है कि वे किसी मरीज के मरने की इसलिए कामना करते हैं ताकि उसे तकलीफ कम हो। अब ऐसे में तो घर-परिवार वालों के लिए यही बनता है कि ऐसे लोगों से मरीज को दूर ही रखा जाए जिससे उसे भी तकलीफ कम हो और इलाज से स्वास्थ्य लाभ भी जल्दी मिले।
इस लघुकथा में एक आदर्श बेटे और बहू का चरित्र-चित्रण लेखक ने बखूबी किया है। जहाँ सुशील को अपने पिता की देखभाल के लिए लोगों के ताने सुनना भी मंजूर है वहीं उसकी पत्नी ने अपने ससुर की देखभाल करने, उनकी बिस्तर पर ही मल-मूत्र करने की शारीरिक अवस्था के कारण जब साफ-सफाई के लिए कोई परिचारिका नहीं मिली तो खुद की नौकरी छोड़ दी और उनकी सेवा में समर्पित हो गई।
इतना सब करने के बाद भी लोगों के विचार बदलना मुश्किल है। लोगों को कटाक्ष करने में समय नहीं लगता है। उन्हें इससे क्या मतलब कि रोगी और उसका परिवार किस मनोदशा से गुजर रहा है? इस प्रसंग का दिलचस्प पहलू यह है कि इतने ताने देने के बाद भी सुयश ने सुशील को सीधा-सीधा औरंगज़ेब नहीं कहा है। लेकिन समाज से मिले तानों से सुशील के मन की वेदना को इसी से समझा जा सकता है कि वह अपने आपकी छवि को, औरंगज़ेब की इतिहास में दर्ज छवि जैसा समझने लगा है और इसे स्वीकार करने को भी तैयार है। क्योंकि अगर इससे उसके पिता का कष्ट कम होता है तो सौदा बुरा नहीं है। सुशील के ये सब गुण उसे उसके पिता के प्रति प्रेम, आदर, सेवाभाव और समर्पण के कारण एक आदर्श पुत्र के रूप में स्थापित करवाने में सहायक हैं। निश्चित रूप से सुशील का चरित्र आज के समाज के लिये अनुकरणीय है जहाँ यह सेवा भाव लगातार अवनति की और अग्रसर है। बतौर लेखक, हर परिवार को एक चाहिए सुशील के जैसा औरंगज़ेब। सही भी है, नाम में क्या रखा है? एक बात और कि सुशील के साथ उसकी पत्नी भी यहाँ प्रसंशा की पूरी हकदार है जो कथा के मूल संदेश को और भी मजबूती से समाज के पटल पर रख रही है।

लघुकथा में तीन स्थानों पर "......." का प्रयोग हुआ है। यह उस समय प्रयोग हुआ है जब सुशील अपने मित्र को स्पष्टीकरण दे रहा है। सुशील के दो कथनों के बीच "......." का प्रयोग होना मुझे लगता है, उसके मनोभावों को दिखाने का प्रयास है, उसके मन के अंदर चल रहे द्वंदों का प्रतीक है कि वह किस-किस को जबाब दे, किस तरह से पिता के स्वास्थ्य पर ध्यान दे और कुछ इस तरह की बात भी न कह दे कि लोगों को बुरा लगे। अगर मैं सही हूँ तो इस संकेत (".......") का बेहतरी से प्रयोग करने के लिए लेखक अतिरिक्त बधाई का पात्र है।
सुन्दर शिक्षा/सन्देश से ओतप्रोत इस लघुकथा के लिए भी मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी-2)

लघुकथा - तंग करती पतंग
लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी

आस्तिक और नास्तिक। ये दो शब्द भर नहीं हैं। निश्चित रूप से इन शब्दों के अनुवाद अन्य भाषाओं में भी होंगे लेकिन इनके अर्थ अगर कहीं जिये जाते हैं तो वह हमारा देश भारत ही है। अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो न हमारे देश में सच्चे आस्तिक हैं और न ही नास्तिक। अगर इन शब्दों के अर्थों पर जायेंं तो जो इनके मतलब निकलते हैं उनमें शाब्दिक और वास्तविक अर्थों में बहुत अंतर है। शाब्दिक अर्थ तो सभी को पता है लेकिन सही अर्थ यह है कि दोनों में सैद्धांतिक रूप से कोई खास फर्क नहीं है। आस्तिक व्यक्ति को इससे कोई सरोकार ही नहीं होना चाहिए कि नास्तिक कौन है क्योंकि उसमें ईश्वर के लिए इतनी आस्था जो है और नास्तिक व्यक्ति के लिए उसे कोई सरोकार ही नहीं होना चाहिए कि क्या आस्तिक प्रकार की भी कोई प्रकृति होती है? इन दोनों में आपसी मतभेद या विरोध का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हमारे देश में ये शब्द बहुतों की राजनीति चमका रहे हैं, बहुतों की दुकान चलवा रहे हैं और आपसी मतभेदों को बढ़ा रहे हैं।
इस बात को दूसरी तरह से समझें। विश्व मे कई देश ऐसे हैं जहाँ पर तथाकथित धार्मिक लोग यानी आस्तिक अत्यंत कम हैं। इस हिसाब से वहाँ नास्तिक लोग ज्यादा हुए। तो फिर उन्माद भी ज्यादा होना चाहिए। लेकिन नहीं। उन देशों में आस्तिकों की स्थिति यह है कि उन्हें ये भी नहीं पता कि उन्हें आस्तिक कहा जाता है और उनके विपरीत लोगों को नास्तिक। उदाहरण के लिये वियतनाम में लगभग 25-30 प्रतिशत लोग ही हैं जो बौद्ध हैं लेकिन उनका न तो 70-75 आबादी से कोई बैर है और न ही मतभेद। वहाँ तो एक ही परिवार में आपको बौद्ध और गैर बौद्ध मिल जाएंगे। लेकिन हमारे देश में तो दिन भर 25 चैनलों पर 36 बाबा आपको प्रवचन देते मिल जाएंगे। यहाँ बाबा से मतलब किसी एक धर्म से नहीं है। कमोबेश यही हालत सभी भारतीय धर्मों की है।
भारत में धार्मिकता राजनीति में सफलता/ असफलता निर्धारित करती है। हमारे यहाँ तो नास्तिकता वाले दो प्रकार के होते हैं जिसमें एक खास प्रकार के लोग अपने आपको एक खास पंथ से जुड़ा मानते हैं। उनकी मानसिकता पर जाएं तो उनका नास्तिकतापन किसी धर्म की चाटुकारिता और किसी धर्म की बुराई में निहित है। और हो भी क्यों न? जब भीड़ हाजिर है, आपकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए तो दोहन तो आपका होगा ही। इनके अपने समूह हैं, जहाँ अकूत धन है, दुष्प्रचार के साधन हैं और अपने-अपने शीशे हैं और उनमें साधारण आदमी को उतारने का हुनर भी है।
उस्मानी जी लिखते हैं कि यहाँ प्रतियोगिता जैसा कुछ भी नहीं है। सही भी है। प्रतियोगिता वहाँ होती है जहाँ सीमित स्थान हो। जहाँ बाजार इतना बड़ा हो और ग्राहकों की कमी न हो, वहाँ प्रतियोगिता हो भी नहीं सकती। क्योंकि माल सबका बिकना है, फायदे में सब रहने वाले हैं लेकिन यह भी एकतरफा है। सब फायदे वाले केवल डमरू वाले हैं, उनसे थोड़े कम फायदे वाले उनके जमूड़े हैं। लेकिन इसी डमरू और बांसुरी की धुन में जमूड़े और उनके उस्ताद जिसे ठग रहे हैं, वह है सिर्फ और सिर्फ बेचारी जनता जिसे उनमें आस तो दिखाई देती है, पल भर का सुकून ही मिल जाये, इसी उम्मीद में हैं। जनता सकपका भी रही है, निजात भी पाना चाहती है। लेकिन उसे डर भी है कि कहीं मुट्ठी खोल दी तो कोई अहित न हो जाये। आप उसकी बनाई लकीर पर तटस्थ खड़े हैं और जब होश आता है तो वे रफूचक्कर हो चुके हैं और आम आदमी फिर से इंतजार में आ जाता है कि काश फिर से कोई दूत या फरिश्ता आये।
यह जानने के बाद भी कि जन्नत या दोज़ख़ सब यहीं है, आदमी है कि मानता ही नहीं। सबके अपने दांवपेंच हैं, सबकी फड़ बिछी हुई है, सबके पांसे तैयार हैं और समय-समय पर युक्तियों के अनुसार प्रसन्नता और अवसाद के भाव आ जा रहे हैं क्योंकि कि किसी भी पतंग की गति एक सी सदैव नहीं रह सकती। यही सार्वभौमिक सत्य है।
इस लघुकथा के माध्यम से उस्मानी जी ने दार्शनिक अन्दाज में वर्तमान स्थितियों को अच्छी तरह से पतंग के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
हालांकि, यह रचना एक सामान्य पाठक के लिये आसानी से ग्राह्य नहीं है लेकिन इसका प्रस्तुतिकरण इस तरह से ही बेहतर हो सकता था। मैं यह तो नहीं कहूँगा कि यह कथानक नया है लेकिन प्रस्तुति का अंदाज जरूर अलग तरह का और प्रभावी रहा।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए शेख शहजाद उस्मानी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी-1)

लघुकथा - भूख की सेल्फी
लेखक - शेख शहज़ाद उस्मानी जी

...शिकारी खुद यहाँ शिकार हो गया।
भूख बड़ा विचित्र शब्द है। अमूमन हम इसे रोटी और पेट की आग से जोड़ते हैं लेकिन अगर इस पर विचार करें तो पता चलता है कि यह अपने-अपने ग्रसित व्यक्ति के अनुसार बदलती जाती है। "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा"। किसी को रोटी, किसी को कपड़े, किसी को मकान तो किसी को प्रसिद्धि की, किसी को नाम चाहिए तो किसी को सम्मान चाहिए। जितने जातक, उतनी भूखें।
आज का युग मशीनी और तकनीक का युग है और हर व्यक्ति की मानसिकता उसी के अनुसार बाजार की मानसिकता के अनुरुप ही हो गई है। जब बाजार की बात आती है तो दो मुख्य किरदार सामने होते हैं, ग्राहक और उपभोक्ता। और यह दोनों किरदार कब किसके हिस्से होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। हर व्यक्ति एक दूसरे की ओर लालसा लगाए प्रतीक्षारत है कि कब और कैसे उसका दोहन किया जा सके। आप मंदिर, मस्जिद या किसी भी इबादतगाह पर जाइये, उसके बाहर बैठे तथाकथित भिखारी आपके कपड़े, आपका हुलिया और चाल-ढाल से आपकी औकात नापते हैं कि आप कितना और क्या दे सकते हैं? आप अपने पुण्य उनके द्वारा पाना चाहते हैं और वह आपसे धन प्राप्त करना। कभी-कभी तो भिखारी भी आपको बता देते हैं कि क्या चाहिए, क्या नहीं। और हो भी क्यों न? क्योंकि यह तो उनकी रोजी-रोटी का सवाल जो ठहरा। आपको मनवांक्षित फल भी तो तभी मिलेगा जब आप कारक की उम्मीदों पर खरे उतरें। कभी-कभी तो आपको ऐसा न करने पर सलाह भी मिल जाएगी कि "आ भाई, लेले कटोरा और बैठ जा मेरे साथ।"
...तो सीधा हिसाब है, आपको सेल्फी चाहिए और उसे उसकी दिहाड़ी। वह तो तैयार है कि शिकार आयें और यह सिलसिला जारी रहे। हालांकि मुफ्त में जो भी मिले ठीक ही है लेकिन अनुभव से सीखा जा सकता है। तभी तो सेल्फी के बाद जब उस भिखारी की पत्नी ने कहा कि अगर उसे और बच्चों को फोटो लेते वक्त अलग न किया होता तो आज पाँच की जगह पाँच सौ का नोट हाथ में होता और अब दूसरी सेल्फी की बारी थी। दूसरी "भूख की सेल्फी"। क्या मतलब? मतलब, पहली भूख रईस की थी और दूसरी भिखारी की। ये सेल्फियों का खेल है इसमें हर आदमी मशगूल है कोई अत्याधुनिक उपकरणों से तो कोई भाव भंगिमाओं से, ठीक वैसे ही जैसे भिखारी ने अपनी पथरीली आंखों से कथा की दूसरी सेल्फी को अंजाम दिया।
इस रचना में उस्मानी जी ने दो मनोभावों को बड़े सुन्दर तरीके से चित्रित किया है। हालांकि कथा का शुरुआती कथन (तू ज़रा सी हट और इन बच्चों को संभाल, मैं जरा इन महाराज की भूख मिटा दूँ) थोड़ा असमंजस पैदा करता है कि यह भिखारी ने कहा है कि रईस ने, लेकिन यही असंमजस बाद में लघुकथा का प्रबल पक्ष बनकर उभरता है। जैसा कि ऊपर इस बात का जिक्र हो चुका है कि इन तथाकथित भिखारियों की ऊपरी नजर और दिखावे में वे भले ही आपको दैवीय अवतार मान लें लेकिन उनके अंदर आप किसी मजाक की वस्तु से कम नहीं। इस बात की तस्दीक उस भिखारी के रईस को 'महाराज' वाले संबोधन से पता चल जाती है।
वैसे कोशिश यह होनी चाहिए कि हिन्दी की रचनाओं में अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग न हो या केवल अत्यावश्यक होने पर ही हो लेकिन इस रचना के शीर्षक में ही 'सेल्फी' शब्द है जो कथा की भी मुख्य सामग्री का काम करता है अतः इसे रखना ठीक भी है। उसी प्रकार स्मार्ट-फोन, स्टिक आदि का भी प्रयोग हुआ है। वैसे हिन्दी इतनी व्यापक है कि उसे किसी अन्य भाषा के शब्दों की बैसाखी नहीं चाहिए, अंग्रेजी की तो बिल्कुल भी नहीं। इसके इतर उर्दू के शब्द हिन्दी के लहजे में निखार जरूर लाते हैं।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए शेख शहजाद उस्मानी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।

सावधान - अशुद्ध हिन्दी का प्रयोग/अनुवाद वर्जित है।


कल एक अंतर्राष्ट्रीय उड़ान के दौरान हिन्दी में उद्घोष करते समय कहा गया कि अब हम "मदिरा सेवा" शुरू करने वाले हैं। इसी "मदिरा सेवा" को अंग्रेजी में अनुवाद करते समय कहा गया "going to serve Beverages".

विदित हो कि अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों में भोजन के पहले कुछ पेय (फलों के रस, हल्के पेय जैसे कोका कोला, पेप्सी, बीयर और मदिरा आदि) परोसे जाते हैं।
मुझे बड़ी हैरानी हुई कि इस हवाई सेवा प्रदान करने वाली संस्था ने उपर्युक्त समस्त पेयों को "मदिरा" में शामिल कर दिया था। मैंने इस पर आपत्ति दर्ज कराई कि "हिन्दी में उद्घोषणा अच्छी बात है लेकिन आप इस तरह से गलत अनुवाद करके न ही हिन्दी का अपमान करें और न ही उन यात्रियों का जो इस बला (मदिरा, बीयर) से दूर रहते हैं।
परिचारिका को यह बात ज्यादा समझ में नहीं आयी। धीरे-धीरे यह बात कप्तान और सह-कप्तान तक पहुँची। बाद में उड़ान पूरी होने पर कप्तानों ने मुझसे बात की। मैंने उन्हें अपनी आपत्ति दर्ज कराई। उनका आश्वासन था कि बात उपर पहुँचा दी जाएगी। उन्होंने मुझे यह भी सुझाव दिया कि मैं अपनी शिकायत ईमेल द्वारा भी दर्ज करा सकता हूँ।
कार्यवाही जारी है।
जय हिन्दी
जय भारत
वंदे मातरम।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - नीता कसार जी)

लघुकथा - अहसास

लेखिका - नीता कसार जी

"आप दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो आपको अपने और अपनों के लिए पसंद न हो"।
- शांतिकुंज हरिद्वार के प्रणेता आचार्य श्रीराम शर्मा

... कोई भी रिश्ता हो, उसकी सफलता-असफलता की कहानी उसमें शामिल हर पात्र के हिस्से की होती है। यह बात हर रिश्ते पर बराबर लागू होती है। मित्रता हो, भाई-बहन, भाई-भाई, अड़ोसी -पड़ोसी पति-पत्नी, आदि। जब दो पक्षों की आपसी समझ एकदूसरे की पूरक बनती है तो फिर सामान्य सम्बन्ध भी मधुर हो जाते हैं, मामूली झोपडी भी किसी महल से कम नहीं होती है। असफल दाम्पत्य के ठीकरे कहीं पुरूष तो कहीं महिलाओं पर फोड़े जाते हैं लेकिन सुखी जीवन का मंत्र यही है कि गाड़ी दोनों पहियों के परस्पर सहयोग से चलती है, असहयोग से नहीं।
अपने बेटे-बेटी के अच्छे जीवन साथी के बारे में न केवल माँ-बाप की, अपितु हर पति और पत्नी की भी इच्छा होती है कि उसका हमसफ़र ऐसा हो कि जीवन विषमताओं और विसंगतियों से भरा न हो। यह तो एक परिकल्पना ही होती है कि अमुक व्यक्ति का चुनाव इस तरह से करूँगा, उस तरह से करूँगा लेकिन क्या इसका चुनाव इतना सरल है? चुनाव करते समय भले एकबार यह लगे भी कि कोई गलती नहीं हुई है लेकिन ध्यान रहे, हमने चुनाव किसी मशीन का नहीं किया है जो हमारी जरूरतों के अनुसार परिणाम आएंगे ही। न, न। हर व्यक्ति अपने आप में अनोखा होता है, उसकी विशेषताएँ हैं, कमियां हैं। यह बहुत ही मुश्किल काम है और इन्हीं मुश्किल से दिखने वाले रिश्तों में हम ऐसे भी उदाहरण पाते हैं जहाँ लगता है कि वाकई ये जोड़ियां स्वर्ग में ही निर्धारित हुई होंगी। इसके इतर अगर अपने इधर-उधर नजर दौड़ायें तो पाएंगे कि जिन लोगों ने कई वर्षों आपस में प्रेम किया लेकिन विवाह के कुछ महीनों बाद ही उनके रास्ते अलग हो गए। तो क्या हुआ? क्या प्यार नहीं था या समझने, परखने में भूल हो गई। नहीं, कोई भूल नहीं हुई। दरअसल जब व्यक्ति प्रेम में होता है तो एकदूसरे से आशाएं कम और खुद का समर्पण भाव ज्यादा होता है और शादी के बाद जहाँ भी इनमें तब्दीली आती है, वहीं शुरू हो जाता है, अलगाव। खैर...
भारतीय पिता की अपनी अलग ही कहानी है। उसे दहेज़ के बारे में सोचना है, दामाद की जाति, गोत्र, खानदान, रोजगार, आदि के साथ यह भी चिंता बराबर सताती रहती है कि होने वाला दामाद उसकी बेटी को फूल की तरह रखे। लेकिन कई बार ये आशाएँ केवल परिकल्पना भर रह जाती हैं क्योंकि बेटी को फूल होने के वे संस्कार दिए ही नहीं जिनकी चाह उसके होने वाले पति, उसके माँ-बाप और परिवार वाले रखते हैं। यह तो सबको पता है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती लेकिन फिर भी उम्मीदें सिर्फ एक तरफ से ही हों, यह थोड़ा ज्यादा नहीं हो रहा?
समय बदला है तो एक अच्छा बदलाव यह भी हुआ कि आजकल के बच्चे अपने माँ-बाप से ज्यादा घुले-मिले रहते हैं, मित्रवत व्यवहार होता है, तो फिर खुलकर बातें भी हो जाती हैं। चाहे मसला पढाई, नौकरी, प्रेम या विवाह का हो, माँ-बाप और बच्चे खुलकर बात करते हैं जो अच्छी बहुत अच्छी बात है। आजकल बच्चे लिपटकर माँ-बाप को "आई लव यू" झट से बोल देते हैं। एक जामना था कि कभी लोग माँ-बाप, खासकर पिता से दूरी बनाये रखने में ही भलाई समझते थे। "आई लव यू" तो दूर कभी मुस्कुरा भी न सके। ऐसा नहीं है पहले प्रेम नहीं था लेकिन कुछ तानाबाना ऐसा था कि अदब और दूरी सी बनी ही रहती थी।
...और जब आज संबंधों में निकटता आई है तो इसी कारण इस लघुकथा में जब पिता ने बेटी के सिर पर हाथ रखते हुए उसके लिए इस बात का खुलासा किया कि उनके मन में बेटी के लिए किस तरह का पति खोजने की लालसा है तो बेटी ने लजाने, शरमाने की औपचारिकताओं की जगह तपाक से कारण जानने को पिता से प्रश्न किया। हालाँकि कारण स्पष्ट था लेकिन यहाँ जैसे लेखिका को पिता को ताना देना ही था कि 'उनकी यह इच्छा तो ठीक है लेकिन क्या वह स्वयं अच्छे राजकुमार वाले किरदार में असफल रहे?' क्योंकि बेटी की नजर में उसके पिता उसकी माँ को खुश नहीं रख पा रहे थे। यह एक पक्ष है और विचारणीय भी है क्योंकि दो तरह का व्यवहार क्यों? जरूरी था यह प्रश्न। हालाँकि यह इस कथा में स्पष्ट नहीं हुआ कि क्या माताश्री राजकुमारी होने का फर्ज अदा कर रही थी या क्या पिताश्री की अपनी भी कुछ टीस थी? पिता जी को अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं मिला। वैसे, ऐसे उदाहरण हमें अपने आसपास मिल ही जायेंगे जहाँ बिना बात जूतमपैजार होती रहती है लेकिन अपवाद भी बहुत हैं। आदर्श रूप में राजा को रानी और रानी को राजा पाने के लिए अपना-अपना किरदार उसी तारतम्य में अदा करना होता है। कथा के शीर्षक के अनुसार लेखिका ने पिता को अहसास कराने की कोशिश तो की लेकिन बाकी का निर्णय पाठकों के लिए छोड़ देने के कारण यह अधूरा ही रहा कि क्या उसे (बाप को) अहसास हो पाया?
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए नीता कसार जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी-2)

लघुकथा - रिश्ता
लेखक - अर्चना त्रिपाठी जी

अगर व्यक्ति पूर्वाग्रहों से बाहर आ जाये तो विश्वास मानिए कि उसके जीवन की आधे से ज्यादा समस्याओं को पैदा ही न होना पड़े। मसलन, हमारे यहाँ यह पहले से ही माना हुआ है कि बहू आयेगी तो उनके लड़के को वश में कर लेगी और हमारी सेवा नहीं करेगी। बहू भी पहले से ही सास के रौद्र रूप को मन में संजोकर आती है। ..और परिणाम स्वरूप वही होता है जिसकी परिकल्पना उसने की हुई होती है।
आजकल इसे मनोविज्ञान से जोड़कर भी देखा जा रहा है और नई-नई बातें और घटनायें सुनने में आ रही हैं...कि यदि व्यक्ति अपनी सोच और समझ सही रखे तो वह अपनी मन वांछित कामना पूरी कर सकता है। यहाँ मनोविज्ञान से आगे एक और चरण है और वहाँ चेतन और अचेतन मन की बातें होती हैं। खैर...ज्यादा अन्दर उतरूंगा तो विषयांतर जैसा लगेगा लेकिन यहाँ एक प्रसिद्ध कथावाचक स्व. श्री राजेश्वरानंद जी का बताया हुआ प्रसंग लिखना चाहूँगा।
....उनके अनुसार, एक आश्रम में, जहाँ भगवान श्री राम का मंदिर था, वहाँ बहुत से संतों का जमावड़ा रहता था। वहाँ केवल एक संत को छोड़कर सभी संत मंदिर की सुबह-शाम की संध्या-आरती में सम्मिलित होते। वह इकलौते संत कभी भी किसी भी आरती में नहीं जाते लेकिन हर भंडारे आदि में बढ़चढ़ कर भाग लेते, खीर-पूरी छकते। जब कोई आरती में शामिल न होने की वजह पूछता तो वे कहते कि "मैं राम का गुरु हूँ और यदि मैं उनकी आरती में आऊँगा तो उन्हें मेरा सम्मान करना पड़ेगा, अतः मैं अपनी कुटिया में ही ठीक हूँ।" आश्रम के कुछ लोगों का यह भी कहना था कि कभी-कभी उन्होंने उन संत के मुँह से उनके कमरे में रखी राम जी की प्रतिमा को छड़ी दिखाकर, डांटते हुए भी सुना था कि, "कुछ पढ़-लिख लो, तो काम आएगा...." और उनके छड़ी दिखाते ही भगवान की प्रतिमा डर से कांपने लगती थी।.....इस सबके बाबजूद भी अन्य संतों ने उनको कहा कि नौटंकी बंद करो और रोज पूजा में आया करो। एक दिन सबने जबरन उन्हें आरती के समय राम जी की मूर्ति के सामने खींचकर लाया तो सबने देखा कि जैसे ही उनका मूर्ति से आमना-सामना हुआ, भगवान का मुकुट उनके सम्मान में झुक गया।
इस प्रसंग की चीरफाड़ और सत्यता जानने के प्रयास करने के स्थान पर आवश्यक यह है कि इसके मंतव्य को समझा जाये। यानी, पूर्वाग्रह आपकी जिंदगी को संवारने या बिगाड़ने के लिए जिम्मेवार हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि आपके पूर्वाग्रह क्या हैं? और आपके मन में कितने अंदर बैठे हैं?
अर्चना जी की इस लघुकथा के अंदर अच्छे खासे चल रहे रिश्ते में भी कथा की नायिका पूर्वी के मन में समाज में व्याप्त सोच का प्रभाव है। और यह तब तो और भी गहरा और प्रभावी होने की संभावना रखता है जब इसे अपने खास लोग कहें। यह कितना सामान्य है कि बच्चे अपने छोटे-मोटे काम स्वयं कर लें। इससे न केवल वे अपना काम करना स्वयं सीखते हैं, अपितु उन्हें आत्मनिर्भर होना आता है। इसके इतर बड़ों को सहूलियत भी मिलती है। पता नहीं लोगों को उस नकारात्मक कोंण से सोचने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? अगर ऐसा न होता तो पूर्वी की माँ उसे क्यों टोकती कि उसका सौतेला लड़का स्नान करने के बाद अपने कपड़े खुद क्यों पहन रहा है? खैर... इसे अगर बेटी की माँ की ओर से अतिरिक्त चिंता मान भी लिया जाए तो भी पूर्वी के उस बयान का क्या कि "मैं चाहे कुछ भी कर डालूँ लेकिन हमारा रिश्ता बहुत ही नाजुक है क्योंकि मैं सौतेली जो हूँ।" दरअसल, ऐसी बातें जहाँ अच्छे रिश्ते पनपने की बहुत सुखद संभावनाएं हैं, कुछ पूर्वाग्रहों के कारण उनमें भी जल्दी 'ग्रहण' लगा ही देती हैं।
प्रस्तुत लघुकथा, समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों पर आधारित कथानक को लेकर है, जहाँ सबकुछ अच्छा होते हुए भी, खराब करने की पूरी खाद मौजूद है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इस पक्ष को लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी-1)

लघुकथा - दिवास्वप्न
लेखिका - अर्चना त्रिपाठी जी

"नारी तू नारायणी"
पता नहीं इस उक्ति को स्थापित करने में नारी के किन-किन गुणों का अध्ययन किया गया होगा। क्या उसका मातृत्व? क्या उसका अथक परिश्रम? क्या पति, बच्चों और परिवार के पीछे दिन को दिन और रात को रात न समझने के पीछे छुपे असीम प्यार और समर्पण की हदों को पार करने का जज्बा? क्या समय आने पर दुर्गा, काली बनने की कहानियाँ, या और कुछ भी? इस प्रश्न का उत्तर पा भी लिया जाये तो क्या होगा? आखिर में उसे मिलता ही क्या है? अपवादों को छोड़कर अगर देखा जाये तो जो नारी शक्ति ने दिया है उसका पासंग भी पुरुष समाज नहीं दे पाता है। यहाँ मैं पुरुषों के योगदान को नकार नहीं रहा हूँ लेकिन बराबरी कहना बेमानी है। महिलाओं की ओर से बराबरी के हक की मांग अक्सर उठती है। यह बहुत ही ज्यादा हास्यास्पद है। दरअसल बराबरी के हक की दुहाई तो पुरुष समाज को करनी चाहिए थी। लेकिन पुरुषों ने बड़ी चालाकी से ऐसे नियमों का जाल बनाया कि दुर्भाग्य से नारी को सदैव 'कृपा' के लिए पुरुषों की ओर ताकना पड़ा। पुरुषों ने हमेशा ही अपना वर्चश्व बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये और ऐसे नियम-कायदा कानून थोपे जिससे एक महिला को उनकी ओर दयनीय होकर गुहार लगानी पड़े।
.. हालाँकि मैं उस तरह की बराबरी के पक्ष में कतई नहीं हूँ जिसके लिए आजकल बड़े-बड़े आंदोलन चल रहे हैं। मुझे माफ़ किया जाये लेकिन बड़ी बिंदी वाले गैंगों से यह न हो पायेगा। यदि अपवाद छोड़ दें तो स्त्रियों के तथाकथित जीवन स्तर को उठाने के नाम पर बड़े-बड़े संगठन बने हैं जिनके धन की उगाही, विदेशी यात्रायें, सैर-सपाटा आदि से ऊपर कोई खास उद्देश्य हैं भी नहीं। वैसे इनके घोषित-अघोषित उद्देश्य भी हैं जो प्रथम दृष्टया लगते हैं कि यह महिलाओं के उत्थान हेतु हैं लेकिन अगर इन आन्दोलनों की हकीकत में परिणति हो भी जाये तो फिर उसी स्थिति में पुरुष आ जायेंगे जिसके लिए महिलाएं यह तथाकथित संघर्ष कर रही हैं। क्योंकि उनको पता ही नहीं है कि बराबरी किस तरह से हो? उन्हें याद ही नहीं है कि पुरुषों के बराबर आना है, उनसे बदला लेना नहीं है। पहले समझें कि आप का लक्ष्य क्या है? महिला या पुरुष कभी एक दूसरे के विरोधी नहीं हो सकते। वे एक दूसरे के पूरक हैं। .... बराबरी की बात आयी है तो यह बात भी कर लें। यही हाल जाति-वाद पर आधारित आन्दोलनों का है। पहले जो उनके साथ ज्यादती और अन्याय हुआ, आज अगर आप गौर से देखो तो जिनके साथ अन्याय हुआ वे मन में घृणा भरे घूम रहे हैं। दरअसल वे बदला लेना चाहते हैं। वे किसी बराबरी और सामंजस्य की चाह में नहीं हैं। वे दूसरे पक्ष को उसी स्थिति में देखने की चाहत में हैं जो भूतकाल में उनके साथ हो चुका है। हालाँकि इन्हीं ढकोसलों में अपवाद भी होते हैं जो इनमें भी संभव हैं।
थोड़ा कथा के मूल पर भी बात कर लें। ... जब पिता और घर का मुखिया या पालक किसी रोग के कारण असहाय हो गया हो, जीविकोपार्जन के साधन पर जैसे विराम लग जाये, सामने छोटे भाई-बहन हों तो एक अपरिपक्व मन में भी बड़प्पन और उससे जुड़ी जिम्मेवारियां सहज ही जन्म ले लेती हैं। उसे संभालना ही होता है बिलखते और बिखरते परिवार को। और जैसे समाज तो इसी के लिए घात ही लगाए बैठा रहता है।वह बेचारी करती भी तो क्या करती? 17 वर्ष की नाबालिग उम्र, उसे जो समाज ने दिया, उसे अपनाना पड़ा। ऐसा नहीं है कि केवल यही एक चारा है या रहा होगा धनोपार्जन का लेकिन कहते हैं कि व्यक्ति परिस्थितियों का गुलाम होता है। एक तो स्त्री जो पहले से ही डरी हुई है, दूसरी उसके पिता का रुग्ण शरीर जो लकवे के कारण कोई भी काम करने में असमर्थ है। उसके पास सम्भवत: यही विकल्प बचा होगा। हालाँकि यह रचना में यह स्पष्ट नहीं है लेकिन बहुत सम्भव है कि उसे इस रास्ते पर किसी अपने ने ही ला कर खड़ा किया होगा। इसे पूर्वाग्रह भी कहा जा सकता है लेकिन असंख्य कहानियां इस पक्ष की ओर ज्यादा इशारे करती हैं।
... कहा जाता है कि लोगों की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है और यदि वे लोग अपने हों तो कहना ही क्या? अपनों ने कठिन समय में उनके लिए क्या किया, क्या बलिदान दिया, यह बहुत कम लोगों को याद रह पाता है। जरा संयुक्त परिवारों की संस्कृति और उनसे सम्बंधित कहानियों पर गौर करें। अक्सर बड़े बेटों-बेटियों को शिक्षा आदि से वंचित होना पड़ा है और छोटों को उनसे बेहतर शिक्षा के साधन और अन्य सुविधाएँ मिली हैं। उसके नैपथ्य में आप जाकर आकलन करें तो आपको यही पता चलेगा कि पहले घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं रही कि बड़ों को समान अवसर मिल पाते। लेकिन कालांतर में जिन्हें अवसर का लाभ मिला, जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति ठीक हो गई, वे अपने बड़ों के बलिदानों को भूल जाते हैं। ....तो जब उससे दूसरा सवाल हुआ कि, "अब तो सब अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए हैं, तो तुम क्यों नहीं छोड़ देती यह सब?"
क्या जबाब देती वह वीरांगना? मुझे यहाँ उसे वीरांगना कहने में संकोच नहीं होता। वह विजेता है। समाज को उस पर ऊँगली उठाने का कोई हक नहीं है। फिर, इस प्रश्न पर जो जबाब आया है, उसमें तथाकथित अपनों और समाज के दोगलेपन की बड़ी गन्दी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उसके जबाब की पहली पंक्ति,"जिन लोगों के लिए हर हद पार कर ली, #वे_भी_मुझे_गन्दी_नाली_समझते_हैं" पर किसी तर्क की सम्भावना ही नहीं बचती है। ...लेकिन दूसरी पंक्ति कि "गन्दी नाली, नदियों में भी नहीं मिला करती है तो घर के नलों में....? यह तो दिवास्वप्न ही है।" यह उस बालिका/महिला के स्तर से अच्छा जबाब है और तार्किक भी लगता है लेकिन हकीकत यह है कि आज कलियुग में सभी गन्दी नालियां और नाले नदियों में ही तो मिल रहे हैं जिससे हमारे देश की सभी नदियाँ प्रदूषित हैं और जो भयंकर संक्रमित बीमारियां फ़ैलाने के प्रमुख स्रोत हैं। खैर...
प्रस्तुत रचना में दो पात्रों के बीच हुए संवाद में कथा का निर्वाहन किया गया है। दोनों पात्रों में से किसी का नाम भी नहीं है। हालाँकि इससे कथा के सम्प्रेषण में कोई जरुरत या इसकी कमी भी समझ में नहीं आई लेकिन हाल ही में वरिष्ठ लेखक और प्रकाशक आदरणीय #मधुदीप_गुप्ता जी ने इस बावत चर्चा को जन्म दिया था। मुझे लगता है कि उस कोंण से भी विचार करना चाहिए।
मात्र 79 शब्दों में सिमटी प्रस्तुत लघुकथा, समाज के खोखलेपन और दोगलेपन पर बड़ा प्रहार करती है। लेखिका अर्चना त्रिपाठी जी को इसके लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

ये जो मेरी हिन्दी है

काफी दिनों से मेरे साहित्यिक क्रिया-कलापों को देखते रहने के बाद, कल किसी ने मुझसे पूछा, "I think, you like Hindi very much."
मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मुझे पता नहीं कि बांछें कहाँ होती हैं, लेकिन खिल गईं।
मेरा जबाब था, "मैं हिन्दी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खेला हूँ, मैं हिन्दी में रोया हूँ, मैं हिन्दी में हँसा हूँ, मैं हिन्दी में नाराज हुआ हूँ, मैं हिन्दी में खुश हुआ हूँ। मैं हिन्दी में प्यार करता हूँ, मैं हिन्दी में शिकायत करता हूँ, मैं हिन्दी के अलावा यदि किसी और भाषा में भी जबाब देता हूँ तो उससे पहले मैं हिन्दी में सोचता हूँ। कुल मिलाकर, मैं हिन्दी में सना हुआ हूँ।
... और तो और, मैं दिन भर की मेहनत के बाद अपनी हिन्दी की गोद और उसके आलिंगन में सो जाता हूँ। (...और यह कहते-कहते मेरी आँखों की कोरों पर उभर आयी भावनाओं को शायद उन्होंने महसूस किया। मैंने उन्हें छलकने से रोका भी नहीं।)
....कुछ क्षणों के विराम के बाद, मैंने फिर कहना शुरू किया, "हिन्दी मेरी माँ है और संस्कृत को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाएँ मेरी मौसी हैं। दरअसल, संस्कृत मेरी नानी/दादी माँ है।"
पता नहीं, उन्हें मेरी बात कितनी समझ में आयी?
फिर उन्होंने टकले पर खुजलाते हुए पूछा, "What about English?"
Hey, She is my Aunty. I replied.

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - मृणाल आशुतोष जी -2)

लघुकथा - आरक्षण
लेखक - मृणाल आशुतोष जी


हालाँकि शहर की भाँति अब गाँवों में भी स्थितियाँ बदल रही हैं लेकिन गाँव में बड़ों का अभी भी रुतवा वही है, पुराना वाला। पहले तो हालात और भी अजीब थे, इसके एकदम उलट थे। बाप जबतक दिन में एक-दो बार उठा-पटक कर न दे तबतक उसे जैसे लगता ही नहीं था कि वह बाप भी है किसी का। बिना बात के ही हड़का देना जैसे उनकी आदत का अहम हिस्सा होता था।
...मेरा एक मित्र है, रांची से। उसके पिता जी बिहार सरकार में उच्च पदस्थ अधिकारी थे। वे शौकिया सफाचट (बिना दाढ़ी-मूँछ के) रहते थे और इसके विपरीत मेरे मित्र को मूँछ रखने का शौक था। इस बात से उसके पिता जी को तंज करने का मौका जब भी मिलता, वह ताने मार ही देते थे। एकदिन उन्होंने शनिवार को दोपहर के बाद उसे डाकखाने कुछ काम से भेजा। शनिवार होने के कारण दोपहर बाद जब मेरा मित्र पहुँचा तो डाकखाना बंद हो चुका था अतः काम नहीं हुआ। फिर क्या था? जब मेरा मित्र घर वापस आया तो उसे कुछ ऐसा सुनना पड़ा, "तुम, तुम्हारी मूँछ देखकर तो आजकल डाकखाने में भी ताले पड़ने लगे हैं। तुम से होगा ही क्या? मूँछें जो रखते हो।"....ऊपर से मार पड़ी सो अलग..। खैर...

प्रस्तुत लघुकथा में भी गाँव के इसी परिवेश की झलक है। आनन्द जब एस. एस. सी. की परीक्षा पास नहीं कर सका तो इस डर से कि पिता श्री के कोप का भाजन होना पड़ेगा, वह अपने ननिहाल चला गया। ऐसा नहीं है कि नानी के यहाँ सब इस बात से प्रसन्न हुए होंगे लेकिन नानी के घर अक्सर प्यार ज्यादा मिलता ही है और बड़ी से बड़ी गलती माफ कर दी जाती है। ...सो जनाब हो-हल्ला बरगलाने के लिए दो दिन बाद घर पहुँचे और जिम्मेदारी का अहसास देखिए कि इस बात की खबर माँ को दे भी दी थी कि आप नानी के घर जा रहे हैं ताकि बतंगड़ बनने की स्थिति में माँ संभाल ले। आखिर, माँ, माँ ही होती है। उसकी असफलता पर खुशी तो नहीं ही मिली होगी लेकिन माँ के लिए, "सबसे नटखट है मेरा राजदुलारा, सबसे प्यारा है मेरा राजदुलारा।" तो माँ को विश्वास में ले लिया, नानी के घर भी घूम आये लेकिन....पिता श्री के हाथ और जीभ की खुजली कहाँ मिटने वाली थी?
...घर वापस पहुंचने पर जो आवभगत हुई, और जैसा कि होता है, दूसरे सफल बच्चों के नाम ले-लेकर ताने दिए जाते हैं। जब मुहल्ले के दूसरे सफल बच्चों के नाम गिनाए तो आनन्द का जबाब था कि कुछ बच्चे तो आरक्षण की सीढ़ी से पार हुए हैं। आनन्द के इस जबाब के बाद के जो संवाद हैं, उसी में कथा का सार है। जो जाति व्यवस्था के आधार पर आरक्षण पाया है, उसके साथ उनकी जो आर्थिक स्थिति और उनकी दिनचर्या का वर्णन है, वह बहुत ही तार्किक और मनन योग्य है। ऐसा वक्तव्य कोई मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही दे सकता है।
आनन्द के आरक्षण वाले तर्क पर उसके पिता जी का संवाद देखें, "रमुआ के बेटे की बराबरी तू करेगा रे! ओकरा पैर के धुअन भी नहीं है। ऊ सबेरे खेत में काम करता है। स्कूल से आने के बाद गाय भी चराता है। रात में मकई और आम का रखबारी करते हुए पढ़ाई किया है। और एक तुम हो जिसको हम न आटा पिसाने भेजे और न ही कभी पेठिया से तरकारी लाने।" ...और आखिरी पंक्ति पर तो जैसे कथा ऊंचाई पर पहुंच गई - "#इस_हिसाब_से_तो_आरक्षण_तुमको_भी_मिला"। ...और फिर वही बापपना, "आगे से कभी आरक्षण का नाम लिया न तो जूता भिगाकर मारेंगे।"
...और जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ, गाँव में अभी भी सहनशक्ति, बड़ों के गुस्से में छिपा प्यार बच्चे पढ़ पाते हैं। उन्हें न तो अपने सम्मान हनन का डर है, न ही बड़ों की बात को दिल पर रखने की बुरी आदत है। इसी आत्मविश्वास के साथ परिवार के बड़े लोग भी यह कह पाने की हिम्मत रखते हैं कि उनके कड़े व्यवहार के बाद भी बच्चे बुरा नहीं मानेंगे और कोई अनुचित कदम नहीं उठायेंगे।
उत्तर भारत में दक्षिण भारत की तरह यह तय नहीं है कि उन्हें दसवीं-बारहवीं के बाद कमाने के लिए बाहर जाना ही पड़ेगा। तुलनात्मक रूप से देखें तो संयुक्त परिवार की परंपराएं, घर के लोगों से लगाव, अपनी भाषा, जमीन और आपस में प्रेम आदि में उत्तर भारत के लोग आगे हैं। जहाँ दक्षिण भारतीयों में कमाने के लिए प्रदेश-देश से बाहर जाना बहुत ही सामान्य है, वहीं उत्तर भारत में इस पर निर्णय बड़ी देर में और बड़ी सलाह, मशवरा के बाद ही लिया जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि उत्तर भारतीयों के पास विकल्प ज्यादा हैं लेकिन कुछ बातें उन्हें ऐसा करने से पहले बहुत सोचनी पड़ती हैं। ...और आनन्द के पिता जी का यह कहना कि, "देख लो! अब तुम अपना कि दिल्ली जाना है या मुम्बई।" उन्हें बहुत अफसोस है कि उनके आसपास के बच्चे सफल हो गए और आनन्द सफल न हो सका। आनन्द के पिता के इस आदेशात्मक वाक्य में कई अभिव्यक्तियाँ छुपी हैं। जहाँ उन्हें आनन्द के असफल होने का दुख है वहीं अपने ऊपर बढ़ रहे आर्थिक बोझ की भी चिंता है और उसके विछोह का संताप भी। आखिर... बाप जो है। उसकी यही छवि है और उसमें वह सहज है।
इसी अलगाव की चिंता में आनन्द का कथा के अंत में एक वादे के साथ समर्पण, रिश्तों की खूबसूरती का बेजोड़ नमूना है।..और मुँह न दिखाने वाली बात पर कौन न पसीजेगा? लेकिन अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए उसके पिता ने आरक्षण के दंश की हकीकत की स्वीकारोक्ति करते हुए सफलता का मंत्र भी दिया कि डटे रहना है और सर्वश्रेष्ठ बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
इस लघुकथा में मृणाल जी ने एक साथ कई पक्षों को रखा है। जहाँ एक ओर आरक्षण एक गंभीर सच्चाई है, वहीं कठिन परिश्रम, परिवार में बड़ों के सम्मान, उनकी नाराजगी का प्रतिकूल प्रभाव न पड़ना, माँ, नानी के घर और उसके पिता के प्रेम के विविध रूप और साथ में आनन्द के सामान्य सुलभ व्यवहार को बड़ी कुशलता से रचा है। यह रचना आज के शहरी माहौल को बहुत कुछ सीख दे सकती है। आज शहरी अभिभावकों को हर पल यह सताता रहता है कि अगर बच्चों से कुछ कह दिया तो वे कहीं कोई गलत कदम न उठा लें।
मैं इस सुन्दर लघुकथा के लिए मृणाल आशुतोष जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। इस लघुकथा में भी क्षेत्रीय बोली की सौंधी खुशबू का पाठक जरूर आनन्द लेंगे।

'अपनी समझ' के तहत "पुस्तक समीक्षा" - विभाजन की त्रासदी

#पुस्तक - विभाजन की त्रासदी
#लेखक - मुनीश त्रिपाठी जी
#पेज - 199
#कीमत - ₹ 400/- लेकिन अमेज़ॉन/फ्लिपकार्ट पर रियायती कीमत पर डाकखर्च सहित उपलब्ध है।
#प्रकार - सजिल्द
#प्रकाशन - प्रभात प्रकाशन के सह प्रकाशक विद्या विकास एकेडमी, नई दिल्ली द्वारा।

विभाजन की त्रासदी
मेरे प्रिय अनुज, मित्र और पत्रकारिता को अपना पेशा बना चुके मुनीश त्रिपाठी जी द्वारा लिखित पुस्तक "विभाजन की त्रासदी" पढ़ने का सुअवसर मिला।
सबसे बड़ी प्रसन्नता तो इस बात की है कि उन्होंने इस जटिल विषय को लिया। यह विषय निश्चित रूप से न केवल लिखने की दृष्टि से व्यापक है अपितु इसमें दर्ज किस्से भी बड़े पेचीदे हैं। पेचीदे इसलिए कि इसमें जो भी तथ्य दर्ज हैं, पढ़ने के बाद उसकी सत्यता का प्रमाणन हर पाठक के मन मस्तिष्क में घूमता है। इसके लिए मुनीश जी की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। क्योंकि उन्होंने प्रमाणन के सबूत के तौर पर #202 पुस्तकों, आलेखों आदि का संदर्भ दिया है। संदर्भों के व्यापक संकलन को देखकर ही अंदाज लगाया जा सकता है कि इस विषय को पुस्तक के रूप में लाने के लिए उन्होंने कितना श्रम किया होगा।
मुनीश जी ने इस पुस्तक को 'भूमिका' के बाद अनुक्रमणिका के अंतर्गत चार भागों में लिखा है और अंत में विस्तार से "टिप्पणियाँ एवं संदर्भ" भाग में संदर्भ लिखे हैं।
सबसे खास बात यह भी है कि संदर्भों के लिए संबंधित पुस्तकें, आलेख, पत्र-पत्रिकाएं आदि इकट्ठी करने के बाद भी उनको पाठकों के लिए सिलसिलेवार प्रस्तुत करना भी श्रमसाध्य कार्य है। इसका नमूना पाठकों को इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही मिल पायेगा। वैसे तो इस विषय पर पूर्व में इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है, बहुत पुस्तकें भी आयी हैं लेकिन मेरे ख्याल से हमारी पीढ़ी के दौर के किसी लेखक द्वारा लिखी गई यह पुस्तक अपने आप में अनूठी है। इसमें जहाँ पुस्तकों में तथ्य तो पुराने हैं लेकिन लेखक की सोच नई और समसामयिक है जिससे पाठक इसे पढ़ते समय अवश्य महसूस करेंगे।
पुस्तक का आवरण आकर्षक है। मुद्रण भी अच्छा है लेकिन वर्तनी की अशुद्धियाँ जहाँ-तहाँ मिल जाती हैं। ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि यह आजकल के प्रकाशकों के साथ यह आम समस्या है। इसे प्रकाशकों को ध्यान में लेना चाहिए और लेखकों को भी प्रकाशकों के साथ इस मुद्दे पर बात करनी चाहिए।
स्वभाव से सरल, सच्चे और स्पष्टवादी मुनीश जी की यह शोधपरक पुस्तक पाठकों में पहले ही काफी प्रसिद्धि पा चुकी है। आशा है कि यह समय के साथ अपना विस्तार करती रहेगी। इस पुस्तक की सफलता के लिए मुनीश जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।