Powered By Blogger

Sunday, July 28, 2019

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - रतन राठौड़)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय रतन राठौड़ जी। आज उनकी लघुकथा "बर्फ जैसे बाल" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - रतन राठौड़ जी
लघुकथा - बर्फ जैसे बाल

...पुरानी बात है कि "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" और जो नियम प्राकृतिक होते हैं उन्हें किसी छद्म आवरण से न तो बदला जा सकता है और न ही टाला जा सकता है। वह अलग बात है कि अपना मन रखने के लिए, जानबूझकर स्वयं से ही लुका छिपी का खेल खेला जाए। प्रकृति के नियम सब पर समान रूप से लागू होते हैं। क्या जड़ क्या चेतन? क्या महिला, क्या पुरुष?
इसी नियम पर आधारित प्रस्तुत कथा में व्यक्ति के उम्र के साथ होने वाले एक प्रमुख शारीरिक बदलाव को एक नये नजरिये से प्रस्तुति मिली और मुझे उससे दो-चार होने का अवसर मिला।
...तो प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में बदलाव कुछ कहते हैं? क्या असलियत में इन बदलावों के कुछ मायने होते हैं? इसी प्रकार के कई प्रश्न पैदा कर दिए इस लघुकथा ने। इसे लेखक की वैचारिक धनाढ्यता या अमीरी ही कहा जायेगा कि उन्होंने बालों की सफेदी को बर्फ से तौल डाला और उससे आते हुए संदेशों को सुना, समझा।
जी, वही बर्फ, जिससे शीतलता और ठंडक का एहसास होता है। इस कथा में कथा के नायक का संवाद भी एक शीशे यानी दर्पण से कराया गया है। यह दर्पण भी वह किरदार है जो हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। शायद ही कोई इंसान होगा जिसका रोजमर्रा की जिंदगी में शीशे से पाला न पड़ता हो। यह तो वह हमसफ़र सरीखा है जिसने अपने जेहन में हमारे कितने ही राज समेटे होते हैं। और जब मैं यहाँ राज समेटने की बात कहता हूँ तो वह केवल बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक भावों को भी शामिल करना चाहता हूँ। ये शीशा तो हमारी भाव भंगिमाओं कोे रोज-रोज पढ़ा करता है। कभी तो ख्याल आता है कि अच्छा ही है कि इसमें जबान नहीं है। नहीं तो इसे संभालना भी मुश्किल का ही सबब था। फिर दूसरे ही पल भाव भंगिमा वाली बात से ख्याल आया कि काश! इसके जबान होती तो शायद एक अच्छे दोस्त का काम भी करता। यदि मुझे कभी उदास देखता तो हाल पूछ लेता, कभी जरूरत पड़ती तो कोई सलाह ही दे देता या सांत्वना देता। कभी कुछ मेरी सुनता, कभी अपनी सुनाता। खैर....
....तो फिर विवेक बाबू से जब प्रश्न पूछा गया तो वह तो सहम उठे और सकते में आ गए। स्वाभाविक सी बात है कि कोई भी व्यक्ति उस व्यक्ति के प्रश्न सुनना पसंद नहीं करता है जिसे उसने स्वयं पाला हो या उसके होने में उसी का सौजन्य हो। लेकिन आप कब तक किसी की बात को अनसुना करेंगे। सच बात को सभी को एक न एक दिन सुनना ही पड़ता है। और अगर उस सही बात में जीवन के मूल्यों का निचोड़ हो तो फिर तो नकारा भी नहीं जा सकता।

...बालों का रंगना, स्वयं को केवल जवान दिखाने का ही उपक्रम मात्र नहीं है। बल्कि इसमें निहित हैं और भी कई उद्देश या और स्पष्ट कहें तो 'दुर्गुण'। क्योंकि व्यक्ति के अंदर इसका पूरा वैचारिक तंत्र निहित है जो एक चाह से शुरू होकर कई चरणों और पड़ावों से होकर गुजरता है और कहीं अन्य जाकर रुकता है।
अब रचना पर ध्यान दें। विवेक बाबू से संवाद के दौरान आईने ने सबसे पहले सिर के बालों की तुलना बर्फ से की। बकौल आईना, "सिर के ऊपर उगी सफेद बर्फ यानी बालों को काला करके सिर्फ जवान दिखने तक की ही मंशा नहीं है। यहाँ उसके बाद कड़ी जुड़ती है व्यक्ति के क्रोध बढ़ने की। यानी बाल काले करने और जवान दिखने के साथ, समानांतर रूप से क्रोध भी बढ़ता है क्योंकि कहीं न कहीं परोक्ष रुप से जवानी और क्रोध का सुलभ साथ प्राकृतिक और स्वाभाविक है।
अब आईने के दिए संदेशों पर नजर डालें। उसने इस बर्फ अर्थात सफेद बालों के जरिये जो बातें कही हैं, वे बहुत संदेशपरक और काबिले तारीफ हैं। सिर पर सफेद बालों का सन्देश है कि आप शांत रहें, आराम से सोचें और क्रोध से बचें। भौंहों के सफेद बाल नजरों में करुणा और प्रेम के भाव रखने का संदेश दे रहे हैं। मूछों की सफेदी मीठा बोलने और सीने की सफेदी दिल के क्रोध को शांत रखने की बात कहती है, धैर्य रखने का संदेश देती है और किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना से दूर रहने की सलाह देती है।
....और फिर कहते हैं न कि कभी-कभी छोटे मुंह बड़ी बात हो ही जाती है। अंत में दर्पण ने कहते-कहते आखिरी संदेश भी स्पष्ट कर दिया। उसने कहा कि अब जब इस सफेदी के आगोश में आपका पूरा शरीर आ ही गया है तो सारे शरीर की सफेदी या बर्फीली ठंडक से अपनी "वासना की आग" को भी शांत करें।
...लेखक ने कथा का अंत बड़े ही रोचक ढंग से किया है। आईने ने अपने संदेश का अंतिम वाक्य पूरा किया और टूट गया। क्योंकि संभवतः वह अपना लक्ष्य भेद चुका था। हालांकि लेखक अगर यहाँ शीशे को सलामत भी रखता तो रचना पर कोई प्रतिकूल फर्क तो नहीं पड़ता लेकिन पाठकों को शायद उतना रोचक न लगता। यह और कुछ नहीं अपितु लेखकीय कौशल्य का एक नमूना है कि रचना को "चटकाकर" कैसे अच्छा अंत दिया जाये। निश्चित ही ऐसी रचना के लिए नए तरीके की दृष्टि चाहिए। रचना में संवाद शैली भी बड़ी प्राकृतिक सी है जिससे यह अनुभव नहीं होता है कि यह सजीव और निर्जीव के बीच की बात है।
...वैसे सरसरी तौर पर कथा में लयबद्धता है और कहीं किसी प्रकार का झोल नजर नहीं आता है लेकिन जब पाठक थोड़ा गौर करता है तो थोड़ी संशय और असमंजस की स्थिति बनती है।
कथा के शुरुआत में ही विवेक बाबू से पूछे गए प्रश्न में भ्रम और विरोधभास लगा। 'भ्रम' इस बात का कि लेखक ने लिखा है कि - अक्स बोल उठा कि, "आइए, आइए विवेक बाबू। कैसे हैं? बड़े दिनों बाद आई याद हमारी?".... और बाद में जब बात खरीदने की आई तो लगता है यह प्रश्न अक्स ने नहीं, शीशे ने किया था। यह इसलिए और कि बाद की रचना में स्पष्टतः आईने से बात हुई है।
दूसरा, 'विरोधाभास' इसलिए लगा कि विवेक बाबू जैसा व्यक्ति जो सफेद बालों को कृत्रिम रूप से काला करना चाहता है और जवान दिखना चाहता है, वह शीशे को "बड़े दिनों बाद" क्यों याद करेगा? उसका तो रोज ही और दिन में कई-कई बार, सँवरने का उपक्रम चलता रहता होगा। वैसे भी, शीशा तो आम वस्तु है जिसे शायद ही कोई कई दिनों के अंतराल के बाद प्रयोग करता हो। ..और यहाँ तो रंगीले विवेक बाबू की बात है। वह भला शीशे के बिना कहाँ सब्र करने वाले।
मैं रतन राठौड़ जी को इस लघुकथा को लिखने के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। प्रस्तुत कथा की सफेदी उर्फ बर्फ से एक बात याद आयी। फेसबुक पर लघुकथा विषयक विवाद आजकल आम हो चले हैं। क्यों न हम सब लोग इस कथा को पढ़ें, गुनें और सिर के बालों की सफेदी के संदेश को अनुसरण करें, क्रोध को त्याग दें, अच्छा सोचें, शांत रहें और शांति व सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने में सहयोग दें...। मुझे विश्वास है कि सबको लाभ मिलेगा।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - चितरंजन गोप जी)

.'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चितरंजन गोप जी। आज उनकी लघुकथा "ऐतिहासिक भ्रातृ-मिलन" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - चितरंजन गोप जी
लघुकथा - ऐतिहासिक भ्रातृ-मिलन

अभी अभी पर्यावरण दिवस गुजरा। हम सभी ने अपने अपने हिसाब से इसे मनाया। किसी ने पेड़ लगाए, किसी ने लेख लिखे, कहीं व्याख्यान दिए गए...। इसी दौरान मेरे सामने आई गोप जी की लघुकथा "भ्रातृ-मिलन"। हालांकि इस कथा में लिखी तारीखों पर चर्चा हो सकती है लेकिन उनका कोई महत्व नहीं है। अगर इतिहास में जाएं तो बर्लिन की दीवार कोई एक दिन में नहीं टूटी थी। इसे तोड़ने का निश्चय नवंबर 1989 को हुआ था लेकिन दीवार को तोड़ने का काम जून 1990 में आधिकारिक रूप से शुरू हुआ और 1992 तक चला। खैर... जैसा कि मैंने कहा तारीखें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण है गोप जी की प्रस्तुति और उसमें निहित मंतव्य। इस मंतव्य को समझने के लिए प्रकृति को समझना पड़ेगा।
बचपन में हमने स्वर्गीय श्री रामधारी सिंह #दिनकर जी की एक कविता पढ़ी थी:
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो मां, मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

इस सुन्दर बाल कविता में भी प्रकृति के जीवंत होने की बात कही गयी है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति भी वह सब महसूस करती है जो हम मनुष्य या अन्य जीव।
गोप जी की कथा में निहित संवाद को देखें तो चाँद ने अपनी माँ, पृथ्वी को प्रसन्न देखकर सवाल किया कि "आज आप काफी प्रसन्न लग रही हैं। होठों की मुस्कान छुपाए नहीं छुप रही। बात क्या है?"
मेरे लिए कथा यहीं खत्म हो गई। मैंने इतनी कथा पढ़कर पेज 98-99 उलटकर रख दिया और आँख बंद करके प्रकृति (चाँद-पृथ्वी) के इस संवाद को देखने की कोशिश करने लगा कि कैसा रहा होगा "वह दृश्य"?
इस बात को समझना, अनुभव करना और इसकी तह में जाकर अगर मतलब समझ में आ जाये तो फिर पर्यावरण दिवस सालाना नहीं, रोज-रोज का काम हो जाये। और काम भी नहीं, धर्म हो जाये, उत्सव हो जाये। क्योंकि जो काम हम अपनी खुशी से करते हैं, वह उत्सव ही होता है, उसमें न थकान होती है न अवसाद।
....खैर, मैं पाठकों को अधर में नहीं छोडूंगा। कथा आगे बढ़ी। धरती ने अपनी खुशी का कारण बताया कि कल बर्लिन की दीवार ढहेगी और उसके बच्चे (वहां के निवासी) आपस में मिलेंगे फिर प्रेम से रहेंगे।...और फिर उस घटना का घटित होना। कथा समाप्त हुई।
ये निरी काल्पनिक बातें नहीं हैं। इनमें शब्दशः सच्चाई है। तो इसे समझने के लिए जरा प्रकृति की ओर मुड़ना पड़ेगा। वैसे, यह दिव्य ज्ञान हमारे पूर्वजों ने हमें युगों पहले दिया था। लेकिन हम उस मृग की तरह रहे जो कस्तूरी को उसके पास होते हुए भी जंगल भर में भटक-भटक कर खोजता है और असफल ही रहता है।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :
“क्षिति जल पावक गगन समीरा,
पंच रचित अति अधम शरीरा।।”

अर्थात हमारा शरीर इन पाँच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से मिलकर बना है। और हमारा शरीर ही क्यों? सम्पूर्ण प्रकृति की संरचना में भी इन्हीं तत्वों का सौजन्य है। यह बात हम सभी जानते हैं लेकिन जानने और समझने में बहुत फर्क है। आश्चर्य की बात है कि यह सब जानते हुए भी प्रायः हमारा व्यवहार प्रकृति के साथ उस तरह का नहीं होता, जैसा अपेक्षित होता है। उसका कारण है कि इसे शायद हम अपने से अलग मानते हैं। यह अलग बात है कि यह सब जानते हुए होता है।
पर्यावरण दिवस जैसे अवसरों पर अक्सर प्रकृति के संरक्षण की बात, जंगलों को बचाने, पानी के संग्रहण की बात, वायु को प्रदूषित होने से बचाना, आदि कितने ही ऐसे अवसर होते हैं जब हम इनकी पैरोकारी करते हैं और हलफ लेते हैं कि इन्हें हम संरक्षित करेंगे। लेकिन ऐसा बहुत ही कम देखा गया है कि इन्हें लोग गंभीरता से लेते हैं। जब व्यक्ति अकेले में होता है तो वह इन बातों को भूल जाता है क्योंकि शायद उसे लगता कि उसके एक के करने न करने से कुछ नहीं होगा या फिर वह उसके गंभीर परिणामों को कल्पनीय मान कर नजरअंदाज कर देता है।
हमारे प्राचीन काल से ही ग्रंथों आदि से पता चलता है कि इन पाँच तत्वों का क्या महत्व होता है। इसीलिए हमने इन तत्वों के देवता भी निर्धारित किये हैं। हमने समय-समय पर इन देवताओं की आराधना के लिए समय भी निर्धारित किये। शायद इसी कारण से हमने नदियों को माँ का दर्जा दिया। आज भी दक्षिण भारत में पानी के बर्तन की रोज फूल आदि से पूजा होती है।
हमारे ग्रंथों की बातों को हमारे ही देश में कुछ तथाकथितों ने इन पर मजाक बनाया और इनके महत्व को नकारा भी। लेकिन गत वर्षों में प्रकृति के आचरण पर विलायत में वैज्ञानिकों ने इन पर शोध किया तो पाया कि इन तत्वों की स्मरण शक्ति बहुत अधिक होती है और इनका व्यवहार हमारे साथ वही होता है जो हम इनके साथ करते हैं। यह बात बड़ी गंभीर और डराने वाली है। कहते हैं कि जिस पानी के पास झगड़ा हुआ हो, वह पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि कि पानी में वह शक्ति होती है कि वह अपने आसपास उपस्थित नकारात्मक या सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करता है और उसके गुण धर्म उसी तरह के हो जाते हैं। अगर इस बात को हम अपने धार्मिक स्थानों के पानी को प्रसाद के रूप में देने की बात को जोड़ें तो कड़ी जुड़ती सी है। हमारे मंदिरों, गिरजाघर, मस्जिदों, गुरुद्वारों से पवित्र पानी के स्पर्श मात्र से चमत्कारी लाभ के बारे में सबको पता है। अमृतसर में स्वर्णमंदिर में स्थित सरोवर के पवित्र पानी की महिमा किसी से छुपी नहीं है।
मैं चितरंजन गोप जी को इस लघुकथा के लिखने के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। साथ ही समस्त पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि आप सब इस कथा को पढ़ें ही नहीं अपितु इस पर मनन करते हुए प्रकृति के प्रति अपने आचरण को भी बदलें।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - प्रतिभा मिश्रा)

मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया प्रतिभा मिश्रा जी। आज उनकी लघुकथा "सीख" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - प्रतिभा मिश्रा जी

लघुकथा - सीख

किसी के काम, पहनावे से भुलावे में मत आ जाना और यह गलती भी मत कर देना कि उसके चरित्र और चाल का आकलन करने लग जाओ। न, बिल्कुल नहीं। अब समय चला गया जब खतों की रंगत से पता चल जाता था कि पैगाम क्या होगा? किसी के पेशे से उसके हालात को पढ़ने की गलती भी अक्सर हो जाती है। पेशा, करना तो पड़ता ही है क्योंकि ऊपर वाले ने एक पेट जो दिया है। अपना पेट तो ठीक है लेकिन कभी-कभी ऐसे कई पेटों को भरने की जिम्मेवारी भी अगर किसी पर आ जाये तो फिर कभी-कभी दलदल में पांव रखना भी पड़ सकता है। लेकिन घ्यान रहे, जो दलदल में आपको खड़ा दिख रहा है जरूरी नहीं वह उसका हिस्सा भी हो। नहीं, कमल को ही देख लो, खिलता तो कीचड़ में है लेकिन धन की देवी लक्ष्मी जी पर चढ़ाया जाता है। कभी-कभी मजबूरियों के चलते उठाने पड़ते हैं वे कदम जिन्हें "सभ्यता" के समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। उस पर भी ताज्जुब यह है कि जो तथाकथित समाज उसे अच्छा नहीं कहता, अक्सर उन्हीं की हाजिरी लगती है वहाँ। बहुतायत में यही हमारे यहाँ के समाज की कड़वी हकीकत है।
.....तो फिर धर दिया न झन्नाटेदार झापड़। और क्या करे? जिन अय्याशों को रात के अंधेरे और गुमनाम गलियों में रंगरेलियां कराती महिलाएं खुद को परोसती हैं, क्या कभी उनके बारे में सोच पाते हैं लोग? सोच भी कैसे पाएं, जब खुद का ज़मीर गिरबी रखा पड़ा हो? जो अपनी पत्नी और परिवार वालों को धोखे में रख सकते हैं, उनसे उम्मीद ही क्या की जाए? जनाब, सुंदरता और उसके सुर पर मुग्ध हो गए थे। और इतना मोहित हो गए, इतना कि जनाब अपनी माँ का मंगलसूत्र ही ले गए उपहार में। ऐसों की कला पसंदगी क्या, उनका चरित्र क्या?
...लेकिन कहते हैं ना कि चाहे हजारों विषधर भी क्यों न लिपटे रहें चंदन के पेड़ों पर, चंदन कभी अपने मूलभूत गुणों, शीतलता आदि को नहीं छोड़ता है। और वही किया उस महिला ने। जैसे ही उसे पता चला कि सुधीर आज उसके तथाकथित "प्रेम" में पड़कर उसके लिए अपनी माँ का मंगलसूत्र चुराकर लाया है तो जाग गई उसके अंदर की महिला। सुना दिया अपना फैसला कि, "हम लोगों का दिल भले ही बहलाते हैं, किसी महिला को बदनाम नहीं करते।" और फिर हिदायत दी कि अगर दुबारा यहाँ आया तो टाँग तुड़वा ढ़ी जाएगी।
यहाँ सिर्फ लोभ लालच से तिलांजलि की ही बात नहीं है अपितु उसे अपने महिला और दूसरी महिला के सम्मान का भी ख्याल है। उसे खुद के कीचड़ में पड़े होने का एहसास भी है और एक दूसरी महिला का ख्याल भी है, और उस महिला का जिसका एक रूप माँ भी होता है ।...तीसरी सबसे खास बात कि उसे सुधीर की चिंता भी है कि वह वहाँ दुबारा न आये ताकि इस कीचड़ में फँसने से बच जाए। शायद यही सीख थी जो "बाई" ने सुधीर को देनी चाही थी।
किसी ने सच ही कहा है, "नारी तू नारायणी"।।
उपर्युक्त रचना के लिए प्रतिभा जी को बहुत शुभकामनाएँ और बधाई।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अर्चना तिवारी)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अर्चना तिवारी जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'जरीब' और 'खूबसूरत' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अर्चना तिवारी
लघुकथा - जरीब

संयुक्त परिवार में 'अपने-पराए' की कोई बैलेंस सीट नहीं होती। आज की पीढ़ी को ये बात बड़ी मुश्किल से समझ में आ पाती है अगर उन्हें इसका खुद अनुभव नहीं हुआ है। आज के एकल परिवारों की तरह 'तुमने इतना किया तो मैं इतना करूंगा' की तर्ज पर संयुक्त परिवार की नींव नहीं होती है। उसमें तो प्यार और आपसी सामंजस्य एक आधार होता है, बस। कोई सीधा हिसाब-किताब नहीं।
पूर्व में परिवार के सदस्यों का एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना, खुद के नफे, नुकसान की परवाह किये बिना अपनों का भला चाहना, यही सब तो होता था लेकिन आजकल की 'मेरा-मेरा' की संस्कृति ने इन सब व्यवस्थाओं को जैसे खत्म कर दिया है, मिटा दिया है।
अर्चना जी ने अपनी लघुकथा 'जरीब' में यही तो बताने का प्रयास किया है। अक्सर हम संपत्ति आदि के चक्कर में आपसी संबंधों को भी पराया समझ लेते हैं। मीता और दीपा की शुरुआती बात में जहाँ उनके पिता और ताऊजी के आपसी त्याग और प्रेम का चित्रण है वहीं दूसरे दृश्य में उनके चचेरे भाई द्वारा अपनी बहनों के खेतों की मिट्टी को ईंटों के भट्ठे के लिए देना है। भाई के इस काम की वजह जाने बिना, बहनों का उनकी नियति में खोट का देखना, आपसी विश्वास में कमी का बखान करता है। उनके इसी अविश्वास का कारण और आधार बनता है उनके खेतों के बँटवारा।
इस लघुकथा में शहरी और ग्रामीण परिवेश के अंतर भी स्पष्ट हो जाते हैं। शहर के माहौल में पली-बढ़ी दीपा और मीता ने तो जमीन के बंटबारे के बाद जैसे अपने भाई के साथ सारे संबंध ही खत्म कर लिए थे और वे शाम होने के बावजूद शहर वापस आने के लिए तैयार हो जाती हैं। क्योंकि उनके अनुसार अब उनका कोई हक ही नहीं बनता कि वे यहाँ रुकें।....लेकिन तभी उनकी भतीजी और फिर बाद में उनके भैया का खाना खाने और रात में उनके लिए साफ कराये कमरे में रुकने का आग्रह, आज भी लोगों में बची संवेदनाओं का परिचायक बनता है। बड़े भैया और उनके परिवार का इतना सब होने के बाद भी अपनत्व भरा व्यवहार, मीता और दीपा का हृदय परिवर्तन कर देता है और अन्ततः वे अपनी खेती भैया को ही बटाई पर देने को तैयार हो जाती हैं।

प्रस्तुत रचना में कुछ बातों का ध्यान रखने से कथा और सशक्त बन सकती थी। एक तो रचना में काल खंड दोष है। दूसरा - बड़े भैया का समझाना स्पष्ट नहीं हुआ कि उन्होंने भट्ठे के लिए बहनों वाला हिस्सा क्यों चुना। तीसरा - अगर काल खंड दोष को ध्यान में रखा जाता तो शब्द संख्या भी कम हो सकती थी।
******


लेखिका - अर्चना तिवारी
लघुकथा - खूबसूरत

इस लघुकथा में अर्चना जी ने उस व्यक्ति के मनोभावों के बारे में लिखा है जो मरीज तो है लेकिन उसे अपने रोग निदान की चिंता कम और संभवतः वहाँ कार्यरत नर्सों और उनकी सुंदरता निहारने में ज्यादा रुचि है। उसका तो मकसद ही यहाँ आना जैसे अपनी बीमारी के इलाज के साथ वहाँ की स्वास्थ्य सेविकाओं को देखना भी था। उसे तो यह भी लगता है कि अस्पतालों में अच्छी सुविधाओं की कमी भले ही हो लेकिन कम से कम सुंदर दिखने वाली नर्सें तो होनी ही चाहिए।
.....और इसी तरह के विचार उसके मन में इतने ज्यादा आते हैं कि वह उनसे पूरी तरह ग्रसित हो जाता है। इस बात की पुष्टि इस बात से हो जाती है कि जब अगली सुबह नर्स बगल वाली लड़की की जांच करते हुए इन महाशय से बात करती है और उसके 'कैसी तबियत है, सर...?' के जबाब में इनका कहना- 'खूबसूरत'।
पहली रचना की तरह इस रचना में भी काल खंड दोष है, दूसरा मरीज का 'नर्स' के बारे में ही सोचना आवश्यकता से ज्यादा प्रतीत होता है। हालांकि, रचना इसी बात को केंद्र में रखकर लिखी गई है, फिर भी इसे कम किया जा सकता था।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अरुण गुप्ता)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय अरुण गुप्ता जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'बुद्ध की वापसी' और 'मजबूर' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - अरुण गुप्ता
लघुकथा - बुद्ध की वापसी
सीखने और सिखाने की कई विधियां बताई गई हैं लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि खुद करके देखना और जीवंत घटनाएं, जो सामने घटित होती हैं, उनके सामने अन्य विधियां कमतर कारगर हैं। दूसरी एक बात और शिक्षा से जुड़ी है वह यह कि पुस्तकें व्यक्ति की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। वो बात अलग कि आपको पुस्तकों का चयन बड़ी सावधानी से करना होता है।
अरुण गुप्ता जी की लघुकथा 'बुद्ध की वापसी' में उन्होंने घर में आज के आधुनिक परिवेश में बहू-बेटे का बड़ों/बुजुर्गों के साथ होने वाले व्यवहार को दर्शाया है। उनका यह व्यवहार उस समय और महत्वपूर्ण हो जाता है जब बुजुर्ग शारीरिक/ मानसिक बीमारी से त्रस्त हों।
अगर कुछ अपवादों को अलग रख दें तो अक्सर यह भी देखा गया है कि समाज में व्याप्त माहौल से लोग बहुत पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि यह तो होना ही है। जैसे हर सास को अंदेशा रहता है कि उसके लड़के की बहू उससे झगड़ा करेगी ही। बहू भी यही सोच कर आती है कि डोकरी तो चैन से बैठने ही न देगी। और बहुत से परिवारों में ये पूर्वाग्रह ही आपसी मन-मुटाव व झगड़े के कारण बनते हैं।
अब इस कथा में ही देख लीजिए। सुलक्षणा को अपनी बीमार सासू माँ की देखभाल की जिम्मेवारी नहीं है क्योंकि उसके पति ने उनकी देखभाल के लिए नौकरानी रख दी है लेकिन फिर भी उसे शान्ति कहाँ? बहू को कुछ नहीं तो नौकरानी के खर्चे के नाम पर ही सासू माँ को उल्टा-सीधा सुनाना है, उलाहने देने ही हैं। इस क्रम में वह यह भी भूल गई कि बीमार माँ जब यह सुनती होगी तो उन्हें कितना मानसिक कष्ट होता होगा और इससे इतर कि भविष्य में उसे भी एक दिन उस अवस्था से गुजरना पड़ेगा। संतानें ऐसी अवस्था में यह भी भूल जाती हैं कि उनके इस तरह के रूखे व्यवहार का उनके अपने बच्चों पर कितना दुष्प्रभाव पड़ता होगा?
खैर...कहते हैं ना, अंत भला तो सब भला। अरुण जी ने बड़ी ही कुशलता से बहू को उसके भविष्य की झांकी दिखा ही दी। जैसे ही उसके बेटे ने गौतम के बुद्ध होने के पहले की कहानी पढ़नी शुरू की, उसे एहसाह होने लगा कि एकदिन जीवन के इस पड़ाव से उसे भी गुजरना पड़ेगा जिससे आज उसकी सास गुजर रही है। गौतम और उनके सारथी के वार्तालाप ने जैसे उसके ज्ञान चक्षु खोल दिये हों।
....और जैसे ही उसे इन बातों का एहसास हुआ वह तुरंत सास को सहारा देने के लिए उठती है जो उसी समय लाठी के सहारे से घिसटती हुई शौचालय की तरफ जा रही थी। और ठीक उसी समय....एक और अच्छी बात हुई। जहाँ बहू का हृदय परिवर्तन हुआ, वहीं पोते में भी यह अच्छी भावना दिखी। ..क्योंकि वह अपनी दादी की मदद के लिए अपनी माँ से पहले ही पहुँच चुका था।
लघुकथा का कथानक बहुत सुंदर है। प्रस्तुति में बहू (सुलक्षणा) के पति और पुत्र दोनों को 'बेटे' नाम से संबोधन के कारण शुरू में थोड़ा भ्रम/असमंजस पैदा होता है जो कि क्षणिक है अन्यथा कथा का प्रवाह अच्छा है।
******
लेखक - अरुण गुप्ता
लघुकथा - मजबूर
इसे मोह की अतिरेकता ही कहेंगे कि व्यक्ति को लगता है कि वह है तो दुनिया है। ये परिवार के जिम्मेदार लोगों की बड़ी निर्दोष सी भावना है। इस भावना में घमंड कहीं लेश मात्र भी नहीं है। वे तो बस चाहते हैं उनके अपने किसी भी परेशानी से बचे रहें।
ऐसा ही मानव सुलभ भावनाओं का अरुण जी ने अपनी दूसरी लघुकथा 'मजबूर' में चित्रण किया है। इसमें एक बाप मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार अपने बेटे को घर से निकाल देता है। इसके पीछे उसकी यह सोच है कि उसका बेटा फिर लौटकर न आये तो शायद वह अपने बेटे की परेशानियों को देख न पाएगा और सुकुन से मर तो सकेगा। पर हर बार फिर उसे ढूंढने भी जाता है कि बेचारा कहाँ भूखा, प्यासा भटक रहा होगा। इसमें एक बाप भावनात्मक तौर पर अंतर्द्वंद से गुजर रहा है। उसे अपनी पत्नी की मौत का दुख भी है, अपने सुकूं से मरने की चिंता भी है, इसलिए बेटे के मरने की सोच रहा है। दूसरी तरफ यह भी सोच रहा है कि उसके मरने के बाद बेटे का क्या होगा? और इन्ही सबके कारण वह स्वार्थी हो गया है।
अरुण जी ने इस कथा में बच्चे की शारीरिक और मानसिक बीमारी की स्थित में सामान्य व्यक्ति की मनोदशा का सुन्दर चित्रण किया है।
ज्ञात हो 'सेरिब्रल पैल्सी' नाम की बीमारी के सफल इलाज की दर कम है और इसका इलाज महंगा भी होगा। संभवतः इसी कारण अति चिन्ताशील होने के बाद भी पिता द्वारा बच्चे की बीमारी का इलाज कराने के प्रयत्न का भी जिक्र नहीं है।
******
उपर्युक्त दोनों सुन्दर लघुकथाओं के लिए अरुण गुप्ता जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
सादर,

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अम्बुजा मलखेड़कर)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अम्बुजा मलखेड़कर जी। आज उनकी लघुकथा 'समाज के योग्य' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अम्बुजा मलखेड़कर
लघुकथा - समाज के योग्य

जितनी बड़ी अट्टालिका हो, जितनी बड़ी प्रिसिद्धि हो, जितना बड़ा नाम हो, उस पर उतनी ही ज्यादा गंदगी की संभावना होती है। स्वाभाविक सी बात है। न उसकी ऊंचाई तक सबकी नजर पहुंचती है और न ही वहां तक नजर उठाने की सबकी हिम्मत। चकाचौंध से फिजाओं में पनपने वाली गंदगी को उसमें छिपने को बड़ी-बड़ी घुमावदार, रंग-बिरंगी और आकर्षक आकृतियों का सहारा जो मिल जाता है। इनकी अंदरूनी सफाई न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है? इनका बाहरी सौंदर्य ही इतना कि भीतर पूछता कौन है? जो बाहर से उसके दीदार से अपने आप को धन्य समझते हैं, उन्हें शायद अंदाजा भी नहीं होता कि उसी आलीशान महल में बड़े भयानक सच अपनी पैठ बनाये बैठे हैं। कभी स्याह रातों में भूले भटके आ तो जाइये उधर। उस भव्य इमारत में रात के अंधेरे में नृत्य करते हैं विषैले सर्प, मौकापरस्त लोमड़ रोते हैं किसी मासूम जानवर की तलाश में, उल्लू और चमगादड़ रात में देखपाने की दिव्य दृष्टि से अपने शिकार की तलाश में जैसे लार टपका रहे होते हैं।
....और इन्ही में से नीले लंपट लोमड़ की शिकार होते होते बची अम्बुजा जी की लघुकथा की मुख्य पात्र सुनंदा। क्यों 'सर' के भेष में उगे हर 'शिकारी' को ताजा-ताजा और स्वादिष्ट मांस ही दिखाई देता है चारों तरफ? क्या इसलिए कि उन्हें अपनी उपलब्धियों के सिवा और कुछ दिखाई ही नहीं देता? क्या वह सोचते हैं कि युगों से पुरुष की वहशी मानसिकता में पिसती रही महिला का आज भी कोई आत्मसम्मान नहीं है? कुछ पोथियाँ जैसे किसी को भी उसके शयनकक्ष तक स्वत: ही खींच लाएंगी? थू है ऐसी विकृत मानसिकता पर।

खबरदार, जंगल के तथाकथित स्वयम्भू 'सर', अब गलतफहमी के शिकार न रहें। सुनंदा के रूप में हिरणियों ने तुम्हारी गुफा में जाकर फंसने वालों के पंजों के निशान पहिचान लिए हैं। उन्होंने देख लिया है कि इस गुफा में जाने वालों के निशान तो हैं, लेकिन वहां से सुरक्षित आने वालों के लिए नहीं? हर किसी को एक ही खूंटे से बांधने की समझ रखने वाले 'सर' को सुनंदा ने पटखनी दे ही दी।
कलई खुलने के बाद भी 'सर' के अंदर का शकुनि हार नहीं मान रहा। कहता है, 'मतलब, तुमने भी मुझे वैसा ही समझा?' लेकिन सुनंदा ने भी शोध 'गूगल से सर्च' करके नहीं की थी। उसे इस शोध यात्रा में तुम्हारे जैसों धूर्तों से भी दो-चार होना पड़ा होगा। और उसकी इस यात्रा की सीख ने उसे किसी की उपलब्धियों की चमक के भ्रमजाल से खुद को बचा लिया।
...और 'सर' के लिए अंगूर खट्टे हो गए।
....शत-प्रतिशत तो नहीं लेकिन कमोवेश हर चमकती चीज से संपर्क ज्यादा रहे तो खुद में चमक आने का भ्रम, त्वचा की रंगत और आंखों की सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ना अवश्यसंभावी है।
प्रस्तुत कथानक तो एक उदाहरण मात्र है। इसी के समानांतर अन्य क्षेत्रों में भी कमोवेश वहशी मानसिकता का सूचकांक ऐसा ही है। यहाँ हेमामालिनी जी का 'बागबान' फ़िल्म का डायलॉग बरबस ही याद आ गया - "महिलाओं के लिए जमाना कभी नहीं बदलता"।
अम्बुजा जी ने अपनी सुंदर लघुकथा के माध्यम से संबंधित क्षेत्र में व्याप्त गंदगी को उजागर कर मासूमों को बड़ी सीख दी है। अम्बुजा जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अमरेन्द्र सुमन)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय अमरेन्द्र सुमन जी। आज उनकी लघुकथा 'मुड़कटवा' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - अमरेन्द्र सुमन
लघुकथा - मुड़कटवा
..... बिल्ली आ जाएगी, जूजू आ जाएगा, बन्दर, डॉगी और यहाँ तक कि भूत-चुड़ैल आदि का डर दिखाकर अक्सर दादी, माँ या परिवार के अन्य लोग नौनिहालों से वह काम करा लेते हैं जिसे वे आनाकानी करते हुए आसानी से नहीं करते और एक बार के कहने पर तो बिल्कुल नहीं।
बच्चों को किसी अनजान जीव या वस्तु का भय दिखाकर बड़ों की इच्छा का काम त्वरित हो तो जाता है लेकिन शायद वे बच्चों के कोमल मन पर होने वाले उसके दूरगामी नकारात्मक परिणामों से जाने-अनजाने अनभिज्ञ रहते हैं। अधिकतर लोगों को तो पता ही नहीं होता कि इन बनावटी चीजों का डर दिखाकर कहीं न कहीं आप उनपर अत्याचार कर रहे होते हैं। उनको स्वच्छंदता से जीने के अधिकार पर अपना अनाधिकार जमा रहे होते हैं। कहते हैं बालक मन कुम्हार की कच्ची गीली मिट्टी की तरह होता है। वह इस मिट्टी को जो आकर देना चाहे दे सकता है। यह मनोवैज्ञानिक बात है। बचपन में जो बात मन में बैठ जाती है वह बालक/बालिका का व्यक्तित्व बनाने में बहुत बड़ा किरदार अदा करती है। यह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर समान रूप से लागू होती है।
अमरेन्द्र जी ने अपनी लघुकथा 'मुड़कटवा' में इसी बात को दर्शाया है। माँ और दादी की मुड़कटवा वाली कृत्रिम बात और उस पर आधारित कहानी ने अंकित के मन में भय बैठा दिया था। उसे डर था कि वह भी कहीं पड़ोस के बच्चे की तरह एकदिन अपने परिवार से अलग न हो जाए। कालांतर में वह बड़ा भी हुआ, बड़ी नौकरी भी मिली, परिवारीजन खुश भी हैं लेकिन अंकित के मन में मुड़कटवा आज भी घर बनाये बैठा है। वह आज भी उसी भय को ढो रहा है। माँ, दादी ने बचपन में उसे गलत जबाब से संतुष्ट किया और माँ के पास अंकित के प्रश्न कि "माँ, मुड़कटवा अब क्यों नहीं आता?" का आज कोई जबाब नहीं है। माँ तो माँ होती है, बड़ी भोली होती है। अंकित के मन के उठते झंझावात से दूर आज भी बचपन में किये गए अपने काम के लिए माँ, बस मुस्कुरा रही है।
....माँ और परिवार के लोगों को आज बहुत ख़ुशी है उसकी बड़ी नौकरी और उपलब्धियों पर लेकिन उन्हें इस बात की संभावना का अंदाजा भी नहीं कि अगर उन्होंने अंकित के मन में बचपन में वह कृत्रिम भय न बैठाया होता तो संभव था कि अंकित और भी ऊंचाइयों को छू रहा होता होता। कौन जानता है?? भय के ढोते हुए जीना कदम-कदम पर कदम पीछे खींचने के विचार देता है।
अमरेन्द्र सुमन जी को उनकी लघुकथा 'मुड़कटवा' के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अपर्णा गुप्ता)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अपर्णा गुप्ता जी। आज उनकी लघुकथा 'आई लव यू' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अपर्णा गुप्ता

लघुकथा - आई लव यू

आजकल के फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि के जमाने में जहाँ सार्वजनिक रूप से प्यार का इजहार करना और जताना जितना आसान है वहीं आज के कई दसक पहले ये इतना आसान नहीं था। संयुक्त परिवार, उनके अपने कायदे कानून और तथाकथित तहजीब के नाम पर अक्सर लोग पति-पत्नी एक-दूसरे की तारीफ करना, शब्दों में प्यार जताना जैसे भूल ही जाते थे और समय के साथ ये उनकी आदत में आ जाता था।
प्रस्तुत लघुकथा में अपर्णा जी ने इसी बात को कहने की कोशिश की है। पता नहीं लोगों ने प्यार को उम्र के पड़ावों से क्यों जोड़ रखा है। शायद इस मनोभाव के पीछे शारीरिक सुंदरता ही प्रमुख कारण रही होगी जबकि प्यार का एहसास तो अंदर की बात है जो उम्र के किसी पड़ाव पर कम नहीं होता।
आजकल की देखा देखी बुजुर्गों में कहीं न कहीं टीस तो उठती ही है कि उनके जीवन साथी ने खुलकर कभी उनकी तारीफ में कसीदे नहीं पढ़े और इसी कारण जब वे एकदूसरे को सजते संवरते देखते हैं तो एक-दूसरे को उलाहने देने लगते हैं।
इसी दिखावी उलाहनेवाजी और वास्तविक प्यार को फेसबुक के सहारे सार्वजनिक करती हुई है यह लघुकथा 'आई लव यू'। इस सुंदर कथा के जरिये लेखिका ने यह भी बताने की कोशिश की है कि भले ही आप एक दूसरे से सच्चा प्यार करते हैं लेकिन उसका समय-समय पर इजहार करना भी जरूरी है, फिर चाहे उम्र कोई भी हो। इससे निश्चित ही दाम्पत्य जीवन में जीवंतता का प्रवाह बना रहता है।
उपर्युक्त लघुकथा के लिए अपर्णा गुप्ता जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अनिता ललित)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनिता ललित जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'जाले' और 'सच्ची जीत' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अनिता ललित
लघुकथा - जाले

इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हमारे यहाँ प्राचीन काल में समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए काम और योग्यता के आधार पर बनाई गई जातिगत व्यवस्था आगे चलकर जन्म आधारित होने के कारण समाज को बाँटती चली गई।
हालांकि, आज इस बाँटने वाली जातिगत व्यवस्था में बहुत सुखद बदलाव देखे जा सकते हैं। इन सुखद बदलाव के कारण हैं, लोगों का शिक्षित होना, समझदार होना, आदमी को आदमी समझने की समझ होना, आदि। जैसे-जैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं, समाज से जाति पर आधारित छुआछूत की समस्या बहुत हद तक खत्म हो चुकी है, हो रही है। लेकिन जहाँ शिक्षा की कमी है, समझदारी की कमी है, यह बीमारी आज भी जड़ से खत्म नहीं हुई है। अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे लोगों के मन में ये जातिवाद के 'जाले' अभी भी लगे हुए हैं, चाहे वर्तमान में वह किसी भी जाति से ताल्लुक रखते हों। व्यक्ति का अशिक्षित होना इस समस्या के मूल में है।
समाज में अभी भी व्याप्त इस समस्या की अनिता जी ने सुंदर झलक दिखाई है अपनी लघुकथा 'जाले' में। जिसमें वर्तन धोने वाली महिला अपने आप को झाड़ू लगाने वाली से ऊंचा मान रही है और उसे अपनी तस्तरी छूने पर एतराज जता रही है। इसी तरह दूसरे दृश्य में वही झाड़ू-पौंछा करने वाली महिला अपने आप को स्नान-गृह साफ करने वाली से ऊंचा मान रही है और उसके बारे में जातिगत टिप्पणी कर रही है। यहाँ झाड़ू लगाने वाली महिला यह भूल जाती है कि जो व्यवहार उसे अपने लिए पसंद नहीं, जिस बात पर उसे बहुत दुख हुआ, वही वह दूसरों के लिए कर रही है। अक्सर लोग दूसरों पर आपत्ति तो दर्ज करते हैं लेकिन वे भूल भी जाते हैं कि तीन उंगलियां उनकी अपनी तरफ हैं। इस बाबत कहीं पढ़ा हुआ एक शेर याद आ गया :
उम्र भर गालिब, यही भूल करता रहा,
धूल चेहरे पर थी और आईना साफ करता रहा।

*'जाले' में काल खंड का जाला है, जिस पर लेखिका महोदया द्वारा ध्यान दिया जा सकता था।
*******
लेखिका - अनिता ललित
लघुकथा - सच्ची जीत

"तोल-मोल के बोल और समझदारी" आज के तनाव भरे माहौल में जीवन जीने के मूलमंत्र हैं। अनिता जी ने इन्हीं मंत्रों को अपनी लघुकथा 'सच्ची जीत' में एक परिवार के ताने-बाने में बुना है। अक्सर व्यक्ति अपने साथ हुए, दूसरे के बुरे व्यवहार की सजा किसी तीसरे के साथ वही व्यवहार करके देता है। और जब यह तीसरा कोई अपना हो तो फिर तो ज्यादा समय भी नहीं लगता। लेकिन जिसे बोलने से पहले थोड़ा 'आकलन' करने की कला आ जाये वह अपनी और दूसरों की जिंदगी आसान बना सकता है।
.....वही तो रवि ने किया। जब वह दिन भर का थका-हारा घर आता है, पत्नी पानी का गिलास लिए खड़ी है और वह पिताजी का चश्मा ठीक कराने उल्टे पांव ही लौट जाता है और जब लौटता है तो पुराने चश्मे को न केवल ठीक करा लाता है, साथ में एक नया चश्मा भी लाता है ताकि उन्हें अगली बार जब एक चश्मा टूट जाये तो परेशानी न हो।
....और जैसा कि कहा गया है, समझदार लोग सामंजस्य बना ही लेते हैं। इस सुंदर सी लघुकथा में जहाँ एक तरफ रवि ने पिताजी के चेहरे पर खुशियां ला दी वहीं दूसरी तरफ अपनी तर्कसंगत और व्यवहारिक बातों से न केवल पत्नी की तल्खी को खत्म किया बल्कि उसके हृदय को पिघला भी दिया। साथ ही, जैसे कि लोग मौके की तलाश में रहते हैं, रवि ने भी चुहल में ही सही, सुन्दर मौका देखते ही पत्नी को भी कह दिया कि 'और देखो न! मैं तो तुम्हारे ताने भी खामोशी से सुन लेता हूँ...'। यही तो दाम्पत्य जीवन की ऊर्जा है।
हालांकि पिता जी का हड़की वाला उलाहना और रवि की पत्नी से स्वाभाविक बातचीत थोड़ी बड़ी हो गयी लेकिन लगभग 500 शब्दों के दायरे में सुंदर बन पड़ी 'सच्ची जीत'।
******
उपरोक्त 'मेरी समझ' में वर्णित दोनों लघुकथाओं के लिए अनिता ललित जी को बहुत शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अनीता मिश्रा 'सिद्धि' )

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनीता मिश्रा 'सिद्धि' जी। आज उनकी लघुकथा 'टूटा चश्मा' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका- अनीता मिश्रा 'सिद्धि'
लघुकथा - टूटा चश्मा

...अब पश्चाताप करने से क्या होगा? वो कहावत है ना, अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत।
पता नहीं, कहाँ से प्रथा चली कि श्राद्ध के समय हमारे पुरखे कौए के रूप में आकर खीर-पूड़ी, मेवा आदि खाने आते हैं और खुश होकर हमें आशीर्वाद देते हुए स्वयं मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं और हमारे स्वर्ग जाने का रास्ता पक्का कर जाते हैं।
अगर इन बातों में जरा भी कोई वैज्ञानिक तथ्य होता और सच्चाई से जर्रा भर भी नजदीकी होती तो आज कौओं की नश्ल खत्म होने के कगार पर न होती। पुरखे, कौओं के रूप में जन्म लेकर उनकी संतति का संतुलन बनाये होते।
...और न ही किसी समृद्ध पंडित-पुजारी को खिलाने-पिलाने और दान देने से हमारे पुरखों को तृप्ति और सद्गति मिलने वाली है। लोग दुनिया के आडंबरों की भेड़चाल में भले ही ये सब करते रहें लेकिन यदि उन्होंने पुरखों को जीते जी खुशियां न दी हों तो फिर उन्हें वास्तविक आत्म संतोष नहीं मिल सकता।.... और यही हुआ इस लघुकथा के नायक करन के साथ।
उसने पितृ-पक्ष सप्ताह में मातृ-तिथि को ब्राम्हणों को खाना खिलाया, दान-दक्षिणा दी लेकिन असली संतुष्टि नहीं मिली। मिलती भी तो कैसे? जो बेटा जीते जी अपनी माँ का चश्मा ठीक नहीं करा सका, उनसे प्यार के दो बोल नहीं बोल सका। जिसकी पत्नी ने माँ को चश्मे के अभाव में देख न पाने के कारण काम करते वक्त हुई छोटी-मोटी गलतियों पर खरी-खोटी सुनाई हों, उन्हें जलील किया हो, उनके मरने की कामना की हो, ऐसे में उनके इंतकाल के बाद इन ब्राम्हणों को पूजने से क्या मिलने वाला है? कुछ भी तो नहीं।
....इस कथा में भी विवशता से जिंदगी को कढ़ोरती हुई बुढ़िया माँ के साथ वही हुआ जो अक्सर बुजुर्गों की अपनों द्वारा अनदेखी करने पर होता है। बेटे-बहू के चश्मा ठीक न कराने से बेचारी माँ बिना चश्मा के एक दिन दुर्घटना का शिकार हो काल का ग्रास बन गई। दवाख़ाने जाते समय जब उनको थोड़ा सा होश आया तो उस हालात में भी उनके मन में बहू-बेटे की झिड़कियों का भय और मन में पनपा अपराध बोध उनके शब्दों में साफ झलकता है। वे बेचारी गंभीर घायल अवस्था में थीं, फिर भी यह कहते हुए कहीं क्षमा प्रार्थी सी लग रही थीं कि, 'टूटे चश्मे की वजह से आज मैं जल गई, देख ना सकी आग को'....
इस लघुकथा में बड़ी ही स्पष्ट सीख है कि माँ-बाप, बुजुर्गों की जो भी सेवा करनी है, जो प्यार देना है, जो खिलाना-पिलाना है, उन्हें उनके जीते जी देदो। उनके इस दुनिया से जाने के बाद कौओं और पंडो-पुजारियों की तोंद बढ़ाने से कुछ न मिलने वाला है। न आशीर्वाद, न संतुष्टि सिवाय पश्चाताप के।
अनीता मिश्रा सिद्धि जी को इस सीख भरी सुन्दर लघुकथा के लिये बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
** ** ** ** **
(टिप्पणी - उक्त 'मेरी समझ' में श्राद्ध आदि के समय पर किये गये सामाजिक भलाई के कार्यों जैसे गरीबों को भोजन कराना, उनके इलाज, पढ़ाई-लिखाई, कपड़ों-लत्तों का प्रबंध करना, आदि का कतई विरोध नहीं है।)

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखिका - अनीता झा)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज की लेखिका हैं आदरणीया अनीता झा जी। आज उनकी लघुकथा 'अब्बू' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखिका - अनीता झा 
लघुकथा - अब्बू

आज चाहे जितनी भी आधुनिकता आ गयी हो, पश्चिमी सभ्यता के हावी होने का रोना रोया जा रहा हो, मानवीय संवेदनायें अभी भी बाकी हैं, मेरे दोस्त।.... ऐसा ही कुछ लिखा है अनीता जी ने अपनी लघुकथा 'अब्बू' में।
आशिमा ने भले ही माँ-बाप की सहमति के बगैर एक साधारण गाइड से शादी की हो लेकिन उसकी अपने माँ-बाप के प्रति प्रेम में कहीं कोई कमी नहीं आयी है। लेखिका ने बड़ी कुशलता से नई पीढ़ी की अपनी इच्छाओं पर अपने मन की करने के बाबजूद यह बताने की कोशिश की है कि अगर कोई लड़का/लड़की अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुनते भी हैं तो इसके अन्य मतलब न निकाले जाएं क्यों कि ऐसा करने से न तो उनका परिवार के प्रति प्रेम कम होता है और न ही कोई अन्य बुरी भावना पनपती है। तभी तो जैसे ही आशिमा को अपने पिता के व्यवसाय के ठप होने का संदेश मिलता है तो वह बिना देर किए अपने पीहर दौड़ी चली आती है और पिता से शिकायत करती है कि आपने मुझे खबर क्यों नहीं दी? पिता के जबाब से आशिमा का शक और वह अपराध बोध क्षीण हो जाता है जिससे वह इस संशय में थी कि शायद पिता जी ने उसे उसके मन मर्जी की शादी करने से बेगाना समझ लिया था।
इसके साथ ही बच्चों के लिए भी यही संदेश है कि अगर माँ-बाप आपकी किसी बात, किसी काम से खफा हैं तो उस नाराजगी की परिधि भी बड़ी ही सीमित होती है अर्थात उनकी नाराजगी उस मसले तक ही सीमित होती है। इससे उनके प्यार में कोई कमी नहीं आती है। क्यों कि आशिमा के सवाल के जबाब में जब पिता कहता है कि, 'एकबार मैंने कोशिश की तो थी उसे बताने की, लेकिन उसकी बेटी को वसीम की गोदी में खेलता देखकर उसे आशिमा का बचपन याद आ गया और वह बिना मिले ही लौट आया'।
माँ-बाप का दिल कितना बड़ा होता है, इस बात की अच्छी तस्दीक की अनीता जी ने। इतनी परेशानियों के बाबजूद पिता अपनी बेटी की खुशहाल जिंदगी में खलल डालने से हिचक गया था।
अनीता झा जी को इस सुंदर लघुकथा के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अनिल शूर आज़ाद)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं श्री अनिल शूर आज़ाद जी। आज उनकी दो लघुकथाओं 'माँ', और 'अनाम पल' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - अनिल शूर आज़ाद 
लघुकथा - माँ

'माँ' क्या कहने, यह शब्द ही ग्रंथों का ग्रंथ है। और ऐसा ग्रंथ जिसमें जितना भी लिखो, कलम बौनी ही रहती है।
माँ, 
निराशा पे आशा,
प्यार की परिभाषा..

....ऐसा ही कुछ लिखा है अनिल जी ने इस लघुकथा में। इस कथा के शीर्षक ने शुरू से ही भावनाओं में बाँध लिया पाठक को। अमूमन, हम जब भी माँ से दूर होते हैं तो उनकी यादों की चादर घेर ही लेती है। ..और यहाँ तो आज मौका ही माँ की अस्थियों को ले जाने का है। कोई चाहे भी तो कैसे और कुछ सोचे? मन के भावों को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि किस तरह वह माँ के अंतिम संस्कार के समय भाव विव्हल हुआ था। मित्र, रिश्तेदार तो कोशिश करते ही हैं लेकिन मन को 'माँ' के नहीं रहने की बात कहाँ समझ में आती है?
कथा के अंतिम भाग में तो जैसे प्यार का समंदर ही उड़ेल दिया गया, जब 'उसने माँ की अस्थियों का 'लाल थैला' उतारा और अपने साथ भींच कर सो गया। जैसे उसे मरुस्थल में कोई छाया मिल गई हो, जैसे प्यासे पर पानी की कुछ बूंदे छिड़क दी गई हों, जैसे थककर आये बालक को माँ का आँचल मिल गया हो, जैसे....
या खुदा, तू सबकी माँओं को सलामत रख।
आमीन।

*******
लेखक - अनिल शूर आज़ाद 
लघुकथा - अनाम पल

'अनाम पल' में अनिल जी ने एक और दृश्य ले लिया रेलगाड़ी में यात्रा के मनोरम पलों का। यह लघुकथा आज के लेखकों या किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्ध पा रहे या पा चुके लोगों को परोक्ष रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण संदेश देती है। आज जहाँ प्रसिद्धि पाने की ललक जोरों पर है, रातों रात मित्रों की संख्या, अनुसरण करने (Followers ) की संख्या बढ़ाने की जद्दोजहद और महिलाओं से मित्रता करने की हूक जो रह-रहकर उठती है, उस पर एक सीख भी है यह लघुकथा। लेखकों को दूसरों की जिंदगी में झाँकने और दखलंदाजी से अपने आपको नियंत्रित करना चाहिए।
"..या फिर....ज़रा आगे बढ़कर उसका चेहरा ही देख ले। पर नहीं ......बलात उसने अपने आप को रोक लिया। उस भली औरत के निजी पलों में झाँकने की गुस्ताखी तो वह कर ही चुका था।" .. ... इन पक्तियों में शूर साहब ने बड़े ही सुन्दर ढंग से ऐसी परिस्थितियों में मन के अंदर उठने वाले भावों को, दूसरे की भावनाओं को समझते हुए कैसे नियंत्रण में लाना है, बड़े ही सुन्दर ढंग से रचा है।
...वैसे अगर लेखक महोदय सकारात्मक हैं तो फिर खोने को कुछ है भी नहीं। खुद को सफल होने की ख़ुशी😊 और वो पल जब आपका चित्र किसी की मोबाईल स्क्रीन पर चमक रहा हो ..... "सहसा वह रोमांच से भर उठा।"..ये रोमांच कोई कम हैं के??
*******
आदरणीय अनिल जी को उपरोक्त दोनों कथाओं के बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

मेरी समझ - लघुकथा समीक्षा (समीक्षक - रजनीश दीक्षित, लघुकथा लेखक - अनवर सुहैल साहब)

'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं जनाब अनवर सुहैल साहब। आज उनकी तीन लघुकथाओं 'फ़र्क़', 'एक नसीहत और...' और 'छह दिसम्बर के बाद' पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

लेखक - अनवर सुहैल
लघुकथा - फ़र्क़
प्रस्तुत लघुकथा में देश और समाज में व्याप्त धर्म व जाति आधारित भेदवाव और छुआछूत जैसी कुरीतियों को अनवर जी ने बड़े ही मार्मिक ढंग से उकेरा है। हालांकि इन कुरीतियों का आज बहुत हद तक खात्मा हो गया है लेकिन हमारे समाज की समस्या है कि लोग नेताओं की कठपुतली बने हुए हैं। इन समस्याओं को दो तरह से देखना होगा। एक वास्तविक समाज की दृष्टि से और एक सोशल मीडिया पर छाए कृत्रिम वातावरण की दृष्टि से।
अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वास्तविक स्थिति इतनी खराब नहीं है जितनी लेखक ने बताने की कोशिश की है। आज समाज में जातिवाद और धर्म पर आधारित भेदभाव अपना अस्तित्व खो रहा है और बहुत हद तक खो चुका है। लोग जाति और धर्म की दीवारों को ढहाकर आपस में विभिन्न जातियों और धर्मों में विवाह कर रहे हैं, एक साथ बहुमंजिला इमारतों में रह रहे हैं, एक ही स्कूल/विश्विद्यालय में अध्ययन कर रहे हैं।
हाँ, इसका दूसरा, गलत और कृत्रिम पक्ष भी है जो कि सोशल मीडिया पर राजनैतिक सोच के लोगों ने जरूर बनाया हुआ है। इस तरह के माहौल का सीधा सा संबंध उनके अपने फायदे के लिए किया जाता है। इस बात को सामान्य लोगों को भी समझना होगा और जाति-धर्म पर आधारित संगठनों की गंदी और बांटने वाली सोच का हिस्सा बनने से बचना होगा।

दुर्भाग्य से हमारे देश की राजनीति उसके असल मुद्दों पर अधिकांश समय चली ही नहीं। हमारे अधिकतर राजनेताओं ने खुद को विभिन्न जातियों, धर्मों का खुद को ठेकेदार बताकर उनका दोहन किया। उनके वोट तो हड़पते रहे लेकिन लोगों को उनके मूलभूत अधिकारों से उन्हें वंचित रखकर उनकी भावनाओं से खेलकर सिर्फ अपने परिवारों की ही तिजोरियां भरी हैं।
आम जनमानस को राजनैतिक पार्टियों के इस प्रपंच को जितना जल्दी हो समझ लेना चाहिए और उनसे अपने मूलभूत अधिकारों की मांग करना चाहिए। जबतक हम राजनीति के सिर्फ मोहरे बने रहेंगे ये हमें बाँटते रहेंगे। इस पर रोक हमें ही लगानी होगी और हम जितनी जल्दी और रफ्तार से काम करें उतना बेहतर।
ऐसा प्रतीत होता है कि अनवर साहब ने उक्त लघुकथा को वास्तविक स्थिति से इतर प्राचीन काल में व्याप्त कुरीतियों और कृत्रिम रूप से सोशल मीडिया पर चलाये जा रहे छद्म माहौल से लिया है। सम्भव है कि लेखक के अपने अनुभव मेरी उक्त टिप्पणी से मेल न भी खाते हों।
*******
लेखक - अनवर सुहैल
लघुकथा - एक नसीहत और...

इस लघुकथा में भी अनवर साहब ने उनकी पहली लघुकथा वाले 'भेदभाव' वाले विषय को ही आगे बढ़ाया है। बुजर्गों के अपने अनुभव होते हैं और उनकी किसी भी नसीहत में अपनों की भलाई ही छुपी रहती है। लेकिन कोई भी नसीहत झूठ के आधार पर कितनी टिक पाती है, इस बात का ख्याल भी बुजुर्गों को ध्यान में रखना चाहिए।
प्रस्तुत लघुकथा में अहमद के अब्बा ने उसे नसीहत दे तो दी कि यदि उसका नाम पूछा जाए तो "अरविंद, रमेश, महेश आदि बता दे" लेकिन उन्होंने शायद यह ध्यान नहीं दिया कि यदि उसका यह झूठ पकड़ा जाता है तो उसे अनावश्यक रूप से लोगों के शक का सामना करना पड़ सकता है।
जैसा कि मैंने फ़र्क़ के कथानक पर भी लिखा था, यह कथा भी फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर बनाये गए कृत्रिम माहौल पर आधारित है। यह देश और समाज की वास्तविक तस्वीर नहीं हो सकती।
*******
लेखक - अनवर सुहैल
लघुकथा - छह दिसम्बर के बाद

इस लघुकथा में भी अनवर साहब ने कमोवेश उसी धर्माधारित विषय को चुना। जैसा कि मैंने उपर्युक्त दो लघुकथाओं के बारे में लिखा है 'छ्ह दिसम्बर के बाद' का कथानक भी आज के 26 साल पहले की घटना पर आधारित है जिसका आज के बदले माहौल से ज्यादा पास का नाता नहीं है।
इसके इतर वास्तविक स्थिति तो यह है कि देश बहुत आगे बढ़ चुका है। भेदभाव की दीवारें दरक रही हैं। लोगों ने बाँटने वाली ताकतों और बातों से मुंह मोड़ना शुरू कर दिया है। 
लोगों ने समझ लिया है कि -

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा। 
- इकबाल

लोग अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की तलाश में बेहतर विकल्प तलाश कर रहे हैं। हमारी कामना है कि हम सब देशवासी मिलजुल कर इन बची-खुची कुरीतियों, ऊंच-नीच आदि को जल्दी ही जड़ से खत्म कर देंगे....इंशाअल्लाह।
उपरोक्त तीनों लघुकथाओं के लिए जनाब अनवर हुसैल साहब को बहुत बहुत मुबारकबाद।