'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय रतन राठौड़ जी। आज उनकी लघुकथा "बर्फ जैसे बाल" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:
लेखक - रतन राठौड़ जी
लघुकथा - बर्फ जैसे बाल
शब्द_संख्या - 507
...पुरानी बात है कि "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" और जो नियम प्राकृतिक होते हैं उन्हें किसी छद्म आवरण से न तो बदला जा सकता है और न ही टाला जा सकता है। वह अलग बात है कि अपना मन रखने के लिए, जानबूझकर स्वयं से ही लुका छिपी का खेल खेला जाए। प्रकृति के नियम सब पर समान रूप से लागू होते हैं। क्या जड़ क्या चेतन? क्या महिला, क्या पुरुष?
इसी नियम पर आधारित प्रस्तुत कथा में व्यक्ति के उम्र के साथ होने वाले एक प्रमुख शारीरिक बदलाव को एक नये नजरिये से प्रस्तुति मिली और मुझे उससे दो-चार होने का अवसर मिला।
...तो प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में बदलाव कुछ कहते हैं? क्या असलियत में इन बदलावों के कुछ मायने होते हैं? इसी प्रकार के कई प्रश्न पैदा कर दिए इस लघुकथा ने। इसे लेखक की वैचारिक धनाढ्यता या अमीरी ही कहा जायेगा कि उन्होंने बालों की सफेदी को बर्फ से तौल डाला और उससे आते हुए संदेशों को सुना, समझा।
जी, वही बर्फ, जिससे शीतलता और ठंडक का एहसास होता है। इस कथा में कथा के नायक का संवाद भी एक शीशे यानी दर्पण से कराया गया है। यह दर्पण भी वह किरदार है जो हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। शायद ही कोई इंसान होगा जिसका रोजमर्रा की जिंदगी में शीशे से पाला न पड़ता हो। यह तो वह हमसफ़र सरीखा है जिसने अपने जेहन में हमारे कितने ही राज समेटे होते हैं। और जब मैं यहाँ राज समेटने की बात कहता हूँ तो वह केवल बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक भावों को भी शामिल करना चाहता हूँ। ये शीशा तो हमारी भाव भंगिमाओं कोे रोज-रोज पढ़ा करता है। कभी तो ख्याल आता है कि अच्छा ही है कि इसमें जबान नहीं है। नहीं तो इसे संभालना भी मुश्किल का ही सबब था। फिर दूसरे ही पल भाव भंगिमा वाली बात से ख्याल आया कि काश! इसके जबान होती तो शायद एक अच्छे दोस्त का काम भी करता। यदि मुझे कभी उदास देखता तो हाल पूछ लेता, कभी जरूरत पड़ती तो कोई सलाह ही दे देता या सांत्वना देता। कभी कुछ मेरी सुनता, कभी अपनी सुनाता। खैर....
....तो फिर विवेक बाबू से जब प्रश्न पूछा गया तो वह तो सहम उठे और सकते में आ गए। स्वाभाविक सी बात है कि कोई भी व्यक्ति उस व्यक्ति के प्रश्न सुनना पसंद नहीं करता है जिसे उसने स्वयं पाला हो या उसके होने में उसी का सौजन्य हो। लेकिन आप कब तक किसी की बात को अनसुना करेंगे। सच बात को सभी को एक न एक दिन सुनना ही पड़ता है। और अगर उस सही बात में जीवन के मूल्यों का निचोड़ हो तो फिर तो नकारा भी नहीं जा सकता।
...बालों का रंगना, स्वयं को केवल जवान दिखाने का ही उपक्रम मात्र नहीं है। बल्कि इसमें निहित हैं और भी कई उद्देश या और स्पष्ट कहें तो 'दुर्गुण'। क्योंकि व्यक्ति के अंदर इसका पूरा वैचारिक तंत्र निहित है जो एक चाह से शुरू होकर कई चरणों और पड़ावों से होकर गुजरता है और कहीं अन्य जाकर रुकता है।
अब रचना पर ध्यान दें। विवेक बाबू से संवाद के दौरान आईने ने सबसे पहले सिर के बालों की तुलना बर्फ से की। बकौल आईना, "सिर के ऊपर उगी सफेद बर्फ यानी बालों को काला करके सिर्फ जवान दिखने तक की ही मंशा नहीं है। यहाँ उसके बाद कड़ी जुड़ती है व्यक्ति के क्रोध बढ़ने की। यानी बाल काले करने और जवान दिखने के साथ, समानांतर रूप से क्रोध भी बढ़ता है क्योंकि कहीं न कहीं परोक्ष रुप से जवानी और क्रोध का सुलभ साथ प्राकृतिक और स्वाभाविक है।
अब आईने के दिए संदेशों पर नजर डालें। उसने इस बर्फ अर्थात सफेद बालों के जरिये जो बातें कही हैं, वे बहुत संदेशपरक और काबिले तारीफ हैं। सिर पर सफेद बालों का सन्देश है कि आप शांत रहें, आराम से सोचें और क्रोध से बचें। भौंहों के सफेद बाल नजरों में करुणा और प्रेम के भाव रखने का संदेश दे रहे हैं। मूछों की सफेदी मीठा बोलने और सीने की सफेदी दिल के क्रोध को शांत रखने की बात कहती है, धैर्य रखने का संदेश देती है और किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना से दूर रहने की सलाह देती है।
....और फिर कहते हैं न कि कभी-कभी छोटे मुंह बड़ी बात हो ही जाती है। अंत में दर्पण ने कहते-कहते आखिरी संदेश भी स्पष्ट कर दिया। उसने कहा कि अब जब इस सफेदी के आगोश में आपका पूरा शरीर आ ही गया है तो सारे शरीर की सफेदी या बर्फीली ठंडक से अपनी "वासना की आग" को भी शांत करें।
...लेखक ने कथा का अंत बड़े ही रोचक ढंग से किया है। आईने ने अपने संदेश का अंतिम वाक्य पूरा किया और टूट गया। क्योंकि संभवतः वह अपना लक्ष्य भेद चुका था। हालांकि लेखक अगर यहाँ शीशे को सलामत भी रखता तो रचना पर कोई प्रतिकूल फर्क तो नहीं पड़ता लेकिन पाठकों को शायद उतना रोचक न लगता। यह और कुछ नहीं अपितु लेखकीय कौशल्य का एक नमूना है कि रचना को "चटकाकर" कैसे अच्छा अंत दिया जाये। निश्चित ही ऐसी रचना के लिए नए तरीके की दृष्टि चाहिए। रचना में संवाद शैली भी बड़ी प्राकृतिक सी है जिससे यह अनुभव नहीं होता है कि यह सजीव और निर्जीव के बीच की बात है।
...वैसे सरसरी तौर पर कथा में लयबद्धता है और कहीं किसी प्रकार का झोल नजर नहीं आता है लेकिन जब पाठक थोड़ा गौर करता है तो थोड़ी संशय और असमंजस की स्थिति बनती है।
कथा के शुरुआत में ही विवेक बाबू से पूछे गए प्रश्न में भ्रम और विरोधभास लगा। 'भ्रम' इस बात का कि लेखक ने लिखा है कि - अक्स बोल उठा कि, "आइए, आइए विवेक बाबू। कैसे हैं? बड़े दिनों बाद आई याद हमारी?".... और बाद में जब बात खरीदने की आई तो लगता है यह प्रश्न अक्स ने नहीं, शीशे ने किया था। यह इसलिए और कि बाद की रचना में स्पष्टतः आईने से बात हुई है।
दूसरा, 'विरोधाभास' इसलिए लगा कि विवेक बाबू जैसा व्यक्ति जो सफेद बालों को कृत्रिम रूप से काला करना चाहता है और जवान दिखना चाहता है, वह शीशे को "बड़े दिनों बाद" क्यों याद करेगा? उसका तो रोज ही और दिन में कई-कई बार, सँवरने का उपक्रम चलता रहता होगा। वैसे भी, शीशा तो आम वस्तु है जिसे शायद ही कोई कई दिनों के अंतराल के बाद प्रयोग करता हो। ..और यहाँ तो रंगीले विवेक बाबू की बात है। वह भला शीशे के बिना कहाँ सब्र करने वाले।
मैं रतन राठौड़ जी को इस लघुकथा को लिखने के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। प्रस्तुत कथा की सफेदी उर्फ बर्फ से एक बात याद आयी। फेसबुक पर लघुकथा विषयक विवाद आजकल आम हो चले हैं। क्यों न हम सब लोग इस कथा को पढ़ें, गुनें और सिर के बालों की सफेदी के संदेश को अनुसरण करें, क्रोध को त्याग दें, अच्छा सोचें, शांत रहें और शांति व सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने में सहयोग दें...। मुझे विश्वास है कि सबको लाभ मिलेगा।